Hindi Kavita
हिंदी कविता
मैथिलीशरण गुप्त-झंकार
Maithili Sharan Gupt-Jhankar
निर्बल का बल-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
निर्बल का बल राम है।
हृदय ! भय का क्या काम है।।
राम वही कि पतित-पावन जो
परम दया का धाम है,
इस भव-सागर से उद्धारक
तारक जिसका नाम है।
हृदय, भय का क्या काम है।।
तन-बल, मन-बल और किसी को
धन-बल से विश्राम है,
हमें जानकी-जीवन का बल
निशिदिन आठों याम है।
हृदय, भय का क्या काम है।।
झंकार (कविता)-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
इस शरीर की सकल शिराएँ
हों तेरी तन्त्री के तार,
आघातों की क्या चिन्ता है,
उठने दे ऊँची झंकार।
नाचे नियति, प्रकृति सुर साधे,
सब सुर हों सजीव, साकार,
देश देश में, काल काल में
उठे गमक गहरी गुंजार।
कर प्रहार, हाँ, कर प्रहार तू
मार नहीं यह तो है प्यार,
प्यारे, और कहूँ क्या तुझसे,
प्रस्तुत हूँ मैं, हूँ तैयार।
मेरे तार तार से तेरी
तान तान का हो बिस्तार।
अपनी अंगुली के धक्के से
खोल अखिल श्रुतियों के द्वार।
ताल ताल पर भाल झुका कर
मोहित हों सब बारम्बार,
लय बँध जाय और क्रम क्रम से
सम में समा जाय संसार।।
विराट-वीणा-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
तुम्हारी वीणा है अनमोल।।
हे विराट ! जिसके दो तूँबे
हैं भूगोल-खगोल।
दया-दण्ड पर न्यारे न्यारे,
चमक रहे हैं प्यारे प्यारे,
कोटि गुणों के तार तुम्हारे,
खुली प्रलय की खोल।
तुम्हारी वीणा है अनमोल।।
हँसता है कोई रोता है
जिसका जैसा मन होता है,
सब कोई सुधबुध खोता है,
क्या विचित्र हैं बोल।
तुम्हारी वीणा है अनमोल।।
इसे बजाते हो तुम जब लों,
नाचेंगे हम सब तब लों,
चलने दो-न कहो कुछ कब लों,-
यह क्रीड़ा-कल्लोल।
तुम्हारी वीणा है अनमोल।।
अर्थ-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
कुछ न पूछ, मैंने क्या गाया
बतला कि क्या गवाया ?
जो तेरा अनुशासन पाया
मैंने शीश नवाया।
क्या क्या कहा, स्वयं भी उसका
आशय समझ न पाया,
मैं इतना ही कह सकता हूँ
जो कुछ जी में आया।
जैसा वायु बहा वैसा ही
वेणु-रन्ध्र – रव छाया;
जैसा धक्का लगा, लहर ने
वैसा ही बल खाया।
जब तक रही अर्थ की मन में
मोहकारिणी माया,
तब तक कोई भाव भुवन का
भूल न मुझको भाया।
नाचीं कितने नाच न जानें
कुठपुतली-सी काया,
मिटी न तृष्णा, मिला न जीवन,
बहुतेरे मुँह बाया।
अर्थ भूल कर इसीलिए अब,
ध्वनि के पीछे धाया,
दूर किये सब बाजे गाजे,
ढूह ढोंग का ढाया।
हृत्तन्त्री का तार मिले तो
स्वर हो सरस सवाया,
और समझ जाऊँ फिर मैं भी
यह मैंने है गाया।।
बाल-बोध-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
वह बाल बोध था मेरा
निराकार निर्लेप भाव में
भान हुआ जब तेरा।
तेरी मधुर मूर्ति, मृदु ममता,
रहती नहीं कहीं निज समता,
करुण कटाक्षों की वह क्षमता,
फिर जिधर भव फेरा;
अरे सूक्ष्म, तुझमें विराट ने
डाल दिया है डेरा।
वह बाल-बोध था मेरा ।।
पहले एक अजन्मा जाना,
फिर बहु रूपों में पहचाना,
वे अवतार चरित नव नाना,
चित्त हुआ चिर चेरा;
निर्गुण, तू तो निखिल गुणों का
निकला वास-बसेरा।
वह बाल-बोध था मेरा।
डरता था मैं तुझसे स्वामी,
किन्तु सखा था तू सहगामी,
मैं भी हूँ अब क्रीड़ा-कामी,
मिटने लगा अँधेरा;
दूर समझता था मैं तुझको
तू समीप हँस-हेरा।
वह बाल-बोध था मेरा।
अब भी एक प्रश्न था--कोऽहं ?
कहूँ कहूँ जब तक दासोऽहं
तन्मयता बोल उठी सोऽहं !
बस हो गया सवेरा;
दिनमणि के ऊपर उसकी ही
किरणों का है घेरा
वह बाल-बोध था मेरा।।
रमा है सबमें राम-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
रमा है सबमें राम,
वही सलोना श्याम।
जितने अधिक रहें अच्छा है
अपने छोटे छन्द,
अतुलित जो है उधर अलौकिक
उसका वह आनन्द
लूट लो, न लो विराम;
रमा है सबमें राम।
अपनी स्वर-विभिन्नता का है
क्या ही रम्य रहस्य;
बढ़े राग-रञ्जकता उसकी
पाकर सामञ्जस्य।
गूँजने दो भवधान,
रमा है सबमें राम।
बढ़े विचित्र वर्ण वे अपने
गढ़ें स्वतन्त्र चरित्र;
बने एक उन सबसे उसकी
सुन्दरता का चित्र।
रहे जो लोक ललाम,
रमा है सबमें राम।
अयुत दलों से युक्त क्यों न हों
निज मानस के फूल;
उन्हें बिखरना वहाँ जहाँ है
उस प्रिय की पद-धूल।
मिले बहुविधि विश्राम,
रमा है सबमें राम।
अपनी अगणित धाराओं के
अगणित हों विस्तार;
उसके सागर का भी तो है
बढ़ो बस आठों याम,
रमा है सबमें राम।
हुआ एक होकर अनेक वह
हम अनेक से एक,
वह हम बना और हम वह यों
अहा ! अपूर्व विवेक।
भेद का रहे न नाम,
रमा है सबमें राम।
बन्धन-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
सखे, मेरे बन्धन मत खोल,
आप बँधा हूँ आप खुलूँ मैं,
तू न बीच में बोल।
जूझूँगा, जीवन अनन्त है,
साक्षी बन कर देख,
और खींचता जा तू मेरे
जन्म-कर्म की रेख।
सिद्धि का है साधन ही मोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।
खोले-मूँदे प्रकृति पलक निज,
फिर एक दिन फिर रात,
परमपुरुष, तू परख हमारे
घात और प्रतिघात।
उन्हें निज दृष्टि-तुला पर तोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।
कोटि कोटि तर्कों के भीतर
पैठी तैरी युक्ति,
कोटि-कोटि बन्धन-परिवेष्टित
बैठी मेरी मुक्ति,
भुक्ति से भिन्न, अकम्प, अडोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।
खींचे भुक्ति पटान्त पकड़ कर
मुक्ति करे संकेत,
इधर उधर आऊँ जाऊँ मैं
पर हूँ सजग सचेत।
हृदय है क्या अच्छा हिण्डोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।
तेरी पृथ्वी की प्रदक्षिणा
देख रहे रवि सोम,
वह अचला है करे भले ही
गर्जन तर्जन व्योम।
न भय से, लीला से हूँ लोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।
ऊबेगा जब तक तरा जा
देख देख यह खेल,
हो जावेगा तब तक मेरी
भुक्ति-मुक्ति का मेल।
मिलेंगे हाँ, भूगोल-खगोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।।
असन्तोष-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।
मिथ्या मेरा घोष नहीं।
वह देता जाता है ज्यों ज्यों,
लोभ वृद्धि पाता है त्यों त्यों,
नहीं वृत्ति-घातक मैं,
उस घन का चातक मैं,
जिसमें रस है रोष नहीं।
नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।
पाकर वैसा देने वाला—
शान्त रहे क्या लेने वाला ?
मेरा मन न रुकेगा,
उसका मन न चुकेगा,
क्या वह अक्षय-कोष नहीं ?
नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।
माँगू क्यों न उसी को अब,
एक साथ पाजाऊँ सब,
पूरा दानी जब हो
कोर-कसर क्यों तब हो ?
मेरा कोई दोष नहीं।
नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।
जीवन का अस्तित्व-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
जीव, हुई है तुझको भ्रान्ति;
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !
अरे, किवाड़ खोल, उठ, कब से
मैं हूँ तेरे लिए खड़ा,
सोच रहा है क्या मन ही मन
मृतक-तुल्य तू पड़ा पड़ा।
बढ़ती ही जाती है क्लान्ति,
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !
अपने आप घिरा बैठा है
तू छोटे से घेरे में,
नहीं ऊबता है क्या तेरा
जी भी इस अन्धेरे में ?
मची हुई है नीरव क्रान्ति,
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !
द्वार बन्द करके भी तू है
चैन नहीं पाता डर से,
तेरे भीतर चोर घुसा है,
उसको तो निकाल घर से।
चुरा रहा है वह कृति-कान्ति,
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !
जिस जीवन के रक्षणार्थ है
तूने यह सब ढंग रचा,
होकर यों अवसन्न और जड़
वह पहले ही कहाँ बचा ?
जीवन का अस्तित्व अशान्ति,
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !
यात्री-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
रोको मत, छेड़ो मत कोई मुझे राह में,
चलती हूँ आज किसी चंचल की चाह में ।
काँटे लगते हैं, लगें, उनको सराहिए,
कण्टक निकालने को कण्टक ही चाहिए ।।
घहरा रहे हैं घन चिंता नहीं इनकी,
अवधि न बीत जाय हाय ! चार दिन की।
छाया है अँधेरा; रहे, लक्ष्य है समक्ष ही,
दीप्ति मुझे देगा अभिराम कृष्ण पक्ष ही ।।
ठहरो, समझ ही तो क्षुब्ध पारावार है,
करना उसे ही अरे! आज मुझे पार है।
भूत मिलें, वे मरे--मैं जीती हूँ;
भीति क्या करेगी भला, प्रीति-सुधा पीती हूँ ।
मृत्यु लिये जा रही है, तो फिर क्या डर है?
दूती वह प्रिय की है, दूर नहीं घर है।
आपको न देखा आप मैंने कभी आप में,
डूबेगा विलाप आज डूबेगा मिलाप में ।।
प्रभु की प्राप्ति-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
प्रभो, तुम्हें हम कब पाते हैं?
जब इस जनाकीर्ण जगती में
एकाकी रह जाते हैं ।
जब तक स्वजन संग देते हैं,
हम अपनी नैया खेते हैं,
तब तक हम तुम उभय परस्पर
नहीं कभी सुध लेते हैं।
पर ज्यों ही नौका बहती है,
हम में शक्ति नहीं रहती है,
देख भौंर में तब हम उसको
रोते हैं चिल्लाते हैं ।
प्रभो, तुम्हें हम कब पाते हैं?
जब तक भोग भोगते धन से,
और सबल रहते हैं तन से,
हम मदान्ध सम तब तक तुमको
भूले रहते हैं मन से ।
पर जब सब धन उड़ जाता है,
रोगों का दल जुड़ आता है,
तब हम तुम्हें याद कर करके
बिलख बिलख चिल्लाते हैं ।
प्रभो, तुम्हें हम कब पाते हैं?
पाते हैं तुमको अनुरागी,
पर होकर भव तक के त्यागी,
देख नहीं सकते हो हममें
तुम कोई निज भागी ।
तुमसे अधिक कौन धन होगा,
और कौन तुम-सा जन होगा,
इसीलिए तुम-मय होकर हम
पास तुम्हारे आते हैं ।
प्रभो, तुम्हें हम कब पाते हैं?
इकतारा-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
त्याग न तप केवल यह तूँबी,
अब रह गयी हाथ में मेरे,
आ बैठा हे राम ! आज मैं
लेकर इसे द्वार पर तेरे।
इसमें वह अभिमन्त्रित जल था,
जिसमें अमिषेकों का बल था,
पर मेरे कर्मों का फल था
वह पानी ढल गया हरे रे !
दे तू मुझको दण्ड, विधाता,
पर कोदण्ड-गुणों से दाता,
एक तार भी दे, बन त्राता,
बजे वेदना साँझ-सवेरे !
आश्वासन-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
अरे, डराते हो क्यों मुझको,
कहकर उसका अटल विधान ?
"कर्तुमकर्त्तमन्यथाकर्तुम्"
है स्वतन्त्र मेरा भगवान ।
उत्तर उसे आप लेना है,
नहीं दूसरे को देना है,
मेरी नाव किसे खेना है?
जो है वैसा दया-निधान?
अरे, डराते हो क्यों मुझको,
कहकर उसका अटल विधान ?
ध्यान-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
हे भगवान !
तेरा ध्यान-
जो करता है क्यों करता है?
सुख के अर्थ
तो है व्यर्थ ।
सुख से तो पशु भी चरता है!
परमाराध्य
सुख है साध्य ।
फिर क्या वह श्रम से डरता है?
तुझसे, नाथ !
पाकर हाथ-
नर भव-सागर भी तरता है ।।
मेरा चित्त,
सौख्य निमित्त,
तेरा ध्यान नहीं धरता है ।।
पूर्णाकार-
तुझे विचार
पूर्ण भाव पर ही मरता है ।।
पुरुषोध्योग
सब सुख भोग
दे दे कर सब दुख हरता है ।।
पर परमेश !
निभृतनिवेश ! आत्म-भाव तू ही भरता है ।
संघात-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
हममें है मचा संघात ।
सब कहें अपनी, सुनें तब कौन किसकी बात;
जाय तम का द्वन्द्व कैसे मोह की है रात ।
अकड़ते हैं हम कि रुठ का हो रहा हिम-पात,
एक कहता है तुझे रवि अन्य सविता ख्यात ।
जानता है एक उज्जवल दूसरा अवदात ।
उदित हो तू, ज्ञान का हो जाय आय प्रभात,
देख ले सब, एक तू बहु नाम तेरे तात ।
कामना-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
हरे ! तुम्हारी करुणा-धारा
तारा - हाराकारा,
धोती रहे धरा के धब्बे,
बहे ग्लानि-श्रम सारा।
जीवन-सुधा पिये यह वसुधा,
रहे भवाब्धि न खारा;
प्रेमवृष्टि सविवेक दृष्टि हो-
सृष्टि एक परिवारा ।
हरे भरे सब क्षेत्र निहारें
हम निज नेत्रों द्वारा,
मुक्ति-शुक्तियाँ फलें निरन्तर,
तके स्वर्ग निज बेचारा ।
मनीमीन हो जाय मग्न, हाँ,
रहे न कूल-किनारा,
स्वयं शांत हों सब तृष्णाएं,
घट भर जाय हमारा ।
बाँसुरी-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
या बाँसुरी ही बाँस की,
है साक्षिणी तेरी सरस-
संजीवनी-सी साँस की ।
क्या मन्त्र फूंका कान में,
बस, बज उठी यह आन में!
उस गान में, उस तान में,
गहरी गमक थी गाँस की।
यह बाँसुरी ही बाँस की।
कैसी करारी कूक थी!
आह्वान-युक्ति अचूक थी;
उठती हदय में हूक थी--
फिर फिर उसी की फाँस की;
यह बाँसुरी ही बाँस की।
मृदु अंगुलियाँ बचती रहीं,
ध्वनि-धार पर नचती रहीं,
श्रुति-सृष्टि-सी रचती रहीं,
क्या है कुशलता काँस की ?
यह बाँसुरी ही बाँस की।
निस्सारता हरकर हरे,
वे छिद्र सब तूने भरे,
क्या स्वर-सुधा-निर्झर झरे !
मैं बलि गयी उस आँस की,
यह बाँसुरी ही बाँस की ।
आहट-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
तेरी स्मृति के आघातों से
छाती छिलती रहे सदा,
चाहे तू न मिले, पर तेरी
आहट मिलती रहे सदा ।
हाल वहाँ से मैं हट जाऊँ,
जहाँ न तेरी आहट पाऊँ;
कोलाहल में भी डट जाऊँ,
झंझट झिलती रहे सदा;
चाहे तू न मिले, पर तेरी
आहट मिलती रहे सदा ।
वीणा की बहु झंकारों में,
धनुषों की शत टंकारों में,
और असंख्य अहँकारों में,
डोरी हिलती रहे सदा;
चाहे तू न मिले, पर तेरी
आहट मिलती रहे सदा।
काँटे सुई बनें, जब झाड़ी
आ जावे यात्रा में आड़ी,
तेरे गुण-सूत्रों से साड़ी
सज कर सिलती रहे सदा;
चाहे तू न मिले पर तेरी
आहट मिलती रहे सदा ।
उत्कण्ठिता-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
दूती ! बैठी हूँ सज कर मैं ।
ले चल शीघ्र मिलूं प्रियतम से,
धाम धार धन सब तज कर मैं ।।
धन्य हुई हूँ इस धरती पर,
निज जीवनधन को भज कर मैं ।
बस अब उनके अंक लगूँगी,
उनकी वीणा-सी बज कर मैं ।।
बस, बस-मैथिलीशरण गुप्त | Maithili Sharan Gupt
बस, बस, अरे हरे, बस, आहा !
तनिक ठहर जा, हा हा !
उठा न हूक लूक मुरली की,--
हो न जाय सब स्वाहा !
उठ उठ कर गिर रहीं गोपियाँ
ब्रज की गली गली में,
बुरी बात हो जाय न कोई
भावुक, भली भली में।
खलभल खलभल खेल रही है
यह कल भाप नली में,
झुलस न जायें अंगुलियाँ तेरी
लगे न कीट कली में!
दीवट-सी जल उठे न जगती
पाकर नभ का फाहा!
बस, बस, अरे हरे, बस, आहा !
तनिक ठहर जा, हा हा !
सम्मुख पड़े कहीं कोकिल तो
वहीं कष्ठ कट जावे,
क्या जानें इस ध्वनि धारा में
कहाँ कौन तट जावे ।
कितना है यह अम्बर जिसमें
स्वर-समूह अट जावे,
देख दीन ब्रह्माण्ड न घट-सा
उपट कहीं फट जावे ।
कान्ह ! प्रेम के बदले तूने
कब का वैर निवाहा ?
बस, बस, अरे हरे, बस, आहा !
तनिक ठहर जा, हा हा !
झेलेगा ये कौन प्रलय की
लय में सम के झटके?
तुझे छोड़ सरपट हय सहसा
रोकें कर किस भट के ?
कब ऐसे कल्लोल कूल पर
किस प्रवाह ने पटके,
तड़प रहे हैं प्राण शफर-से
इस वंशी में अटके ।
भला वेदना-बड़वा-फेनिल
राग-सिन्धु अवगाहा ।
बस, बस, अरे हरे, बस, आहा !
तनिक ठहर जा, हा हा !
उफने सप्त सिन्धु रस विष के
सात स्वरों में तेरे,
तीनों लोक तीन ग्रामों में-
उथल पुथल से हेरे।
काले! तेरी एक फूँक में-
मैं क्या कहूँ अरे रे!
कोटि मूर्च्छनाएँ जगती हैं
तन में मन में मेरे।
गुण का हो, पर तूने हम पर
यह कैसा गिरि ढाहा !
बस, बस, अरे हरे, बस, आहा !
तनिक ठहर जा, हा हा ।
Tags : झंकार कविता का अर्थ,कविता कोश यशोधरा,सभी देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है,निर्बल का बल कविता,झंकार सकल का अर्थ,झंकार का अर्थ,जीवन की ही जय है,जीवन कविता कोश,
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