मैथिलीशरण गुप्त-गुरुकुल Maithilisharan Gupt-Gurukul

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मैथिलीशरण गुप्त-गुरुकुल
Maithili Sharan Gupt-Gurukul 

मैथिलीशरण गुप्त-गुरु नानक | Maithili Sharan Gupt

मिल सकता है किसी जाति को
आत्मबोध से ही चैतन्य ;
नानक-सा उद्बोधक पाकर
हुआ पंचनद पुनरपि धन्य ।
साधे सिख गुरुओं ने अपने
दोनों लोक सहज-सज्ञान;
वर्त्तमान के साथ सुधी जन
करते हैं भावी का ध्यान ।
हुआ उचित ही वेदीकुल में
प्रथम प्रतिष्टित गुरु का वंश;
निश्चय नानक में विशेष था
उसी अकाल पुरुष का अंश;
सार्थक था 'कल्याण' जनक वह,
हुआ तभी तो यह गुरुलाभ;
'तृप्ता' हुई वस्तुत: जननी
पाकर ऐसा धन अमिताभ ।
 
पन्द्रहसौ छब्बीस विक्रमी
संवत् का वह कातिक मास,
जन्म समय है गुरु नानक का,-
जो है प्रकृत परिष्कृति-वास ।
जन-तनु-तृप्ति-हेतु धरती ने
दिया इक्षुरस युत बहु धान्य;
मनस्तृप्ति कर सुत माता ने
प्रकट किया यह विदित वदान्य ।
पाने लगा निरन्तर वय के
साथ बोध भी वह मतिमंत;
संवेदन आरंभ और है
आतम-निवेदन जिसका अन्त ।
आत्मबोध पाकर नानक को
रहता कैसे पर का भान ?
तृप्ति लाभ करते वे बहुधा
देकर सन्त जनों को दान ।
खेत चरे जाते थे उनके,
गाते थे वे हर्ष समेत-
"भर भर पेट चुगो री चिड़ियो,
हरि की चिड़ियां, हरि के खेत !'
 
वे गृहस्थ होकर त्यागी थे
न थे समोह न थे निस्नेह;
दो पुत्रों के मिष प्रकटे थे
उनके दोंनों भाव सदेह ।
तयागी था श्रीचन्द्र सहज ही
और संग्रही लक्ष्मीदास;
यों संसार-सिद्धि युत क्रम से
सफल हुआ उनका सन्यास ।
हुआ उदासी - मत - प्रवर्तक
मूल पुरुष श्रीचन्द्र स्टीक,
बढ़ते हैं सपूत गौरव से
आप बनाकर बनाकर अपनी लीक।
पैतृक धन का अवलम्बन तो
लेते हैं कापुरुष - कपूत,
भोगी भुजबल की विभूतियाँ
था वह लक्ष्मीदास सपूत ।
पुत्रवान होकर भी गुरु ने,
दिखलाकर आर्दश उदार,
कुलगत नहीं, शिष्य-गुणगत ही
रक्खा गदी का अधिकार ।
 
इसे विराग कहें हम उनका
अथवा अधिकाधिक अनुराग,
बढ़े लोक को अपनाने वे
करके क्षुद्र गेह का त्याग ।
प्रव्रज्या धारन की गुरु ने,
छोड़ बुद्ध सम अटल समाधि,
सन्त शान्ति पाते हैं मन में
हर हर कर औरों की आधि ।
अनुभव जन्य विचारों को निज
दे दे कर 'वाणी' का रूप
उन्हें कर्मणा कर दिखलाते
भग्यवान वे भावुक-भूप ।
एक धूर्त विस्मय की बातें
करता था गुरु बोले-'जाव,
बड़े करामाती हो तुम तो
अन्न छोड़ कर पत्थर खाव ।'
वही पूर्व आदर्श हमारे
वेद विहित, वेदांत विशिष्ट,
दिये सरल भाषा में गुरु ने
हमें और था ही क्या इष्ट ?
Maithilisharan-Gupt
 
 
उसी पोढ़ प्राचीन नीव पर
नूतन गृह-निर्माण समान
गुरु नानक के उपदेशों ने
खींचा हाल हमारा ध्यान ।
दृषदूती तट पर ऋषियों ने
गाये थे जो वैदिक मन्त्र ।
निज भाषा में भाव उन्हींके
नानक भरने लगे स्वतन्त्र ।
निर्भय होकर किया उन्होंने
साम्य धर्म का यहाँ प्रचार,
प्रीति नीति के साथ सभी को
शुभ कर्मों का है अधिकार ।
सारे, कर्मकाण्ड निष्फल हैं
न हो शुद्ध मन की यदि भक्ति,
भव्य भावना तभी फलेगी
जब होगी करने की शक्ति ।
यदि सतकर्म नहीं करते हो,
भरते नहीं विचार पुनीत,
तो जप-माला-तिलक व्यर्थ है,
उलटा बन्धन है उपवीत ।

परम पिता के पुत्र सभी सम,
कोई नहीं घृणा के योग्य;
भ्रातृभाव पूर्वक रह कर सब
पाओ सौख्य-शान्ति-आरोग्य
"काल कृपाण समान कठिन है,
शासक हैं हत्यारे घोर,"
रोक न सका उन्हें कहने से
शाही कारागार कठोर ।
अस्वीकृत कर दी नानक ने
यह कह कर बाबर की भेट-
"औरों की छीना झपटी कर
भरता है वह अपना पेट !"
जो सन्तोषी जीव नहीं हैं
क्यों न मचावेंगे वे लूट ?
लुटें कुटेंगे क्यों न भला वे
फैल रही है जिनमें फूट ?
मिले अनेक महापुरुषों से,
घूमे नानक देश विदेश;
सुने गये सर्वत्र चाव से
भाव भरे उनके उपदेश ।

हुए प्रथम उनके अनुयायी
शूद्रादिक ही श्रद्धायुक्त,
ग्लानि छोड़ गुरु को गौरव ही
हुआ उन्हें करके भय-मुक्त ।
छोटी श्रेणी ही में पहले
हो सकता है बड़ा प्रचार;
कर सकते हैं किसी तत्व को
प्रथम अतार्किक ही स्वीकार ।
समझे जाते थे समाज में
निन्दित; घृणित और जो नीच,
वे भी उसी एक आत्मा को
देख उठे अब अपने बीच ।
वाक्य-बीज बोये जो गुरु ने
क्रम से पाने लगे विकाश
यथा समय फल आये उनमें,
श्रममय सृजन, सहज है नाश ।
उन्हें सींचते रहे निरन्तर
आगे के गुरु-शिष्य सुधीर
बद्धमूल कर गये धन्य वे
देकर भी निज शोणित-नीर ।

मैथिलीशरण गुप्त-गुरु तेगबहादुर | Maithili Sharan Gupt

तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे
गुरु-पदवी के पात्र समर्थ;
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे
गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ ।
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे
पंचामृत-सर के अरविन्द;
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे
जिनसे जन्में गुरु गोविन्द ।
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे
भारत की माई के लाल;
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे
जिनका कुछ कर सका न काल ।
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे
मर कर जिला गये जो जाति;
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे
जिनके अमर नाम की ख्याति ।
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे
हुए धर्म पर जो बलिदान,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे
जिन पर है हमको अभिमान ।

तेगबहादुर, तेगबहादुर,
है विभिन्न भाषा का नाम,
किन्तु अहा ! उसके भीतर है
बस अपना ही आत्माराम ।
रहते थे वे अलग शान्ति से,
न था उन्हें गदी का लोभ;
देता है सन्तोष जिन्हें प्रभु
उन्हें नहीं छू सकता क्षोभ ।
हरिचिन्तन, हरिजन की संगति,
थे उन अतिथिदेव के काम;
तेगबहादुर ने पाया था
तेगबहादुर भी निज नाम ।
किंतु न थे मालाधारी ही
वे आचार - विचारी शुद्ध;
नाम-सत्यता दिखा चुके थे
तात-समय ही कर बहु युद्ध ।
 
गुरु हरिकृष्ण पौत्र थे, तब भी
गुरु के पद पर थे आसीन;
उनकी इच्छा पूर्ण न करते
फिर कैसे वे इच्छा-हीन ?
वरा स्वयं गुरुता ने उनको,
हुए तद्पि बाधक कुछ लोग;
पर नक्षत्रधारियों का है
जाता कहां छत्र का योग ?
देश-दशा देखी- गुरुवर ने
विचरे ज्यों वन-मध्य मिलिन्द,
पुण्य पर्यटन-फल पटने में
पाया प्रकट पुत्र गोविन्द ।
इस 'विभूति' का भी भागी था
पाटलिपुत्र, अलौकिक ओक,
जिसे दे चुके थे चिर गौरव
चन्द्रगुप्त चाणक्य अशोक ।

शासन था औरंगजेब का,
चारों ओर मचा था त्रास;
किया जा रहा था बलपूर्वक
दिन दिन हिन्दूकुल का ह्रास ।
बूढ़े बाप, बड़े भाई को
भूल गया था जिसका धर्म,
अन्य धर्मियों के प्रति उसने
किया न होगा कौन कुकर्म !
बनी काव्य-संगीत कला की
उसी शुष्क के समय समाधि,
उसने कहा-"गाड़ना ऐसे
उभर न पावे फिर यह व्याधि !"
कोप कृपा करके करता था
कूटनीति वह कुटिल, कठोर;
ऊपर से खिलने देता था
भीतर से उनमें विष घोर !
न्याय माँगने आते उससे
साधु-सन्त जन सहज विनीत,
किन्तु हूल कर हाथी उन पर
जाता वह उद्धत अवगीत ।
राक्षस यज्ञनाश करते थे,
उसके मुल्ला भी स्वच्छन्द;
करते फिरते थे दल-बल से
आर्यों के धर्मोत्सव बन्द ।
 
देव यथा दैत्यों के भय से
आये थे दधीचि के द्वार,
कुछ काश्मीरी ब्राह्मण आकर
गुरु से करने लगे गुहार,
"डूब न जाय हाय ! हे गुरुवर,
निज नन्दनवन-सा काश्मीर,
बरसाते हैं यवन-काल-घन
धेनु-रुधिर-धारा का नीर ।
हिन्दू मुसलमान होते हैं;
मन्दिर मसजिद, यह अन्याय;
निज संस्कृति-साहित्य-सभ्यता
नष्ट हो रही है निरुपाय ।
सहज सुन्दरी बहू बेटियां
हरी जा रही हैं हा आज !
रख सकते हैं एक आप ही
अपनी आर्य जाति की लाज ।
एक सूत्र में बांध हमें जो
दें धायुर्बल तेज विशेष,
शिखा-सूत्र सब टूट रहे हैं--
छूट रहे हैं भाषा-वेष
मतविभिन्नता होने पर भी
आने हैं अपने ही काम;
हम दोनों के लिए एक ही
दीख रहा है दुष्परिणाम ।
नहीं जाति से ही हिन्दू हैं,
आप धर्म से भी हैं आर्य;
निज विचार-धारा स्वतन्त्र है
आदि काल से ही अनिवार्य ।
ब्राह्म कर्म के साथ आप में
क्षात्रधर्म भी है भरपूर;
कर सकता है और कौन फिर
विकट धर्म-संकट यह दूर?
मर सकते हैं, मरते भी हैं,
मार नहीं सकते हम दीन;
क्षत्रिय जो थे शूर सिंह, अब
हुए श्रृगालों से भी हीन।
 
गुरु गम्भीर हो गये, बोले-
"सच कहते हो तुम हे विप्र !
अब अन्याय असह्य हुआ है,
छूटे यह अक्षमता क्षिप्र ।
होता नहीं बड़ा परिवर्तन
दिये बिना बलिदान विशाल;
करके दग्ध आपको दीपक
हरता है तब तम का जाल ।
दान महान हमारा जितना
होगा उतना ही प्रतिदान ।"
 
बोल उठे गोविन्द अचानक
"कौन आप-सा और महान !''
सभी सन्न थे, गुरु प्रसन्न थे,
हँसकर बोले-"अच्छी बात;
तात तुम्हीं जैसों से होगा
मेरे ऐसों का प्रतिघात !
जायो विप्रवरो, निर्भय हो
लिख दो बादशाह को पत्र-
'तेगबहादुर मुसलमान हो
तो यह मत फैले सर्वत्र
वही अग्रणी आज हमारा
हम सब हिन्दू उसके संग;'
देखो, क्या उत्तर देता है
इसका अन्यायी औरंग ।"

उत्तर तो जाना समझा था,
आते नहीं वृकों को अश्रु,
बोला वह-"हाँ, तेगबहादुर ।''
लगा झाड़ने गुम्फश्मश्रु।
रामराय पहले ही उसको
भरता था गुरु के विपरीत,
हुक्म हुआ--"झट हाजिर हो वह
ले आओ जीते जी जीत ।"
प्रस्तुत थे गुरुवर पहले ही
अब दिल्ली को दूर न मान,
वीर स्त्रियाँ बिदा देती थीं
रो रो कर गाकर शुभ गान ।
बरसे साश्रु-सुमन-जय जय से
गूँजा उनका उच्च अलिन्द;
'पिता ! पिता !" सन्नाटा छाया,
गदग्द हुए पुत्र गोविन्द ।
कहा पिता ने-"वत्स नहीं है
कातर होने का दिन आज;
व्यर्थ न होगी यह मेरी बलि,
जाग उठेगा सुप्त समाज ।
क्षात्रभाव ही आवश्यक है
भारत में संप्रति सविशेष;
वही धर्म-धन-जन-जीवन रख
रक्खेगा निज भाषा-वेश ।
जब हल, तुला और कुशधारी-
हों कृपाणधारी भी साथ,
तभी हमारे धाम-धरा-धन
जाति-धर्म सब अपने हाथ।
जन्म-मृत्यु, ये दोनों हैं निज--
उठते गिरते पलक - समान,
बस स्वतन्त्रता और मुक्ति ही
यहाँ वहाँ विभु के दो दान ।
आत्मज, और कहूँ क्या तुमसे
तुम्हें उचित शिक्षा है प्राप्त,
कवल अपनी मनोवेदना-
करदो तुम जन जन में व्याप्त ।
तुच्छ नीर से नहीं रक्त से
करता हूँ तुमको अभिषिक्त;
गुरु बन कर तुम मधुर बना दो,-
जनता का जीवन है तिक्त ।
स्वयं जनार्धन-हेतु आपको
और तुम्हें जनता के हेतु,
अर्पित करके धन्य हुआ मैं,
धारण करो धर्म का केतु ।
कट जायेंगे पुण्यभूमि की
पराधीनता के सब पाश,
पांचाली की लाज रहेगी
होगा दु:शासन का नाश ।
"जय गुरुदेव" गिरा फिर गूंजी
रहा न गौरव का परिमाण;
पाँच शिष्य लेकर ही गुरु ने
दिल्ली को कर दिया प्रयाण।
साथ न छोड़ सका गुरुवर का-
सचिव विप्र बुधवर मतिदास,
उसे प्रेम था उन पर पूरा
और उन्हें उस पर विश्वास ।
 
होते हैं स्वाधीन साधु जन,
लगी उन्हें पथ में कुछ देर;
पर सह सकता कैसे इसको
आलमगीरी का अंधेर ।
एक अकिंचन मुसलमान ने
मिल कर उनको किया प्रणाम,
कहा-"आपके लिए हाल में
एक लाख का हुआ इनाम ।"
गुरु हँस बोले- "तो आओ, मैं
दिल्ली चलूं तुम्हारे साथ !"
"मेरी ऐसी ताब कहाँ है !"
जोड़े उसने दोनों हाथ ।
"भाई, मैं तो जाता ही हूं
तुम क्यों होते नहीं निहाल ?
अहो भाग्य है यदि मुझसे हो
मालामाल एक कंगाल ।"

रक्खा गया उन्हें दिल्ली में
विद्रोही बन्दी-सा रोक,
जो स्वतंत्रचेता होते हैं,
पाते हैं शूली तक, शोक !
कैसे गति पावें कारागृह
जो अघ-अर्णव के उपकूल,
जीपनमुक्तों के चरणों की
कभी न पावें यदि वे धूल ?
बादशाह कुछ क्रूर हंसी हँस
बोला गुरु से ताना मार-
"बड़े धर्मगुरु हो, दिखलाओ
कोई करामात इस वार ।"
गुरु ने उत्तर दिया-"हुई है
करामात की ऐसी चाह
तो गलियों में बहुत मिलेंगे
बाजीगर बुलवालें शाह ।
पल में पेड़ लगा देंगे वे,
लग जावेंगे सब फल-फूल;
पर ये सब्ज बाग होते हैं
सबके सब बेजड़ - निर्मूल !
मुझे सत्य का ही आग्रह है
धर्माग्रही शाह भी ऐंन
रखते होंगें स्वयं बड़ी कुछ
करामात तब कहते हैं न!"
कहा यवन ने असि चमकाकर,
"मेरी करामात यह साफ !
बंधे पड़े हैं तुम जैसे गुरु,
मारूं चाहे कर दूँ माफ !"
"शाह बड़े भारी भ्रम में हैं,
बद्ध देह है बन्धन आप;
किन्तु मुक्त है मेरा आत्मा,
वह निर्लेप और निष्पाप ।
और यही असि करामात है,
जिस पर बादशाह को गर्व,
तो मुझमें भी चमत्कार यह-
समझूं उसको तृण-सम खर्व !''
"डरते नहीं कहो क्या तुम कुछ?
या कि हुए हो नाउम्मेद ?"
गुरु ने उत्तर दिया कि "यह भी
आप नहीं समझे, हा खेद !
नहीं डराते स्वयं किसी को,
डरें किसी से फिर क्यों वीर ?
वे निराश हों जो हों पापी,
पामर, परपीड़क, बेपीर ।
आशा क्या, विश्वास हमें है,
और यही है उसका मर्म-
छोड़ दिया फल प्रभु पर हमने,
कर्म किया है समझ स्वधर्म ।
हम क्यों डरें, डरे वह जिसको
दीख रहा हो दुष्परिणाम;
जिसने कोई पाप किया हो
लेकर किसी पुण्य का नाम ।"
बादशाह बोला-"रहने दो
अब फिजूल है ज्यादा तूल;
जीना हो तो मुसलमान हो-
शाही मजहब करो कुबूल ।"
"शाही मजहब के भी ऊपर
मानव-धर्म न भूलें शाह;
मिलते नहीं जलधि में जाकर
एक पन्थ से सभी प्रवाह ।
सतत मतस्वातंत्र्य सभी को
देता है स्वराज्य में राम;
मर्यादा रखकर नास्तिक तक
पाते हैं उसमें धन - धाम ।
प्रिय होते न एक उस प्रभु को
भिन्न-भिन्न इस भव के भाव,
तो किस भाँति अनेक मतों के
हम करने पाते प्रस्ताव ?
'जीना हो तो मुसलमान हो'
शाही मजहब करो कुबूल है;'
किन्तु मरेंगे स्वयं एक दिन
शाह कृपा कर जायें न भूल ।
आप मरें, मैं माराजाऊँ,
हो सकता है यही प्रभेद;
देगी किन्तु मुझे गौरव ही-
मेरी मृत्यु, न देगी खेद।"
कहा कुपित औरंगजेब ने
"ठीक न होगे यों तुम ढीठ;
ठहरो!'' गुरु-शिष्यों पर उसने
डाली तब डरावनी डीठ ।
"बस जबाव दो एक बात में
तुम सबको है क्या मंजूर ?"
"गुरु की विजय -विजय निज गुरु की"
गरज उठे वे पाँचों शूर ।
गुंजारित हो उठा वहां पर
"जय गुरुदेव !" नाम का नाद;
दांत पीसकर बादशाह ने
हाँक लागई-"हाँ जल्लाद !"
गिरे हाल, पाँचों सिर कट कर
हुआ धर्मबलि का मुंह लाल;
कहा गर्व-गौरव से गुरु ने
पाँचो वार-"अकाल ! अकाल !"

"दैव-दान का दुरुपयोग यह !"
बोला अति निर्भय मतिदास,
"किन्तु अमर हैं, मरे नहीं ये
इसका साक्षी हो इतिहास ।
अन्यानी को याद रहे यह
यदि उसके कर में करवाल,
तो उसके ऊपर भी प्रभु का
घूम रहा है चक्र कराल!''
बादशाह गरजा- ओ काफिर,
सोच समझ कर तू मुंह खोल,
मुसलमान हो जा, या अब क्या
तुझको भी मरना है बोल ?"
"करो मुसलमानी उनकी जो
बेचारे बच्चे अनजान,
चाहो मेरा गला काट लो,
मैं सदैव हिन्दू-संतान !''
"गला नहीं, सिर पर आरा रख
डालो इसे इसी दम चीर,"
दांस पीसने लगा क्रोध से
आज्ञा देकर आलमगीर ।
चिरता रहा ठूंठ-सा द्विजवर
प्रणव नाद का निश्चल ठाठ !
उसे सुनाते रहे अन्त तक
गद्ग्द गुरु 'जपुजी' का पाठ ।
बोला फिर कर बादशाह फिर-
"तेगबहादुर अब भी आव,
नहीं आप तुम बुतपरस्त हो
पूरे मुसलमान हो जाव।"
'नहीं मूर्ति-पूजक मैं, फिर भी
वे मेरे ही भाईबन्द,
प्रतिमा के मिस जो प्रभु की ही
पूजा करते है स्वच्छन्द ।
करते हैं तद्रूप कल्पना
जपते हैं वे जिसका नाम
भूखा है भगवान भाव का
सब में रमा हुआ है राम ।
'आप देव है, आप देहरा
आप लगाता है पूजा,
जल से लहर, लहर से जल है
कहने सुनने को दूजा।'
हिन्दू- प्रतिमा-पूजन को ही
नहीं समझते अन्तिम लक्ष,
हरिचरित्र चिन्तन करते हैं
रख कर पहले चित्र समक्ष ।
रखते हैं दो बन्धु परस्पर,
बहुधा निज विचार बहु भिन्न,
किन्तु रुधिर-सम्बंध कभी क्या
होता है उनका विच्छिन्न ?
तिथि-त्योहार; पर्व-उत्सव युत
एक हमारे हैं व्यवहार;
एक हमारे प्यारे पूर्वज,
एक प्रकृति, संस्कृति, संस्कार ।
फिर भी यदि कुछ मुसलमानपन
मानें हममें तो फिर वाह!
अब गोमांस खिलाने का ही
हठ क्यों ठान रहे हैं शाह !
दुग्धपोष्य बच्चों को खा ले,
नाग जाति की है यह ख्याति;
दूध पिलाने वाली मां तक
नहीं छोड़ती मानव जाति !
"एक वार, बस एक वार अब,
मौका देता हूँ मैं और,
मुसलमान होकर तुम मेरे
भाई हो, छोड़ो यह तौर !
"भाई ! अरे दुहाई, रहिए,
कहिए- दारा या कि मुराद ?
भाई से अरि ही अच्छा मैं
आई अब क्यों उनकी याद ?
होता नहीं बादशाहों का
कोई भाईबन्द न बाप !
मैं जो कुछ भी हूं सो मैं हूं,
और आप जो हैं सो आप।"
पैर पटक कर कहा यवन ने-
"ओ काफिर ! ओ नामाकूल,
मर कर छुट्टी पा जाऊँगा
समझ रहा है तू, यह भूल ।"

सचमुच ही उस अन्यायी ने
गुरु को बन्दीगृह में डाल,
उन्हें अनेक कष्ट दिलवाये
मरने से भी कठिन कराल।
जिला जिला कर मारा उसने,
मौत मिटा देती है कष्ट;
मिटती नहीं वेदना तब तक
जब तक न हो चेतना नष्ट।
किन्तु चेतना- भावुक गुरु की
हुई सच्चिदानन्द - निमग्न;
जड़ शरीर को जो चाहे सो
करे दग्ध, दारित या भग्न ।
कुछ दिन पीछे बादशाह ने
फिर बुलवाया उन्हें समक्ष;
पर मानों दृढ़ हुआ और भी,
पीड़ित होकर उनका पक्ष।
"अरे ! व्यर्थ ही बल दिखला कर
भरम गंवाया तूने वीर!
क्या यह आत्मा मर सकता है ?
जी सकता है कभी शरीर ?
मेरा जीवन-मन्त्र बंधा है
देख, गले में तू यह यन्त्र;
तेरी वह तलवार तुच्छ है,
मैं हूँ अब भी स्वत: स्वतन्त्र ।
"मैं स्वतन्त्र ही कर दूँ तुझको,
हो जा मरने को तैयार;
देखूँ तेरे जन्त्र - मन्त्र सब
हाँ जल्लाद, तू ले तलवार ।"
ध्यानमग्न गुरु छोड़ चुके थे
मानों पहले ही निज देह,
सिर कट गया और ऊपर को
बरसा उष्ण रुधिर का मेह ।
पढ़ा गया वह यन्त्र खोलकर,
सुनता था सारा दरबार,
बस इतना ही लिखा हुआ था-
"सिर दे डाला, दिया न सार !"

मांगा गुरु-शव कुछ लोगों ने
किया यवन ने अस्वीकार;
रखवा दिया उसे पहरे में
जिसमें हो न सके संस्कार।
अन्त्यज कुल का वृद्ध एक जन,
जो गुरु से था हुआ कृतार्थ।
पुत्र सहित दिल्ली पहुँचा था
इच्छापूर्वक इसी हितार्थ ।
अर्ध रात्रि, ऊँचे अट्टों की
ओट हो गया चन्द समक्ष,
पर चकोर-सम पिता-पुत्र का
अब भी सम्मुख था निज लक्ष ।
सुन पड़ती थी कहीं कहीं से
गीतध्वनि, मृदंग की थाप,
झूम झरोखों पर लटपट-सा
वायु छटपटाता था आप,
प्रहरी नीचे झीम स्वप्न में
देख रहे थे ऊँचे दृश्य;
किन्तु पुनीत पिता-पुत्र को
वे सब बातें थीं अस्पृश्य ।
उपर चढ़े चोर-सम दोनो
करने को शुभकार्य नितांत,
उतरे, जहाँ अस्त अरुणोपम
पड़े हुए थे गुरु चिर शान्त ।
"जय गुरुदेव, धन्य तुमने ही
धर्म बचाया अपनी ओट;
अब घर चलो, उठो हे स्वामी !
उबरूं मैं इस रज मैं लोट।"
कहा पुत्र से उसने--"जिसमें
जग प्रहरी न करें सन्देह,
गुरु को लेजा और छोड़ जा
यहीं काट कर मेरी देह।"
कहा पुत्र ने-"मुझे छोड़ कर
गुरु को ले जायो तुम आप;
बेटा फिर भी हो सकता है,
बने रहो हे मेरे बाप ।''
"पागल ! मैं मरने को ही हूँ
पर तू है कुछ करने योग्य,
इससे यह मेरा विचार ही
है तेरे आचरने योग्य ।
तू भी मुझ-सा मरना पावे
अपना ऐसा बेटा छोड़;
जाग न जायें जवन, जल्दी कर,
तुच्छ मोह तिनके-सा तोड़।"
बाप हंस रहा था, बेटे को
मानों मार गया था काठ,
स्वयं वृद्ध ने निज सिर काटा
कर जी में 'जपुजी' का पाठ ।
बेटा चौंक पड़ा, झट उसने
वहीं बाप को किया प्रणाम;
फिर गुरु-सिर लेकर बच आया
रथ में रख लाया गुरुधाम ।
था आनन्द पुरपांगण में
हाहाकार कि जयजयकार !
रोते रोते गाते थे सब-
"सिर दे डाला, दिया न सार !
कांप उठा आकाश अचानक
प्रान्त प्रान्त कर उठा पुकार-
सुना सभी ने, कहा सभी ने-
"सिर दे डाला, दिया न सार ।
उबल उठे उत्तप्त पंचनद,
रहा क्षोभ का वार न पार,
हर हर करके हहराये वे-
"सिर दे डाला, दिया न सार ।
 
 

साकेत सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

साकेत निवेदन मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

प्रथम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 1 Maithili Sharan Gupta

द्वितीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 2 Maithili Sharan Gupta

तृतीय सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 3 Maithili Sharan Gupta

चतुर्थ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 4 Maithili Sharan Gupta

पंचम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त Sarg 5 Maithili Sharan Gupta

षष्ठ सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 6 Maithili Sharan Gupta

सप्तम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 7 Maithili Sharan Gupta

अष्ठम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 8 Maithili Sharan Gupta

नवम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 9 Maithili Sharan Gupta

दशम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 10 Maithili Sharan Gupta

एकादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 11 Maithili Sharan Gupta

द्वादश सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Sarg 12 Maithili Sharan Gupta

 
 

Tags : नहुष मैथिलीशरण गुप्त summary,मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं,मैथिलीशरण गुप्त गुरुकुल,राजा नहुष की कथा आधार चेतन,सभी देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है,राजा नहुष का उद्धार,नहुष नाटक,राम काव्य पर आधारित मैथिलीशरण गुप्त की रचना है,King nahusha  

 

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