Hindi Kavita
हिंदी कविता
आत्मा की आँखें अनुवाद-रामधारी सिंह 'दिनकर'
Aatma Ki Aankhen Ramdhari Singh Dinkar
प्रार्थना - रामधारी सिंह 'दिनकर'
मेरे पाँव के पास चाँदनी बिछाओ भगवान !
किसी महाराजा के समान ।
टखने डूबे हों चाँदनी में,
मेरे मोजे मुलायम,चमकदार हों ;
और मेरे मस्तक पर
चाँदनी की झरती फुहार हो ।
शीतलता पर इतराऊँ, चमक पर मचलूँ
चाँदनी में तैरता हुआ मंजिल की ओर चलूँ ।
क्योंकि सूरज काल हो गया है ।
उसका चेहर शेर के समान लाल हो गया है ।
एकान्त - रामधारी सिंह 'दिनकर'
लोग अकेलेपन की शिकायत करते हैं ।
मैं समझ नहीं पाता ,
वे किस बात से डरते हैं ।
अकेलापन तो जीवन का चरम आनन्द है ।
जो हैं निःसंग,
सोचो तो, वही स्वच्छंद है ।
अकेला होने पर जगते हैं विचार;
ऊपर आती है उठकर
अंधकार से नीली झंकार ।
जो है अकेला,
करता है अपना छोटा-मोटा काम,
या लेता हुआ आराम,
झाँक कर देखता है आगे की राह को,
पहुँच से बाहर की दुनिया अथाह को;
तत्वों के केन्द्र-बिन्दु से होकर एकतान
बिना किसी बाधा के करता है ध्यान
विषम के बीच छिपे सम का,
अपने उदगम का ।
अकेलेपन का आनन्द - रामधारी सिंह 'दिनकर'
अकेलेपन से बढ़कर
आनन्द नहीं , आराम नहीं ।
स्वर्ग है वह एकान्त,
जहाँ शोर नहीं, धूमधाम नहीं ।
देश और काल के प्रसार में,
शून्यता, अशब्दता अपार में
चाँद जब घूमता है, कौन सुख पाता है ?
भेद यह मेरी समझ में तब आता है,
होता हूँ जब मैं अपने भीतर के प्रांत में,
भीड़ से दूर किसी निभृत, एकान्त में ।
और तभी समझ यह पाता हूँ
पेड़ झूमता है किस मोद में
खड़ा हुआ एकाकी पर्वत की गोद में ।
बहता पवन मन्द-मन्द है ।
पत्तों के हिलने में छन्द है ।
कितना आनन्द है !
उखड़े हुए लोग - रामधारी सिंह 'दिनकर'
अकेलेपन से जो लोग दुखी हैं,
वृत्तियाँ उनकी,
निश्चय ही, बहिर्मुखी हैं ।
सृष्टि से बाँधने वाला तार
उनका टूट गया है;
असली आनन्द का आधार
छूट गया है ।
उदगम से छूटी हुई नदियों में ज्वार कहाँ ?
जड़-कटे पौधौं में जीवन की धार कहाँ ?
तब भी, जड़-कटे पौधों के ही समान
रोते हैं ये उखड़े हुए लोग बेचारे;
जीना चाहते हैं भीड़-भभ्भड़ के सहारे ।
भीड़, मगर, टूटा हुआ तार
और तोड़ती है
कटे हुए पौधों की
जड़ नहीं जोड़ती है ।
बाहरी तरंगो पर जितना ही फूलते हैं,
हम अपने को उतना ही और भूलते हैं ।
जड़ जमाना चाहते हो
तो एकान्त में जाओ ;
अगम-अज्ञात में अपनी सोरें फैलाओ ।
अकेलापन है राह
अपने आपको पाने की;
जहाँ से तुम निकल चुके हो,
उस घर में वापस जाने की ।
देवता हैं नहीं - रामधारी सिंह 'दिनकर'
देवता हैं नहीं,
तुम्हें दिखलाऊँ कहाँ ?
सूना है सारा आसमान,
धुएँ में बेकार भरमाऊँ कहाँ ?
इसलिए, कहता हूँ,
जहाँ भी मिले मौज, ले लो ।
जी चाहता हो तो टेनिस खेलो
या बैठ कर घूमो कार में
पार्कों के इर्द-गिर्द अथवा बाजार में ।
या दोस्तों के साथ मारो गप्प,
सिगरेट पियो ।
तुम जिसे मौज मानते हो, उसी मौज से जियो ।
मस्ती को धूम बन छाने दो,
उँगली पर पीला-पीला दाग पड़ जाने दो ।
लेकिन, देवता हैं नहीं,
तुम्हारा जो जी चाहे, करो ।
फूलों पर लोटो
या शराब के शीशे में डूब मरो ।
मगर, मुझ अकेला छोड़ दो ।
मैं अकेला ही रहूँगा ।
और बातें जो मन पर बीतती हैं,
उन्हें अवश्य कहूँगा ।
मसलन, इस कमरे में कौन है
जिसकी वजह से हवा ठंडी है,
चारों ओर छायी शान्ति मौन है ?
कौन यह जादू करता है ?
मुझमें अकारण आनन्द भरता है ।
कौन है जो धीरे से
मेरे अन्तर को छूता है ?
किसकी उँगलियों से
पीयूष यह चूता है ?
दिल की धड़कनों को
यह कौन सहलाता है ?
अमृत की लकीर के समान
हृदय में यह कौन आता-जाता है ?
कौन है जो मेरे बिछावन की चादर को
इस तरह चिकना गया है,
उस शीतल, मुलायम समुद्र के समान
बना गया है,
जिसके किनारे, जब रात होती है
मछलियाँ सपनाती हुई सोती हैं ?
कौन है, जो मेरे थके पावों को
धीरे-धीरे सहलाता और मलता है,
इतनी देर कि थकन उतर जाए,
प्राण फिर नयी संजीवनी से भर जाए ?
अमृत में भींगा हुआ यह किसका
अंचल हिलता है ?
पाँव में भी कमल का फूल खिलता है ।
और विश्वास करो,
यहाँ न तो कोई औरत है, न मर्द;
मैं अकेला हूँ ।
अकेलेपन की आभा जैसे-जैसे गहनाती है,
मुझे उन देवताओं के साथ नींद आ जाती है,
जो समझो तो हैं, समझो तो नहीं हैं;
अभी यहाँ हैं, अभी और कहीं हैं ।
देवता सरोवर हैं, सर हैं, समुद्र हैं ।
डूबना चाहो
तो जहाँ खोजो, वहीं पानी है ।
नहीं तो सब स्वप्न की कहानी है ।
महल-अटारी - रामधारी सिंह 'दिनकर'
चिड़िया जब डाल पर बैठती है,
अपना सन्तुलन ठीक काने को दुम को जरा ऊपर उठाती है ।
उस समय वह कितनी खुश नजर आती है?
मानों, उसे कोई खजाना मिल गया हो;
जीवन भर का अरमान अचानक फूल बन कर खिल गया हो ।
या विरासत में कोई राज उसने पाया हो
अथवा अभी-अभी ऐसा नीड़ बनवाया हो,
जिसमें एक हिस्सा मर्द का है
और एक जनाना भी;
ड्राइंग-रूम भी है और गुसलखाना भी।
महल-अटारी के लिए आदमी बेकार रोता है ।
मैं पूछता हूँ
इस चिड़िया की तरह वह खुशा क्यों नहीं होता है ।
शैतान का पतन - रामधारी सिंह 'दिनकर'
जानते हो कि शैतान का पतन क्यों हुआ?
इसलिए कि भगवान
जरा ज्यादा ऊँचा उठ गये थे ।
इसी से शैतान का दिमाग फिरा ।
दुनिया का सन्तुलन ठीक रखने के लिए
बेचारा नीचे नरक में गिरा-
भगवान को ललकारता हुआ
कि अगर तुम बिना दाग वाले चित्र हो,
प्रभो! तुम यदि इतने ऊँचे हो,
इतने पवित्र हो,
तो मैं नीचे अवश्य गिरूँगा ।
और जो रास्ता नरक को जाता है,
उसके दोनों ओर अंगूर के बाग लगाऊँगा;
अंगूर की लताएँ, अफीम के पौधे और गूलर के पेड़,
और भी अनेक तरह के फूल रंग-बिरंगे, ढेर के ढेर ।
और जो आत्माएँ मेरे समान गिर जायेंगी,
वे खाने को अंगूर पायेंगी ।
थरथराते हाथों से जाम धरे हुए,
बालों में अफीम के फूल भरे हुए,
ये आत्माएँ मस्ती के गीत गायेंगी ।
उछलती, कूदती, खेलती,
एक-दूसरी को गुदगुदाती-ढकेलती
हंसी-खुशी के साथ नरक की ओर जायेंगी ।
स्वर्ग और नरक
एक ही तराजू के दो पल्ले हैं ।
मूँज की डोरी और रेशम के छल्ले हैं।
तराजू के दोनों पल्ले जब हिलते हैं,
कभी-कभी एक दूसरे से जा मिलते हैं।
ईश्वर की देह - रामधारी सिंह 'दिनकर'
ईश्वर वह प्रेरणा है,
जिसे अब तक शरीर नहीं मिल है।
टहनी के भीतर अकुल्राता हुआ फूल,
जो वृन्त पर अब तक नहीं खिला है।
लेकिन, रचना का दर्द छटपटाता है,
ईश्वर बराबर अवतार लेने को अकुल्राता है ।
इसीलिए, जब तब हम
ईश्वरीय विभूति का प्रसार देखते हैं ।
आदमी के भीतर
छोटा-मोटा अवतार देखते हैं ।
जब भी कोई 'हेलेन',
शकुन्तला या रुपमती आती है,
अपने रुप और माधुर्य में …
ईश्वरीय विभूती की झलक दिखा जाती है ।
और जो भी पुरुष
निष्पाप है, निष्कलंक है, निडर है,उसे प्रणाम करो,
क्योंकि वह छोटा-मोटा ईश्वर है ।
ईश्वर उड़नेवाली मछली है ।
झरनों में हहराता दूध के समान सफेद जल है ।
ईश्वर देवदार का पेड़ है ।
ईश्वर गुलाब है, ईश्वर कमल है ।
मस्ती में गाते हुए मर्द,
धूप में बैठ बालों में कंघी करती हुई नारियाँ,
तितलियों के पीछे दौड़ते हुए बच्चे,
फुलवारियों में फूल चुनती हुई सुकुमारियाँ,
ये सब के सब ईश्वर हैं ।
क्योंकि जैसे ईसा और राम आये थे,
ये भी उसी प्रकार आये हैं।
और ईश्वर की कुछ थोडी विभूती
अपने साथ लाये हैं ।
ये हैं ईश्वर-
जिनके भीतर कोई अतौकिक प्रकाश जलता है ।
लेकिन, वह शक्ति कौन है,
जिसका पता नहीं चलता है ?
निराकार ईश्वर - रामधारी सिंह 'दिनकर'
हर चीज, जो खूबसूरत है,
किसी-न-किसी देह में है;
सुन्दरता शरीर पाकर हँसती है,
और जान हमेशा लहू और मांस में बसती है ।
यहाँ तक कि जो स्वप्न हमें बहुत प्यारे लगते हैं,
वे भी किसी शरीर को ही देखकर जगते हैं।
और ईश्वर ?
ईश्वर को अगर देह नहीं हो,
तो इच्छा, भावना, बल और प्रताप
वह कहाँ से लायेगा?
क्या तुम समझते हो कि ईश्वर गूँगा है ?
मगर, वह निराकार हुआ तो बोल भी कैसे पायेगा ?
क्योंकि ईश्वर जितना भी दुर्लभ हो,
समझा यह जाता है कि वह हमें प्यार करता है।
और चाहता है कि, हम सृष्टि के सिरमौर बनें,
यह बनें, वह बनें या कुछ और बनें।
गरचे, उसकी शान निराली है,
मगर, सव कहते हैं
कि ईश्वर प्रतापी और शक्तिशाली है।
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