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हिंदी कविता
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-ज़िन्दां-नामा
Faiz Ahmed Faiz-Zindan Nama in Hindi
बात बस से निकल चली है - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
बात बस से निकल चली है
दिल की हालत सँभल चली है
जब जुनूँ हद से बढ़ चला है
अब तबीअ'त बहल चली है
अश्क़ ख़ूँनाब हो चले हैं
ग़म की रंगत बदल चली है
या यूँ ही बुझ रही हैं शमएँ
या शबे-हिज़्र टल चली है
लाख पैग़ाम हो गये हैं
जब सबा एक पल चली है
जाओ, अब सो रहो सितारो
दर्द की रात ढल चली है
२१ नवंबर १९५३, मिंटगुमरी जेल
(ख़ूँनाब=लहु-रंगे)
दमक रहा है तेरी दोस्ती का माहे-तमाम
छलक रही है तेरे हुस्ने-मेहरबाँ की शराब
भरा हुआ है लबालब हर एक निगाह का जाम
गले में तंग तिरे हरफ़े-लुतफ़ की बाहें
पसे-ख़याल कहीं सायते-सफ़र का पयाम
अभी से याद में ढलने लगी है सोहबते-शब
हरेक रू-ए-हसीं हो चला है बेश हसीं
मिले कुछ ऐसे जुदा यूं हुए कि 'फ़ैज़' अबके
जो दिल पे नकश बनेगा वो गुल है दाग़ नहीं
हांगचायो (चीन) जुलाई १९५६
(शर्क़ो-गर=पूर्व-पच्छम)
गुल खिले जाते हैं, वह साय-ए-दर तो देखो
ऐसे-नादाँ भी न थे जाँ से गुज़रने वाले
नासेहो, पन्दगरो, राहगुज़र तो देखो
वह तो वह है, तुम्हें हो जायेगी उल्फत मुझ से
एक नज़र तुम मेरा महबूबे-नज़र तो देखो
वो जो अब चाक गरेबाँ भी नहीं करते हैं
देखनेवालो, कभी उनका जिगर तो देखो
दामने दर्द तो गुलज़ार बना रक्खा है
आओ, एक दिन दिले-पुरखूं का हुनर तो देखो
सुबह की तरह झमकता है शबे-ग़म का उफ़क़
फ़ैज़ ताबिन्दगी-ए-दीदा-ए-तर तो देखो
मिंटगुमरी जेल ४ मारच, १९५५
(नासेहो,पन्दगरो=उपदेश देने वाले,
दिले-पुरख़ूं=लहु भरा दिल)
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
कफ़स उदास है, यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे, ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री है शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत सँवार चले
हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार-तार चले
मुक़ाम "फैज़" कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
मिंटगुमरी जेल २९ जनवरी १९५४
दुश्नाम तो नहीं है ये इकराम ही तो है
करते हैं जिस पे ता'न, कोई जुर्म तो नहीं
शौक़े-फ़ुज़ूलो-उल्फ़ते-नाकाम ही तो है
दिल मुद्दई के हर्फ़े-मलामत से शाद है
ऐ जाने-जाँ ये हर्फ़ तिरा नाम ही तो है
दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है
दस्ते-फ़लक में, गर्दिशे-तक़दीर तो नहीं
दस्ते-फ़लक में, गर्दिशे-अय्याम ही तो है
आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो यारे-ख़ुशख़साल सरे-बाम ही तो है
भीगी है रात 'फ़ैज़' ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्ते-सरोद , दर्द का हंगाम ही तो है
मिंटगुमरी ज़ैल ९ मार्च १९५४
सद शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं
मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ, दिल बेच आयें जाँ दे आयें
दिल वालो कूचः-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं
जिस धज से कोई मक़्तल में गया वो शान सलामत रहती है
ये जान तो आनी जानी है, इस जाँ की तो कोई बात नहीं
मैदाने-वफ़ा दरबार नहीं, याँ नामो-नसब की पूछ कहाँ
आशिक़ तो किसी का नाम नहीं, कुछ इ'श्क़ किसी की ज़ात नहीं
गर बाज़ी इ'श्क़ की बाज़ी है, जो चाहो लगा दो डर कैसा
गर जीत गए तो क्या कहना, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं
मिंटगुमरी जेल
हम बादाकशों के हिस्से में, अब जाम में कमतर जाती है
यूं अर्ज़ो-तलब से कब ऐ दिल, पत्थरदिल पानी होते हैं
तुम लाख रजा की ख़ू डालो, कब ख़ू-ए-सितमगर जाती है
बेदादगरों की बस्ती है, याँ दाद कहाँ ख़ैरात कहाँ
सर फोड़ती फिरती है नादाँ फ़रियाद जो दर दर जाती है
हाँ, जाँ के जियाँ की हमको भी तशवीश है लेकिन क्या कीजे
हर रह जो उधर को जाती है, मक़तल से गुज़र कर जाती है
अब कूचा-ए-दिलबर क रहरौ, रहज़न भी बने तो बात बने
पहरे से अदू टलते ही नहीं, और रात बराबर जाती है
हम अहले क़फ़स तनहा भी नहीं, हर रोज़ नसीमे-सुबह-वतन
यादों से मुअत्तर आती है, अश्क़ों से मुनव्वर जाती है
(मुहतसिब=रोक लगाने वाला, वाइज़=धर्म-प्रचारक,
बेदादगर=ज़ुल्मी, मक़तल=कत्लगाह, अदू=दुश्मन,
मुअत्तर=सुगंधित, मुनव्वर=रौशन)
शबे-सियह से तलब हुस्ने-यार करते रहे
ख़याले-यार, कभी ज़िक्रे-यार करते रहे
इसी मताअ पे हम रोज़गार करते रहे
नहीं शिकायते-हिज़्रां कि इस वसीले से
हम उनसे रिश्ता-ए-दिल उस्तवार करते रहे
वो दिन कि कोई भी जब वजहे-इन्तज़ार न थी
हम उनमे तेरा सिवा इन्तज़ार करते रहे
हम अपने राज़ पे नाज़ां थे शर्मसार न थे
हर एक से सुख़ने-राज़दार करते रहे
ज़िया-ए-बज़्मे-जहां बार-बार मांद हुई
हदीसे-शोलारुख़ां बार-बार करते रहे
उन्ही के फ़ैज़ से बाज़ारे-अक़्ल रौशन है
जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे
हम लोग सुर्ख-रू हैं कि मंजिल से आये हैं
शम्मए नज़र, खयाल के अंजुम, जिगर के दाग़
जितने चिराग़ हैं तेरी महफ़िल से आये हैं
उठकर तो आ गये हैं तेरी बज़्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आये हैं
हर इक क़दम अज़ल था, हर इक ग़ाम ज़िन्दगी
हम घूम-फिर के कूचा-ए-क़ातिल से आये हैं
बादे-ख़िज़ां का शुक्र करो फ़ैज़ जिसके हाथ
नामे किसी बहार-शमाइल से आये हैं
शोख़ी-ए-रंगे-गुलसिताँ है वही
सर वही है तो आस्ताँ है वही
जाँ वही है तो जाने-जाँ है वही
अब जहाँ मेहरबाँ नहीं कोई
कूचः-ए-यारे-मेहरबाँ है वही
बर्क़ सौ बार गिरके ख़ाक हुई
रौनक़े-ख़ाके-आशियाँ है वही
आज की शब विसाल की शब है
दिल से हर रोज़ दास्ताँ है वही
चाँद-तारे इधर नहीं आते
वरना ज़िंदाँ में आसमाँ है वही
मिंटगुमरी जेल
(आस्ताँ=चौखट, बर्क़=बिजली)
दिल था कि फिर बहल गया, जां थी कि फिर सम्हल गयी
बज़्मे-खयाल में तेरे हुस्न की शमा जल गयी
दर्द का चांद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गयी
जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक-महक उठी
जब तेरा ग़म जगा लिया, रात मचल-मचल गयी
दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम
कहने में उनके सामने, बात बदल बदल गयी
आखिरे-शब के हमसफर, फ़ैज़ न जाने क्या हुए
रह गयी किस जगह सबा, सुबह किधर निकल गयी
शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की
तुझको देखा तो सैर-चश्म हुए
तुझको चाहा तो और चाह न की
तेरे दस्ते-सितम का इज्ज़ नहीं
दिल ही काफ़िर था जिसने आह न की
थे शबे-हिज़्र काम और बहुत
हमने फ़िक्रे-दिले-तबाह न की
कौन क़ातिल बचा है शहर में फ़ैज़
जिससे यारों ने रस्मो-राह न की
(सैर-चश्म=आँखें तृप्त होना, इज्ज़=
कमजोरी)
सज़ा खता-ए-नज़र से पहले, इताब ज़ुर्मे-सुखन से पहले
जो चल सको तो चलो के राहे-वफा बहुत मुख्तसर हुई है
मुक़ाम है अब कोई न मंजिल, फराज़े-दारो-रसन से पहले
नहीं रही अब जुनूं की ज़ंजीर पर वह पहली इजारदारी
गिरफ्त करते हैं करनेवाले खिरद पे दीवानापन से पहले
करे कोई तेग़ का नज़ारा, अब उनको यह भी नहीं गवारा
ब-ज़िद है क़ातिल कि जाने-बिस्मिल फिगार हो जिस्मो-तन से पहले
गुरूरे-सर्वो-समन से कह दो कि फिर वही ताज़दार होंगे
जो खारो-खस वाली-ए-चमन थे, उरूजे-सर्वो-समन से पहले
इधर तक़ाज़े हैं मसहलत के, उधर तक़ाज़ा-ए-दर्द-ए-दिल है
ज़बां सम्हाले कि दिल सम्हाले, असीर ज़िक्रे-वतन से पहले
क्या ख़बर आज ख़रामां सरे-गुलज़ार है कौन
शाम गुलनार हुई जाती है देखो तो सही
ये जो निकला है लिये मशअले-रुख़सार है कौन
रात महकी हुई आई है कहीं से, पूछो
आज बिखराये हुए जुल्फे-तरहदार है कौन
फिर डरे-दिल पे कोई देता है रह-रह दस्तक
जानिए फिर दिले-वहशी का तलबगार है कौन
न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है
किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से तेरे सबब से है
हुआ है जब से दिल-ए-नासुबूर बेक़ाबू
कलाम तुझसे नज़र को बड़े अदब से है
अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले
तरह तरह की तलब तेरे रंगे-लब से है
कहाँ गए शबे-फ़ुरक़त के जागनेवाले
सितारा-ए-सहरी हमक़लाम कब से है
कूचा-ए-यार से बे-नैलो-मराम आता है
हर कोई शहर में फिरता है सलामत-दामन
रिंद मयख़ाने से शाइस्ता-ख़राम आता है
हवसे-मुतरिबो-साक़ी मे परीशां अकसर
अब्र आता है कभी माहे-तमाम आता है
शौक़वालों की हज़ीं महफिले-शब में अब भी
आमदे सुबह की सूरत तेरा नाम आता है
अब भी एलाने-सहर करता हुआ मस्त कोई
दाग़े-दिल कर के फ़रोज़ाँ सरे-शाम आता है
(कासिद=संदेश देने वाला, बे-नैलो-मराम=
निराश, हवसे-मुतरिबो-साक़ी=गायकों और
शराब पिलाने वालों की लालसा, हज़ीं=दुखी)
किसी के दस्ते-इनायत ने कुंजे-ज़िन्दां में
किया है आज अजब दिलनवाज़ बन्दोबस्त
महक रही है फ़ज़ा ज़ुल्फ़े-यार की सूरत
हवा है गरमी-ए-ख़ुशबू से इस तरह सरमस्त
अबी अभी गुज़रा है कोयी गुलबदन गोया
कहीं करीब से, गेसू-ब-दोश गुंचा-ब-दस्त
लिये है बू-ए-रफ़ाकत अगर हवा-ए-चमन
तो लाख पहरे बिठायें कफ़स पे ज़ुलम-परस्त
हमेशा सबज़ रहेगी वो शाख़े-मेहरो-वफ़ा
कि जिसके साथ बंधी है दिलों की फ़तह-ओ-शिकस्त
ये शे'रे-हाफ़िजे-शीराज़, ऐ सबा, कहना,
मिले जो तुझसे कहीं वो हबीबे-अम्बरदस्त
"ख़लल पिज़ीर बुवद हर बिना कि मी बीनी
बजुज़ बिना-ए-महब्बत कि ख़ाली अज़ ख़लल अस्त"
(हबीबे-अम्बरदस्त=सुगंधित हाथों वाला दोस्त,
दोष=कंधा, रफ़ाकत=दोस्ती, ख़लल…अस्त =हरेक
नींव में दरार पड़ जाती है परन्तु मोहब्बत की नींव
में नहीं)
यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
अज़ीमतर है कि उसकी शाख़ों में
लाख मशा'ल-बकफ़ सितारों
के कारवाँ, घिर के खो गए हैं
हज़ार महताब उसके साए
में अपना सब नूर, रो गए हैं
यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
मगर इसी रात के शजर से
यह चंद लमहों के ज़र्द पत्ते
गिरे हैं और तेरे गेसुओं में
उलझ के गुलनार हो गए हैं
इसी की शबनम से, ख़ामुशी के
यह चंद क़तरे, तेरी ज़बीं पर
बरस के, हीरे पिरो गए हैं
2
बहुत सियह है यह रात लेकिन
इसी सियाही में रूनुमा है
वो नहरे-ख़ूँ जो मेरी सदा है
इसी के साए में नूर गर है
वो मौजे-ज़र जो तेरी नज़र है
वो ग़म जो इस वक़्त तेरी बाँहों
के गुलसिताँ में सुलग रहा है
(वो ग़म जो इस रात का समर है)
कुछ और तप जाए अपनी आहों
की आँच में तो यही शरर है
हर इक सियह शाख़ की कमाँ से
जिगर में टूटे हैं तीर जितने
जिगर से नीचे हैं, और हर इक
का हमने तीशा बना लिया है
3
अलम नसीबों, जिगर फ़िगारों
की सुबह अफ़्लाक पर नहीं है
जहाँ पे हम-तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रौशन उफ़क़ यहीं है
यहीं पे ग़म के शरार खिल कर
शफ़क का गुलज़ार बन गए हैं
यहीं पे क़ातिल दुखों के तीशे
क़तार अंदर क़तार किरनों
के आतशीं हार बन गए हैं
यह ग़म जो इस रात ने दिया है
यह ग़म सहर का यक़ीं बना है
यक़ीं जो ग़म से करीमतर है
सहर जो शब से अज़ीमतर है
बेशक, सितम जनाब के सब दोस्ताना थे
हाँ, जो जफ़ा भी आपने की क़ायदे से की
हाँ, हम ही कारबंदे-उसूले-वफ़ा न थे
आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ
भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे
क्यों दादे ग़म हमीं ने तलब की, बुरा किया
हमसे जहाँ में कुश्तये-ग़म और क्या न थे
गर फ़िक्रे-जख़्म की तो ख़तावार हैं कि हम
क्यों मह्वे-मद्हे-ख़ूबी-ए-तेग़े-अदा न थे
हर चारागर को चारागरी से गुरेज़ था
वरना हमें जो दुख थे, बहुत ला-दवा न थे
लब पर है तल्ख़िए-मय-ए-अय्याम, वरना 'फ़ैज़'
हम तल्ख़ि-ए-कलाम पे माइल ज़रा न थे
दीवारों को चाट रहा है तनहाई का ज़हर
दूर उफ़ुक़ तक घटती-बढ़ती, उठती-गिरती रहती है
कोहर की सूरत बेरौनक़ दर्दों की गँदली लहर
बस्ता है इस कोहर के पीछे रौशनियों का शहर
ऐ रौशनियों के शहर
कौन कहे किस सम्त है तेरी रौशनियों की राह
हर जानिब बेनूर खड़ी है हिज्र की शहर पनाह
थक कर हर सू बैठ रही है शौक़ की माँद सिपाह
आज मेरा दिल फ़िक्र में है
ऐ रौशनियों के शहर
शब ख़ूँ से मुँह फेर न जाए अरमानों की रौ
ख़ैर हो तेरी लैलाओं की, उन सब से कह दो
आज की शब जब दिए जलाएँ ऊँची रखें लौ
से मुतासिर होकर लिखी गई)
तेरे होंटों के फूलों की चाहत में हम
दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे गए
तेरे हाथों की शम्म'ओं की हसरत में हम
नीमतारीक राहों में मारे गए
सूलियों पर हमारे लबों से परे
तेरे होंटों की लाली लपकती रही
तेरी ज़ुल्फ़ों की मस्ती बरस्ती रही
तेरे हाथों की चाँदी चमक़ती रही
जब धुली तेरी राहों में शामे-सितम
हम चले आए, लाए जहाँ तक क़दम
लब पे हर्फ़े-ग़जल, दिल में क़दीले-ग़म
अपना ग़म था गवाही तेरे हुस्न की
देख क़ायम रहे इस गवाही पे हम
हम जो तारीक राहों में मारे गए
नारसाई अगर अपनी तक़दीर थी
तेरी उल्फ़त तो अपनी ही तदबीर थी
किसको शिकवा है गो शौक के सिलसिले
हिज्र की क़त्लगाहों से सब जा मिले
क़त्लगाहों से चुन कर हमारे अलम
और निकलेंगे उश्शाक़ के क़ाफ़िले
जिनकी राहे तलब से हमारे क़दम
मुख़्तसर कर चले दर्द के फ़ासिले
कर चले जिनकी ख़ातिर जहाँगीर हम
जाँ गँवा कर तेरी दिलबरी का भरम
हम जो तारीक राहों में मारे गए
हरेक अपने मसीहा के ख़ूं का रंग लिये
हरेक वसले-ख़ुदावन्द की उमंग लिये
किसी पे करते हैं अबरे-बहार को कुरबां
किसी पे कत्ल महे-ताबनाक करते हैं
किसी पे होती है सरमस्त शाख़सार दो-नीम
किसी पे बादे-सबा को हलाक करते हैं
हर आये दिन ये ख़ुदावन्दगाने-मेहरो-जमाल
लहू में ग़रक मिरे ग़मकदे में आते हैं
और आए दिन मिरी नज़रों के सामने उनके
शहीद जिसम सलामत उठाये जाते हैं
(वसले-ख़ुदावन्द=ईश्वर को मिलने, अबर=
बादल, महे-ताबनाक=चमकदार चाँद, नीम=
टुकड़े, ख़ुदावन्दगाने-मेहरो-जमाल=तरस
और सुंदरता के मालिक)
फ़िकर आ लेगी कि तनहायी का क्या चारा करे
दर्द आएगा दबे पांव, लिये सुरख़ चिराग़
वह जो इक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे
शोला-ए-दर्द जो पहलू में लपक उट्ठेगा
दिल की दीवार पे हर नकश दमक उट्ठेगा
हलका-ए-ज़ुल्फ़ कहीं, गोशा-ए-रुख़सार कहीं
हजर का दशत कहीं, गुलशने-दीदार कहीं
लुतफ़ की बात कहीं, प्यार का इकरार कहीं
दिल से फिर होगी मिरी बात कि ऐ दिल, ऐ दिल
ये जो महबूब बना है तिरी तनहायी का
ये तो महमां है घड़ी-भर का चला जायेगा
इससे कब तेरी मुसीबत का मदावा होगा
मुशतइल होके अभी उट्ठेंगे वहशी साये
ये चला जायेगा, रह जायेंगे बाकी साये
रात-भर जिनसे तिरा ख़ून-ख़राबा होगा
जंग ठहरी है कोयी खेल नहीं है, ऐ दिल
दुश्मने-जां हैं सभी सारे के सारे कातिल
ये कड़ी रात भी, ये साये भी, तनहायी भी
दर्द और जंग में कुछ मेल नहीं है, ऐ दिल
लायो, सुलगायो कोयी जोशे-ग़ज़ब का अंगार
तैश की आतिशे-जररार कहां है, लाओ
वो दहकता हुआ गुलज़ार कहां है, लाओ
जिसमें गरमी भी है, हरकत भी, तवानायी भी
हो न हो अपने कबीले का भी कोयी लशकर
मुंतज़िर होगा अंधेरे की फ़सीलों के उधर
उनको शोलों के रजज़ अपना पता तो देंगे
ख़ैर, हम तक वो न पहुंचे भी, सदा तो देंगे
दूर कितनी है अभी सुबह, बता तो देंगे
आ जाओ, मैंने सुन ली तिरे ढोल की तरंग
आ जाओ, मस्त हो गई मेरे लहू की ताल
"आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा"
आ जाओ, मैंने धूल से माथा उठा लिया
आ जाओ, मैंने छील दी आँखों से ग़म की छाल
आ जाओ, मैंने दर्द से बाजू छुड़ा लिया
आ जाओ, मैंने नोच दिया बेकसी का जाल
"आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा"
पंजे में हथकड़ी की कड़ी बन गई है गुर्ज़
गर्दन का तौक़ तोड़ के ढाली है मैंने ढाल
"आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा"
जलते हैं हर कछार में भालों के मिरग-नैन,
दुश््मन लहू से रात की कालिख हुई है लाल
"आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा"
धरती धड़क रही है मिरे साथ, ऐफ़्रीक़ा
दरिया थिरक रहा है तो बन दे रहा है ताल
मैं ऐफ़्रीक़ा हूँ, धार लिया मैंने तेरा रूप
मैं तू हूँ, मेरी चाल है तेरी बबर की चाल
"आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा"
आओ, बबर की चाल
आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा
मिंटगुमरी जेल, १४ जनवरी १९५५
(अफ़्रीका कम बैक=अफ़्रीका के स्वतंत्रता-प्रेमियों
का एक नारा, रजज़=वीरोचित गर्वोक्ति के पद)
बिस्मिल पौदों को
बे-आब सिसकते मत छोड़ो
सब नोच लो
बेकल फूलों को
शाख़ों पे बिलकते मत छोड़ो
यह फ़स्ल उमीदों की हमदम
इस बार भी ग़ारत जाएगी
सब मेहनत सुबहों-शामों की
अबके भी अकारथ जाएगी
खेती के कोनों-खुदरों में
फिर अपने लहू की खाद भरो
फिर मिट्टी सींचो अश्कों से
फिर अगली रुत की फ़िक्र करो
फिर अगली रुत की फ़िक्र करो
जब फिर इक बार उजड़ना है
इक फ़स्ल पकी तो भर पाया
जब तक तो यही कुछ करना है
मिंटगुमरी जेल, 30 मार्च 1955
(बिस्मिल=मरे हुए,निष्प्राण)
कू-ए-सितम की ख़ामुशी आबाद कुछ तो हो
कुछ तो कहो सितमकशो फ़रियाद कुछ तो हो
बेदादगर से शिकवा-ए-बेदाद कुछ तो हो
बोलो कि शोरे-हशर की ईजाद कुछ तो हो
मरने चले तो स्तवते-कातिल का ख़ौफ़ क्या
इतना तो हो कि बांधने पाये न दस्तो-पा
मकत्ल में कुछ तो रंग जमे जशने-रकस का
रंगीं लहू से पंजा-ए-सैयाद कुछ तो हो
ख़ूं पर गवाह दामने-जल्लाद कुछ तो हो
जब ख़ूं-बहा तलब करें बुनियाद कुछ तो हो
गर तन नहीं, ज़बां सही, आज़ाद कुछ तो हो
दुश्नाम, नाला, हा-ओ-हू, फ़रियाद कुछ तो हो
चीख़े है दर्द, ऐ दिले-बरबाद कुछ तो हो
बोलो कि शोरे-हशर की ईजाद कुछ तो हो
बोलो कि रोज़े-अदल की बुनियाद कुछ तो हो
(सितमकश=ज़ुल्म सहने वाले, शोरे-हश्र=
प्रलय का कोलाहल, स्त्वत=आतंक, ख़ूं-बहा=
ख़ून की कीमत)
मुद्दतें बीत गईं हैं तुम्हें चलते-चलते
ख़त्म हो जाए जो दो-चार क़दम और चलो
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्ते-फ़रामोशी का
जिससे आगे न कोई मैं हूँ, न कोई तुम हो
साँस थामें हैं निग़ाहें, कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ, गुज़र जाओ, या मुड़ कर देखो
गरचे वाकिफ़ हैं निगाहें, के ये सब धोखा है
गर कहीं तुमसे हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहाँ होगा मुकाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और ज़ुंबिश-ए-बाजू का सफ़र
दूसरी बात भी झूठी है कि दिल जानता है
याँ कोई मोड़, कोई दश्त, कोई घात नहीं
जिसके परदे में मेरा माहे-रवाँ डूब सके
तुमसे चलती रहे ये राह, यूँ ही अच्छा है
तुमने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं!
(दशते-फरामोशी=भूल जाने का जंगल, मुकाबिल=
सामने, पैहम=लगातार, माहे-रवाँ=चलता चाँद)
कोई करता ही नहीं ज़ब्त की ताकीद अबके
लुत्फ़ कर, ऐ निगहे-यार, कि ग़मवालों ने
हसरते-दिल की उठाई नहीं तमहीद अबके
चाँद देखा तेरी आँखों में, न होठों पे शफ़क़
मिलती-जुलती है शबे-ग़म से तिरी दीद अबके
दिल दुखा है न वह पहला-सा, न जाँ तड़पी है
हम ही ग़ाफ़िल थे कि आई ही नहीं ईद अबके
फिर से बुझ जाएँगी शमएँ जो हवा तेज़ चली
लाके रक्खो सरे-महफ़िल कोई ख़ुरशीद अबके
कराची, १४ अगस्त १९५५
अश्क़ ख़ूँनाब हो चले हैं
ग़म की रंगत बदल चली है
या यूँ ही बुझ रही हैं शमएँ
या शबे-हिज़्र टल चली है
लाख पैग़ाम हो गये हैं
जब सबा एक पल चली है
जाओ, अब सो रहो सितारो
दर्द की रात ढल चली है
२१ नवंबर १९५३, मिंटगुमरी जेल
(ख़ूँनाब=लहु-रंगे)
बिसाते-रक़्स पे साद शर्क़ो-गरब से सरे शाम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
बिसाते-रक़्स पे साद शर्क़ो-गरब से सरे शामदमक रहा है तेरी दोस्ती का माहे-तमाम
छलक रही है तेरे हुस्ने-मेहरबाँ की शराब
भरा हुआ है लबालब हर एक निगाह का जाम
गले में तंग तिरे हरफ़े-लुतफ़ की बाहें
पसे-ख़याल कहीं सायते-सफ़र का पयाम
अभी से याद में ढलने लगी है सोहबते-शब
हरेक रू-ए-हसीं हो चला है बेश हसीं
मिले कुछ ऐसे जुदा यूं हुए कि 'फ़ैज़' अबके
जो दिल पे नकश बनेगा वो गुल है दाग़ नहीं
हांगचायो (चीन) जुलाई १९५६
(शर्क़ो-गर=पूर्व-पच्छम)
गर्मी-ए-शौक़े-नज़ारा का असर तो देखो - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
गर्मी-ए-शौक़े-नज़ारा का असर तो देखोगुल खिले जाते हैं, वह साय-ए-दर तो देखो
ऐसे-नादाँ भी न थे जाँ से गुज़रने वाले
नासेहो, पन्दगरो, राहगुज़र तो देखो
वह तो वह है, तुम्हें हो जायेगी उल्फत मुझ से
एक नज़र तुम मेरा महबूबे-नज़र तो देखो
वो जो अब चाक गरेबाँ भी नहीं करते हैं
देखनेवालो, कभी उनका जिगर तो देखो
दामने दर्द तो गुलज़ार बना रक्खा है
आओ, एक दिन दिले-पुरखूं का हुनर तो देखो
सुबह की तरह झमकता है शबे-ग़म का उफ़क़
फ़ैज़ ताबिन्दगी-ए-दीदा-ए-तर तो देखो
मिंटगुमरी जेल ४ मारच, १९५५
(नासेहो,पन्दगरो=उपदेश देने वाले,
दिले-पुरख़ूं=लहु भरा दिल)
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चलेचले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
कफ़स उदास है, यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे, ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री है शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत सँवार चले
हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार-तार चले
मुक़ाम "फैज़" कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
मिंटगुमरी जेल २९ जनवरी १९५४
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो हैदुश्नाम तो नहीं है ये इकराम ही तो है
करते हैं जिस पे ता'न, कोई जुर्म तो नहीं
शौक़े-फ़ुज़ूलो-उल्फ़ते-नाकाम ही तो है
दिल मुद्दई के हर्फ़े-मलामत से शाद है
ऐ जाने-जाँ ये हर्फ़ तिरा नाम ही तो है
दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है
दस्ते-फ़लक में, गर्दिशे-तक़दीर तो नहीं
दस्ते-फ़लक में, गर्दिशे-अय्याम ही तो है
आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो यारे-ख़ुशख़साल सरे-बाम ही तो है
भीगी है रात 'फ़ैज़' ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्ते-सरोद , दर्द का हंगाम ही तो है
मिंटगुमरी ज़ैल ९ मार्च १९५४
कब याद में तेरा साथ नहीं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हात में तेरा हात नहींसद शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं
मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ, दिल बेच आयें जाँ दे आयें
दिल वालो कूचः-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं
जिस धज से कोई मक़्तल में गया वो शान सलामत रहती है
ये जान तो आनी जानी है, इस जाँ की तो कोई बात नहीं
मैदाने-वफ़ा दरबार नहीं, याँ नामो-नसब की पूछ कहाँ
आशिक़ तो किसी का नाम नहीं, कुछ इ'श्क़ किसी की ज़ात नहीं
गर बाज़ी इ'श्क़ की बाज़ी है, जो चाहो लगा दो डर कैसा
गर जीत गए तो क्या कहना, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं
मिंटगुमरी जेल
कुछ मुहतसिबों की ख़ल्बत में - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कुछ मुहतसिबों की ख़ल्बत में, कुछ वाइज़ के घर जाती हैहम बादाकशों के हिस्से में, अब जाम में कमतर जाती है
यूं अर्ज़ो-तलब से कब ऐ दिल, पत्थरदिल पानी होते हैं
तुम लाख रजा की ख़ू डालो, कब ख़ू-ए-सितमगर जाती है
बेदादगरों की बस्ती है, याँ दाद कहाँ ख़ैरात कहाँ
सर फोड़ती फिरती है नादाँ फ़रियाद जो दर दर जाती है
हाँ, जाँ के जियाँ की हमको भी तशवीश है लेकिन क्या कीजे
हर रह जो उधर को जाती है, मक़तल से गुज़र कर जाती है
अब कूचा-ए-दिलबर क रहरौ, रहज़न भी बने तो बात बने
पहरे से अदू टलते ही नहीं, और रात बराबर जाती है
हम अहले क़फ़स तनहा भी नहीं, हर रोज़ नसीमे-सुबह-वतन
यादों से मुअत्तर आती है, अश्क़ों से मुनव्वर जाती है
(मुहतसिब=रोक लगाने वाला, वाइज़=धर्म-प्रचारक,
बेदादगर=ज़ुल्मी, मक़तल=कत्लगाह, अदू=दुश्मन,
मुअत्तर=सुगंधित, मुनव्वर=रौशन)
रहे-ख़िजाँ में तलाशे-बहार करते रहे - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
रहे ख़िज़ां में तलाशे-बहार करते रहेशबे-सियह से तलब हुस्ने-यार करते रहे
ख़याले-यार, कभी ज़िक्रे-यार करते रहे
इसी मताअ पे हम रोज़गार करते रहे
नहीं शिकायते-हिज़्रां कि इस वसीले से
हम उनसे रिश्ता-ए-दिल उस्तवार करते रहे
वो दिन कि कोई भी जब वजहे-इन्तज़ार न थी
हम उनमे तेरा सिवा इन्तज़ार करते रहे
हम अपने राज़ पे नाज़ां थे शर्मसार न थे
हर एक से सुख़ने-राज़दार करते रहे
ज़िया-ए-बज़्मे-जहां बार-बार मांद हुई
हदीसे-शोलारुख़ां बार-बार करते रहे
उन्ही के फ़ैज़ से बाज़ारे-अक़्ल रौशन है
जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे
सब क़त्ल होके तेरे मुक़ाबिल से आये हैं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
सब क़त्ल होके तेरे मुक़ाबिल से आये हैंहम लोग सुर्ख-रू हैं कि मंजिल से आये हैं
शम्मए नज़र, खयाल के अंजुम, जिगर के दाग़
जितने चिराग़ हैं तेरी महफ़िल से आये हैं
उठकर तो आ गये हैं तेरी बज़्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आये हैं
हर इक क़दम अज़ल था, हर इक ग़ाम ज़िन्दगी
हम घूम-फिर के कूचा-ए-क़ातिल से आये हैं
बादे-ख़िज़ां का शुक्र करो फ़ैज़ जिसके हाथ
नामे किसी बहार-शमाइल से आये हैं
शाख़ पर ख़ूने-गुल रवाँ है वही - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शाख़ पर ख़ूने-गुल रवाँ है वहीशोख़ी-ए-रंगे-गुलसिताँ है वही
सर वही है तो आस्ताँ है वही
जाँ वही है तो जाने-जाँ है वही
अब जहाँ मेहरबाँ नहीं कोई
कूचः-ए-यारे-मेहरबाँ है वही
बर्क़ सौ बार गिरके ख़ाक हुई
रौनक़े-ख़ाके-आशियाँ है वही
आज की शब विसाल की शब है
दिल से हर रोज़ दास्ताँ है वही
चाँद-तारे इधर नहीं आते
वरना ज़िंदाँ में आसमाँ है वही
मिंटगुमरी जेल
(आस्ताँ=चौखट, बर्क़=बिजली)
शामे-फिराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गयी - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शामे-फिराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गयीदिल था कि फिर बहल गया, जां थी कि फिर सम्हल गयी
बज़्मे-खयाल में तेरे हुस्न की शमा जल गयी
दर्द का चांद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गयी
जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक-महक उठी
जब तेरा ग़म जगा लिया, रात मचल-मचल गयी
दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम
कहने में उनके सामने, बात बदल बदल गयी
आखिरे-शब के हमसफर, फ़ैज़ न जाने क्या हुए
रह गयी किस जगह सबा, सुबह किधर निकल गयी
शैख साहब से रस्मो-राह न की - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शैख साहब से रस्मो-राह न कीशुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की
तुझको देखा तो सैर-चश्म हुए
तुझको चाहा तो और चाह न की
तेरे दस्ते-सितम का इज्ज़ नहीं
दिल ही काफ़िर था जिसने आह न की
थे शबे-हिज़्र काम और बहुत
हमने फ़िक्रे-दिले-तबाह न की
कौन क़ातिल बचा है शहर में फ़ैज़
जिससे यारों ने रस्मो-राह न की
(सैर-चश्म=आँखें तृप्त होना, इज्ज़=
कमजोरी)
सितम की रस्में बहुत थीं लेकिन, न थी तेरी अंजुमन से पहले - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
सितम की रस्में बहुत थीं लेकिन, न थी तेरी अंजुमन से पहलेसज़ा खता-ए-नज़र से पहले, इताब ज़ुर्मे-सुखन से पहले
जो चल सको तो चलो के राहे-वफा बहुत मुख्तसर हुई है
मुक़ाम है अब कोई न मंजिल, फराज़े-दारो-रसन से पहले
नहीं रही अब जुनूं की ज़ंजीर पर वह पहली इजारदारी
गिरफ्त करते हैं करनेवाले खिरद पे दीवानापन से पहले
करे कोई तेग़ का नज़ारा, अब उनको यह भी नहीं गवारा
ब-ज़िद है क़ातिल कि जाने-बिस्मिल फिगार हो जिस्मो-तन से पहले
गुरूरे-सर्वो-समन से कह दो कि फिर वही ताज़दार होंगे
जो खारो-खस वाली-ए-चमन थे, उरूजे-सर्वो-समन से पहले
इधर तक़ाज़े हैं मसहलत के, उधर तक़ाज़ा-ए-दर्द-ए-दिल है
ज़बां सम्हाले कि दिल सम्हाले, असीर ज़िक्रे-वतन से पहले
सुबह की आज जो रंगत है वो पहले तो न थी - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
सुबह की आज जो रंगत है वो पहले तो न थीक्या ख़बर आज ख़रामां सरे-गुलज़ार है कौन
शाम गुलनार हुई जाती है देखो तो सही
ये जो निकला है लिये मशअले-रुख़सार है कौन
रात महकी हुई आई है कहीं से, पूछो
आज बिखराये हुए जुल्फे-तरहदार है कौन
फिर डरे-दिल पे कोई देता है रह-रह दस्तक
जानिए फिर दिले-वहशी का तलबगार है कौन
तिरी उमीद, तिरा इंतज़ार जब से है - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
तिरी उमीद, तिरा इंतज़ार जब से हैन शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है
किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से तेरे सबब से है
हुआ है जब से दिल-ए-नासुबूर बेक़ाबू
कलाम तुझसे नज़र को बड़े अदब से है
अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले
तरह तरह की तलब तेरे रंगे-लब से है
कहाँ गए शबे-फ़ुरक़त के जागनेवाले
सितारा-ए-सहरी हमक़लाम कब से है
यूँ बहार आई है इस बार कि जैसे क़ासिद - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
यूँ बहार आई है इस बार कि जैसे क़ासिदकूचा-ए-यार से बे-नैलो-मराम आता है
हर कोई शहर में फिरता है सलामत-दामन
रिंद मयख़ाने से शाइस्ता-ख़राम आता है
हवसे-मुतरिबो-साक़ी मे परीशां अकसर
अब्र आता है कभी माहे-तमाम आता है
शौक़वालों की हज़ीं महफिले-शब में अब भी
आमदे सुबह की सूरत तेरा नाम आता है
अब भी एलाने-सहर करता हुआ मस्त कोई
दाग़े-दिल कर के फ़रोज़ाँ सरे-शाम आता है
(कासिद=संदेश देने वाला, बे-नैलो-मराम=
निराश, हवसे-मुतरिबो-साक़ी=गायकों और
शराब पिलाने वालों की लालसा, हज़ीं=दुखी)
ऐ हबीबे-अम्बरदस्त - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
(एक अजनबी ख़ातून के नाम ख़ुशबू का तोहफ़ा वसूल होने पर)किसी के दस्ते-इनायत ने कुंजे-ज़िन्दां में
किया है आज अजब दिलनवाज़ बन्दोबस्त
महक रही है फ़ज़ा ज़ुल्फ़े-यार की सूरत
हवा है गरमी-ए-ख़ुशबू से इस तरह सरमस्त
अबी अभी गुज़रा है कोयी गुलबदन गोया
कहीं करीब से, गेसू-ब-दोश गुंचा-ब-दस्त
लिये है बू-ए-रफ़ाकत अगर हवा-ए-चमन
तो लाख पहरे बिठायें कफ़स पे ज़ुलम-परस्त
हमेशा सबज़ रहेगी वो शाख़े-मेहरो-वफ़ा
कि जिसके साथ बंधी है दिलों की फ़तह-ओ-शिकस्त
ये शे'रे-हाफ़िजे-शीराज़, ऐ सबा, कहना,
मिले जो तुझसे कहीं वो हबीबे-अम्बरदस्त
"ख़लल पिज़ीर बुवद हर बिना कि मी बीनी
बजुज़ बिना-ए-महब्बत कि ख़ाली अज़ ख़लल अस्त"
(हबीबे-अम्बरदस्त=सुगंधित हाथों वाला दोस्त,
दोष=कंधा, रफ़ाकत=दोस्ती, ख़लल…अस्त =हरेक
नींव में दरार पड़ जाती है परन्तु मोहब्बत की नींव
में नहीं)
मुलाक़ात - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
1यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
अज़ीमतर है कि उसकी शाख़ों में
लाख मशा'ल-बकफ़ सितारों
के कारवाँ, घिर के खो गए हैं
हज़ार महताब उसके साए
में अपना सब नूर, रो गए हैं
यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
मगर इसी रात के शजर से
यह चंद लमहों के ज़र्द पत्ते
गिरे हैं और तेरे गेसुओं में
उलझ के गुलनार हो गए हैं
इसी की शबनम से, ख़ामुशी के
यह चंद क़तरे, तेरी ज़बीं पर
बरस के, हीरे पिरो गए हैं
2
बहुत सियह है यह रात लेकिन
इसी सियाही में रूनुमा है
वो नहरे-ख़ूँ जो मेरी सदा है
इसी के साए में नूर गर है
वो मौजे-ज़र जो तेरी नज़र है
वो ग़म जो इस वक़्त तेरी बाँहों
के गुलसिताँ में सुलग रहा है
(वो ग़म जो इस रात का समर है)
कुछ और तप जाए अपनी आहों
की आँच में तो यही शरर है
हर इक सियह शाख़ की कमाँ से
जिगर में टूटे हैं तीर जितने
जिगर से नीचे हैं, और हर इक
का हमने तीशा बना लिया है
3
अलम नसीबों, जिगर फ़िगारों
की सुबह अफ़्लाक पर नहीं है
जहाँ पे हम-तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रौशन उफ़क़ यहीं है
यहीं पे ग़म के शरार खिल कर
शफ़क का गुलज़ार बन गए हैं
यहीं पे क़ातिल दुखों के तीशे
क़तार अंदर क़तार किरनों
के आतशीं हार बन गए हैं
यह ग़म जो इस रात ने दिया है
यह ग़म सहर का यक़ीं बना है
यक़ीं जो ग़म से करीमतर है
सहर जो शब से अज़ीमतर है
वासोख़्त - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
सच है, हमीं को आपके शिकवे बजा न थेबेशक, सितम जनाब के सब दोस्ताना थे
हाँ, जो जफ़ा भी आपने की क़ायदे से की
हाँ, हम ही कारबंदे-उसूले-वफ़ा न थे
आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ
भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे
क्यों दादे ग़म हमीं ने तलब की, बुरा किया
हमसे जहाँ में कुश्तये-ग़म और क्या न थे
गर फ़िक्रे-जख़्म की तो ख़तावार हैं कि हम
क्यों मह्वे-मद्हे-ख़ूबी-ए-तेग़े-अदा न थे
हर चारागर को चारागरी से गुरेज़ था
वरना हमें जो दुख थे, बहुत ला-दवा न थे
लब पर है तल्ख़िए-मय-ए-अय्याम, वरना 'फ़ैज़'
हम तल्ख़ि-ए-कलाम पे माइल ज़रा न थे
ऐ रौशनियों के शहर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
सब्ज़ा-सब्ज़ा सूख रही है फीकी, ज़र्द दोपहरदीवारों को चाट रहा है तनहाई का ज़हर
दूर उफ़ुक़ तक घटती-बढ़ती, उठती-गिरती रहती है
कोहर की सूरत बेरौनक़ दर्दों की गँदली लहर
बस्ता है इस कोहर के पीछे रौशनियों का शहर
ऐ रौशनियों के शहर
कौन कहे किस सम्त है तेरी रौशनियों की राह
हर जानिब बेनूर खड़ी है हिज्र की शहर पनाह
थक कर हर सू बैठ रही है शौक़ की माँद सिपाह
आज मेरा दिल फ़िक्र में है
ऐ रौशनियों के शहर
शब ख़ूँ से मुँह फेर न जाए अरमानों की रौ
ख़ैर हो तेरी लैलाओं की, उन सब से कह दो
आज की शब जब दिए जलाएँ ऊँची रखें लौ
हम जो तारीक राहों में मारे गए - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
(ईथेल और जूलियस रोजनबर्ग के खतोंसे मुतासिर होकर लिखी गई)
तेरे होंटों के फूलों की चाहत में हम
दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे गए
तेरे हाथों की शम्म'ओं की हसरत में हम
नीमतारीक राहों में मारे गए
सूलियों पर हमारे लबों से परे
तेरे होंटों की लाली लपकती रही
तेरी ज़ुल्फ़ों की मस्ती बरस्ती रही
तेरे हाथों की चाँदी चमक़ती रही
जब धुली तेरी राहों में शामे-सितम
हम चले आए, लाए जहाँ तक क़दम
लब पे हर्फ़े-ग़जल, दिल में क़दीले-ग़म
अपना ग़म था गवाही तेरे हुस्न की
देख क़ायम रहे इस गवाही पे हम
हम जो तारीक राहों में मारे गए
नारसाई अगर अपनी तक़दीर थी
तेरी उल्फ़त तो अपनी ही तदबीर थी
किसको शिकवा है गो शौक के सिलसिले
हिज्र की क़त्लगाहों से सब जा मिले
क़त्लगाहों से चुन कर हमारे अलम
और निकलेंगे उश्शाक़ के क़ाफ़िले
जिनकी राहे तलब से हमारे क़दम
मुख़्तसर कर चले दर्द के फ़ासिले
कर चले जिनकी ख़ातिर जहाँगीर हम
जाँ गँवा कर तेरी दिलबरी का भरम
हम जो तारीक राहों में मारे गए
दरीचा - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
गड़ी हैं कितनी सलीबें मिरे दरीचे मेंहरेक अपने मसीहा के ख़ूं का रंग लिये
हरेक वसले-ख़ुदावन्द की उमंग लिये
किसी पे करते हैं अबरे-बहार को कुरबां
किसी पे कत्ल महे-ताबनाक करते हैं
किसी पे होती है सरमस्त शाख़सार दो-नीम
किसी पे बादे-सबा को हलाक करते हैं
हर आये दिन ये ख़ुदावन्दगाने-मेहरो-जमाल
लहू में ग़रक मिरे ग़मकदे में आते हैं
और आए दिन मिरी नज़रों के सामने उनके
शहीद जिसम सलामत उठाये जाते हैं
(वसले-ख़ुदावन्द=ईश्वर को मिलने, अबर=
बादल, महे-ताबनाक=चमकदार चाँद, नीम=
टुकड़े, ख़ुदावन्दगाने-मेहरो-जमाल=तरस
और सुंदरता के मालिक)
दर्द आयेगा दबे पांव - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
और कुछ देर में जब मिरे तनहा दिल कोफ़िकर आ लेगी कि तनहायी का क्या चारा करे
दर्द आएगा दबे पांव, लिये सुरख़ चिराग़
वह जो इक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे
शोला-ए-दर्द जो पहलू में लपक उट्ठेगा
दिल की दीवार पे हर नकश दमक उट्ठेगा
हलका-ए-ज़ुल्फ़ कहीं, गोशा-ए-रुख़सार कहीं
हजर का दशत कहीं, गुलशने-दीदार कहीं
लुतफ़ की बात कहीं, प्यार का इकरार कहीं
दिल से फिर होगी मिरी बात कि ऐ दिल, ऐ दिल
ये जो महबूब बना है तिरी तनहायी का
ये तो महमां है घड़ी-भर का चला जायेगा
इससे कब तेरी मुसीबत का मदावा होगा
मुशतइल होके अभी उट्ठेंगे वहशी साये
ये चला जायेगा, रह जायेंगे बाकी साये
रात-भर जिनसे तिरा ख़ून-ख़राबा होगा
जंग ठहरी है कोयी खेल नहीं है, ऐ दिल
दुश्मने-जां हैं सभी सारे के सारे कातिल
ये कड़ी रात भी, ये साये भी, तनहायी भी
दर्द और जंग में कुछ मेल नहीं है, ऐ दिल
लायो, सुलगायो कोयी जोशे-ग़ज़ब का अंगार
तैश की आतिशे-जररार कहां है, लाओ
वो दहकता हुआ गुलज़ार कहां है, लाओ
जिसमें गरमी भी है, हरकत भी, तवानायी भी
हो न हो अपने कबीले का भी कोयी लशकर
मुंतज़िर होगा अंधेरे की फ़सीलों के उधर
उनको शोलों के रजज़ अपना पता तो देंगे
ख़ैर, हम तक वो न पहुंचे भी, सदा तो देंगे
दूर कितनी है अभी सुबह, बता तो देंगे
अफ़्रीका कम बैक - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
(एक रजज़)आ जाओ, मैंने सुन ली तिरे ढोल की तरंग
आ जाओ, मस्त हो गई मेरे लहू की ताल
"आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा"
आ जाओ, मैंने धूल से माथा उठा लिया
आ जाओ, मैंने छील दी आँखों से ग़म की छाल
आ जाओ, मैंने दर्द से बाजू छुड़ा लिया
आ जाओ, मैंने नोच दिया बेकसी का जाल
"आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा"
पंजे में हथकड़ी की कड़ी बन गई है गुर्ज़
गर्दन का तौक़ तोड़ के ढाली है मैंने ढाल
"आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा"
जलते हैं हर कछार में भालों के मिरग-नैन,
दुश््मन लहू से रात की कालिख हुई है लाल
"आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा"
धरती धड़क रही है मिरे साथ, ऐफ़्रीक़ा
दरिया थिरक रहा है तो बन दे रहा है ताल
मैं ऐफ़्रीक़ा हूँ, धार लिया मैंने तेरा रूप
मैं तू हूँ, मेरी चाल है तेरी बबर की चाल
"आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा"
आओ, बबर की चाल
आ जाओ, ऐफ़्रीक़ा
मिंटगुमरी जेल, १४ जनवरी १९५५
(अफ़्रीका कम बैक=अफ़्रीका के स्वतंत्रता-प्रेमियों
का एक नारा, रजज़=वीरोचित गर्वोक्ति के पद)
यह फ़स्ल उमीदों की हमदम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
सब काट दो
बिस्मिल पौदों को
बे-आब सिसकते मत छोड़ो
सब नोच लो
बेकल फूलों को
शाख़ों पे बिलकते मत छोड़ो
यह फ़स्ल उमीदों की हमदम
इस बार भी ग़ारत जाएगी
सब मेहनत सुबहों-शामों की
अबके भी अकारथ जाएगी
खेती के कोनों-खुदरों में
फिर अपने लहू की खाद भरो
फिर मिट्टी सींचो अश्कों से
फिर अगली रुत की फ़िक्र करो
फिर अगली रुत की फ़िक्र करो
जब फिर इक बार उजड़ना है
इक फ़स्ल पकी तो भर पाया
जब तक तो यही कुछ करना है
मिंटगुमरी जेल, 30 मार्च 1955
(बिस्मिल=मरे हुए,निष्प्राण)
बुनियाद कुछ तो हो - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
(कव्वाली)कू-ए-सितम की ख़ामुशी आबाद कुछ तो हो
कुछ तो कहो सितमकशो फ़रियाद कुछ तो हो
बेदादगर से शिकवा-ए-बेदाद कुछ तो हो
बोलो कि शोरे-हशर की ईजाद कुछ तो हो
मरने चले तो स्तवते-कातिल का ख़ौफ़ क्या
इतना तो हो कि बांधने पाये न दस्तो-पा
मकत्ल में कुछ तो रंग जमे जशने-रकस का
रंगीं लहू से पंजा-ए-सैयाद कुछ तो हो
ख़ूं पर गवाह दामने-जल्लाद कुछ तो हो
जब ख़ूं-बहा तलब करें बुनियाद कुछ तो हो
गर तन नहीं, ज़बां सही, आज़ाद कुछ तो हो
दुश्नाम, नाला, हा-ओ-हू, फ़रियाद कुछ तो हो
चीख़े है दर्द, ऐ दिले-बरबाद कुछ तो हो
बोलो कि शोरे-हशर की ईजाद कुछ तो हो
बोलो कि रोज़े-अदल की बुनियाद कुछ तो हो
(सितमकश=ज़ुल्म सहने वाले, शोरे-हश्र=
प्रलय का कोलाहल, स्त्वत=आतंक, ख़ूं-बहा=
ख़ून की कीमत)
कोई आशिक़ किसी महबूबः से - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
याद की राहगुज़र जिसपे इसी सूरत सेमुद्दतें बीत गईं हैं तुम्हें चलते-चलते
ख़त्म हो जाए जो दो-चार क़दम और चलो
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्ते-फ़रामोशी का
जिससे आगे न कोई मैं हूँ, न कोई तुम हो
साँस थामें हैं निग़ाहें, कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ, गुज़र जाओ, या मुड़ कर देखो
गरचे वाकिफ़ हैं निगाहें, के ये सब धोखा है
गर कहीं तुमसे हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहाँ होगा मुकाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और ज़ुंबिश-ए-बाजू का सफ़र
दूसरी बात भी झूठी है कि दिल जानता है
याँ कोई मोड़, कोई दश्त, कोई घात नहीं
जिसके परदे में मेरा माहे-रवाँ डूब सके
तुमसे चलती रहे ये राह, यूँ ही अच्छा है
तुमने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं!
(दशते-फरामोशी=भूल जाने का जंगल, मुकाबिल=
सामने, पैहम=लगातार, माहे-रवाँ=चलता चाँद)
अगस्त १९५५ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शहर में चाक-गरेबाँ हुए नापैद अबकेकोई करता ही नहीं ज़ब्त की ताकीद अबके
लुत्फ़ कर, ऐ निगहे-यार, कि ग़मवालों ने
हसरते-दिल की उठाई नहीं तमहीद अबके
चाँद देखा तेरी आँखों में, न होठों पे शफ़क़
मिलती-जुलती है शबे-ग़म से तिरी दीद अबके
दिल दुखा है न वह पहला-सा, न जाँ तड़पी है
हम ही ग़ाफ़िल थे कि आई ही नहीं ईद अबके
फिर से बुझ जाएँगी शमएँ जो हवा तेज़ चली
लाके रक्खो सरे-महफ़िल कोई ख़ुरशीद अबके
कराची, १४ अगस्त १९५५
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Faiz Ahmed Faiz) #icon=(link) #color=(#2339bd)