फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ दस्ते सबा Dast-e-Saba in Hindi Faiz Ahmed Faiz

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

 

दस्ते सबा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
Dast-e-Saba in Hindi Faiz Ahmed Faiz

आए कुछ अब्र कुछ शराब आए - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
उस के बाद आए जो अज़ाब आए
बामे-मीना से माहताब उतरे
दस्ते-साक़ी में आफ़्ताब आए
हर रगे-ख़ूँ में फिर चिराग़ाँ हो
सामने फिर वो बेनक़ाब आए
उ’म्र के हर वरक़ पे दिल को नज़र
तेरी मेह्‍रो-वफ़ा के बाब आए
कर रहा था ग़मे-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आए
न गई तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूँ रोज़ इन्क़लाब आए
जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम
जब भी हम ख़ानमाँ-ख़राब आए
इस तरह अपनी ख़ामशी गूँजी
गोया हर सिम्त से जवाब आए
'फ़ैज़' थी राह सर-ब-सर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए
(अज़ाब=मुसीबत, बामे-मीना=सुराही
के छज्जे पर से, माहताब=चाँद, दस्ते-
साक़ी=साक़ी का हाथ, आफ़्ताब=सूरज,
मेह्‍रो-वफ़ा=कृपा और निष्ठा, बाब=
अध्याय, ख़ानमाँ-ख़राब=जिसका घर
उजड़ गया हो)
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अब वही हर्फ़े-जुनूं सबकी ज़बां ठहरी है - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

अब वही हर्फ़े-जुनूं सबकी ज़बां ठहरी है
जो भी चल निकली है, वो बात कहां ठहरी है
आज तक शैख़ के इकराम में जो शै थी हराम
अब वही दुश्मने-दीं राहते-जां ठहरी है
है खबर आज कि फिरता है गुरेज़ां नासेह
ग़ुफ्तगू आज सरे-कू-ए-बुतां ठहरी है
है वही आरिज़े-लैला, वही शीरीं का दहन
निगाहे-शौक़ घड़ी-भर को जहां ठहरी है
वस्ल की शब थी तो किस दर्ज़ सुबुक गुज़री थी
हिज़्र की शब है तो क्या सख़्त गरां ठहरी है
बिखरी इक बार तो हाथ आयी है कब मौजे-शमीम
दिल से निकली है तो कब लब पे फुग़ां ठहरी है
दस्ते-सैयाद भी आजिज़ है, कफ़े-गुल्चीं भी
बू-ए-गुल ठहरी न बुलबुल की ज़बां ठहरी है
आते-आते यूं ही दम-भर को रुकी होगी बहार
जाते-जाते यूं ही पल-भर को ख़िज़ां ठहरी है
हमने जो तर्ज़े-फ़ुगां की है क़फ़स में ईजाद
फ़ैज़ गुलशन में वही तर्ज़े-बयां ठहरी है
(हरफ़े-जुनूं=जुनून का शब्द, इकराम=
मेहरबानी, गुरेज़ां=भागा-भागा, नासेह=
प्रचारक, कू-ए-बुतां=सुन्दरियों की गली,
आरिज़=गाल, दहन=मुँह, मौजे-शमीम=सुगंध
की लहर, दस्ते-सैयाद=शिकारी का हाथ,
कफ़े-गुलचीं=फूल तोड़ने वाली का हाथ, क़फ़स=
पिंजरा,कैद)

दिल में अब, यूँ तिरे भूले हुए ग़म आते हैं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दिल में अब, यूँ तिरे भूले हुए ग़म आते हैं
जैसे बिछड़े हुये का’बे में सनम आते हैं
एक-इक कर के हुए जाते हैं तारे रौशन
मेरी मंज़िल की तरफ़ तेरे क़दम आते हैं
रक़्से-मय तेज़ करो, साज़ की लय तेज़ करो
सू-ए-मयख़ानः सफ़ीराने-हरम आते हैं
कुछ हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग़
वो तो जब आते हैं माइल-ब-करम आते हैं
और कुछ देर न गुज़रे शब-ए-फ़ुरक़त से कहो
दिल भी कम दुखता है, वो याद भी कम आते हैं
(सनम=मूर्तियाँ, रक़्से-मय=शराब का नाच,
सू-ए-मयख़ानः=मयख़ाने की तरफ़, सफ़ीराने-
हरम=मस्जिद के दूत, माइल-ब-करम=कृपा
करने को तैयार, शब-ए-फ़ुरक़त=विरह की रात)

नज़्रे-सौदा - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूँ या न करूँ
फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूं या न करूं
ज़िक्रे-मुर्गाने-गिरफ़्तार करूं या न करूं
क़िस्सा-ए-साज़िशे-अग़यार कहूं या न कहूं
शिकवा-ए-यारे-तरहदार करूं या न करूं
जाने क्या वज़ा है अब रस्मे-वफ़ा की ऐ दिल
वज़ा-ए-दैरीना पे इसरार करूं या न करूं
जाने किस रंग में तफ़सीर करें अहले-हवस
मदहे-ज़ुल्फो-लबो-रुख़सार करूं या न करूं
यूं बहार आई है इमसाल कि गुलशन में सबा
पूछती है गुज़र इस बार करूं या न करूं
गोया इस सोच में है दिल में लहू भर के गुलाब
दामनो-जेब को गुलनार करूं या न करूं
है फक़त मुर्ग़े-ग़ज़लख़्वां कि जिसे फ़िक्र नहीं
मो'तदिल गर्मी-ए-गुफ़्तार करूं या न करूं

गरानी-ए-शबे-हिज्राँ दुचंद क्या करते - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

गरानी-ए-शबे-हिज्राँ दुचंद क्या करते
इलाजे-दर्द तेरे दर्दमंद क्या करते
वहीं लगी है जो नाज़ुक मकाम थे दिल के
ये फ़र्क़ दस्ते-अदू के गज़ंद क्या करते
जगह-जगह पे थे नासेह तो कू-ब-कू दिलबर
इन्हें पसंद, उन्हें नापसंद क्या करते
हमीं ने रोक लिया पंजा-ए-जुनूँ को वरना
हमें असीर ये कोताहकमंद क्या करते
जिन्हें ख़बर थी कि शर्ते-नवागरी क्या है
वो ख़ुशनवा गिला-ए-क़ैदो-बंद क्या करते
गुलू-ए-इश्क़ को दारो-रसन पहुँच न सके
तो लौट आए तेरे सरबलंद, क्या करते

इज्ज़े अहले-सितम की बात करो - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

इज्ज़े अहले-सितम की बात करो
इश्क़ के दम-क़दम की बात करो
बज़्मे-अहले-तरब से शरमाओ
बज़्मे-असहाबे-ग़म की बात करो
बज़्मे-सरवत के खुशनसीबों से
अज़्मते-चश्मे-नम की बात करो
है वही बात यूं भी और यूं भी
तुम सितम या करम की बात करो
ख़ैर, हैं अहले-दैर जैसे हैं
आप अहले-हरम की बात करो
हिज़्र की शब तो कट ही जायेगी
रोज़े-वस्ले-सनम की बात करो
जान जायेंगे जानने वाले
फ़ैज़ फ़रहादो-जम की बात करो

कभी-कभी याद में उभरते हैं, नक़्शे-माज़ी मिटे-मिटे से - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

कभी-कभी याद में उभरते हैं, नक़्शे-माज़ी मिटे-मिटे से
वो आज़माइश दिलो-नज़र की, वो क़ुरबतें-सी, वो फासले से
कभी-कभी आरज़ू के सहरा में आ के रुकते हैं क़ाफ़िले से
वो सारी बातें लगाव की सी, वो सारे उनवां विसाल के से
निगाहो-दिल को क़रार कैसा, निशातो-ग़म में कमी कहां की
वो जब मिले हैं तो उनसे हर बार, की है उल्फ़त नये सिरे से
बहुत गरां है ये ऐसे-तनहा, कहीं सुबुकतर, कहीं गवारा
वो दर्द-पिन्हां कि सारी दुनिया रफ़ीक़ थी जिसके वास्ते से
तुम्हीं कहो रिंदो-मुहतसिब में है आज शब कौन फ़र्क़ ऐसा
ये आ के बैठे हैं मैकदे में, वो उठ के आये हैं मैकदे से
(उनवां=शीर्षक, निशातो-ग़म=ख़ुशी-दुख, रफ़ीक=दोस्त,
रिन्दो-मुहतसिब=शराब पीने और पीने से रोकने वाला)

नज़्रे ग़ालिब - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

किसी गुमाँ पे तवक्क़ो ज़ुयादः रखते हैं
किसी गुमाँ पे तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं
फिर आज कू-ए-बुताँ का इरादा रखते हैं
बहार आएगी जब आएगी, यह शर्त नहीं
कि तशनाकाम रहें गर्चा बादा रखते हैं
तेरी नज़र का गिला क्या जो है गिला दिल को
तो हमसे है कि तमन्ना ज़ियादा रखते हैं
नहीं शराब से रंगी तो ग़र्क़े-ख़ूँ हैं के हम
ख़याले-वजहे-क़मीसो-लबादा रखते हैं
ग़मे-जहाँ हो, ग़मे-यार हो कि तीरे-सितम
जो आए, आए कि हम दिल कुशादा रखते हैं
जवाबे-वाइज़े-चाबुक-ज़बाँ में 'फ़ैज़' हमें
यही बहुत है जो दो हर्फ़े-सादा रखते हैं

क़र्जे-निगाहे-यार अदा कर चुके हैं हम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

क़र्जे-निगाहे-यार अदा कर चुके हैं हम
सब कुछ निसारे-राहे वफ़ा कर चुके हैं हम
कुछ इम्तहाने-दस्ते-जफ़ा कर चुके हैं हम
कुछ उनकी दस्तरस का पता कर चुके हैं हम
अब अहतियात की कोई सूरत नहीं रही
क़ातिल से रस्म-ओ-राह सिवा कर चुके हैं हम
देखें, है कौन-कौन, ज़रूरत नहीं रही
कू-ए-सितम में सब को ख़फ़ा कर चुके हैं हम
अब अपना अख़्तियार है, चाहे जहाँ चलें
रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम
उनकी नज़र में, क्या करें, फीका है अब भी रंग
जितना लहू था, सर्फ़े-क़बा कर चुके हैं हम
कुछ अपने दिल की ख़ू का भी शुक्राना चाहिए
सौ बार उनकी ख़ू का गिला कर चुके हैं हम

रंग पैराहन का, ख़ुशबू जुल्फ़ लहराने का नाम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रंग पैराहन का, ख़ुशबू जुल्फ़ लहराने का नाम
मौसमे गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम
दोस्तो, उस चश्म-ओ-लब की कुछ कहो जिसके बग़ैर
गुलसिताँ की बात रंगीं है, न मैख़ाने का नाम
फिर नज़र में फूल महके, दिल में फिर शम्म'एँ जलीं
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम
मोहतसिब की ख़ैर ऊँचा है उसी के 'फ़ैज़' से
रिंद का, साक़ी का, मय का, ख़ुम का, पैमाने का नाम
'फ़ैज़' उनको है तक़ाज़ा-ए-वफ़ा हम से, जिन्हें
आशना के नाम से प्यारा है बेगाने का नाम

शफ़क़ की राख में जल-बुझ गया सितारः-ए-शाम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

शफ़क़ की राख में जल-बुझ गया सितारः-ए-शाम,
शबे-फ़िराक़ के गेसू फ़ज़ा में लहराए
कोई पुकारो कि इक उम्र होने आई है
फ़लक को क़ाफ़िलः-ए-रोज़ो-शाम ठहराए
ये ज़िद है यादे-हरीफ़ाने-बादः पैमाँ की
केः शब को चाँद न निकले, न दिन को अब्र आए
सबा ने फिर दरे-ज़िंदाँ पे आ के दी दस्तक
सहर क़रीब है, दिल से कहो न घबराए
(शफ़क़=सूर्यास्त की लाली, शबे-फ़िराक़=
विरह की रात, हरीफ़ाने-बादः पैमाँ=शराब
पीनेवालों के प्रतिद्वन्द्वी)

तेरी सूरत जो दिलनशीं की है - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तेरी सूरत जो दिलनशीं की है
आशन: शक्ल हर हँसी की है
हुस्न से दिल लगाके हस्ती की
हर घड़ी हमने आतशीं की है
सुब्‍हे-गुल हो कि शामे-मयख़ान:
मदह उस रु-ए-नाज़नीं की है
शैख़ से बे-हिरास मिलते हैं
हमने तौबः अभी नहीं की है
ज़िक्रे-दोज़ख़, बयाने-हूरो-कुसूर
बात गोया यहीं कहीं की है
अश्क तो कुछ भी रंग ला न सके
ख़ूँ से तर आज आस्तीं की है
कैसे मानें हरम के सहल-पसन्द
रस्म जो आ’शिक़ों के दीं की है
’फ़ैज़’ औजे-ख़याल से हमने
आसमाँ सिंध की ज़मीं की है
(आतशीं=आग जैसी जलती हुई,
सुब्‍हे-गुल=फूल (बाग़) की सुबह,
बे-हिरास=निडर, बयाने-हूरो-कुसूर=
सुंदरियों और महलों की चर्चा, दीं=दीन,
धर्म, औजे-ख़याल=कल्पना की उड़ान)

तुम आए हो न शबे-इन्तिज़ार गुज़री है - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तुम आए हो न शबे-इन्तिज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार-बार गुज़री है
जुनूँ में जितनी भी गुज़री ब-कार गुज़री है
अगरचे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है
हुई है हज़रते-नासेह से गुफ़्तगू जिस शब
वो शब ज़रूर सरे-कू-ए-यार गुज़री है
वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है
न गुल खिले हैं, न उनसे मिले, न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है
चमन पे ग़ारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं
हदीसे-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं
तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं
हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है
जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं
सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्रे वतन
तो चश्मे-सुब्‍ह में आँसू उभरने लगते हैं
वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ो-लब की बख़ियःगरी
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं
दरे-कफ़स पे अँधेरे की मुह्‍र लगती है
तो ’फ़ैज़’ दिल में सितारे उतरने लगते हैं
(हरीम=घर, महरम=परिचित, ग़ुर्बत-नसीब=
परदेसी, नुत्क़ो-लब=वाणी और होंठ, दरे-कफ़स=
कारागार का द्वार)

वहीं हैं, दिल के क़राइन तमाम कहते हैं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

वहीं हैं, दिल के क़राइन तमाम कहते हैं
वो इक ख़लिश कि जिसे तेरा नाम कहते हैं
तुम आ रहे हो कि बजती हैं मेरी ज़ंजीरें
न जाने क्या मेरे दीवारो-बाम कहते हैं
यही कनारे-फ़लक का सियहतरीं गोशा
यही है मतलए-माहे-तमाम कहते हैं
पियो कि मुफ्त लगा दी है ख़ूने-दिल की क़शीद
गरां है अब के मये-लालफ़ाम कहते हैं
फ़क़ीहे-शहर से मय का जवाज़ क्या पूछें
कि चांदनी को भी हज़रत हराम कहते हैं
नवा-ए-मुर्ग़ को कहते हैं अब ज़ियाने-चमन
खिले न फूल इसे इन्तज़ाम कहते हैं
कहो तो हम भी चलें फ़ैज़ अब नहीं सरे-दार
वो फ़र्क़-मर्तबा-ए-ख़ासो-आम कहते हैं
(क़राइन=नज़दीक, कनारे-फ़लक=आसमान
की गोद, मतलए-माहे-तमाम=पूरे चाँद की
पृष्ट-भूमि, फ़कीहे=धर्म-शास्त्र जानने वाला,
नवा-ए-मुर्ग़= चिड़ियों का गीत, ज़ियाने-
चमन=बाग़ की हानि)

यादे-ग़ज़ालचश्मां, ज़िक्रे-समनइज़ारां - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

यादे-ग़ज़ालचश्मां, ज़िक्रे-समनइज़ारां
जब चाहा कर लिया है कुंजे-क़फ़स बहारां
आंखों में दर्दमंदी, होंठों पे उज़्रख़्वाही
जानाना-वार आई शामे-फ़िराक़े-यारां
नामूसे-जानो-दिल की बाज़ी लगी थी वरना
आसां न थी कुछ ऐसी राहे-वफाशआरां
मुज़रिम हो ख़्वाह कोई, रहता है नासेहों में
रू-ए-सुख़न हमेशा सू-ए-जिगरफ़िगारां
है अब भी वक़्त ज़ाहिद, तरमीमे-ज़ुहद कर ले
सू-ए-हरम चला है अंबोहे-बादाख़्वारां
शायद क़रीब पहुंची सुबहे-विसाल हमदम
मौजे-सबा लिये है ख़ुशबू-ए-खुशकनारां
है अपनी किश्ते-वीरां सरसब्ज़ इस यक़ीं से
आयेंगे इस तरफ़ भी इक रोज़ अब्रो-बारां
आयेगी फ़ैज़ इक दिन बादे-बहार लेकर
तस्लीमे-मयफ़रोशां, पैग़ामे-मयगुसारां

ऐ दिले-बेताब, ठहर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तीरगी है कि उंमडती ही चली आती है
शब की रग-रग से लहू फूट रहा हो जैसे
चल रही है कुछ इस अन्दाज़ से नबज़े-हस्ती
दोनों आलम का नशा टूट रहा हो जैसे
रात का गरम लहू और भी बह जाने दो
यही तारीकी तो है ग़ाज़ए-रुख़सारे-सहर
सुबह होने ही को है, ऐ दिले-बेताब, ठहर
अभी ज़ंजीर छनकती है पसे-परदए-साज़
मुतलक-उल-हुक्म है शीराज़ए-असबाब अभी
साग़रे-नाब में आंसू भी ढलक जाते हैं
लरज़िशे-पा में है पाबन्दी-ए-आदाब अभी
अपने दीवानों को दीवाना तो बन लेने दो
अपने मयख़ानों को मयख़ाना तो बन लेने दो
जल्द ये सतवते-असबाब भी उठ जायेगी
ये गरांबारी-ए-आदाब भी उठ जायेगी
ख़्वाह ज़ंजीर छनकती ही, छनकती ही रहे

सियासी लीडर के नाम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सालहा-साल ये बे-आसरा, जकड़े हुए हाथ
रात के सख़्तो-सियह सीने में पैवस्त रहे
जिस तरह तिनका समन्दर से हो सरगर्मे-सितेज़
जिस तरह तीतरी कुहसार पे यलग़ार करे
और अब रात के संगीनो-सियह सीने में
इतने घाव हैं कि जिस सिम्त नज़र जाती है
जा-ब-जा नूर ने इक जाल-सा बुन रक्खा है
दूर से सुब्‍ह की धड़कन की सदा आती है
तेरा सरमायः, तिरी आस यही हाथ तो हैं
और कुछ भी तो नहीं पास, यही हाथ तो हैं
तुझको मंज़ूर नहीं ग़ल्बः-ए-ज़ुल्मत लेकिन
तुझको मंज़ूर है ये हाथ क़लम हो जाएँ
और मशरिक़ की कमींगह में धड़कता हुआ दिन
रात की आहनी मय्यत के तले दब जाए

मिरे हमदम, मिरे दोस्त - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

गर मुझे इसका यकीं हो, मिरे हमदम, मिरे दोस्त
गर मुझे इसका यकीं हो कि तेरे दिल की थकन
तेरी आंखों की उदासी, तेरे सीने की जलन
मेरी दिलजोई, मिरे प्यार से मिट जायेगी
गर मिरा हरफ़े-तसल्ली वो दवा हो जिससे
जी उठे फिर तिरा उजड़ा हुआ बे-नूर दिमाग़
तेरी पेशानी से धुल जायें ये तज़लील के दाग़
तेरी बीमार जवानी को शफ़ा हो जाये
गर मुझे इसका यकीं हो, मिरे हमदम, मिरे दोस्त
रोज़ो-शब, शामो-सहर, मैं तुझे बहलाता रहूं
मैं तुझे गीत सुनाता रहूं हल्के, शीरीं
आबशारों के, बहारों के, चमनज़ारों के गीत
आमदे-सुबह के, महताब के, सय्यारों के गीत
तुझसे मैं हुस्नो-मुहब्बत की हिकायात कहूं
कैसे मग़रूर हसीनायों के बरफ़ाब से जिसम
गरम हाथों की हरारत में पिघल जाते हैं
कैसे इक चेहरे के ठहरे हुए मानूस नुकूश
देखते-देखते यकलख़त बदल जाते हैं
किस तरह आरिज़े-महबूब का शफ़्फ़ाफ़ बिल्लूर
यकबयक बादा-ए-अहमर से दहक जाता है
कैसे गुलचीं के लिए झुकती है ख़ुद शाख़े-गुलाब
किस तरह रात का ऐवान महक जाता है
यूं ही गाता रहूं, गाता रहूं, तेरी ख़ातिर
गीत बुनता रहूं, बैठा रहूं, तेरी ख़ातिर
पर मिरे गीत तिरे दुख का मदावा ही नहीं
नगमा जर्राह नहीं, मूनिसो-ग़मख़्वार सही
गीत नशतर तो नहीं, मरहमे-आज़ार सही
तेरे आज़ार का चारा नहीं नश्तर के सिवा
और यह सफ़्फ़ाक मसीहा मिरे कब्ज़े में नहीं
इस जहां के किसी ज़ी-रूह के कब्ज़े में नहीं
हां मगर तेरे सिवा, तेरे सिवा, तेरे सिवा

सुब्‍हे-आज़ादी - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(अगसत, '४७)
यह दाग़-दाग़ उजाला, यह शब गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका यह वो सहर तो नहीं
यह वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शबे-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीनःए-ग़मे-दिल
जवाँ लहू की पुरअसरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
पुकारती रहीं बाँहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़े-सहर की लगन
बहुत क़रीं था हसीनाने-नूर का दामन
सुबुक-सुबुक थी तमन्ना, दबी-दबी थी थकन
सुना है, हो भी चुका है फ़िराक़े जु़लमत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाले-मंज़िल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहले-दर्द का दस्तूर
निशाते-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाबे-हिज्र हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिजराँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगारे-सबा किधर को गई
अभी चिराग़े-सरे-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानिए-शब में कमी नहीं आई
निजाते-दीदा-वो-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई

लौहो-क़लम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हम परवरिशे-लौहो-क़लम करते रहेंगे
जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे
असबाबे-ग़मे-इश्क बहम करते रहेंगे
वीरानी-ए-दौराँ पे करम करते रहेंगे
हाँ, तल्ख़ी-ए-अय्याम अभी और बढ़ेगी
हाँ, अह्‍ले-सितम मश्क़े-सितम करते रहेंगे
मंज़ूर यह तल्ख़ी, ये सितम हमको गवारा
दम है तो मदावा-ए-अलम करते रहेंगे
मयख़ानः सलामत है तो हम सुर्ख़ी-ए-मय से
तजईने-दरो-बामे-हरम करते रहेंगे
बाक़ी है लहू दिल में तो हर अश्क से पैदा
रंगे-लबो रुख़सारे-सनम करते रहेंगे
इक तर्ज़े-तग़ाफ़ुल है सो वो उनको मुबारक
इक अर्ज़े-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे
(बहम=इकट्ठा, तल्ख़ी-ए-अय्याम=दिनों
की कटुता, मदावा-ए-अलम=दुख का इलाज,
तजईने-दरो-बामे-हरम=मस्जिद के द्वार और
छत की सजावट)

शोरिशे-बरबतो-नै - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

पहली आवाज़
अब सई का इमकां और नहीं, परवाज़ का मज़मूं हो भी चुका
तारों पे कमन्दें फेंक चुके, महताब पे शबख़ूं हो भी चुका
अब और किसी फ़रदा के लिए इन आंखों से क्या पैमां कीजे
किस ख़्वाब के झूठे अफ़सूं से तसकीने-दिले-नादां कीजे
शीरीनी-ए-लब, ख़ुशबू-ए-दहन, अब शौक का उनवां कोई नहीं
शादाबी-ए-दिल तफ़रीहे-नज़र, अब ज़ीसत का दरमां कोई नहीं
जीने के फ़साने रहने दो, अब इनमें उलझकर क्या लेंगे
इक मौत का धन्दा बाकी है, जब चाहेंगे निबटा लेंगे
यह तेरा कफ़न, वह मेरा कफ़न, यह मेरी लहद, वह तेरी है
दूसरी आवाज़
हस्ती की मताए-बेपायां, जागीर तेरी है न मेरी है
इस बज़्म में अपनी मशअले-दिल बिस्मिल है तो क्या रख़शां है तो क्या
यह बज़्म चिराग़ां रहती है, इक ताक अगर वीरां है तो क्या
अफ़सुरदा हैं पर अय्याम तिरे, बदला नहीं मसलके-शामो-सहर
ठहरे नहीं मौसमे-गुल के कदम, कायम है जमाले-शमसो-कमर
आबाद है वादीए-काकुलो-लब शादाबो-हसीं गुलगशते-नज़र
मकसूम है लज़्ज़ते-दरदे-जिगर, मौजूद है नेमते-दीदए-तर
इस दीदए-तर का शुकर करो, इस ज़ौके-नज़र का शुकर करो
इस शामो-सहर का शुकर करो, इन शमसो-कमर का शुकर करो
पहली आवाज़
गर है यही मसलके-शमसो-कमर इन शमसो-कमर का क्या होगा
रानाई-ए-शब का क्या होगा, अन्दाज़े-सहर का क्या होगा
जब ख़ूने-जिगर बरफ़ाब बना, जब आंखें आहनपोश हुईं
इस दीदए-तर का क्या होगा, इस ज़ौके-नज़र का क्या होगा
जब शे'र के ख़ेमे राख हुए, नग़मों की तनाबें टूट गयीं
ये साज़ कहां सर फोड़ेंगे, इस किलके-गुहर का क्या होगा
जब कुंजे-कफ़स मसकन ठहरा, और जैबो-गरेबां तौको-रसन
आये कि न आये मौसमे-गुल, इस दरदे-जिगर का क्या होगा
दूसरी आवाज़
ये हाथ सलामत हैं जब तक, इस ख़ूं में हरारत है जब तक
इस दिल में सदाकत है जब तक, इस नुतक में ताकत है जब तक
इन तौको-सलासिल को हम तुम सिखलायेंगे शोरिशे-बरबतो-नै
वो शोरिश जिसके आगे ज़ुबूं हंगामाए-तबले-कैसरो-कै
आज़ाद हैं अपने फ़िकरो-अमल, भरपूर ख़ज़ीना हिंमत का
इक उमर है अपनी हर साअत इमरोज़ है अपना हर फ़रदा
ये शामो-सहर, ये शमसो-कमर, ये अख़तरो-कौकब अपने हैं
यह लौहो-कलम, ये तबलो-अलम, ये मालो-हशम सब अपने हैं

दामने-यूसुफ़ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

जान बेचने को आये तो बे-दाम बेच दी
ऐ अहले-मिसर, वज़ए-तकल्लुफ़ तो देखिये
इंसाफ़ है कि हुक्मे-अकूबत से पेशतर
इक बार सू-ए-दामने-यूसुफ़ तो देखिये
(अकूबत=तसीहे)

तौको-दार का मौसम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रविश-रविश है वही इंतज़ार का मौसम
नहीं है कोई भी मौसम, बहार का मौसम
गरां है दिल पे ग़मे-रोज़गार का मौसम
है आज़मायशे-हुसने-निगार का मौसम
ख़ुशा नज़ारा-ए-रुख़सारे-यार की साअत
ख़ुशा करारे-दिले-बेकरार का मौसम
हदीसे-बादा-ओ-साकी नहीं तो किस मसरफ़
ख़िरामे-अबरे-सरे-कोहसार का मौसम
नसीब सोहबते-यारां नहीं तो क्या कीजे
यह रकसे-साया-ए-सरवो-चिनार का मौसम
ये दिल के दाग़ तो दुखते थे यूं भी पर कम-कम
कुछ अब के और है हिजराने-यार का मौसम
यही जुनूं का, यही तौको-दार का मौसम
यही जबर, यही इख़तियार का मौसम
कफ़स है बस में तुम्हारे, तुम्हारे बस में नहीं
चमन में आतिशे-गुल के निखार का मौसम
सबा की मस्तख़िरामी तहे-कमन्द नहीं
असीरे-दाम नहीं है बहार का मौसम
बला से हमने न देखा तो और देखेंगे
फरोग़े-गुलशनो-सौते-हज़ार का मौसम
(हुसने-निगार=प्रेमिका की सुंदरता, ख़ुशा=
धन्य है, हदीसे-बादा-ओ-साकी=शराब और
साकी का ज़िक्र, ख़िरामे-अबरे-सरे-कोहसार=
पहाड़ पर बादलों का उड़ना, रकसे-साया-ए-
सरवो-चिनार=सरू और चिनार की छावों का
नाच, तौको-दार=गले का फंदा और फाँसी,
तहे-कमन्द=फन्दे में, असीरे-दाम=जाल
मे फंसा हुआ, फरोग़े-गुलशनो-सौते-हज़ार=
हज़ारों आवाजें और बगीचों की शोभा)

सरे-मकतल - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

कव्वाली
कहां है मंज़िले-राहे-तमन्ना हम भी देखेंगे
ये शब हम पर भी गुज़रेगी, ये फ़रदा हम भी देखेंगे
ठहर ऐ दिल, जमाले-रू-ए-ज़ेबा हम भी देखेंगे
ज़रा सैकल तो हो ले तशनगी बादागुसारों की
दबा रक्खेंगे कब तक जोशे-सहबा हम भी देखेंगे
उठा रक्खेंगे कब तक जामो-मीना हम भी देखेंगे
सला आ तो चुके महफ़िल में उस कू-ए-मलामत से
किसे रोकेगा शोरे-पन्दे-बेजा हम भी देखेंगे
किसे है जाके लौट आने का यारा हम भी देखेंगे
चले हैं जानो-ईमां आज़माने आज दिलवाले
वो आयें लशकरे-अग़यारो-आदा हम भी देखेंगे
वो आयें तो सरे-मकतल, तमाशा हम भी देखेंगे
ये शब की आख़िरी साअत गरां कैसी भी हो हमदम
जो इस साअत में पिनहां है उजाला हम भी देखेंगे
जो फ़रके-सुबह पर चमकेगा तारा हम भी देखेंगे
(जमाले-रू-ए-ज़ेबा=सुंदर मुँह का रूप, सैकल=
तीखी, कू-ए-मलामत=बदनाम गली, शोरे-पन्दे-
बेजा=गलत उपदेश का कोलाहल, लश्करे-अग़यारो-
आदा=दुश्मन की फ़ौज, सरे-मकतल=कत्ल करने
की जगह, फ़र्क=माथा)

तुम्हारे हुस्न के नाम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सलाम लिखता है शायर तुम्हारे हुस्न के नाम
बिखर गया जो कभी रंगे-पैरहन सरे-बाम
निखर गयी है कभी सुबह, दोपहर, कभी शाम
कहीं जो कामते-ज़ेबा पे सज गई है कबा
चमन में सरवो-सनोबर संवर गये हैं तमाम
बनी बिसाते ग़ज़ल जब डुबो लिए दिल ने
तुम्हारे साया-ए-रुख़सारो-लब में साग़रो-जाम
सलाम लिखता है शायर तुम्हारे हुसन के नाम
तुम्हारे हाथ पे है ताबिशे-हिना जब तक
जहां में बाकी है दिलदारी-ए-उरूसे-सुख़न
तुम्हारा हुसन जवां है तो मेहरबां है फ़लक
तुम्हारा दम है तो दमसाज़ है हवा-ए-वतन
अगरचे तंग है औकात, सख़त हैं आलाम
तुम्हारी याद से शीरीं है तलख़ी-ए-अय्याम
सलाम लिखता है शायर तुम्हारे हुसन के नाम
(सरे-बाम=अटारी पर, कामते-ज़ेबा=मनमोहक
कद, कबा=चोगा, ताबिशे-हिना=मेहंदी की दमक,
दिलदारी-ए-उरूसे-सुख़न=कविता-दुल्हन की
रसिकता, दमसाज़=दोस्त, तलख़ी-ए-अय्याम=
ज़िंदगी की कड़वाहट)

तराना - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएंगे
कुछ अपनी सज़ा को पहुंचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएंगे
ऐ ख़ाक-नशीनों उठ बैठो, वो वकत करीब आ पहुंचा है
जब तख़त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे
अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िन्दानों की ख़ैर नहीं
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे
कटते भी चलो,बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल ही पे डाले जाएंगे
ऐ ज़ुल्म के मातो, लब खोलो, चुप रहने वालो, चुप कब तक
कुछ हशर तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जाएंगे

दो इश्क - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(१)
ताज़ा हैं अभी याद में ऐ साकी-ए-गुलफ़ाम
वो अकसे-रुख़े-यार से लहके हुए अय्याम
वो फूल-सी-खिलती हुयी दीदार की साअत
वो दिल-सा धड़कता हुआ उम्मीद का हंगाम
उम्मीद कि लो जागा ग़मे-दिल का नसीबा
लो शौक की तरसी हुयी शब हो गई आख़र
लो डूब गये दरद के बेख़्वाब सितारे
अब चमकेगा बे-सबर निगाहों का मुकद्दर
इस बाम से निकलेगा तिरे हुस्न का ख़ुरशीद
उस कुंज से फूटेगी किरन रंगे-हिना की
इस दर से बहेगा तिरी रफ़तार का सीमाब
उस राह पे फूलेगी शफ़क तेरी कबा की
फिर देखे हैं वो हिजर के तपते हुए दिन भी
जब फ़िकरे-दिलो-जां में फ़ुगां भूल गयी है
हर शब वो सियह बोझ कि दिल बैठ गया है
हर सुबह की लौ तीर-सी सीने में लगी है
तनहायी में क्या-क्या न तुझे याद किया है
क्या-क्या न दिले-ज़ार ने ढूंढी हैं पनाहें
आंखों से लगाया है कभी दसते-सबा को
डाली हैं कभी गरदने-महताब में बांहें
(२)
चाहा है उसी रंग में लैला-ए-वतन को
तड़पा है उसी तौर से दिल उसकी लगन में
ढूंढी है यूं ही शौक ने आसायशे-मंज़िल
रुख़सार के ख़म में कभी काकुल की शिकन में
इस जाने-जहां को भी यूं ही कलबो-नज़र ने
हंस-हंस के सदा दी, कभी रो-रो के पुकारा
पूरे किये सब हरफ़े-तमन्ना के तकाज़े
हर दरद को उजियाला, हर इक ग़म को संवारा
वापस नहीं फेरा कोई फ़रमान जुनूं का
तनहा नहीं लौटी कभी आवाज़ जरस की
ख़ैरीयते-जां, राहते-तन, सेहते-दामां
सब भूल गईं मसलहतें अहले-हवस की
इस राह में जो सब पे गुज़रती है वो गुज़री
तनहा पसे-जिन्दां कभी रुसवा सरे-बाज़ार
गरजे हैं बहुत शैख़ सरे-गोशा-ए-मिम्बर
कड़के हैं बहुत अहले-हकम बर-सरे-दरबार
छोड़ा नहीं ग़ैरों ने कोई नावके-दुशनाम
छूटी नहीं अपनों से कोई तरज़े-मलामत
इस इशक न उस इशक पे नादिम है मगर दिल
हर दाग़ है इस दिल में ब-जुज़ दाग़े-नदामत

नौहा - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मुझको शिकवा है मेरे भाई कि तुम जाते हुए
ले गए साथ मेरी उम्रे-गुज़िश्ता की किताब
उसमें तो मेरी बहुत क़ीमती तस्वीरें थीं
उसमें बचपन था मेरा, और मेरा अहदे-शबाब
उसके बदले मुझे तुम दे गए जाते-जाते
अपने ग़म का यह् दमकता हुआ ख़ूँ-रंग गुलाब
क्या करूँ भाई, ये एज़ाज़ मैं क्यूँ कर पहनूँ
मुझसे ले लो मेरी सब चाक क़मीज़ों का हिसाब
आख़िरी बार है लो मान लो इक ये भी सवाल
आज तक तुमसे मैं लौटा नहीं मायूसे-जवाब
आके ले जाओ तुम अपना ये दहकता हुआ फूल
मुझको लौटा दो मेरी उम्रे-गुज़िश्ता की किताब
(नौहा=शोक गीत, उम्रे-गुज़िशता=गुज़री उम्र,
अहदे-शबाब=जवानी का युग, एज़ाज़=सम्मान,
चाक=फटे हुए, मायूस=निराश)

ईरानी तुलबा के नाम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(जो अमन और आज़ादी की जद्द-ओ-जेहद में काम आए)
यह कौन सख़ी हैं
जिनके लहू की
अशर्फियाँ, छन-छन, छन-छन
धरती की पैहम प्यासी
कश्कोल में ढलती जाती हैं
कश्कोल को भरती जाती हैं
यह कौन जवाँ हैं अरज़े-अजम!
यह लख लुट
जिनके जिस्मों की
भरपूर जवानी का कुंदन
यूँ ख़ाक़ में रेज़ा-रेज़ा है
यूँ कूचा-कूचा बिखरा है
ऐ अरज़े अजम! ऐ अरज़े अजम
क्यूँ नोच के हँस-हँस फेंक दिए
इन आँखों ने अपने नीलम
इन होंटों ने अपने मरजाँ
इन हाथों की बेकल चाँदी
किस काम आई, किस हाथ लगी?
ऐ पूछने वाले परदेसी!
यह तिफ़्ल-ओ-जवाँ
उस नूर के नौरस मोती हैं
उस आग की कच्ची कलियाँ हैं
जिस मीठे नूर और कड़वी आग
से ज़ुल्म की अंधी रात में फूटा
सुबहे-बग़ावत का गुलशन
और सुबह हुई मन-मन, तन-तन
उन जिस्मों का सोना-चाँदी
उन चेहरों के नीलम, मरजाँ
जगमग-जगमग, रख़्शां-रख़्शां
जो देखना चाहे परदेसी
पास आए देखे जी भर कर
यह ज़ीस्त की रानी का झूमर
यह अमन की देवी का कंगन

अगस्त, १९५२ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रौशन कहीं बहार के इमकां हुए तो हैं
गुलशन में चाक चन्द गरेबां हुए तो हैं
अब भी ख़िजां का राज है लेकिन कहीं-कहीं
गोशे चमन-चमन में ग़ज़लख़्वां हुए तो हैं
ठहरी हुयी है शब की सियाही वहीं मगर
कुछ-कुछ सहर के रंग पर अफ़शां हुए तो हैं
उनमें लहू जला हो हमारा कि जानो-दिल
महफ़िल में कुछ चिराग़ फ़रोज़ां हुए तो हैं
हां कज करो कुलाह कि सब-कुछ लुटाके हम
अब बेन्याज़े-गरदिशे-दौरां हुए तो हैं
अहले-कफ़स की सुबहे-चमन में खुलेगी आंख
बादे-सबा के वादा-ओ-पैमां हुए तो हैं
है दशत अब भी दशत मगर ख़ूने-पा से 'फ़ैज़'
सैराब चन्द ख़ारे-मुग़ीलां हुए तो हैं
(अफ़शां=मशहूर,रौशन, फ़रोज़ां=रौशन,
बेन्याज़े-गरदिशे-दौरां=समय की चाल से
लापरवाह, ख़ारे-मुग़ीलां=कीकर के कंडे)

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहां
चली है रसम कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले जिसमो-जां बचा के चले
है अहले-दिल के लिए अब ये नज़मे-बसतो-कुशाद
कि संगो-ख़िशत मुकय्यद हैं और सग आज़ाद
बहुत है ज़ुल्म के दसते-बहाना-जू के लिए
जो चन्द अहले-जुनूं तेरे नामलेवा हैं
बने हैं अहले-हवस, मुद्दयी भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें
मगर गुज़ारनेवालों के दिन गुज़रते हैं
तिरे फ़िराक में यूं सुबहो-शाम करते हैं
बुझा जो रौज़ने-ज़िन्दां तो दिल ये समझा है
कि तेरी मांग सितारों से भर गयी होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तिरे रुख़ पर बिखर गयी होगी
ग़रज़ तसव्वुरे-शामो-सहर में जीते हैं
गिरफ़ते-साया-ए-दीवारो-दर में जीते हैं
यूं ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क,
न उनकी रसम नई है, न अपनी रीत नई
यूं ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है, न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़ल्क का गिला नहीं करते
तिरे फ़िराक में हम दिल बुरा नहीं करते
गर आज तुझसे जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात-भर की जुदायी तो कोई बात नहीं
गर आज औज पे है ताला-ए-रकीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदायी तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अहदे-वफ़ा उसतवार रखते हैं
इलाजे-गरदिशे-लैलो-नेहार रखते हैं

शीशों का मसीहा कोई नहीं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मोती हो कि शीशा, जाम कि दुर
जो टूट गया, सो टूट गया
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया, सो छूट गया
तुम नाहक़ टुकड़े चुन-चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहीं
वो साग़रे दिल है जिसमें कभी
सद नाज़ से उतरा करती थी
सहबा-ए-ग़मे-जानाँ की परी
फिर दुनिया वालों ने तुमसे
यह साग़र लेकर फोड़ दिया
जो मय थी बहा दी मिट्टी में
मेहमान का शहपर तोड़ दिया
यह रंगीं रेज़े हैं शायद
उन शोख़ बिलोरी सपनों के
तुम मस्त जवानी में जिनसे
ख़िलवत को सजाया करते थे
नादारी, दफ़्तर भूख़ और ग़म
इन सपनों से टकराते रहे
बेरहम था चौमुख पथराओ
यह काँच के ढाँचे क्या करते
या शायद इन ज़र्रों में कहीं
मोती है तुम्हारी इज़्ज़त का
वो जिससे तुम्हारे इज़्ज़ पे भी
शमशाद क़दों ने रश्क किया
इस माल की धुन में फिरते थे
ताजिर भी बहुत, रहज़न भी कई
है चोर नगर, या मुफ़लिस की
गर जान बची तो आन गई
यह साग़र, शीशे, लाल-ओ-गुहर
सालिम हों तो क़ीमत पाते हैं
और टुकड़े-टुकड़े हों तो फ़कत
चुभते हैं, लहू रुलवाते हैं
तुम नाहक़ शीशे चुन-चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
यादों के गिरेबानों के रफ़ू
पर दिल की गुज़र कब होती है
इक बख़िया उधेड़ा, एक सिया
यूँ उम्र बसर कब होती है
इस कारगहे हस्ती में जहाँ
यह साग़र, शीशे ढलते हैं
हर शै का बदल मिल सकता है
सब दामन पुर हो सकते हैं
जो हाथ बढ़े, यावर है यहाँ
जो आँख उठे, वो बख़्तावर
याँ धन-दौलत का अंत नहीं
हों घात में डाकू लाख मगर
कब लूट-झपट से हस्ती की
दुकानें ख़ाली होती हैं
याँ परबत-परबत हीरे हैं
याँ सागर-सागर मोती हैं
कुछ लोग हैं जो इस दौलत पर
परदे लटकाए फिरते हैं
हर परबत को, हर सागर को
नीलाम चढ़ाए फिरते हैं
कुछ वो भी है जो लड़-भिड़ कर
यह पर्दे नोच गिराते हैं
हस्ती के उठाईगीरों की
चालें उलझाए जाते हैं
इन दोनों में रन पड़ता है
नित बस्ती-बस्ती, नगर-नगर
हर बस्ते घर के सीने में
हर चलती राह के माथे पर
यह कालिक भरते फिरते हैं
वो जोत जगाते रहते हैं
यह आग लगाते फिरते हैं
वो आग बुझाते फिरते हैं
सब साग़र,शीशे, लाल-ओ-गुहर
इस बाज़ी में बह जाते हैं
उट्ठो, सब ख़ाली हाथों को
उस रन से बुलावे आते हैं

ज़िन्दाँ की एक शाम - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

शाम के पेच-ओ-ख़म सितारों से
ज़ीना-ज़ीना उतर रही है रात
यूँ सबा पास से गुज़रती है
जैसे कह दी किसी ने प्यार की बात
सहरे-ज़िन्दाँ के बेवतन अश्जार
सरनिगूँ महव है बनाने में
दामने-आसमाँ पे नक़्शो-निगार
शाने-बाम पर दमकता है
मेहरबाँ चाँदनी का दस्ते-जमील
ख़ाक़ में घुल गई है आबे-नजूम
नूर में घुल गया है, अर्श का नील
सब्ज़ गोशों में नील-गूँ साए
लहलहाते हैं जिस तरह दिल में
मौजे-दर्द-फ़िराक़े-यार आए
दिल से पैहम ख़याल कहता है
इतनी शीरीं है ज़िंदगी इस पल
ज़ुल्म का ज़हर घोलने वाले
कामराँ हो सकेंगे आज न कल
जलवागाहे-विसाल की शम्म'एँ
वो बुझा भी चुके अगर तो क्या
चाँद को गुल करें तो हम जानें

ज़िन्दां की एक सुबह - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रात बाकी थी अभी जब सरे-बालीं आकर
चांद ने मुझसे कहा, "जाग, सहर आई है !
जाग, इस शब जो मये-ख़्वाब तिरा हिस्सा थी
जाम के लब से तहे-जाम उतर आई है ।"
अकसे-जानां को विदा करके उठी मेरी नज़र
शब के ठहरे हुए पानी की सियह चादर पर
जा-ब-जा रकस में आने लगे चांदी के भंवर
चांद के हाथ से तारों के कंवल गिर-गिरकर
डूबते, तैरते, मुरझाते रहे, खिलते रहे
रात और सुबह बहुत देर गले मिलते रहे
सहमे-ज़िन्दां में रफ़ीकों के सुनहरे चेहरे
सतहे-ज़ुल्मत से दमकते हुए उभरे कम-कम
नींद की ओस ने उन चेहरों से धो डाला था
देस का दरद, फ़िराके-रुख़े-महबूब का ग़म
दूर नौबत हुई, फिरने लगे बेज़ार कदम
ज़रद फ़ाकों के सताये हुए पहरेवाले
अहले-ज़िन्दां के ग़ज़बनाक ख़रोशां नाले
जिनकी बांहों में फिरा करते हैं बांहें डाले
लज़्ज़ते-ख़्वाब से मख़मूर हवाएं जागीं
जेल की ज़हर भरी चूर सदाएं जागीं
दूर दरवाज़ा ख़ुला कोई, कोई बन्द हुआ
दूर मचली कोई ज़ंजीर, मचल के रोई
दूर उतरा किसी ताले के जिगर में ख़ंजर
सर पटकने लगा रह-रह के दरीचा कोई
गोया फिर ख़्वाब से बेदार हुए दुशमने-जां
संगो-फौलाद से ढाले हुए जिन्नाते-गरां
जिनके चंगुल में शबो-रोज़ हैं फ़रियादकुनां
मेरे बेकार शबो-रोज़ की नाज़ुक परियां
अपने शहपूर की रह देख रही हैं ये असीर
जिसके तरकश में हैं उम्मीद के जलते हुए तीर
(सरे-बालीं=सिरहाने, मये ख़्वाब=सपने की शराब,
अकसे-जानां=प्यारे की कल्पना, रफ़ीक=दोस्त,
ख़रोशां=दर्द-भरे, मख़मूर=नशे में चूर, दरीचा=झरोखा,
जिन्नाते-गरां=बड़े पिशाच, शहपूर=शहज़ादा)

याद - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दशते-तनहायी में, ऐ जाने-जहां, लरज़ां हैं
तेरी आवाज़ के साये, तिरे होठों के सराब
दशते-तनहायी में, दूरी के ख़सो-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तिरे पहलू के समन और गुलाब
उठ रही है कहीं कुरबत से तिरी सांस की आंच
अपनी ख़ुशबू में सुलगती हुयी मद्धम-मद्धम
दूर-उफ़क पार, चमकती हुई, कतरा-कतरा
गिर रही है तिरी दिलदार नज़र की शबनम
इस कदर प्यार से, ऐ जाने-जहां, रक्खा है
दिल के रुख़सार पे इस वक्त तिरी याद ने हाथ
यूं गुमां होता है, गरचे है अभी सुबहे-फ़िराक,
ढल गया हिजर का दिन, आ भी गई वसल की रात
 

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Faiz Ahmed Faiz) #icon=(link) #color=(#2339bd)

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