भग्न वीणा - रामधारी सिंह 'दिनकर' Bhagna Veena Ramdhari Singh Dinkar

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हिंदी कविता

भग्न वीणा रामधारी सिंह 'दिनकर'
Bhagna Veena Ramdhari Singh Dinkar

निवेदन - रामधारी सिंह 'दिनकर'

मैंने अपने आपको
क्षमा कर दिया है।
बन्धु, तुम भी मुझे क्षमा करो।
मुमकिन है, वह ताजगी हो,
जिसे तुम थकान मानते हो।
ईश्वर की इच्छा को
न मैं जानता हूँ,
न तुम जानते हो।
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राम, तुम्हारा नाम - रामधारी सिंह 'दिनकर'

राम, तुम्हारा नाम कंठ में रहे,
हृदय, जो कुछ भेजो, वह सहे,
दुख से त्राण नहीं माँगूँ।
 
माँगू केवल शक्ति दुख सहने की,
दुर्दिन को भी मान तुम्हारी दया
अकातर ध्यानमग्न रहने की।
 
देख तुम्हारे मृत्यु दूत को डरूँ नहीं,
न्योछावर होने में दुविधा करूँ नहीं।
तुम चाहो, दूँ वही,
कृपण हौ प्राण नहीं माँगूँ।

संपाती - रामधारी सिंह 'दिनकर'

तुम्हें मैं दोष नहीं देता हूँ।
सारा कसूर अपने सिर पर लेता हूँ।
 
यह मेरा ही कसूर था
कि सूर्य के घोड़ों से होड़ लेने को
मैं आकाश में उड़ा।
 
जटायु मुझ से ज्यादा होशियार निकला
वह आधे रास्तें में ही लौट आया।
 
लेकिन मैं अपने अहंकार में
उड़ता ही गया
और जैसे ही सूर्य के पास पहुँचा,
मेरे पंख जल गये।
 
मैंने पानी माँगा।
पर दूर आकाश में
पानी कौन देता है ?
 
सूर्य के मारे हुए को
अपनी शरण में
कौन लेता है ?
 
अब तो सब छोड़कर
तुम्हारे चरणों पर पड़ा हूँ।
मन्दिर के बाहर पड़े पौधर के समान
तुम्हारे आँगन में धरा हूँ।
 
तुम्हें मैं कोई दोष नहीं देता स्वामी !
‘‘आमि आपन दोषे दुख पाइ
वासना-अनुगामी।’’

चिट्ठियां - रामधारी सिंह 'दिनकर'

चिट्ठियां तो बहुत सारी आयी थीं ।
मगर, खबरें जुगायीं नहीं ।
 
क्या पता था कि दुनिया
एक दिन यह हाल भी पूछेगी,
जिनका कोई जवाब नहीं,
ऐसे सवाल भी पूछेगी?
 
सवाल उनका, जो सब कुछ
लूट कर चले गये ।
यानी यह बात कि यार,
तुम कैसे छले गये ?
 
चाँद के बुलावे पर प्रकाश में घूमने की बात !
सितारों की महफिल में बैठ कर झूमने की बात !
 
बात वह जिसके किनारे तेज धार होती है ।
जरा-सा चूके नहीं
कि कलेजे के आर-पार होती है ।
 
अपनी चिता आप बना कर
उस पर सोने की बात,
जिस दर्द को कोई न समझे,
उससे कराहने और रोने की बात ।
 
तारों से जो धूल झरती है,
उसे, दोने में सजाता हूँ।
इतिहास में लीक नहीं,
छाँह छोड़े जाता हूँ।

निस्तैल पात्र - रामधारी सिंह 'दिनकर'

एक वक्त ऐसा आता है,
जब सब कुछ झूठ हो जाता है,
सब असत्य,
सब पुलपुला,
सब कुछ सुनसान ।

मानो, जो कुछ देखा या, इन्द्रजाल था ।
मानो, जो कुछ सुना था, सपने की कहानी यी।
 
जिन्दगी को जितना ही गहरा खोदता हूँ
उतनी ही दुर्गन्ध आती है ।
मानो, मैं कोई और हूँ
और यह जिन्दगी किसी और ने जी हो।
 
मगर, अब तो खुशबू बसाने का समय नहीं है ।
सूरज पश्चिम की ओर ढल रहा है।
गरचे चिता अभी जली नहीं है,
मगर जिन्दगी से धुआँ निकल रहा है ।
 
करम खुदा का!
बन्दे, तुझे वया ग़म है?
तेल की हाँडी निस्तैल हो कर फूटे,
यह क्या कम है?

रहस्य और विज्ञान - रामधारी सिंह 'दिनकर'

इतना जिया कि जीते-जीते
सारी बात भूल गया।
 
शब्दों के कुछ निश्चित अर्थ
मैंने भी सीखे थे ।
और उन अर्थों पर मुझे भी नाज था ।
और नहीं, तो उतने ज़ोर से
बोलने का क्या राज़ था?
 
स्त्रियों के बाल मुझे भी
रेशम-से दिखायी देते थे ।
और चाँद की ओर आँखें किये
मैं सारी रात जगता था।
सच तो यह है कि सितारों से
चाँदी के घुंघुरुंओं की आवाज़ आती थी।
और चाँद मुझे औरत के
मुंह-जैसा लगता था ।
 
सोचता था, प्रकृति के पीछे कोई विद्यमान है,
जो मेरा प्रेमी और सखा है ।
[देखा-देखी रहस्यवाद का मज़ा
थोड़ा-बहुत मैंने भी चखा है ।]
 
मगर विज्ञान ने सारी बातें
तितर-बितर कर दीं ।
और विज्ञान से मेरा कुछ मतभेद है ।
 
गरचे मुझे खेद है
कि न तो मैं विज्ञान को समझता हूँ
न विज्ञान मुझे समझ पाता है ।
 
ऐसे में गुरो!
केवल आपका नाम याद आता है।

कविता और विज्ञान - रामधारी सिंह 'दिनकर'

हम रोमांटिक थे;
हवा में महल बनाया करते थे ।
चाँद के पास हमने एक नीड़ बसाया था,
मन बहलाने को हम उसमें आया-जाया करते थे ।
 
लेकिन तुम हमसे ज्यादा होशियार होना,
कविता पढ़ने में समय मत खोना ।
पढ़ना ही हो, तो बजट के आंकड़े पढ़ो।
वे ज्यादा सच्चे और ठोस होते हैं ।
 
अगर तुम यह समझते हो
कि तुम केवल शरीर नहीं,
आत्मा भी हो,
तो यह अनुभूति तुम्हें,
तकलीफ में डालेगी ।
जो सभ्यता अदृश्य को नहीं मानती,
वह आत्मा को कैसे पालेगी?
 
विज्ञान की छड़ी जहाँ तक पहुंची है,
बुद्धि सत्य को वहीं तक मानती है।
मशीनों को लाख समझाओ,
वे आत्मा को नहीं पहचानती हैं ।
 
सांख्यिकी बढ़ती पर है,
दर्शन की शिखा मन्द हुई जाती है ।
हवा में बीज बोने वाले हंसी के पात्र हैं,
कवि और रहस्यवादी होने की राह
बन्द हुई जाती है।

नेमत - रामधारी सिंह 'दिनकर'

कविता भक्ति की लिखूँ
या श्रृंगार की,
सविता एक ही है,
जो शब्दों में जलता है ।
 
अक्षर चाहे जो भी उगें,
कलम के भीतर
भगवान मौजूद रहते हैं ।
 
दूसरों से मुझे जो कुछ कहना है,
वह बात प्रभु पहले
मुझसे कहते हैं।
 
करुण काव्य लिखते समय
कवि पीछे रोता है,
भगवान पहले रोते हैं ।
 
क्रोध की कविता
भगवान का भौं चढ़ाना है।
 
और प्रशंसा नर की करो
या नारी की,
भगवान नाराज नहीं,
खुश होते हैं ।
 
होता सबसे बड़ा तो नहीं,
फिर भी अच्छा वरदान है ।
 
मगर मालिक की अजब शान है।
 
जिसे भी यह वरदान मिलता है,
उसे जीवन भर पहाड़ ढोना पड़ता है।
एक नेमत के बदले
अनेक नेमतों से हाथ शोना पड़ता है ।

रक्षा करो देवता - रामधारी सिंह 'दिनकर'

रक्षा करो ! रक्षा करो !
देवता! हमारा क्या गुनाह है?
तीन ककारों में पड़ी दुनिया तबाह है ।
 
संसार तुमने बहुत सोच-समझ कर रचा है ।
मगर, एक-एक से पूछ कर देख लो,
कामिनी, कंचन और कीर्ति से कौन बचा है !
 
मुनियों ने मेनका को गोद में बिठाया ।
राजाओं ने कंगालों का कोष चुराया ।
 
और कीर्ति?
यह चश्मा तो सर्वत्र उबलता है ।
शहीद शहीद की जड़ खोदते हैं
और एक साधु दूसरे साधु से जलता है ।
 
सच है कि कामिनी काल पा कर छूट जाती है ।
 
लेकिन कंचन और कीर्ति ?
रक्षा को, रक्षा करो देवता ।
जब तक जीवित हैं,
कुछ न कुछ खाना ही पड़ेगा ।
जितने अच्छे हैं,
उससे ज्यादा बताना ही पड़ेगा ।

बच्चे - रामधारी सिंह 'दिनकर'

जी चाहता है, सितारों के साथ
कोई सरोकार कर लूँ।
जिनकी रोशनी तक हाथ नहीं पहुंचते,
उन्हें दूर से प्यार का लूँ।
 
जी चाहता है, फूलों से कहुँ
यार ! बात करो ।
रात के अँधेरे में यहाँ कौन देखता है,
जो अफवाह फैलायेगा
कि फूल भी बोलते हैं,
अगर कोई दर्द का मारा मिल जाये,
तो उससे अपना भेद खोलते हैं?
 
आदमी का मारा आदमी
कुत्ते पालता है ।
मगर, मैं घबरा कर
बच्चों के पास जाना चाहता हूँ
जहाँ निर्द्वन्द्व हो कर बोलूँ
गाऊँ, चुहलें मचाऊँ
और डोलूँ।
 
बूढ़ों का हलकापन
बूढ़ों को पसन्द नहीं आता है ।
मगर, बच्चे उसे प्यार करते हैं ।
भगवान की कृपा है
कि वे अभी गंभीरता से डरते हैं ।

सूर्य - रामधारी सिंह 'दिनकर'

सूर्य, तुम्हें देखते-देखते
मैं वृद्ध हो गया ।
 
लोग कहते हैं,
मैंने तुम्हारी किरणें पी हैं,
तुम्हारी आग को
पास बैठ का तापा है ।
 
और अफवाह यह भी है
कि मैं बाहर से बली
और भीतर से समृद्ध हो गया ।
 
मगर राज़ की बात कहुँ,
तो तुम्हें कलंक लगेगा।
 
ताकत मुझे अब तुमसे नहीं,
अंधकार से मिलती है।
जहाँ तक तुम्हारी किरणें
नहीं पहुंचतीं,
उस गुफा के हाहाकार से मिलती है।

कविता और आत्मज्ञान - रामधारी सिंह 'दिनकर'

कविता क्या है ?
महर्षि रमण ने कहा ।
मानसिक शक्तियों का मन्थन कर
कीर्ति उत्पन्न करना,
मन में जो आकृतियां घूम रही हैं,
उन्हें निकाल कर
बाहर के अवकाश को भरना।
 
किन्तु, आत्मज्ञान की राह में
इस शक्ति को भी सोना पड़ेगा ।
 
यानी कवि को भी अकवि होना पड़ेगा ।

खोज - रामधारी सिंह 'दिनकर'

खोजियो, तुम नहीं मानोगे,
लेकिन संतों का कहना सही है ।
जिस घर में हम घूम रहे हैं,
उससे निकलने का रास्ता नहीं है ।
 
शून्य औए दीवार, दोनों एक हैं ।
आकार और निराकार, दोनों एक हैं ।
 
जिस दिन खोज शांत होगी,
तुम आप-से-आप यह जानोगे
 
कि खोज पाने की नहीं,
खोने की थी ।
यानी तुम सचमुच में जो हो,
वही होने की थी ।

कुंजी - रामधारी सिंह 'दिनकर'

घेरे था मुझे तुम्हारी साँसों का पवन,
जब मैं बालक अबोध अनजान था।
 
यह पवन तुम्हारी साँस का
सौरभ लाता था।
उसके कंधों पर चढ़ा
मैं जाने कहाँ-कहाँ
आकाश में घूम आता था।
 
सृष्टि शायद तब भी रहस्य थी।
मगर कोई परी मेरे साथ में थी;
मुझे मालूम तो न था,
मगर ताले की कूंजी मेरे हाथ में थी।
 
जवान हो कर मैं आदमी न रहा,
खेत की घास हो गया।
 
तुम्हारा पवन आज भी आता है
और घास के साथ अठखेलियाँ करता है,
उसके कानों में चुपके चुपके
कोई संदेश भरता है।
 
घास उड़ना चाहती है
और अकुलाती है,
मगर उसकी जड़ें धरती में
बेतरह गड़ी हुईं हैं।
इसलिए हवा के साथ
वह उड़ नहीं पाती है।

शक्ति जो चेतन थी,
अब जड़ हो गयी है।
बचपन में जो कुंजी मेरे पास थी,
उम्र बढ़ते बढ़ते
वह कहीं खो गयी है।

परंपरा - रामधारी सिंह 'दिनकर'

परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है
जो जीवित है
जीवन दायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है
 
पानी का छिछला होकर
समतल में दौड़ना
यह क्रांति का नाम है
लेकिन घाट बांध कर
पानी को गहरा बनाना
यह परम्परा का नाम है
 
परम्परा और क्रांति में
संघर्ष चलने दो
आग लगी है, तो
सूखी डालों को जलने दो
 
मगर जो डालें
आज भी हरी हैं
उन पर तो तरस खाओ
मेरी एक बात तुम मान लो
 
लोगों की आस्था के आधार
टूट जाते हैं
उखड़े हुए पेड़ो के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते हैं
 
परम्परा जब लुप्त होती है
सभ्यता अकेलेपन के
दर्द मे मरती है
कलमें लगना जानते हो
तो जरुर लगाओ
मगर ऐसी कि फलो में
अपनी मिट्टी का स्वाद रहे
 
और ये बात याद रहे
परम्परा चीनी नहीं मधु है
वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम

गाँधी - रामधारी सिंह 'दिनकर'

देश में जिधर भी जाता हूँ,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ
"जड़ता को तोड़ने के लिए
भूकम्प लाओ ।
घुप्प अँधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ ।
पूरे पहाड़ हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो ।
कोई तूफ़ान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो !"
 
सोचता हूँ, मैं कब गरजा था ?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था ।
 
तब भी हम ने गाँधी के
तूफ़ान को ही देखा,
गाँधी को नहीं ।
 
वे तूफ़ान और गर्जन के
पीछे बसते थे ।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफ़ान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे ।

तूफ़ान मोटी नहीं,
महीन आवाज़ से उठता है ।
वह आवाज़
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है ।
 
गाँधी तूफ़ान के पिता
और बाजों के भी बाज थे ।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।

लेन-देन - रामधारी सिंह 'दिनकर'

लेन-देन का हिसाब
लंबा और पुराना है।
 
जिनका कर्ज हमने खाया था,
उनका बाकी हम चुकाने आये हैं।
और जिन्होंने हमारा कर्ज खाया था,
उनसे हम अपना हक पाने आये हैं।
 
लेन-देन का व्यापार अभी लंबा चलेगा।
जीवन अभी कई बार पैदा होगा
और कई बार जलेगा।
 
और लेन-देन का सारा व्यापार
जब चुक जायेगा,
ईश्वर हमसे खुद कहेगा -
 
तुम्हारा एक पावना मुझ पर भी है,
आओ, उसे ग्रहण करो।
अपना रूप छोड़ो,
मेरा स्वरूप वरण करो।

भगवान के डाकिए - रामधारी सिंह 'दिनकर'

पक्षी और बादल,
ये भगवान के डाकिए हैं
जो एक महादेश से
दूसरें महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं
मगर उनकी लाई चिट्ठियाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड़
बाँचते हैं।
 
हम तो केवल यह आँकते हैं
कि एक देश की धरती
दूसरे देश को सुगंध भेजती है।
और वह सौरभ हवा में तैरते हुए
पक्षियों की पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश में पानी
बनकर गिरता है।

शोक की संतान - रामधारी सिंह 'दिनकर'

हृदय छोटा हो,
तो शोक वहां नहीं समाएगा।
और दर्द दस्तक दिये बिना
दरवाजे से लौट जाएगा।
टीस उसे उठती है,
जिसका भाग्य खुलता है।
वेदना गोद में उठाकर
सबको निहाल नहीं करती,
जिसका पुण्य प्रबल होता है,
वह अपने आसुओं से धुलता है।
तुम तो नदी की धारा के साथ
दौड़ रहे हो।
उस सुख को कैसे समझोगे,
जो हमें नदी को देखकर मिलता है।
और वह फूल
तुम्हें कैसे दिखाई देगा,
जो हमारी झिलमिल
अंधियाली में खिलता है?
हम तुम्हारे लिये महल बनाते हैं
तुम हमारी कुटिया को
देखकर जलते हो।
युगों से हमारा तुम्हारा
यही संबंध रहा है।
हम रास्ते में फूल बिछाते हैं
तुम उन्हें मसलते हुए चलते हो।
दुनिया में चाहे जो भी निजाम आए,
तुम पानी की बाढ़ में से
सुखों को छान लोगे।
चाहे हिटलर ही
आसन पर क्यों न बैठ जाए,
तुम उसे अपना आराध्य
मान लोगे।
मगर हम?
तुम जी रहे हो,
हम जीने की इच्छा को तोल रहे हैं।
आयु तेजी से भागी जाती है
और हम अंधेरे में
जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं।
असल में हम कवि नहीं,
शोक की संतान हैं।
हम गीत नहीं बनाते,
पंक्तियों में वेदना के
शिशुओं को जनते हैं।
झरने का कलकल,
पत्तों का मर्मर
और फूलों की गुपचुप आवाज़,
ये गरीब की आह से बनते हैं।

अवकाश वाली सभ्यता - रामधारी सिंह 'दिनकर'

मैं रात के अँधेरे में
सिताओं की ओर देखता हूँ
जिन की रोशनी भविष्य की ओर जाती है
 
अनागत से मुझे यह खबर आती है
की चाहे लाख बदल जाये
मगर भारत भारत रहेगा
 
जो ज्योति दुनिया में
बुझी जा रही है
वह भारत के दाहिने करतल पर जलेगी
यंत्रों से थकी हुयी धरती
उस रोशनी में चलेगी
 
साबरमती, पांडिचेरी, तिरुवन्न मलई
ओर दक्षिणेश्वर,
ये मानवता के आगामी
मूल्य पीठ होंगे
जब दुनिया झुलसने लगेगी,
शीतलता की धारा यहीं से जाएगी
 
रेगिस्तान में दौड़ती हुयी सन्ततियाँ
थकने वाली हैं
वे फिर पीपल की छाया में
लौट आएँगी
 
आदमी अत्यधिक सुखों के लोभ से ग्रस्त है
यही लोभ उसे मारेगा
मनुष्य और किसी से नहीं,
अपने आविष्कार से हारेगा
 
गाँधी कहते थे,
अवकाश बुरा है
आदमी को हर समय
किसी काम में लगाये रहो
जब अवकाश बढ़ता है ,
आदमी की आत्मा ऊंघने लगती है
उचित है कि ज्यादा समय
उसे करघे पर जगाये रहो
 
अवकाशवाली सभ्यता
अब आने ही वाली है
आदमी खायेगा , पियेगा
और मस्त रहेगा
अभाव उसे और किसी चीज़ का नहीं ,
केवल काम का होगा
वह सुख तो भोगेगा ,
मगर अवकाश से त्रस्त रहेगा
दुनिया घूमकर
इस निश्चय पर पहुंचेगी
 
कि सारा भार विज्ञान पर डालना बुरा है
आदमी को चाहिए कि वह
ख़ुद भी कुछ काम करे
हाँ, ये अच्छा है
कि काम से थका हुआ आदमी
आराम करे

माध्यम - रामधारी सिंह 'दिनकर'

मैं माध्यम हूँ, मौलिक विचार नहीं,
कनफ़्युशियस ने कहा ।
 
तो मौलिक विचार कहाँ मिलते हैं,
खिले हुए फूल ही
नए वृन्तों पर
दुबारा खिलते हैं ।
 
आकाश पूरी तरह
छाना जा चुका है,
जो कुछ जानने योग्य था,
पहले ही जाना जा चुका है ।
 
जिन प्रश्नों के उत्तर पहले नहीं मिले,
उनका मिलना आज भी मुहाल है ।

चिंतकों का यह हाल है
कि वे पुराने प्रश्नों को
नए ढंग से सजाते हैं
और उन्हें ही उत्तर समझकर
भीतर से फूल जाते हैं ।
मगर यह उत्तर नहीं,
प्रश्नों का हाहाकार है ।
जो सत्य पहले अगोचर था,
वह आज भी तर्कों के पार है ।

स्वर्ग - रामधारी सिंह 'दिनकर'

स्वर्ग की जो कल्पना है,
व्यर्थ क्यों कहते उसे तुम?
धर्म बतलाता नहीं संधान यदि इसका?
स्वर्ग का तुम आप आविष्कार कर लेते।

पर्वतारोही - रामधारी सिंह 'दिनकर'

मैं पर्वतारोही हूँ।
शिखर अभी दूर है।
और मेरी साँस फूलनें लगी है।
 
मुड़ कर देखता हूँ
कि मैनें जो निशान बनाये थे,
वे हैं या नहीं।
मैंने जो बीज गिराये थे,
उनका क्या हुआ?
 
किसान बीजों को मिट्टी में गाड़ कर
घर जा कर सुख से सोता है,
 
इस आशा में
कि वे उगेंगे
और पौधे लहरायेंगे ।
उनमें जब दानें भरेंगे,
पक्षी उत्सव मनानें को आयेंगे।
 
लेकिन कवि की किस्मत
इतनी अच्छी नहीं होती।
वह अपनें भविष्य को
आप नहीं पहचानता।
 
हृदय के दानें तो उसनें
बिखेर दिये हैं,
मगर फसल उगेगी या नहीं
यह रहस्य वह नहीं जानता ।

करघा - रामधारी सिंह 'दिनकर'

हर ज़िन्दगी कहीं न कहीं
दूसरी ज़िन्दगी से टकराती है।
हर ज़िन्दगी किसी न किसी
ज़िन्दगी से मिल कर एक हो जाती है ।
 
ज़िन्दगी ज़िन्दगी से
इतनी जगहों पर मिलती है
कि हम कुछ समझ नहीं पाते
और कह बैठते हैं यह भारी झमेला है।
संसार संसार नहीं,
बेवकूफ़ियों का मेला है।
 
हर ज़िन्दगी एक सूत है
और दुनिया उलझे सूतों का जाल है।
इस उलझन का सुलझाना
हमारे लिये मुहाल है ।

मगर जो बुनकर करघे पर बैठा है,
वह हर सूत की किस्मत को
पहचानता है।
सूत के टेढ़े या सीधे चलने का
क्या रहस्य है,
बुनकर इसे खूब जानता है।
 

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