Hindi Kavita
हिंदी कविता
नाटकों में से काव्य रचनाएँ जयशंकर प्रसाद
Poetry from Plays Jaishankar Prasad
अजातशत्रु - Jaishankar Prasad ki Kavita
बच्चे बच्चों से खेलें, हो स्नेह बढ़ा उसके मन में,
कुल-लक्ष्मी हो मुदित, भरा हो मंगल उसके जीवन में!
बन्धुवर्ग हों सम्मानित, हों सेवक सुखी, प्रणत अनुचर,
शान्तिपूर्ण हो स्वामी का मन, तो स्पृहणीय न हो क्यों घर?
करुणा - Jaishankar Prasad ki Kavita
गोधूली के राग-पटल में स्नेहांचल फहराती है।
स्निग्ध उषा के शुभ्र गगन में हास विलास दिखाती है।।
मुग्ध मधुर बालक के मुख पर चन्द्रकान्ति बरसाती है।
निर्निमेष ताराओं से वह ओस बूँद भर लाती है।।
निष्ठुर आदि-सृष्टि पशुओं की विजित हुई इस करुणा से।
मानव का महत्त्व जगती पर फैला अरुणा करुणा से।।
चंचल चन्द्र सूर्य है चंचल - Jaishankar Prasad ki Kavita
चपल सभी ग्रह तारा है।
चंचल अनिल, अनल, जल थल, सब
चंचल जैसे पारा है।
जगत प्रगति से अपने चंचल,
मन की चंचल लीला है।
प्रति क्षण प्रकृति चंचला कैसी
यह परिवर्तनशीला है।
अणु-परमाणु, दुःख-सुख चंचल
क्षणिक सभी सुख साधन हैं।
दृश्य सकल नश्वर-परिणामी,
किसको दुख, किसको धन है
क्षणिक सुखों को स्थायी कहना
दुःख-मूल यह भूल महा।
चंचल मानव! क्यों भूला तू,
इस सीटी में सार कहाँ?
प्रलय की छाया - Jaishankar Prasad ki Kavita
मीड़ मत खिंचे बीन के तार
निर्दय उँगली! अरी ठहर जा
पल-भर अनुकम्पा से भर जा,
यह मूर्च्छित मूर्च्छना आह-सी
निकलेगी निस्सार।
छेड़-छेड़कर मूक तन्त्र को,
विचलित कर मधु मौन मन्त्र को-
बिखरा दे मत, शून्य पवन में
लय हो स्वर-संसार।
मसल उठेगी सकरुण वीणा,
किसी हृदय को होगी पीड़ा,
नृत्य करेगी नग्न विकलता
परदे के उस पार।
बहुत छिपाया, उफन पड़ा अब, - Jaishankar Prasad ki Kavita
सँभालने का समय नहीं है
अखिल विश्व में सतेज फैला
अनल हुआ यह प्रणय नहीं है
कहीं तड़पकर गिरे न बिजली
कहीं न वर्षा हो कालिमा की
तुम्हें न पाकर शशांक मेरे
बना शून्य यह, हृदय नहीं है
तड़प रही है कहीं कोकिला
कहीं पपीहा पुकारता है
यही विरुद क्या तुम्हें सुहाता
कि नील नीरद सदय नहीं है
जली दीपमालिका प्राण की
हृदय-कुटी स्वच्छ हो गई है
पलक-पाँवड़े बिछा चुकी हूँ
न दूसरा ठौर, भय नहीं है
चपल निकलकर कहाँ चले अब
इसे कुचल दो मृदुल चरण से
कि आह निकले दबे हृदय से
भला कहो, यह विजय नहीं है
चला है मन्थर गति में पवन रसीला नन्दन कानन का - Jaishankar Prasad ki Kavita
नन्दन कानन का, रसीला नन्दन कानन का
फूलों पर आनन्द भैरवी गाते मधुकर वृन्द,
बिखर रही है किस यौवन की किरण, खिला अरविन्द,
ध्यान है किसके आनन का
नन्दन कानन का, रसीला नन्दन कानन का ।।
उषा सुनहला मद्य पिलाती, प्रकृति बरसाती फूल,
मतवाले होकर देखो तो विधि-निषेध को भूल,
आज कर लो अपने मन का।
नन्नद कानन का, रसीला नन्दन कानन का ।।
प्रार्थना - Jaishankar Prasad ki Kavita
दाता सुमति दीजिए!
मान-हृदय-भूमि करुणा से सींचकर
बोधक-विवेक-बीज अंकुरित कीजिए
दाता सुमति दीजिए।।
8. प्रार्थना
अधीर हो न चित्त विश्व-मोह-जाल में।
यह वेदना-विलोल-वीचि-मय समुद्र है।।
है दुःख का भँवर चला कराल चाल में।
वह भी क्षणिक, इसे कहीं टिकाव है नहीं।।
सब लौट जाएँगे उसी अनन्त काल में।
अधीर हो न चित्त विश्व-मोह-जाल में।।
निर्जन गोधूली प्रान्तर में खोले पर्णकुटी के द्वार, - Jaishankar Prasad ki Kavita
दीप जलाए बैठे थे तुम किए प्रतीक्षा पर अधिकार।
बटमारों से ठगे हुए की ठुकराए की लाखों से,
किसी पथिक की राह देखते अलस अकम्पित आँखों से-
पलकें झुकी यवनिका-सी थीं अन्तस्तल के अभिनय में।
इधर वेदना श्रम-सीकर आँसू की बूँदें परिचय में।
फिर भी परिचय पूछ रहे हो, विपुल विश्व में किसको दूँ
चिनगारी श्वासों में उठती, रो लूँ, ठहरो दम ले लूँ
निर्जन कर दो क्षण भर कोने में, उस शीतल कोने में,
यह विश्रांल सँभल जाएगा सहज व्यथा के सोने में।
बीती बेला, नील गगन तम, छिन्न विपंच्ची, भूला प्यार,
क्षमा-सदृश छिपना है फिर तो परिचय देंगे आँसू-हार।
अमृत हो जाएगा, विष भी पिला दो हाथ से अपने। - Jaishankar Prasad ki Kavita
पलक ये छक चुके हैं चेतना उनमें लगी कँपने।।
विकल हैं इन्द्रियाँ, हाँ देखते इस रूप के सपने।
जगत विस्मृत हृदय पुलकित लगा वह नाम है जपने।।
हमारे जीवन का उल्लास हमारे जीवन का धन रोष। - Jaishankar Prasad ki Kavita
हमारी करुणा के दो बूँद मिले एकत्र, हुआ संतोष।।
दृष्टि को कुछ भी रुकने दो, न यों चमक दो अपनी कान्ति।
देखने दो क्षण भर भी तो, मिले सौन्दर्य देखकर शान्ति।।
नहीं तो निष्ठुरता का अन्त, चला दो चपल नयन के बाण।
हृदय छिद जाए विकल बेहाल, वेदना से हो उसका त्राण।।
अलका की किस विकल विरहिणी की पलकों का ले अवलम्ब - Jaishankar Prasad ki Kavita
सुखी सो रहे थे इतने दिन, कैसे हे नीरद निकुरम्ब!
बरस पड़े क्यों आज अचानक सरसिज कानन का संकोच,
अरे जलद में भी यह ज्वाला! झुके हुए क्यों किसका सोच?
किस निष्ठुर ठण्डे हृत्तल में जमे रहे तुम बर्फ समान?
पिघल रहे हो किस गर्मी से! हे करुणा के जीवन-प्राण
चपला की व्याकुलता लेकर चातक का ले करुण विलाप,
तारा आँसू पोंछ गगन के, रोते हो किस दुख से आप?
किस मानस-निधि में न बुझा था बड़वानल जिससे बन भाप,
प्रणय-प्रभाकर कर से चढ़ कर इस अनन्त का करते माप,
क्यों जुगनू का दीप जला, है पथ में पुष्प और आलोक?
किस समाधि पर बरसे आँसू, किसका है यह शीतल शोक।
थके प्रवासी बनजारों-से लौटे हो मन्थर गति से;
किस अतीत की प्रणय-पिपासा, जगती चपला-सी स्मृति से?
स्वर्ग है नहीं दूसरा और। - Jaishankar Prasad ki Kavita
सज्जन हृदय परम करुणामय यही एक है ठौर।।
सुधा-सलिल से मानस, जिसका पूरित प्रेम-विभोर।
नित्य कुसुममय कल्पद्रुम की छाया है इस ओर।।
स्वजन दीखता न विश्व में अब, न बात मन में समाय कोई। - Jaishankar Prasad ki Kavita
पड़ी अकेली विकल रो रही, न दुःख में है सहाय कोई।।
पलट गए दिन स्नेह वाले, नहीं नशा, अब रही न गर्मी ।
न नींद सुख की, न रंगरलियाँ, न सेज उजला बिछाए सोई ।।
बनी न कुछ इस चपल चित्त की, बिखर गया झूठ गर्व जो।
था असीम चिन्ता चिता बनी है, विटप कँटीले लगाए रोई ।।
क्षणिक वेदना अनन्त सुख बस, समझ लिया शून्य में बसेरा ।
पवन पकड़कर पता बताने न लौट आया न जाए कोई।।
चल बसन्त बाला अंचल से किस घातक सौरभ से मस्त,- Jaishankar Prasad ki Kavita
आती मलयानिल की लहरें जब दिनकर होता है अस्त।
मधुकर से कर सन्धि, विचर कर उषा नदी के तट उस पार;
चूसा रस पत्तों-पत्तों से फूलों का दे लोभ अपार।
लगे रहे जो अभी डाल से बने आवरण फूलों के,
अवयव थे शृंगार रहे तो वनबाला के झूलों के।
आशा देकर गले लगाया रुके न वे फिर रोके से,
उन्हें हिलाया बहकाया भी किधर उठाया झोंके से।
कुम्हलाए, सूखे, ऐंठे फिर गिरे अलग हो वृन्तों से,
वे निरीह मर्माहत होकर कुसुमाकर के कुन्तों से।
नवपल्लव का सृजन! तुच्छ है किया बात से वध जब क्रूर,
कौन फूल-सा हँसता देखे! वे अतीत से भी जब दूर।
लिखा हुआ उनकी नस-नस में इस निर्दयता का इतिहास,
तू अब 'आह' बनी घूमेगी उनके अवशेषों के पास।
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