मैथिलीशरण गुप्त-किसान Maithilisharan Gupt-Kisan

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मैथिलीशरण गुप्त-किसान
Maithili Sharan Gupt-Kisan

 
प्रार्थना-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
यद्यपि हम हैं सिध्द न सुकृती, व्रती न योगी,
पर किस अघ से हुए हाय ! ऐसे दुख-भोगी?
क्यों हैं हम यों विवश, अकिंचन, दुर्बल, रोगी?
दयाधाम हे राम ! दया क्या इधर न होगी ? ।।१।।
 
देव ! तुम्हारे सिवा आज हम किसे पुकारें?
तुम्हीं बता दो हमें कि कैसे धीरज धारें?
किस प्रकार अब और मरे मन को हम मारें?
अब तो रुकती नहीं आँसुयों की ये धारें! ।।२।।
 
ले ले कर अवतार असुर तुम ने हैं मारे,
निष्ठुर नर क्यों छोड़ दिये फिर बिना विचारे?
उनके हाथों आज देख लो हाल हमारे,
हम क्या कोई नहीं दयामय कहो, तुम्हारे? ।।३।।
 
पाया हमने प्रभो! कौन सा त्रास नहीं है?
क्या अब भी परिपूर्ण हमारा ह्रास नहीं है?
मिला हमें क्या यहीं नरक का वास नहीं है,
विष खाने के लिए टका भी पास नहीं है! ।।४।।
 
नहीं जानते, पूर्व समय क्या पाप किया है,
जिसका फल यह आज दैव ने हमें दिया है:
अब भी फटता नहीं वज्र का बना हिया है,
इसीलिए क्या हाय ! जगत में जन्म लिया है! ।।५।।
 
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हम पापी ही सही किन्तु तुम हमें उबारो,
दीनबंधू हो, दया करो, अब और न मारो ।
करके अपना कोप शांत करुणा कर तारो,
अपने गुण से देव ! हमारे दोष विसारो ।।६।।
 
हमें तुमहीं ने कृषक-वंश में उपजाया है,
किसका वश है यहाँ, तुमहारी ही माया है ।
जो कुछ तुमने दिया वही हमने पाया है,
पर विभुवर ! क्यों यही दान तुमको भाया है?।।७।।
 
कृषक-वंश को छोड़ न था क्या और ठिकाना?
नरक-योग्य भी नाथ ! न तुमने हमको माना !
पाते हैं पशु-पक्षी आदि भी चारा-दाना,
और अधिक क्या कहें, तुम्हारा है सब जाना।।८।।
 
कृषि ही थी तो विभो! बैल ही हमको करते,
करके दिनभर काम शाम को चारा चरते।
कुत्ते भी हैं किसी भांति दग्धोदर भरते,
करके अन्नोत्पन्न हमीं हैं भूखों मरते! ।।९।।

कृषि-निन्दक मर जाय अभी यदि हो वह जीता,
पर वह गौरव-समय कभी का है अब बीता।
कृषि से ही थी हुई जगज्जननी श्रीसीता,
गाते अब भी मनुज यहां जिनकी गुण-गीता ।।१०।।
 
एक समय था, कृषक आर्या थे समझे जाते-
भारत में थे हमी 'अन्नदाता' पद पाते ।
जनक सदृश राजर्षि यहाँ हल रहे चलाते,
स्वयं रेवतीरमन हलायुध थे कहलाते ।।११।।
 
लीलामय श्रीकृष्न जहाँ गोपाल हुए हैं,
समय फेर से वहीं और ही हाल हुए हैं ।
हा ! सुकाल भी आज दुरन्त दुकाल हुए हैं,
थे जो मालामाल अधम कंगाल हुए हैं! ।।१२।।
 
जिस खेती से मनुज मात्र अब भी जीते हैं-
उसके कर्ता हमीं यहाँ आँसु पीते हैं!
भर कर सबके उदर आप रहते रीते हैं,
मरते हैं निरुपाय हाय ! शुभ दिन बीते हैं।।१३।।
 
हम से ही सब सभ्य सभ्य बनकर रहते हैं,
तो भी हमको निपट नीच ही वे कहते हैं ।
कृषिकर होकर हम न कौन-सा दुख सहते हैं?
निराधार मंझधार बीच कब से बहते हैं! ।।१४।।

जिस कृषि से सब जगत आज भी हरा भरा है,
क्यों उससे इस भाँति हमारा हृदय डरा है?
कृषि ने होकर विवश कड़ा कर आज वरा है,
हम कृषकों के लिए रही बस शून्य धरा है! ।।१५।।
 
कड़ी धूप में तीक्ष्ण ताप से तनु है जलता,
पानी बनकर नित्य हमारा रुधिर निकलता!
तदपि हमारे लिए यहाँ शुभ फल कब फलता?
रहता सदा अभाव, नहीं कुछ भी वश चलता ।।१६।।
 
वर्षा का सव सलिल खुले सिर पर है झड़ता,
विकट शीत से अस्थिजाल तक आप अकड़ता।
है बैलों के साथ बैल भी बनना पड़ता,
जलता तो भी उदर, अहो! जीवन की जड़ता! ।।१७।।
 
कृषक-वंश में जन्म यहाँ जो हम पाते हैं
तो खाने के नाम नित्य हा हा खाते हैं !
मरने के ही लिए यहाँ क्या हम आते हैं?
जीवन के सब दिवस दु:ख में ही जाते हैं! ।।१८।।
 
शिक्षा को हम और हमें शिक्षा रोती है,
पूरी बस यह घास खोदने में होती है!
कहाँ यहाँ विज्ञान, रसायन भी सोती है;
दुआ हमारे लिए एक दाना मोती है ।।१९।।
 
परदेशों की तरह नहीं कुछ कल का बल है,
वह तो अपने लिए मन्त्र, माया या छल है!
जो कुछ है बस वही पुराना हल-बक्खल है,
और सामने नष्टसार यह पृथ्वीतल है।।२०।।
 
बहते हुए समीप नदी की निर्मल धारा-
खेत सूखते यहाँ, नहीं चलता कुछ चारा।
एक वर्ष भी वृष्टि बिन समुदाय हमारा-
भीख माँगता हुआ भटकता मारा मारा! ।।२१।।

प्रभुवर ! हम क्या कहें कि कैसे दिन भरते हैं?
अपराधी की भांति सदा सबसे डरते हैं ।
याद यहाँ पर हमें नहीं यम भी करते हैं,
फिजी आदि में अन्त समय जाकर मरते हैं।।२२।।
 
बनता है दिन-रात हमारा रुधिर पसीना,
जाता है सर्वस्व सूद में फिर भी छीना ।
हा हा खाना और सर्वदा आँसू पीना,
नहीं चाहिए नाथ ! हमें अब ऐसा जीना!।।२३।।
 
देव ! हमारी दशा तुम्हारी है सब जानी,
नहीं मानती किन्तु आज यह व्याकुल वाणी।
सुन लो, अपने दीन जनों की रामकहानी,
दया करोगे आप हुए यदि पानी पानी।।२४।।
 
तुम भी वाचक-वृन्द तनिक सहृदय हो जाओ
अपने दुर्विध बंधुजनों को यों न भुलायो ।
यहीं समय है कि जो कर सको कर दिखलाओ,
बंधु नहीं तो मनुज जान कर ही अपनाओ।।२५।।

बाल्य और विवाह-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt

जब कुछ होश सँभाला मैंने अपने को वन में पाया,
हरी भूमि पर कहीं धूप थी और कहीं गहरी छाया ।
एक भैंस, दो गायें लेकर दिन भर उन्हें चराता था,
घर आ कर, व्यालू में, माँ से एक पाव पय पाता था ।।१।।
 
सुख भी नहीं छिपाऊंगा मैं पाया है मैंने जितना,
कभी कभी घी भी मिलता-था, यद्यपि वह था ही कितना ।
माता-पिता छाँछ लेकर ही मधुर महेरी करते थे,
भैंस और गायों की रहंटी घी दे दे कर भरते थे।।२।।
 
देख किसी का ठाठ न हमको ईर्ष्या कभी सताती थी,
और न अपनी दीन दशा पर लज्जा ही कुछ आती थी ।
मानों उन्हें वही थोड़ा है और हमें है बहुत यही,
जो कुछ जो लिखवा लावेगा पायेगा वह सदा वही।।३।।
 
जो हो, मैं निश्चिन्त भाव से था मन में सुख ही पाता,
किसी तरह खेती-पाती से था संसार चला जाता ।
मुक्त पवन मेरे अंगों का वन में स्वेद सुखाती थी,
घनी घनी छाया पेड़ों की गोदी में बिठलाती थी।।४।।
 
 

साकेत सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

साकेत निवेदन मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

प्रथम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 1 Maithili Sharan Gupta

द्वितीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 2 Maithili Sharan Gupta

तृतीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 3 Maithili Sharan Gupta

चतुर्थ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 4 Maithili Sharan Gupta

पंचम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त Sarg 5 Maithili Sharan Gupta

षष्ठ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 6 Maithili Sharan Gupta

सप्तम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 7 Maithili Sharan Gupta

अष्ठम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 8 Maithili Sharan Gupta

नवम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 9 Maithili Sharan Gupta

दशम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 10 Maithili Sharan Gupta

एकादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 11 Maithili Sharan Gupta

द्वादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 12 Maithili Sharan Gupta

 
 

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