मैथिलीशरण गुप्त-नहुष Maithilisharan Gupt-Nahush

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मैथिलीशरण गुप्त-नहुष
Maithili Sharan Gupt-Nahush | Maithili Sharan Gupt

मैथिलीशरण गुप्त-मंगलाचरण | Maithili Sharan Gupt

क्योंकर हो मेरे मन मानिक की रक्षा ओह!
मार्ग के लुटेरे-काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह ।
किन्तु मैं बढ़ूँगा राम,-
लेकर तुम्हारा नाम ।
रक्खो बस तात, तुम थोड़ी क्षमा, थोड़ा छोह ।

मैथिलीशरण गुप्त-शची | Maithili Sharan Gupt

मणिमय बालुका के तट-पट खोल के,
क्या क्या कल वाक्य नैश निर्जन बोल के ।
श्रान्त सुर-सरिता समीर को है भेटती,
क्लान्ति दिन की है उसकी भी मेटती ।
 
यह रहा मानस तो अमरों के ओक में,
गात्र मात्र ही है मोतियों का नरलोक में ।
पानी चढ़ने से यही चन्द्र-कर चमके ।
पाकर इसी को रवि-रश्मि-शर दमके ।
 
होती है सदैव नयी वृद्धि परमायु में,
अमर न होगा कौन इस जल-वायु में?
गन्ध पृथिवी का गुन, व्योम भर जो बढ़ा,
आके यहीं उन्नति की चूढ़ा पर है चढ़ा!
 
मिलता दरस से ही सुख है परस का,
पार क्या परस के बरसते-से रस का ।
डोलता-सा, बोलता-सा एक एक पर्ण है,
वर्ण-पीतता में भी सुवर्ण ही सुवर्ण है।
 
धूल उड़ती है तब फूलों के पराग की,
पत्र-रचना-सी पड़ती है अनुराग की!
अंक धन का क्या यहां जीवन अशंक है ।
कितनी सजलता है, किन्तु कहाँ पंक है?
 
फैली सब ओर शान्ति मग्न सुरलोक है,
किन्तु कान्ति-हीना आज इन्द्राणी सशोक है ।
शान्त-सी सखी के साथ तीर पर आ गयी,
शान्त वायुमण्डल में मानो कान्ति छा गयी ।
 
आज सुरराज शक्र स्वर्गभ्रष्ट हो गया,
और स्वर्ग-वैभव शचि का सब खो गया ।
जी रही है देवराज्ञी, कैसे मरे अमरी,
मंडरा रही है शून्य वृन्त पर भ्रमरी!
 
दगता है अन्तर, सुलगता ज्यों तुष है;
इन्द्रासनासीन हुआ सहसा नहुष है ।
सह्य किसे स्वाधिकार दूसरे के बस में,
देना पड़ा हो वह भले ही रस रस में ।
 
"देवि, यथा" बोली सखि-"दनुज दनुज ही,
देव देव ही हैं क्या मनुज मनुज ही ।
सीमा जहाँ जिसकी, रहेगा वहीं वह तो,
सह लो विनोद-सा विपर्यय है यह तो।"
 
हाय रे विपर्यय! सखी की बात सुनके,
बोली अमरेश्वरी अधीरा सिर धुनके-
"सखी, क्या विपर्यय है जो जहाँ था है वहीं,
सब तो वही के वही, मैं ही वह हूँ नहीं ।
 
क्या थी, अब कौन हूँ कहाँ थी, अब मैं कहाँ,
क्या न था, परन्तु अब मेरा क्या रहा यहाँ?
आज मैं विदेशिनी हूँ अपने ही देश मैं-
वन्दिनी-सी आप निज निर्मम निवेश में!
 
-Maithilisharan-Gupt
 
 
हा! दु:स्वप्न ही मैं इसे मान कहीं सकती,
कैसे समझाऊँ मन, जान नहीं सक्ती।
मेरी यह दिव्य धरा आज पराधीना है,
इन्द्राणी अभागिनी है, देवेश्वरी दीना है!
 
चर्चा कल्प-वृक्ष के फलों की क्या चलाऊँ मैं,
पारिजात-पुष्प ही तो एक चुन लाऊँ मैं,
मेरे उस नन्दन की हाय! कैसी लाज है,
सूखी हरियाली तक मेरे लिए आज है!
 
निज मुख देखने का इच्छुक क्यों उर है,
सखि, क्या मृगांक मेरा अब भी मुकुर है?"
चिर नवयौवना शची क्या हंसी खेद से,
निकली क्षणिक धूप वर्षा के विभेद से!
 
"यह मुख-चन्द्र देवि, नित्य परिपूर्ण है,
उड़ता अवश्य आज कुज्झटिका-चूर्ण है,
तूर्ण ही विकीर्ण होंगी किरणें प्रथम-सी,
बैठी ही रहेगी यह वेला क्या विषम-सी ?
 
फिर भी नहुष तो हमारे चिरभक्त हैं,
दानव नहीं वे महामानव सशक्त हैं,
अपना सहायक हमीने है उन्हें चुना ।
उनके लिए क्या अभी और कुछ है सुना?"
 
"नहीं किन्तु पद में सदैव एक मद है;
सीमा लांघ जाता उमड़ता जो नद है ।
निश्चय है कब क्या किसी के मन का कहीं,
शंकित हो मेरा मन, आतंकित है यहीं ।
 
देव सदा देव तथा दनुज दनुज हैं,
जा सकते किन्तु दोनों ओर ही मनुज हैं ।
रह सकती हूँ सावधान दानवों से मैं,
शंकित ही रहती हूँ हाय! मानवों से मैं ।

स्वामी भी कहाँ गये न जाने, मुझे छोड़ के,
वे भी छिप बैठे दु:खनी से मुंह मोड़ के!"
"ऐसा कहना क्या देवि आपको उचित है?
आपसे क्या उनका विभिन्न हिताहित है?
 
धीरज न छोड़िए, प्रतीक्षा कर रहिए,
निष्क्रिय हो बैठेंगे कभी वे भला कहिए,"
"ठीक सखि, किन्तु मन कैसे रहे हाथ का,
गेह गया और साथ छूटा निज नाथ का ।
 
कोई युक्ति हाय! मुझे आज नहीं सूझती,
सम्भव जो होता युद्ध तो मैं आप जूझती ।
और मैं दिखाती, रस-मात्र नहीं चखती,
देखते सभी, क्या शक्ति साहस हूँ रखती ।
 
आहा! जब युद्ध हुआ शुम्भ से, निशुम्भ से,
दैत्यों ने किये थे पान दो दो मद-कुम्भ से,
प्रलय मचा रही थीं धारें खरे पानी की,
तब थी शची ही पक्ष-रक्षिणी भवानी की ।
 
होकर भी स्वर्गेश्वरी घोर चिन्ता-चर्चिता,
हो उठी प्रदीप्त आत्म-गौरव से गर्विता ।
दीख उड़ी अश्रुमुखी धूल-धुली माला-सी,
किंवा धूम-राशि में से जागी हुई ज्वाला-सी!
 
"शक्ति से जो साध्य होगा, साधेगी उसे शची,
किन्तु क्या विवेकी-बुद्धि आज उसमें बची?
कोई भी दिखा दे मार्ग; गति मैं दिखाऊंगी,
चल, गुरु-चरण अभी मैं सखि जाऊँगी ।"
 
स्नान कर शीघ्र और ध्यान धर पति का,
लेने वरदान चली मानिनी सुमति का ।
जल से निकल के भी डूबी-सी बनी रही ।
तब भी निशा थी, सूक्ष्म चाँदनी तनी रही ।

मैथिलीशरण गुप्त-नहुष | Maithili Sharan Gupt

‘‘नारायण ! नारायण ! साधु नर-साधना,
इन्द्र-पद ने भी की उसी की शुभाराधना।’’
बोल उठी नारद की वल्लकी गगन में,
जा रहे थे घूमने वे गंगातीर वन में ।
 
उस स्वर-लहरी में लोट उठा गन्धवाह,
चाह की-सी आह उठी किन्तु वन वाह वाह ?
चौंक अप्सराएं उठ बैठीं और झूमीं वे,
नूपुर बजा के ताल ताल पर घूमीं वे!
 
किन्तु शची विमना, क्या देखती क्या सुनती,
कितने विचार-सूत्र लेकर थी बुनती,
देव-ॠषि आप उसे देखा किये रुक के,
उसने प्रणाम उन्हें क्यों न किया झुक के?
 
दुर्वासा न थे वे यही बात थी कुशल की,
क्रोध नहीं, खेद हुआ और दया झलकी ।
"क्षम्य है विपन्ना, दयनीय यह दोष है,
स्वस्थ रहे कैसे गया, धाम-धन-कोष है ।
 
लज्जानत नेत्र, यह देखे-पहचाने क्या,
भीतर है कोलाहल, बाहर की जाने क्या?
ओहो!" क्षण मौन रहे फिर हिल डोले वे,
सहज, विनोदी, आप अपने से बोले वे...

"फिर भी प्रणाम बिना आशीर्वाद कैसे हो?
और अपराध अपराध ही है, जैसे हो ।
प्रायश्चित रुप कुछ दण्ड नहीं पायगा,
तो हे दये! दूषित ही दोषी रह जायगा।
 
मैं अपनी ओर से करूँगा कुछ भी नहीं,
किन्तु रुके विधि के अदृश्य कर भी कहीं?
मानता हूं सारे परिणाम मैं उचित ही।
रहता निहित है अहित में हित ही।
 
देख ली शची की दशा; अबला है अन्त में,
तस्कर-सा शक्र-दुरा बैठा है दिगन्त में ।
देखूँ नये इन्द्र का भी कैसा चमत्कार क्या?
मैं तो हूँ तटस्थ, यहाँ मौज मंझधार क्या?
 
विपिन नहीं तो आज इन्द्रोद्यान ही सही,
आवे जो अपने रस आप, अच्छा है वही ।
रस अभिनेता नहीं, दर्शक ही होने में,
ठौर तो मिलेगा ही मिलेगा किसी कोने में ।
 
वीणा बजी सप्त स्वर और तीन ग्राम में,
पहुँचे विचरते वे वैजयन्त धाम में ।
था सब प्रबन्ध यथा पूर्व भी नया नया,
ढीला पड़ा तन्त्र फिर तान-सा दिया गया ।
 
अभ्युत्थान देके नये इन्द्र ने उन्हें लिया,
मानी ने विनम्र व्यवहार विधि से किया।
''आज का प्रभात सुप्रभात, आप आये हैं,
दीजिए, जो आज्ञा स्वयं मेरे लिए लाये हैं!
 
उत्सुकता आगे चलती है सदा आपके,
विविध विषय पीछे विश्व-वार्तालाप के ।
सत्साहित्य, सत्संगीत दोनों ओर रहता,
लोकोत्तरानन्द दूना होकर है बहता ।''
 
आद्र जो है क्यों न वह आप ही बहे-बहे ।
मानस भी तो हो, जहाँ रस रमता रहे ।
धन्य है मनस्विता हमारे मनुजेन्द्र की,
रखते अमर भी हैं आशा इसी केन्द्र की!"
 
'मेरा अहोभाग्ये' "हां, तुम्हारा पुरुषार्थ है,
दुर्लभ तुम्हें क्या आज कोई भी पदार्थ है?"
"सीमा क्या यही है पुरुषार्थ की पुरुष के?"
मुद्रा कुछ उत्सुक थी मुख की नहुष के ।

मुनि मुसकाये और बोले-"यह प्रश्न? धन्य ।
कौन पुरुषार्थ भला इससे अधिक अन्य?
शेष अब कौन-सा सुफल तुम्हें पाने को?
"फल से क्या, उत्सुक मैं कुछ कर जाने को ।
 
"वीर करने को यहां स्वर्ग-सुख-भोग ही,
जिसमें न तो है जरा-जीर्णता, न रोग ही ।
साधन बड़ा है, किन्तु साध्य ही के अर्थ है,
अन्यथा प्रवृति-पथ सर्वथा ही व्यर्थ है ।
 
जोता और बोया फिर सींचा, फल छोड़ोगे?
जो है स्वयं प्राप्त क्या उसी से मुंह मोड़ोगे?
बोला हंस नहुष-"समृद्धि स्वर्ग तक ही?
स्वर्ग जो न हो तो क्या ठिकाना है नरक ही?
 
"मर्त्य है, रसातल है, किन्तु है पतन ही;
मुक्ति-पथ भी है, वहाँ गृह भी है वन ही ।"
"पथिक उसी का जगती में यह जन था,
बीच में परन्तु वह नन्दन-भवन था?
"देव राज्य-रक्षण भी कौन थोड़ा श्रेय है,
जिसका प्रसाद रूप प्राप्त यह पेय है ।
ऐसा रस पृथ्वी पर" "मैंने नहीं पाया है,
यद्यपि क्या अन्त अभी उसका भी आया है?

साकेत सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

साकेत निवेदन मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

प्रथम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 1 Maithili Sharan Gupta

द्वितीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 2 Maithili Sharan Gupta

तृतीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 3 Maithili Sharan Gupta

चतुर्थ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 4 Maithili Sharan Gupta

पंचम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त Sarg 5 Maithili Sharan Gupta

षष्ठ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 6 Maithili Sharan Gupta

सप्तम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 7 Maithili Sharan Gupta

अष्ठम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 8 Maithili Sharan Gupta

नवम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 9 Maithili Sharan Gupta

दशम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 10 Maithili Sharan Gupta

एकादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 11 Maithili Sharan Gupta

द्वादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 12 Maithili Sharan Gupta

 
 

Tags :  नहुष मैथिलीशरण गुप्त summary,मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं,राजा नहुष की कथा आधार चेतन,सभी देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है,राजा नहुष का उद्धार,नहुष नाटक,राम काव्य पर आधारित मैथिलीशरण गुप्त की रचना है,King nahusha  

 

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