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मैथिलीशरण गुप्त-प्रस्तावना भारत-भारती
Maithili Sharan Gupt-Prastavna Bharat-Bharti
प्रस्तावना-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
श्री राम,
प्रिय पाठकगण,
आज जन्माष्टमी है, आज का दिन भारत के लिए गौरव का दिन है।आज ही हम भारतवासियों को यहाँ तक कहने का अवसर मिला था। कि-
जय जय स्वर्गागार-सम भारत-कारागार।
जब तक संसार में भारत वर्ष का अस्तित्व रहेगा, तब तक यह दिन उसकी महिमा का महान दिन समझा जायेगा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। आज भगवान ने उन वचनों की सार्थकता दिखाई थी, जिन्हें आपने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश करते हुए, प्रकट किया था-
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत !
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।"
भला मेरे लिए इससे शुभ और कौन-सा दिन होता कि मैं प्रस्तुत पुस्तक आप लोगों के सम्मुख उपस्थित करने के लिए पूर्ण करूँ।
यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पराया मुँह ताक रही है ! ठीक है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा ही पतन !
परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में ही पड़े रहेंगे ? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ़ जायें और हम वैसे ही पड़े रहें, इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है ? क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गये हैं कि अब उसे पा ही नहीं सकते ? क्या हमारी सामाजिक अवस्था इतनी बिगड़ गई है कि वह सुधारी ही नहीं जा सकती ? क्या सचमुच हमारी यह निद्रा चिरनिद्रा है ? क्या हमारा रोग ऐसा असाध्य हो गया है कि उसकी कोई चिकित्सा ही नहीं ?
संसार में ऐसा कोई भी काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता है। बिना उत्साह के उद्योग नहीं हो सकता। इसी उत्साह को, इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है। परन्तु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्य के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्ति के लिए जहाँ तक मैं जानता हूं, कोई यथोचित प्रयत्न नहीं किया गया। परन्तु देशवत्सल सज्जनों को यह त्रुटि बहुत खटक रही है। ऐसे ही महानुभावों में कुर्रीसुदौली के अधिपति माननीय श्रीमान् राजा रामपालसिंह जी के. सी. आई. ई. महोदय हैं।
कोई दो वर्ष हुए, मैंने ‘पूर्व दर्शन’ नाम की एक तुकबन्दी लिखी थी। उस समय चित्त में आया था कि हो सका तो कभी इसे पल्लवित करने की चेष्टा भी करूँगा। इसके कुछ ही दिन बाद उक्त राजा साहब का एक कृपापत्र मुझे मिला, जिसमें श्रीमान् ने मौलाना हाली के मुसद्दस को लक्ष्य करके इस ढंग की एक कविता पुस्तक हिन्दुओं के लिए लिखने का मुझसे अनुग्रहपूर्वक अनुरोध किया। राजा साहब की ऐसी अभिरुचि देखकर मुझे हर्ष तो बहुत हुआ, पर साथ ही अपनी अयोग्यता के विचार से संकोच भी कम न हुआ। तथापि यह सोचकर कि बिलकुल ही न होने की अपेक्षा कुछ होना ही अच्छा है, मैंने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया।
श्रीरामनवमी सं. 1968 से आरम्भ करके भगवान् की कृपा से आज मैं इसे समाप्त कर सका हूँ। बीच-बीच में कई कारणों से महीनों इसका काम रुका रहा। इसी से इसके समाप्त होने में इतना विलम्ब हुआ। मैं नहीं जानता कि मैं अपने पूज्यवर श्रीमान् पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी जी महाराज और माननीय श्रीयुक्त "वार्हस्पत्य" जी महोदय के निकट, उनकी उन अमूल्य सम्मतियों के लिए, जिन्होंने मुझे इस विषय में कृतार्थ किया है, किस प्रकार अपनी कृतज्ञता प्रकट करूँ। सुहृद्वर श्रीयुक्त पण्डित पद्मसिंह जी शर्मा, राय कृष्णदास जी और ठाकुर तिलकसिंह जी का भी मैं विशेष कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मेरा उत्साह बढ़ाकर मुझे सहायता दी है। हाली और कैफी के मुसद्दसों भी मैंने लाभ उठाया है, इसलिए उनके प्रति भी मैं हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। जिन पुस्तकों और लेखों से इस पुस्तक में नोट उद्घृत किये गये हैं, उनके लेखकों के निकट भी मैं विशेष उपकृत हूँ।
मुझे दुख है कि इस पुस्तक में कहीं-कहीं मुझे कुछ कड़ी बातें लिखनी पड़ी हैं, परन्तु मैंने किसी की निन्दा करने के विचार से कोई बात नहीं लिखी। अपनी सामाजिक दुरावस्था ने वैसा लिखने के लिए मुझे विवश किया है। जिन दोषों ने हमारी यह दुर्गति की है, जिनके कारण दूसरे लोग हम पर हँस रहे हैं, क्या उनका वर्णन कड़े शब्दों में किया जाना अनुचित है ? मेरा विश्वास है कि जब तक हमारी बुराइयों की तीव्र आलोचना न होगी तब तक हमारा ध्यान उनको दूर करने की ओर समुचित रीति से आकृष्ट न होगा। फिर भी यदि भूल से, कोई बात अनुचित लिख गई हो तो उसके लिए मैं नम्रतापूर्वक क्षमाप्रार्थी हूँ।
मैं जानता हूँ कि इस पुस्तक को लिखकर मैंने अनाधिकार चेष्टा की है। मैं इस काम के लिए सर्वथा अयोग्य था। परन्तु जब तक हमारे विद्वान और प्रतिभाशाली कवि इस ओर ध्यान न दें और इस ढंग की दूसरी कोई अच्छी पुस्तक न निकले, तब तक, आशा है, उदार पाठक मेरी धृष्टता को क्षमा करेंगे।
- मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
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