फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ - सरे-वादी-ए-सीना Sar-e-Wadi-e-Sina in Hindi Faiz Ahmed Faiz

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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ -सरे-वादी-ए-सीना
Faiz Ahmed Faiz -Sar-e-Wadi-e-Sina in Hindi

हम सादा ही ऐसे थे की यूं ही पज़ीराई - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हम सादा ही ऐसे थे की यूं ही पज़ीराई

जिस बार ख़िजां आई समझे कि बहार आई

आशोबे-नज़र से की हमने चमन-आराई,

 

जो शै भी नज़र आई गुलरंग नज़र आई

उमीदे-तलत्तुफ़ में रंजीदा रहे दोनों-

तू और तिरी महफ़िल, मैं और मिरी तनहाई

 

 

वां मिल्लते-बुलहवसां और शोरे-वफ़ाजूई

यां ख़िलवते-कमसुख़नां और लज़्ज़ते-रुसवाई

 

यकजान न हो सकिये, अनजान न बन सकिये

यों टूट गई दिल में शमशीरे-शनासाई

 

इस तन की तरफ़ देखो जो कत्लगहे-दिल है

क्या रक्खा है मकत्ल में, ऐ चश्मे-तमाशाई

 

(आशोबे-नज़र=नज़र की लाली, तलत्तुफ़=

मिलने का आनंद, मिल्लते-बुलहवसां=वासना

के लोभी का समाज, शोरे-वफ़ाजूई=प्रेम-मोहब्बत

के प्रचार का कोलाहल, ख़िलवते-कमसुख़नां=कम

बोलने वालों का एकांत, शनासाई=जान पहचान)

 

किये आरजू से पैमां, जो मआल तक न पहुंचे - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

किये आरजू से पैमां, जो मआल तक न पहुंचे

शबो-रोज़े-आशनाई, महो-साल तक न पहुंचे

 

वो नज़र बहम न पहुंची कि मुहीते-हुस्न करते

तिरी दीद के वसीले ख़द्दो-ख़ाल तक न पहुंचे

 

वही चश्मा-ए-बका था, जिसे सब सुराब समझे

वही ख़वाब मोतबर थे, जो ख़्याल तक न पहुंचे

 

तिरा लुत्फ़ वजहे-तसकीं, न करारे-शरहे-ग़म से

कि हैं दिल में वह गिले भी, जो मलाल तक न पहुंचे

 

कोई यार यां से गुज़रा, कोई होश से न गुज़रा

ये नदीमे-यक-दो-साग़र, मिरे हाल तक न पहुंचे

 

चलो 'फ़ैज़' दिल जलायें, करें फिर से अरज़े-जानां

वो सुख़न जो लब तक आये, पै सवाल तक न पहुंचे

 

(पैमां=प्रण, मआल=नतीजा, मुहीते-हुस्न=रूप के घेरे

में बांधना, चश्मा-ए-बका =जीवन-धारा, सुराब=मृगतृष्णा,

वजहे-तसकीं=ढाढ़स का कारण, करारे-शरहे-ग़म=दुख की

व्याख्या, नदीमे-यक-दो-साग़र=एक-दो जाम पीने वाले)

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किस हरफ़ पे तूने गोशा-ए-लब ऐ जाने-जहां ग़म्माज किया - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

किस हरफ़ पे तूने गोशा-ए-लब ऐ जाने-जहां ग़म्माज किया

ऐलाने-जुनूं दिलवालों ने अबके ब-हज़ार अन्दाज़ किया

 

सौ पैकां थे पैवसते-गुलू जब छेड़ी शौक की लय हमने

सौ तीर तराज़ू थे दिल में जब हमने रकस आग़ाज़ किया

 

बे हिरसो-हवा बे ख़ौफ़ो-ख़तर, इस हाथ पे सिर उस कफ़ पे जिगर

यूं कू-ए-सनम में वक़्ते- सफ़र नज़्ज़ारा-ए-बामेनाज़ किया

 

जिस ख़ाक में मिलकर ख़ाक हुए वो सुरमा-ए-चश्मे-ख़लक बनी

जिस ख़ार पे हमने ख़ूं छिड़का, हमरंगे-गुले-तन्नाज़ किया

 

लो वसल की सायत आ पहुंची, फिर हुकमे-हुज़ूरी पर हमने

आंखों के दरीचे बन्द किये, और सीने का दर वाज़ किया

 

शरहे-बेदर्दी-ए-हालात न होने पाई - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

शरहे-बेदर्दी-ए-हालात न होने पाई

अबके भी दिल की मुदारात न होने पाई

 

फिर वही वादा जो इकरार न बनने पाया

फिर वही बात जो इसबात न होने पाई

 

फिर वो परवाने, जिन्हें इज़ने-शहादत न मिला

फिर वो शमएं, कि जिन्हें रात न होने पाई

 

फिर वही जां-ब-लबी, लज़्ज़ते-मय से पहले

फिर वो महफ़िल जो ख़राबात न होने पाई

 

फिर दमे-दीद रहे चश्मो-नज़र दीदतलब

फिर शबे-वसल मुलाकात न होने पाई

 

फिर वहां बाबे-असर जानिये कब बन्द हुआ

फिर यहां ख़तम मुनाजात न होने पाई

 

'फ़ैज़' सर पर जो हरेक रोज़ क्यामत गुज़री,

एक भी रोज़े-मुकाफ़ात न होने पाई

 

यूं सजा चांद कि झलका तिरे अन्दाज़ का रंग - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

यूं सजा चांद कि झलका तिरे अन्दाज़ का रंग

यूं फ़ज़ा महकी कि बदला मिरे हमराज़ का रंग

 

साया-ए-चश्म में हैरां रुख़े-रौशन का जमाल

सुरख़ी-ए-लब में परीशां तिरी आवाज़ का रंग

 

बेपीये हों कि अगर लुत्फ़ करो आख़िरे-शब

शीशा-ए-मय में ढले सुबह के आग़ाज़ का रंग

 

चंगो-नय रंग पे थे अपने लहू के दम से

दिल ने लय बदली तो मद्धिम हुआ हर साज़ का रंग

इक सुख़न और कि फिर रंगे-तकल्लुम तेरा,

हरफ़े-सादा को इनायत करे एजाज़ का रंग

 

इंतिसाब - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

आज के नाम

और

आज के ग़म के नाम

आज का ग़म कि है ज़िन्दगी के भरे गुलसितां से ख़फ़ा

ज़रद पत्तों का बन जो मेरा देस है

दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है

किलरकों की अफ़सुरदा जानों के नाम

किरमख़ुरदा दिलों और जवानों के नाम

पोसटमैनों के नाम

तांगेवालों के नाम

रेलबानों के नाम

कारखानों के भोले जियालों के नाम

बादशाहे-जहां, वालिए-मासिवा, नायबुल्लाहे-फ़िल-अरज़, दहकां के नाम

जिसके ढोरों को ज़ालिम हंका ले गये

जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गये

हाथ-भर खेत से एक अंगुशत, पटवार ने काट ली है

दूसरी मालिये के बहाने से सरकार ने काट ली है

जिसकी पग ज़ोरवालों के पांव तले

 

धज्जीयां हो गई है

उन दुखी मायों के नाम

रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और

नींद की मार खाए हुए बाज़ुयों से संभलते नहीं

दुख बताते नहीं

मिन्नतों ज़ार्यों से बहलते नहीं

 

उन हसीनायों के नाम

जिनकी आंखों के गुल

चिलमनों और दरीचों की बेलों पे बेकार खिल-खिल के

मुरझा गये हैं

उन बयाहतायों के नाम

जिनके बदन

बे-मुहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उकता गये हैं

बेवायों के नाम

कटड़ियों और गलियों, मुहल्लों के नाम

जिनकी नापाक ख़ाशाक से चांद रातों

को आ-आ के करता है अकसर वज़ू

जिनके सायों में करती है आहो-बुका

 

आचलों की हिना

चूड़ियों की खनक

काकुलों की महक

आरज़ूमन्द सीनों की अपने पसीने में जलने की बू

 

तालिबइलमों के नाम

वो जो असहाबे-तबलो-अलम

के दरों पर किताब और कलम

का तकाज़ा लिये, हाथ फैलाये

पहुंचे, मगर लौट कर घर न आये

वो मासूम जो भोलेपन में

वहां अपने ननहें चिराग़ों में लौ की लगन

ले के पहुंचे, जहां

बंट रहे थे घटाटोप, बेअंत रातों के साये

उन असीरों के नाम

जिनके सीनों में फ़रदा के शबताब गौहर

जेलखानों की शोरीदा रातों की सरसर में

जल-जल के अंजुम-नुमां हो गये हैं

 


 

आनेवाले दिनों के सफ़ीरों के नाम

वो जो खुशबू-ए-गुल की तरह

अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गये हैं

(अधूरी)

 

लहू का सुराग़ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग़

न दस्तो-नाख़ुने-कातिल न आसतीं पे निशां

न सुरख़ी-ए-लब-ए-ख़ंजर, न रंगे-नोके-सनां

न ख़ाक पर कोई धब्बा न बाम पर कोई दाग़

कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग़

न सरफ़े-ख़िदमते-शाहां कि खूंबहा देते

न दीं की नज़र कि बयाना-ए-जज़ा देते

न रज़मगाह में बरसा कि मोतबर होता

किसी अलम पे रकम हो के मुशतहर होता

पुकारता रहा बे-आसरा यतीम लहू

किसी को बहरे-समाअत न वक़्त था न दिमाग़

न मुद्दई, न शहादत, हिसाब पाक हुआ

यह ख़ूने-ख़ाकनशीनां था रिज़के-ख़ाक हुआ

अप्रैल १९६५

 

यहां से शहर को देखो - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

यहां से शहर को देखो तो हलका-दर-हलका

खिंची है जेल की सूरत हर एक सिमत फ़सील

हरेक राहगुज़र गरदिशे-असीरां है

ना संगे-मील, ना मंज़िल, न मुख़लिसी की सबील

 

जो कोई तेज़ चले रह, तो पूछता है ख़्याल

कि टोकने कोई ललकार कयूं नहीं आई

जो कोई हाथ हिलाये तो वहम को है सवाल

कोई छनक, कोई झंकार कयूं नहीं आई

 

यहां से शहर को देखो तो सारी ख़लकत में

न कोई साहबे-तमकीं न कोई वाली-ए-होश

हरेक मरदे-जवांमुजरिमे-रसन-ब-गुलू

हरइक हसीना-ए-राना कनीज़े-हलका-ब-गोश

 


 

जो साये दूर चिराग़ों के गिरद लरज़ां हैं

न जाने महफ़िले-ग़म है कि बज़्मे-जामो-सुबू

जो रंग हर दरो-दीवार पर परीशां हैं

यहां से कुछ नहीं खुलता-ये फूल हैं कि लहू

 

ग़म न कर, ग़म न कर - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दर्द थम जाएगा, ग़म न कर, ग़म न कर

यार लौट आएंगे, दिल ठहर जाएगा, ग़म न कर, ग़म न कर

ज़ख़्म भर जाएगा

ग़म न कर, ग़म न कर

दिन निकल आएगा

ग़म न कर, ग़म न कर

अबर खुल जाएगा, रात ढल जाएगी

ग़म न कर, ग़म न कर

रुत बदल जाएगी

ग़म न कर, ग़म न कर

 

ब्लैक आऊट - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

जब से बे-नूर हुई हैं शमएं

ख़ाक में ढूंढता फिरता हूं न जाने किस जा

खो गई हैं मेरी दोनों आंखें

तुम जो वाकिफ़ हो बतायो कोई पहचान मेरी

 

इस तरह है कि हर इक रंग में उतर आया है

मौज-दर-मौज किसी ज़हर का कातिल दरिया

तेरा अरमान, तेरी याद लिये जान मेरी

जाने किस मौज में ग़लतां है कहां दिल मेरा

एक पल ठहरो कि उस पार किसी दुनिया से

बर्क आये मेरी जानिब, यदे-बैज़ा लेकर

और मेरी आंखों के गुमगशता गुहर

जामे-ज़ुलमत से सियह मसत

नई आंखों के शबताब गुहर

लौटा दे

 

एक पल ठहरो कि दरिया का कहीं पाट लगे

और नया दिल मेरा

ज़हर में घुल के, फ़ना हो के

किसी घाट लगे

फिर पये-नज़र नये दीदा-ओ-दिल ले के चलूं

हुस्न की मदह करूं, शौक का मज़मूं लिक्खूं

सितम्बर, १९६५

 

सिपाही का मरसिया - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

उट्ठो अब माटी से उट्ठो

जागो मेरे लाल

अब जागो मेरे लाल

तुमहारी सेज सजावन कारन

देखो आई रैन अंध्यारन

नीले शाल-दोशाले लेकर

इनमें इन दुखीयन अंखीयन ने

ढेर किये हैं इतने मोती

इतने मोती जिन की जयोती

दान से तुम्हरा, जगमग लागा

नाम चमकने

 

उट्ठो अब माटी से उट्ठो

जागो मेरे लाल

अब जागो मेरे लाल

घर-घर बिखरा भोर का कुन्दन

घोर अंधेरा अपना आंगन

जाने कब से राह तके हैं

बाली दुलहनीया, बांके वीरन

सूना तुम्हरा राज पड़ा है

देखो कितना काज पड़ा है

 

बैरी बिराजे राज सिंहासन

तुम माटी में लाल

उट्ठो अब माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल

हठ न करो माटी से उट्ठो, जागो मेरे लाल

अब जागो मेरे लाल

अकतूबर, १९६५

 

ऐ वतन, ऐ वतन - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तेरे पैग़ाम पर, तेरे पैग़ाम पर, ऐ वतन, ऐ वतन

आ गये हम फ़िदा हो तिरे नाम पर

तेरे पैग़ाम पर, ऐ वतन, ऐ वतन

 

नज़र क्या दें कि हम मालवाले नहीं

आन वाले हैं इकबाल वाले नहीं

हां, यह जां है कि सुख जिसने देखा नहीं

या ये तन जिस पे कपड़े का टुकड़ा नहीं

अपनी दौलत यही, अपना धन है यही

अपना जो कुछ भी है, ऐ वतन, है यही

वार देंगे यह सब कुछ तिरे नाम पर

तेरी ललकार पर, तेरे पैग़ाम पर

तेरे पैग़ाम पर, ऐ वतन, ऐ वतन

हम लुटा देंगे जानें तिरे नाम पर

 


 

तेरे ग़द्दार ग़ैरत से मूंह मोड़कर

आज फिर ऐरों-गैरों से सर-जोड़कर

तेरी इज़्ज़त का भाव लगाने चले

तेरी असमत का सौदा चुकाने चले

दम में दम है तो यह करने देंगे न हम

चाल उनकी कोई चलने देंगे न हम

तुझको बिकने न देंगे किसी दाम पर

हम लुटा देंगे जानें तिरे नाम पर

सर कटा देंगे हम तेरे पैग़ाम पर

तेरे पैग़ाम पर, ऐ वतन, ऐ वतन

 

आ गये हम फ़िदा हो तिरे नाम पर

तेरे पैग़ाम पर, ऐ वतन, ऐ वतन

नज़र क्या दें कि हम मालवाले नहीं

आन वाले हैं इकबाल वाले नहीं

हां, यह जां है कि सुख जिसने देखा नहीं

या ये तन जिस पे कपड़े का टुकड़ा नहीं

अपनी दौलत यही, अपना धन है यही

अपना जो कुछ भी है, ऐ वतन, है यही

वार देंगे यह सब कुछ तिरे नाम पर

तेरी ललकार पर, तेरे पैग़ाम पर

तेरे पैग़ाम पर, ऐ वतन, ऐ वतन

हम लुटा देंगे जानें तिरे नाम पर

 

तेरे ग़द्दार ग़ैरत से मूंह मोड़कर

आज फिर ऐरों-गैरों से सर-जोड़कर

तेरी इज़्ज़त का भाव लगाने चले

तेरी असमत का सौदा चुकाने चले

दम में दम है तो यह करने देंगे न हम

चाल उनकी कोई चलने देंगे न हम

तुझको बिकने न देंगे किसी दाम पर

हम लुटा देंगे जानें तिरे नाम पर

सर कटा देंगे हम तेरे पैग़ाम पर

तेरे पैग़ाम पर, ऐ वतन, ऐ वतन

एक शहर आशोब का आग़ाज़ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

अब बज़्मे-सुख़न सोहबते-लबसोख़्तगां है

अब हलका-ए-मय ताएफ़-ए-बेतलबां है

 

घर रहिए तो वीरानी-ए-दिल खाने को आवे

रह चलिए तो हर गाम पे ग़ौग़ा-ए-सगां है

 

पैवन्दे-रहे-कूचा-ए-ज़र चश्मे-ग़िज़ालां

पाबोसे-हवस अफ़सरे-शमशादकदां है

 

यां अहले-जुनूं यक-ब-दिगर-दस्तो-गरेबां

वां जैशे-हवस तेग़-ब-कफ़-दरपाये-जां है

 

अब साहबे-इनसाफ़ है ख़ुद तालिबे-इन्साफ़

मुहर उसकी है, मीज़ान व-दस्ते-दिगरां है

 

हम सहलतलब कौन-से- फ़रहाद थे, लेकिन

अब शहर में तेरे कोई हम-सा भी कहां है

फरवरी, १९६६

 

सोचने दो - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(आंदरे वोजनेसेंसकी के नाम)

इक ज़रा सोचने दो

इस ख़्याबां में

जो इस लहज़ा बियाबां भी नहीं

कौन-सी शाख़ में फूल आये थे सबसे पहले

कौन बे-रंग हुई रंजो-तअब से पहले

और अब से पहले

किस घड़ी कौन-से मौसम में यहां

ख़ून का कहत पड़ा

गुल की शहरग पे कड़ा

वक़्त पड़ा

सोचने दो

इक ज़रा सोचने दो

येह भरा शहर जो अब वादी-ए-वीरां भी नहीं

इसमें किस वक़्त कहां

आग लगी थी पहले

इसके सफ़बसता दरीचों में से किस में अव्वल

ज़ह हुई सुरख़ शुआयों की कमां

किस जगह जोत जगी थी पहले

सोचने दो

 

हम से उस देस का तुम नामो-निशां पूछते हो

जिसकी तारीख़ न जुग़राफ़ीया अब याद आये

 

और याद आए तो महबूबे-गुज़सता की तरह

रू-ब-रू आने से जी घबराये

 

हां, मगर जैसे कोई

ऐसे महबूब या महबूबा का दिल रखने को

आ निकलता है

कभी रात बिताने के लिए

हम अब उस उमर को आ पहुंचे हैं

जब हम भी यूं ही

दिल से मिल आते हैं बस रसम निभाने के लिए

दिल की क्या पूछते हो

सोचने दो

 

मासको, मारच, १९६७

 

सरे-वादी-ए-सीना - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(अरब-इसराईल जंग, सन १९६७, के बाद)

(१)

फिर बर्क फ़रोज़ां है सरे-वादी-ए-सीना

फिर रंग पे है शोला-ए-रुख़सारे-हकीकत

पैग़ामे-अज़ल, दावते-दीदारे-हकीकत

ऐ दीद-ए-बीना

अब वक़्त है दीदार का, दम है कि नहीं है

ऐ जज़बए-दिल, दिल भरम है कि नहीं है

अब कातिले-जां चारागरे-कुलफ़ते-ग़म है

गुलज़ारे-इरम, परतवे-सहरा-ए-अदम है

पिन्दारे-जुनूं, हौसलए-राहे-अदम है कि नहीं है

(२)

फिर बर्क फ़रोज़ां है सरे-वादीए-सीना

ऐ दीद-ए-बीना

फिर दिल को मुसफ़्फ़ा करो, इस लौह पे शायद

माबैने-मनो-तू, नया पैमां कोई उतरे

अब रसमे-सितम, हिकमते-ख़ासाने-ज़मीं है

ताईदे-सितम, मसलहते-मुफ़ती-ए-दीं है

अब सदियों के इकरारे-इतायत को बदलने

लाज़िम है कि इनकार का फ़रमां कोई उतरे

 

(३)

सुनो कि शायद यह नूरे-सैकल

है उस सहीफ़े का हरफ़े-अव्वल

जो हर कसो-नाकसे-ज़मीं पर

दिले-गदायाने-अजमई पर

उतर रहा है फ़लक से अबके,

सुनो कि इस हरफ़े-लये-अज़ल के

हमीं तुमहीं बन्दगाने-बेबस

अलीम भी हैं, ख़बीर भी हैं

सुनो कि हम बेज़ुबान-ओ-बेकस

बशीर भी हैं, नज़ीर भी हैं

हर इक औला-इल-अमर को सदा दो

कि अपने फ़रदे-अमल संभाले

उठेगा जब जंमे-सरफ़रोशां

पड़ेंगे दार-ओ-रसन के लाले

कोई न होगा कि जो बचा ले

जज़ा, सज़ा, सब यहीं पे होगी

यहीं अज़ाब-ओ-सवाब होगा

यहीं से उट्ठेगा शोरे-महशर

यहीं पे रोज़े-हिसाब होगा

 

(बर्क फ़रोज़ां है सरे-वादी-ए-सीना=

सीना की घाटी में बिजली चमकती

है, पैग़ामे-अज़ल=मौत का संदेश,

दीद-ए-बीना=देखने वाली आँख,

चारागरे-कुलफ़ते-ग़म=दिखावे के

दर्द का इलाज करने वाला, गुलज़ारे-

इरम=स्वर्ग की नकल पर बनाया

शद्दाद का बाग़, परतवे-सहरा-ए-

अदम=स्वर्ग के बाग़ की परछाई,

पिन्दारे-जुनूं=जुनून का अहंकार,

मुसफ़्फ़ा=साफ, माबैने-मनो-तू=

मेरे-तुम्हारे में, हिकमते-ख़ासाने-

ज़मीं=धरती के ख़ास लोगों की तरकीब,

मसलहते-मुफ़ती-ए-दीं=धर्म-गुरू की

काम की योग्यता, इकरारे-इतायत=पूजा

का बंधन, नूरे-सैकल=तेज़ रौशनी, सहीफ़े=

धर्म-ग्रंथ, गदायाने-अजमई=सभी फकीरों

का दल, हरफ़े-लये-अज़ल=सृष्टि का शुरू

का शब्द, अलीम=सब कुछ जानने वाला,

खबीर=ख़बर रखने वाला, बशीर=शुभ संदेश

लाने वाला, नज़ीर=डराने वाला, औला-इल-

अमर=बड़े हाकिम, फ़रदे-अमल=कामों की

सूची, जंमे-सरफ़रोशां=सिर की बाज़ी लाने

वालों का जलसा)

 

दुआ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

आईए, हाथ उठायें हम भी

हम जिन्हें रसमे-दुआ याद नहीं

 

हम जिन्हें सोज़े-मोहब्बत के सिवा

कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं

 

आईए, अरज़ गुज़ारें कि निगारे-हसती

ज़हरे-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फ़रदो भर दे

 

वोह जिन्हें ताबे-गरांबारी-ए-अय्याम नहीं

उनकी पलकों पे शबो-रोज़ को हलका कर दे

 

जिनकी आंखों को रुख़े-सुबह का यारा भी नहीं

उनकी रातों में शमय मुनव्वर कर दे

 

जिनके कदमों को किसी रह का सहारा भी नहीं

उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दे

 

जिनका दीं पैरवीए-कज़बो-रिया है उनको

हिम्मते-कुफ़र मिले, जुरअते-तहकीक मिले

 


 

जिनके सर मुंतज़िरे-तेग़े-जफ़ा हैं उनको

दस्ते-कातिल को झटक देने की तौफ़ीक मिले

 

इशक का सररे-नेहां जान-तपां है जिससे

आज इकरार करें और तपिश मिट जाये

 

हरफ़े-हक दिल में खटकता है जो कांटे की तरह

आज इज़हार करें और ख़लिश मिट जाये

दिलदार देखना - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तूफ़ां-ब-दिल है हर कोई दिलदार देखना

गुल हो न जाये मशअले-रुख़सार देखना

 

आतिश-ब-जां है न कोई सरकार देखना

लौ के उठे न तुररा-ए-तररार देखना

 

जज़बे-मुसाफ़िराने-रहे-यार देखना

सर देखना, न संग न दीवार देखना

 

कूए-जफ़ा में कहते-ख़रीदार देखना

हम आ गये तो गरमीए-बाज़ार देखना

 

उस दिलनवाज़े-शहर के अतवार देखना,

बेइलतिफ़ात बोलना, बेज़ार देखना

 

ख़ाली हैं गरचे मसनदो-मिम्बर, निगूं ख़लक

रूआबे-कबा व हयबते-दस्तार देखना

 

जब तक नसीब था तिरा दीदार देखना

जिस सिमत देखना गुलो-गुलज़ार देखना

 

हम फिर तमीज़े-रोज़ो-महो-साल कर सके

ऐ यादे-यार फिर इधर इक बार देखना

१९६७

 

हार्ट अटैक (रुख़सत) - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दर्द इतना था कि उस रात दिले-वहशी ने

हर रगे-जां से

उलझना चाहा

हर बुने-मू से टपकना चाहा

और कहीं दूर से तेरे सहने-चमन में गोया

पत्ता-पत्ता मेरे अफ़सुरदा लहू में घुलकर

हुस्ने-महताब से आज़ुरदा नज़र आने लगा

मेरे वीराना-ए-तन में गोया

सारे दुखते हुए रेशों की तनाबें खुलकर

 

सिलसिलावार पता देने लगीं

रुख़सते-काफ़िला-ए-शौक की तैयारी का

और जब याद की बुझती हुई शमयों में नज़र आया कहीं

एक पल आख़िरी लमहा तेरी दिलदारी का

दर्द इतना था कि उससे भी गुज़रना चाहा

हमने चाहा भी, मगर दिल न ठहरना चाहा

१९६७

 

ख़ुरशीदे-महशर की लौ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो

दूर कितने हैं ख़ुशियां मनाने के दिन

खुल के हंसने, गीत गाने के दिन

प्यार करने के दिन, दिल लगाने के दिन

 

आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो

ज़ख़म कितने अभी बख़ते-बिसमिल में हैं

दशत कितने अभी राहे-मंज़िल में हैं

तीर कितने अभी दस्ते-कातिल में हैं

 

आज का दिन जबूं है मेरे दोस्तो

आज के दिन तो यूं है मेरे दोस्तो

जैसे दर्दो-अलम के पुराने निशां

सब चले सूए-दिल कारवां-कारवां

हाथ सीने पे रक्खो तो हर उसतख़वां

से उठे नाला-ए-अलअमां अलअमां

 


 

आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो

कब तुमहारे लहू के दरीदा अलम

फ़रके-ख़ुरशीदे-महशर पे होंगे रकम

अज़ करां ता करां कब तुमहारे कदम

ले के उट्ठेगा वो बहरे-ख़ूं यम-ब-यम

जिसमें धुल जायेगा आज के दिन का ग़म

सारे दर्दो-अलम सारे ज़ौरो-सितम

दूर कितनी है ख़ुरशीदे-महशर की लौ

आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो

 

जरसे-गुल की सदा - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

इस हवस में कि पुकारे जरसे-गुल की सदा

दशतो-सहरा में सबा फिरती है यूं आवारा

जिस तरह फिरते हैं अहले-जुनूं आवारा

 

हम पे वारफ़तगी-ए-होश की तोहमत न धरो

हम कि रम्माजे-रूमूज़े-ग़मे-पिनहानी हैं

अपनी गरदन पे भी है रिशता-फ़िगन खातिरे-दोस्त

हम भी शौके-रहे-दिलदार के ज़िन्दानी हैं

 

जब भी अबरू-ए-दरे-यार ने इरशाद किया

जिस बियाबां में भी हम होंगे चले आयेंगे

दर खुला देखा तो शायद तुम्हें फिर देख सकें

बन्द होगा तो सदा के के चले जायेंगे

जुलाई, १९७०

 

फ़रशे-नौमीदीए-दीदार - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

देखने की तो किसे ताब है, लेकिन अब तक

जब भी उस राह से गुज़रो तो किसी दुख की कसक

टोकती है कि वो दरवाज़ा खुला है अब तक

और उस सहन में हर सू यूंही पहले की तरह

फ़रशे-नौमीदीए-दीदार बिछा है अब भी

और कहीं याद किसी दिलज़दा बच्चे की तरह

हाथ फैलाये हुए बैठी है फ़रियादकुना

दिल ये कहता है, कहीं और चले जायें, कहां

कोई दरवाज़ा अबस वा हो, न बेकार कोई

याद फ़रियाद का किशकोल लिये बैठी हो

महरिमे-हसरते-दीदार हो दीवार कोई

न कोई सायए-गुल हिजरते-गुल से वीरां

ये भी कर देखा है सौ बार, कि जब राहों में

देस-परदेस की बेमेहर गुज़रगाहों में

काफ़िले-कामतो-रुख़सारो-लबो-गेसू के

परदा-ए-चश्म पे यों उतरे हैं बे-सूरतो-रंग

जिस तरह बन्द दरीचों पे गिरे बारिशे-संग

और दिल कहता है हर बार, चलो, लौट चलो

इससे पहले कि वहां जायें तो यह दुख भी न हो

ये निशानी कि वो दरवाज़ा खुला है अब भी

और इस सहन में हर सू यूंही पहले की तरह

फ़रशे-नौमीदीए-दीदार बिछा है अब भी

टूटी जहां-जहां पे कमन्द - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रहा न कुछ भी ज़माने में जब नज़र को पसन्द

तिरी नज़र से किया रिशता-ए-नज़र पैवन्द

 

तिरे जमाल से हर सुबह पर वज़ू लाज़िम

हरेक शब तेरे दर पर सुजूद की पाबन्द

 

नहीं रहा हरमे-दिल में इक सनम बातिल

तिरे ख़्याल के लातो-मनात की सौगन्द

 

मिसाले-ज़ीना-ए-मंज़िल बकारे-शौक आया

हर इक मकाम कि टूटी जहां-जहां पे कमन्द

 

ख़िज़ां तमाम हुई किस हिसाब में लिखीए

बहारे-गुल में जो पहुंचे हैं शाख़े-गुल को गज़न्द

 


 

दरीदा दिल है शहर में कोई हमारी तरह

कोई दरीदा दहन शैख़े-शहर के मानन्द

 

शुआर की जो मुदाराते-कामते-जानां

किया है 'फ़ैज़' दरे-दिल, दरे-फ़लक से बुलन्द

हज़र करो मिरे तन से - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सजे तो कैसे सजे कत्ले-आम का मेला

किसे लुभायेगा मेरे लहू का बावेला

मिरे नज़ार बदन में लहू ही कितना है

चराग़ हो कोई रौशन न कोई जाम भरे

न उससे आग ही भड़के, न उससे प्यास बुझे

मिरे फ़िगार बदन में लहू ही कितना है

 

मगर वो ज़हरे-हलाहल भरा है नस-नस में

जिसे भी छेदो, हर इक बून्द ज़हरे-अफ़ई है

हर इक कशीद है सदियों के दर्दो-हसरत की

हर इक में मुहर-ब-लब ग़ैज़ो-ग़म की गरमी है

 


 

हज़र करो मिरे तन से, ये सम का दरिया है

हज़र करो कि मिरा तन वो चोबे-सहरा है

जिसे जलायो तो सहने-चमन में दहकेंगे

बजाय सरो-समन मेरी हड्डियों के बबूल

उसे बिखेरा, तो दशतो-दमन में बिखरेगी

बजाय मुशके-सबा मेरी जाने-ज़ार की धूल

हज़र करो कि मिरा दिल लहू का प्यासा है

मारच, १९७१

 

तह-ब-तह दिल की कदूरत - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तह-ब-तह दिल की कदूरत

मेरी आंखों में उमंड आई तो कुछ चारा न था

चारागर की मान ली

और मैंने गरद-आलूद आंखों को लहू से धो लिया

 

और अब हर शकलो-सूरत

आलमे-मौजूद की हर एक शै

मेरी आंखों के लहू से इस तरह हमरंग है

ख़ुरशीद का कुन्दन लहू

महताब की चांदी लहू

सुबहों का हंसना भी लहू

रातों का रोना भी लहू

 

हर शजर मीनार-ए-ख़ूं, हर फूल ख़ूने-दीदा है

हर नज़र एक तारा-ए-ख़ूं हर अकस ख़ूं-मालीदा है

 


 

मौज-ए-ख़ूं जब तक रवां रहती है उसका सुरख़ रंग

जज़बा-ए-शौक-ए-शहादत, दर्द ग़ैज़-ओ-ग़म का रंग

और थम जाये तो कजला कर

फ़कत नफ़रत का, शब का, मौत का

हर रंग के मातम का रंग

चारागर ऐसा न होने दे

कहीं से ला कोई सैलाबे-अश्क

जिससे वज़ू

कर लें तो शायद धुल सके

मेरी आंखों, मेरी ग़रद-आलूद आंखों का लहू

 

तराना-१ - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे

इक खेत नहीं इक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे

 

यां सागर-सागर मोती हैं यां परबत-परबत हीरे हैं

ये सारा माल हमारा है हम सारा ख़जाना मांगेंगे


 

जो ख़ून बहा जो बाग़ उजड़े जो गीत दिलों में कत्ल हुए

हर कतरे का हर गुंचे का हर गीत का बदला मांगेंगे

 

ये सेठ बयौपारी रजवाड़े दस लाख तो हम दस लाख करोड़

ये कितने दिन अमरीका से जीने का सहारा मांगेंगे

 

जब सफ़ सीधी हो जायेगी जब सब झगड़े मिट जायेंगे

हम हर इक देश के झंडे पर इक लाल सितारा मांगेंगे 

 

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