Hindi Kavita
हिंदी कविता
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ - दस्ते-तहे-संग
Dast-e-Tah-e-Sung in Hindi Faiz Ahmed Faiz
आज यूं मौज-दर-मौज ग़म थम गया - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
आज यूं मौज-दर-मौज ग़म थम गया
इस तरह गमज़दों को करार आ गया
जैसे खुशबू-ए-ज़ुल्फ़े-बहार आ गई
जैसे पैग़ामे-दीदारे-यार आ गया है
जिसकी दीदो-तलब वहम समझे थे हम
रू-बा-रू फिर सरे-रहगुज़ार आ गया
सुब्हे-फ़र्दा को फिर दिल तरसने लगा
उम्रे-रफ़्ता तेरा ऐतबार आ गया
रुत बदलने लगी रँगे-दिल देखना
रँगे-गुलशन से अब हाल खुलता नहीं
ज़ख्म छलका कोई या कोई गुल खिला
अश्क उमड़े कि अब्रे-बहार आ गया
ख़ूने-उश्शाक से जाम भरने लगे
दिल सुलगने लगे, दाग़़ जलने लगे
महफ़िले-दर्द फिर रंग पर आ गई
फिर शबे-आरज़ू पर निखार आ गया
सरफ़रोशी के अंदाज़ बदले गये
दावते-क़त्ल पर मक़्तले-शहर में
डालकर कोई गर्दन में तौक़ आ गया
लाद कर कोई काँधे पे दार आ गया
'फ़ैज़' क्या जानिये यार किस आस पर
मुन्तज़िर हैं कि लायेगा कोई ख़बर
मयकशों पर हुआ मुहतसिब मेहरबाँ
दिलफ़िगारों पे क़ातिल को प्यार आ गया
बेदम हुए बीमार दवा क्यों नही देते - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
बेदम हुए बीमार दवा क्यों नही देते
तुम अच्छे मसीहा हो शफ़ा क्यों नहीं देते
दर्दे-शबे-हिज्राँ की जज़ा क्यों नहीं देते
ख़ूने-दिले-वहशी का सिला क्यों नहीं देते
मिट जाएगी मखलूक़ तो इंसाफ़ करोगे
मुंसिफ़ हो तो अब हश्र उठा क्यों नहीं देते
हाँ नुक्तावरो लाओ लबो-दिल की गवाही
हाँ नग़मागरो साज़े-सदा क्यों नही देते
पैमाने-जुनूँ हाथों को शरमाएगा कब तक
दिलवालो गरेबाँ का पता क्यों नहीं देते
बरबादी-ए-दिल जब्र नहीं 'फ़ैज़' किसी का
वो दुश्मने-जाँ है तो भुला क्यों नहीं देते
लाहौर जेल ३१ दिसम्बर, १९५८
हर सम्त परीशाँ तेरी आमद के क़रीने - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हर सम्त परीशाँ तेरी आमद के क़रीने
धोखे दिए क्या-क्या हमें बादे-सहरी ने
हर मंज़िल-ए-ग़ुरबत पे गुमाँ होता है घर का
बहलाया है हर गाम बहुत दर बदरी ने
थे बज़्म में सब दूदे-सरे-बज़्म से शादाँ
बेकार जलाया हमें रौशन नज़री ने
मयख़ाने में आजिज़ हुए आज़ुर्दादिली से
मस्जिद का न रक्खा हमें आशुफ़्ता-सरी ने
यह जामा-ए-सद-चाक बदल लेने में क्या था
मोहलत ही न दी 'फ़ैज़' कभी बख़िया गरी ने
जमेगी कैसे बिसाते-याराँ के शीशा-ओ-जाम बुझ गये हैं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
जमेगी कैसे बिसाते-याराँ कि शीशा-ओ-जाम बुझ गये हैं
सजेगी कैसे शबे-निगाराँ कि दिल सरे-शाम बुझ गये हैं
वो तीरगी है रहे-बुतां में चिरागे-रुख़ है न शम्मे-वादा
किरण कोई आरज़ू की लाओ कि सब दरो-बाम बुझ गये हैं
बहुत संभाला वफ़ा का पैमां मगर वो बरसी है अबके बरखा
हर एक इकरार मिट गया है, तमाम पैग़ाम बुझ गये हैं
करीब आ ऐ महे-शबे-ग़म नज़र पे खुलता नहीं कुछ इस दम
कि दिल पे किस-किसका नक़्श बाकी है कौन से नाम बुझ गये हैं
बहार अब आके क्या करेगी कि जिनसे था जश्ने-रंगों-नग़मा
वो गुल सरे-शाख़ जल गये हैं, वो दिल तहे-दाम बुझ गये हैं
(शबे-निगाराँ=प्रेमकियों की रात, तीरग़ी=अंधेरा)
कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल, कब रात बसर होगी - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल, कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आयेंगे, सुनते थे सहर होगी
कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
किस दिन तेरी शनवाई ऐ दीदा-ए-तर होगी
कब महकेगी फ़स्ल-ए-गुल, कब बहकेगा मयखाना
कब सुब्हे-सुख़न होगी, कब शाम-ए-नज़र होगी
वाइज़ है न ज़ाहिद है, नासेह है न क़ातिल है
अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी
कब तक अभी रह देखें ऐ क़ामते-ज़ानाना
कब हश्र मुअय्यन है तुझको तो ख़बर होगी
न गवाँओ नावके-नीमकश दिले-रेज़ा-रेज़ा गवां दिया - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
न गवाँओ नावके-नीमकश दिले-रेज़ा-रेज़ा गवां दिया
जो बचे हैं संग समेट लो, तने-दाग़-दाग़ लुटा दिया
मेरे चारागर को नवेद हो, सफे-दुश्मनां को खबर करो
जो वो कर्ज़ रखते थे जान पर वो हिसाब आज चुका दिया
करो कज जबीं पे सरे-क़फन मेरे क़ातिलों तो गुमां न हो
कि गुरूरे-इश्क़ का बांकपन पसे-मर्ग हमने भुला दिया
उधर एक हर्फ कि कुश्तनी, यहां लाख उज़्र था गुफ़्तनी
जो कहा तो सुन के उड़ा दिया, जो लिखा तो पढ़ के मिटा दिया
जो रुके तो कोहे-गरां थे हम, जो चले तो जां से गुज़र गये
रहे-यार हमने क़दम-क़दम, तुझे यादगार बना दिया
शरहे-फ़िराक़ मदहे-लबे-मुश्कबू करें - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शरहे-फ़िराक, मदहे-लबे-मुशकबू करें
गुरबतकदे में किससे तिरी गुफ़्तगू करें
यार-आशना नहीं कोई टकरायें किससे जाम
किस दिलरुबा के नाम पे ख़ाली सुबू करें
सीने पे हाथ है न नज़र को तलाशे-बाम
दिल साथ दे तो आज ग़में-आरज़ू करें
कब तक सुनेगी रात, कहां तक सुनायें हम
शिकवे गिले सब आज तिरे रू-ब-रू करें
हमदम, हदीसे-कू-ए-मलामत सुनाईयो
दिल को लहू करें कि गरेबां रफ़ू करें
आशुफ़तासर हैं, मुहतसिबो मूंह न आईयो
सर बेच दें तो फ़िकरे-दिलो-जां अदू करें
"तरदामनी पे शैख़, हमारी न जाईयो
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें"
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गए - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गए
तेरी रह में करते थे सर तलब सरे-रहगुज़ार चले गए
तेरी कज़-अदाई से हार के शबे-इंतज़ार चली गई
मेरे ज़ब्ते-हाल से रूठ कर मेरे ग़मगुसार चले गए
न सवाले-वस्ल न अर्ज़े-ग़म न हिकायतें न शिकायतें
तेरे अहद में दिले-ज़ार के सभी इख़्तियार चले गए
ये हमीं थे जिनके लिबास पर सर-ए-रू सियाही लिखी गई
यही दाग़ थे जो सजा के हम सरे-बज़्मे-यार चले गए
न रहा जुनूने-रुख़े-वफ़ा ये रसन ये दार करोगे क्या
जिन्हें जुर्मे-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गए
यक-ब-यक शोरिशे-फुगाँ की तरह - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
यक-ब-यक शोरिशे-फुगाँ की तरह
फ़स्ले-गुल आई इम्तहाँ की तरह
सहने-गुलशन में बहरे-मुश्ताकां
हर रविश खिंच गई कमां की तरह
फिर लहू से हर एक कासा-ए-दाग़
पुर हुआ जामे-अर्गवाँ की तरह
याद आया जुनूने-गुमगश्ता
बे-तलब कर्जे-दोस्ताँ की तरह
जाने किस पर हो मेहरबां क़ातिल
बे-सबब मर्गे-नागहाँ की तरह
हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ
दिल संभाले रहो जुबां की तरह
ये जफ़ा-ए-ग़म का चारा, वो नजाते-दिल का आलम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ये जफ़ा-ए-ग़म का चारा, वो नजाते-दिल का आलम
तेर हुस्न दस्त-ए-ईसा, तेरी याद रू-ए-मरीयम
दिल-ओ-जां फ़िदा-ए-राहें, कभी आ के देख हमदम
सरे-कू-ए-दिलफ़िगारां, शबे आरज़ू का आलम
तेरी दीद के सिवा है, तेरे शौक में बहारां
वो ज़मीं जहां गिरी है, तेरी गेसूओं की शबनम
ये अजब क़यामतें हैं, तेरी रहगुज़र से गुज़रा
न हुआ कि मर मिटे हम, न हुआ कि जी उठे हम
लो सुनी गई हमारी, युं फिरे हैं दिन कि फिर से
वही गोशा-ए-क़फ़स है, वही फ़स्ले-गुल का आलम
लाहौर जेल फ़रवरी, १९५९
सरे-आग़ाज़ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शायद कभी अफ़्शा हो निगाहों पे तुम्हारी
हर सादा वरक़ जिस सुख़न-ए-कुश्ता से ख़ूँ है
शायद कभी इत गीत का परचम हो सरफ़राज़
जो आमद-ए-सरसर की तमन्ना में निगूँ है
शायद कभी इस दिल की कोई रग तुम्हें चुभ जाए
जो संग-ए-सर-ए-राह की मानिंद निगूँ है ।
दस्ते-तहे-संग आमद- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
बेज़ार फ़ज़ा, दर पा-ए-आज़ार-ए-सबा है
यूं है कि हर इक हमदमे-दैरीना ख़फ़ा है
हां, बादाकशो, आया है अब रंग पे मौसम
अब सैर के काबिल रविश-ए-आब-ओ-हवा है
उमड़ी है हर इक सिमत से इलज़ाम की बरसात
छाई हुई हर दांग मलामत की घटा है
वो चीज़ भरी है कि सुलगती है सुराही
हर कासा-ए-मय ज़हर-ए-हलाहल से सिवा है
हां जाम उठायो कि ब-याद-ए-लब-ए-शीरीं
ये ज़हर तो यारों ने कई बार पिया है
इस जज़बा-ए-दिल की न सज़ा है न जज़ा है
मकसूद-ए-रह-ए-शौक वफ़ा है न जफ़ा है
एहसास-ए-ग़म-ए-दिल जो ग़म-ए-दिल का सिला है
उस हुस्न का एहसास है जो तेरी अता है
हर सुबह गुलिसतां है तिरा रू-ए-बहारी
हर फूल तेरी याद का नकश-ए-कफ़-ए-पा है
हर भीगी हुई रात तिरी ज़ुल्फ़ की शबनम
ढलता हुआ सूरज तिरे होठों की फ़ज़ा है
हर राह पहुंचती है तिरी चाह के दर तक
हर हरफ़-ए-तमन्ना तिरे कदमों की सदा है
ताज़ीर-ए-स्यासत है, न ग़ैरों की ख़ता है
वो ज़ुलम जो हमने दिल-ए-वहशी पे किया है
ज़िन्दान-ए-रह-ए-यार में पाबन्द हुए हम
ज़ंजीर-ब-कफ़ है, न कोई बन्द-ब-पा है
"मजबूरी-ओ-दावा-ए-गिरफ़तारी-ए-उलफ़त
दस्ते-तहे-संग आमद: पैमाने-वफ़ा है"
सफ़रनामा - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
पेकिंग
यूं गुमां होता है बाजू हैं मिरे साठ करोड़
और आफ़ाक की हद तक मिरे तन की हद है
दिल मिरा कोहो-दमन दशतो-चमन की हद है
मेरे कीसे मैं है रातों का सियहफ़ाम जलाल
मेरे हाथों में है सुबहों की अ'नाने-गुलगूं
मेरी आग़ोश में पलती है ख़ुदाई सारी
मेरे मकदूर में है मोजज़ए-कुन फ़यकून
सिंकियांग
अब कोई तबल बजेगा न कोई शाह सवार
सुबह दम मौत की वादी को रवाना होगा
अब कोई जंग न होगी न कभी रात गये
ख़ून की आग को अश्कों से बुझाना होगा
कोई दिल धड़केगा शब-भर न किसी आगन में
वहम मनहूस परिन्दे की तरह आयेगा
सहम, ख़ूंख़ार दरिन्दे की तरह आयेगा
अब कोई जंग न होगी मय-ओ-साग़र लाओ
ख़ूं लुटाना न कभी अश्क बहाना होगा
साकिया रक़स कोई रक़स-ए-सबा की सूरत
मुतरिबा कोई ग़ज़ल रंग-ए-हिना की सूरत
(आफ़ाक=क्षितिज, कोहो-दमन =पहाड़-टिब्बे,
अ'नाने-गुलगूं=फूलों के रंग का आकाश, मकदूर=
अंदाज़ा, मोजज़ए-कुन फ़यकून='हो जा' कहने के
साथ सृष्टि बनने का चमत्कार, मुतरिबा=गायिका)
जश्न का दिन - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
जुनूं की याद मनायो कि जश्न का दिन है
सलीब-ओ-दार सजायो कि जश्न का दिन है
तरब की बज़म है बदलो दिलों के पैराहन
जिगर के चाक सिलायो कि जश्न का दिन है
तुनुक-मिज़ाज है साकी न रंग-ए-मय देखो
भरे जो शीशा चढ़ायो कि जश्न का दिन है
तमीज़-ए-रहबर-ओ-रहज़न करो न आज के दिन
हर इक से हाथ मिलायो कि जश्न का दिन है
है इंतज़ार-ए-मलामत में नासहों का हुजूम
नज़र शंभाल के जायो कि जश्न का दिन है
बहुत अज़ीज़ हो लेकिन शिकसता दिल यारो
तुम आज याद न आओ कि जश्न का दिन है
वह शोरिश-ए-ग़म-ए-दिल जिसकी लय नहीं कोई
ग़ज़ल की धुन में सुनायो कि जश्न का दिन है
(तरब=खेड़ा, पैराहन=कपड़े, तमीज़-ए-रहबर-ओ-रहजन=
राह बताने वाले और लुटेरो का फ़र्क, नासहों=उपदेशक)
शाम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
इस तरह है कि हर इक पेड़ कोई मन्दिर है
कोई उजड़ा हुआ, बे-नूर पुराना मन्दिर
ढूंढता है जो ख़राबी के बहाने कब से
चाक हर बाम, हर इक दर का दम-ए-आख़िर है
आसमां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिसम पर राख मले, माथे पे सिन्दूर मले
सरनिगूं बैठा है चुपचाप न जाने कब से
इस तरह है कि पसे-परदा कोई साहिर है
जिसने आफ़ाक पे फैलाया है यूं सहर का दाम
दामन-ए-वकत से पैवसत है यूं दामन-ए-शाम
अब कभी शाम बुझेगी न अंधेरा होगा
अब कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा
आसमां आस लिये है कि यह जादू टूटे
चुप की ज़ंजीर कटे, वकत का दामन छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पायल बोले
कोई बुत जागे, कोई सांवली घूंघट खोले
तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
तुम ये कहते हो वो जंग हो भी चुकी
जिसमें रक्खा नहीं है किसी ने कदम
कोई उतरा न मैदां में दुश्मन न हम
कोई सफ़ बन न पाई न कोई अलम
मुंतशिर दोस्तों को सदा दे सका
अजनबी दुश्मनों का पता दे सका
तुम ये कहते हो वो जंग हो भी चुकी
जिसमें रक्खा नहीं हमने अब तक कदम
तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं
जिसम ख़सता है, हाथों में यारा नहीं
अपने बस का नहीं बारे-संगे-सितम
बारे-संगे-सितम, बारे-कुहसारे-ग़म
जिसको छूकर सभी इक तरफ़ हो गये
बात की बात में जी-शरफ़ हो गये
दोस्तो कूए-जानां की नामेहरबां
ख़ाक पर अपने रौशन लहू की बहार
अब न आयेगी क्या, अब खिलेगा न क्या
इस कफ़े-नाज़नीं पर कोई लालाज़ार
इस हज़ीं ख़ामुशी में न लौटेगा क्या
शोर-ए-आवाज़-ए-हक, नारा-ए-गीर-ओ-दार
शौक का इमतहां जो हुआ सो हुआ
जिसमों-जां का ज़ियां जो हुआ सो हुआ
सूद से पेशतर है ज़ियां और भी
दोस्तो मातम-ए-जिसम-ओ-जां और भी
और भी तलख़तर इमतहां और भी
शोरिशे-ज़ंजीर बिस्मिल्लाह - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हुई फिर इमतहान-ए-इश्क की तदबीर बिसमिल्लाह
हर इक तरफ़ मचा कुहराम-ए-दार-ओ-गीर बिसमिल्लाह
गली कूचों में बिखरी शोरिश-ए-ज़ंजीर बिसमिल्लाह
दर-ए-ज़िन्दां पे बुलवाये गये फिर से जुनूं वाले
दरीदा दामनोंवाले, परीशां गेसूओंवाले,
जहां में दर्द-ए-दिल की फिर हुई तौकीर बिसमिल्लाह
हुई फिर इमतहान-ए-इश्क की तदबीर बिसमिल्लाह
गिनो सब दाग़ दिल के, हसरतें शौकीं निगाहों की
सर-ए-दरबार पुरसिश हो रही है फिर गुनाहों की
करो यारो शुमार-ए-नाला-ए-शबगीर बिसमिल्लाह
सितम की दासतां कुशता दिलों का माजरा कहिये
जो ज़ेर-ए-लब न कहते थे वो सब कुछ बरमला कहिये
मुसिर है मुहतसिब राज़-ए-शहीदान-ए-वफ़ा कहिये
लगी है हर्फ़-ए-नागुफता पे अब ताज़ीर बिसमिल्लाह
सर-ए-मकतल चलो बे-ज़हमत-ए-तकसीर बिसमिल्लाह
हुई फिर इमतहान-ए-इश्क की तदबीर बिसमिल्लाह
आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
चशमे-नम, जाने-शोरीदा काफ़ी नहीं
तुहमते-इश्के-पोशीदा काफ़ी नहीं
आज बाज़ार में पा-ब-जौलां चलो
दस्त-अफ़शां चलो, मसतो-रख़सां चलो
ख़ाक-बर-सर चलो, ख़ूं-ब-दामां चलो
राह तकता है सब शहरे-जानां चलो
हाकिमे-शहर भी, मजमए-आम भी
तीरे इलज़ाम भी, संगे-दुशनाम भी
सुबहे-नाशाद भी, रोज़े-नाकाम भी
इनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है
शहरे-जानां में अब बा-सफ़ा कौन है
दस्ते-कातिल के शायां रहा कौन है
रख़ते-दिल बांध लो दिलफ़िगारो चलो
फिर हमीं कतल हो आयें यारो चलो
क़ैदे-तनहाई - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
दूर आफ़ाक पे लहराई कोई नूर की लहर
ख़्वाब ही ख़्वाब में बेदार हुआ दर्द का शहर
ख़्वाब ही ख़्वाब में बे-ताब नज़र होने लगी
अदम आबाद-ए-जुदाई में सहर होने लगी
कासा-ए-दिल में भरी अपनी सुबूही मैंने
घोलकर तलख़ी-ए-दीरोज़ में इमरोज़ का ज़हर
दूर आफ़ाक पे लहराई कोई नूर की लहर
आंख से दूर किसी सुबह की तमहीद लिये
कोई नग़मा, कोई ख़ुशबू, कोई काफ़िर सूरत
अदम आबाद-ए-जुदाई में मुसाफ़िर सूरत
बे-ख़बर गुज़री परीशानी-ए-उम्मीद लिये
घोलकर तलख़ी-ए-दीरोज़ में इमरोज़ का ज़हर
हसरत-ए-रोज़-ए-मुलाकात रकम की मैंने
देस-परदेस के यारान-ए-कदहख़्वार के नाम
हुस्न-ए-आफ़ाक, जमाल-ए-लब-ओ-रुख़सार के नाम
(आबाद-ए-जुदाई=विरह का यमलोक, सुबूही=
सुबह पीने वाली शराब, तलख़ी-ए-दीरोज़=बीते
दिनों की कड़वाहट, यारान-ए-कदहख़्वार=शराब
पीने वाले दोस्त)
दो मर्सिए - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
१. मुलाकात मिरी
सारी दीवार सियह हो गई ता हलका-ए-बाम
रासते बुझ गये, रुख़सत हुए रहगीर तमाम
अपनी तनहाई से गोया हुई फिर रात मिरी
हो न हो आज फिर आई है मुलाकात मिरी
इक हथेली पे हिना, इक हथेली पे लहू
इक नज़र ज़हर लिये, एक नज़र में दारू
देर से मंज़िल-ए-दिल में कोई आया न गया
फ़ुरकत-ए-दर्द में बे-आब हुआ तख़ता-ए-दाग़
किससे कहिये कि भरे रंग से ज़ख़मों के अयाग़
और फिर ख़ुद ही चली आई मुलाकात मिरी
आशना मौत जो दुश्मन भी है ग़मख़्वार भी
वो जो हम लोगों की कातिल भी है दिलदार भी
२. ख़तम हुई बारिश-ए-संग
नागहां आज मेरे तारे-नज़र से कटकर
टुकड़े-टुकड़े हुए आफ़ाक पे खुरशीद-ओ-कमर
अब किसी सिमत अंधेरा न उजाला होगा
बुझ गई दिल की तरह राह-ए-वफ़ा मेरे बाद
दोस्तो, काफ़िला-ए-दर्द का अब क्या होगा
अब कोई और करे परवरिश-ए-गुलशन-ए-ग़म
दोस्तो, ख़तम हुई दीदा-ए-तर की शबनम
थम गया शोर-ए-जुनूं, ख़तम हुई बारिश-ए-संग
ख़ाक-ए-रह आज लिये है लब-ए-दिलदार का रंग
कू-ए-जानां में खुला मेरे लहू का परचम
देखिये, देते हैं किस-किस को सदा मेरे बाद
"कौन होता है हरीफ़-ए-मये-मरद अफ़गने-इश्क
है मुकररर लब-ए-साकी पे सला मेरे बाद"
कहाँ जाओगे - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
और कुछ देर में लुट जायेगा हर बाम पे चांद
अकस खो जायेंगे आईने तरस जायेंगे
अरश के दीदा-ए-नमनाक से बारी-बारी
सब सितारे सर-ए-ख़ाशाक बरस जायेंगे
आस के मारे थके-हारे शबिसतानों में
अपनी तनहाई समेटेगा, बिछायेगा कोई
बे-वफ़ाई की घड़ी, तरक-ए-मुदारात का वकत
इस घड़ी अपने सिवा याद न आयेगा कोई
तरक-ए-दुनिया का समां, ख़तम-ए-मुलाकात का वकत
इस घड़ी ऐ दिल-ए-आवारा कहां जाओगे
इस घड़ी कोई किसी का भी नहीं, रहने दो
कोई इस वकत मिलेगा ही नहीं, रहने दो
और मिलेगा भी तो इस तौर कि पछताओगे
इस घड़ी ऐ दिल-ए-आवारा कहां जाओगे
और कुछ देर ठहर जायो कि फिर नशतर-ए-सुबह
ज़ख़म की तरह हर इक आंख को बेदार करे
और हर कुशता-ए-बामांदगी-ए-आख़िरे-शब
भूलकर साअते-दरमांदगी-ए-आख़िरे-शब
जान पहचान मुलाकात पे इसरार करे
(सर-ए-ख़ाशाक=घास फूस पर, शबिसतान=
सोने का कमरा, तर्क-ए-मुदारात=इज्जत मान
छोड़ना, कुश्ता-ए-बामांदगी-ए-आख़िरे-शब=
पिछले पहर के आलस का मारा, साअते-
दरमांदगी=बेकसी का समय)
शह्रे-याराँ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
आसमां की गोद में दम तोड़ता है तिफ़ले-अबर
जम रहा है अबर के होठों पे ख़ूं-आलूद कफ़
बुझते-बुझते बुझ गई है अरश के हुजरों में आग
धीरे-धीरे बिछ रही है मातमी तारों की सफ़
ऐ सबा, शायद तेरे हमराह ये ख़ून्नाक शाम
सर झुकाये जा रही है शहर-ए-यारां की तरफ़
शहर-ए-यारां जिसमें इस दम ढूंढती फिरती है मौत
शेरदिल बांकों में अपने तीर-ओ-नशतर के हदफ़
इक तरफ़ बजती हैं जोश-ए-ज़ीसत की शहनाईयां
इक तरफ़ चिंघाड़ते हैं अहरमन के तबल-ओ-दफ़
जाके कहना, ऐ सबा, बाद अज़ सलाम-ए-दोस्ती
आज शब जिस दम गुज़र हो शहर-ए-यारां की तरफ़
दशत-ए-सब में इस घड़ी चुपचाप है शायद रवां
साकी-ए-सुबह-ए-तरब, नग़मा-ब-लब, साग़र-ब-कफ़
वो पहुंच जाये तो होगी फिर से बरपा अंजुमन
और तरतीब-ए-मुकाम-ओ-मनसब-ओ-जाह-ओ-शरफ़
खुशा ज़मानते-ग़म - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
दयार-ए-यार तिरी जोश-ए-जुनूं पे सलाम
मिरे वतन तिरे दामन-ए-तार-तार की ख़ैर
रह-ए-यकीं तिरी अफ़साने-ख़ाक-ओ-ख़ूं पे सलाम
मिरे चमन तिरे ज़ख़मों के लालाज़ार की ख़ैर
हर एक ख़ाना-ए-वीरां की तीरगी पे सलाम
हर एक ख़ाक-ब-सर ख़ानमां-ख़राब की ख़ैर
हर एक कुशता-ए-नाहक की ख़ामशी पे सलाम
हरेक दीदा-ए-पुरनम की आब-ओ-ताब की ख़ैर
रवां रहे ये रवायत, ख़ुशा ज़मानत-ए-ग़म
निशात-ए-ख़तम-ए-ग़म-ए-कायनात से पहले
हर इक के साथ रहे दौलत-ए-अमानत-ए-ग़म
कोई नजात न पाये नजात से पहले
सुकूं मिले न कभी तेरे पा-फ़िगारों को
जमाल-ए-ख़ून-ए-सर-ए-ख़ार को नज़र न लगे
अमां मिली न कहीं तेरे जांनिसारों को
जलाल-ए-फ़रक-ए-सर-ए-दार को नज़र न लगे
जब तेरी समंदर आँखों में - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ये धूप किनारा, शाम ढले
मिलते हैं दोंनो वक़्त जहाँ
जो रात न दिन, जो आज न कल
पल भर में अमर, पल भर में धुआँ
इस धूप किनारे, पल दो पल
होठों की लपक, बाँहों की खनक
ये मेल हमारा झूठ न सच
क्यों रार करो, क्यों दोष धरो
किस कारन झूठी बात करो
जब तेरी समंदर आँखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोएँगे घर-दर वाले
और राही अपनी रह लेगा
रंग है दिल का मिरे - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
तुम न आये थे तो हर चीज़ वहीं थी कि जो है
आसमां हद्दे-नज़र, राहगुज़र राहगुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय, राहगुज़र, रंग-ए-फलक
रंग है दिल का मेरे ख़ूने-जिगर होने तक
चम्पई रंग कभी, राहते-दीदार का रंग
सुर्मई रंग की है साअते-बेज़ार का रंग
ज़र्द पत्तों का, खसो-खार का रंग
सुर्ख फूलों का, दहकते हुए गुलज़ार का रंग
ज़हर का रंग, लहू रंग, शबे-तार का रंग
आसमां, राहगुज़र, शीशा-ए-मय
कोई भीग हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग
कोई हर लहज़ा बदलता हुआ आईना है
अब जो आये हो तो ठहरो कि कोई रंग,
कोई रुत, कोई शै एक जगह पर ठहरे
फिर से इक बार हर एक चीज़ वहीं हो कि जो है
आसमां हद्दे-नज़र, राहगुज़र राहगुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
पास रहो - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
तुम मेरे पास रहो
मेरे कातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी के सियह रात चले
मरहम-ए-मुशक लिये नशतर-ए-अलमास लिये
बैन करती हुई, हंसती हुई, गाती निकले
दर्द की कासनी पाज़ेब बजाती निकले
जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिल
आसतीनों में निहां हाथों की रह तकने लगें
आस लिये
और बच्चों के बिलखने की तरह कुलकुले-मय
बहरे-नासूदगी मचले तो मनाये न मने
जब कोई बात बनाये न बने
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी सुनसान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे कातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
मंज़र - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
रहगुज़र, साये, शजर, मंज़िल-ओ-दर, हल्क़ःए-बाम
बाम पर सीना-ए-महताब खुला आहिस्ता
जिस तरह खोले कोई बंदे-क़बा आहिस्ता
हल्क़ा-ए-बाम तले, सायों का ठहरा हुआ नील
नील की झील
झील में चुपके से तैरा किसी पत्ते का हुबाब
एक पल तैरा, चला, फूट गया आहिस्ता
बहुत आहिस्ता, बहुत हल्का, ख़ुनक रंगे-शराब
मेरे शीशे में ढला आहिस्ता
शीशा-ओ-जाम, सुराही, तेरे हाथों के गुलाब
जिस तरह दूर किसी ख़्वाब का नक्श
आप ही आप बना और मिटा आहिस्ता
दिल ने दोहराया कोई हर्फ़े-वफ़ा आहिस्ता
तुमने कहा - 'आहिस्ता'
चाँद ने झुक के कहा
'और ज़रा आहिस्ता'
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