कानन-कुसुम जयशंकर प्रसाद Kanan-Kusum Jaishankar Prasad

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हिंदी कविता

कानन-कुसुम जयशंकर प्रसाद
Kanan-Kusum Jaishankar Prasad

प्रभो- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

विमल इन्दु की विशाल किरणें

प्रकाश तेरा बता रही हैं

अनादि तेरी अन्नत माया

जगत् को लीला दिखा रही हैं

 

प्रसार तेरी दया का कितना

ये देखना हो तो देखे सागर

तेरी प्रशंसा का राग प्यारे

तरंगमालाएँ गा रही हैं

तुम्हारा स्मित हो जिसे निरखना

वो देख सकता है चंद्रिका को

तुम्हारे हँसने की धुन में नदियाँ

निनाद करती ही जा रही हैं

विशाल मन्दिर की यामिनी में

जिसे देखना हो दीपमाला

तो तारका-गण की ज्योती उसका

पता अनूठा बता रही हैं

 

प्रभो ! प्रेममय प्रकाश तुम हो

प्रकृति-पद्मिनी के अंशुमाली

असीम उपवन के तुम हो माली

धरा बराबर जता रही है

जो तेरी होवे दया दयानिधि

तो पूर्ण होता ही है मनोरथ

सभी ये कहते पुकार करके

यही तो आशा दिला रही है

 

वन्दना- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

जयति प्रेम-निधि ! जिसकी करुणा नौका पार लगाती है

जयति महासंगीत ! विश्‍व-वीणा जिसकी ध्वनि गाती है

कादम्‍िबनी कृपा की जिसकी सुधा-नीर बरसाती है

भव-कानन की धरा हरित हो जिससे शोभा पाती है

 

Kanan-Kusum-Jaishankar-Prasad

 

निर्विकार लीलामय ! तेरी शक्ति न जानी जाती है

ओतप्रोत हो तो भी सबकी वाणी गुण-गुना गाती है

गदगद्-हृदय-निःसृता यह भी वाणी दौड़ी जाती है

प्रभु ! तेरे चरणों में पुलकित होकर प्रणति जनाती है

नमस्कार- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है

जिस मंदिर में रंक-नरेश समान रहा है

जिसके हैं आराम प्रकृति-कानन ही सारे

जिस मंदिर के दीप इन्दु, दिनकर औ’ तारे

उस मंदिर के नाथ को, निरूपम निरमय स्वस्थ को

नमस्कार मेरा सदा पूरे विश्‍व-गृहस्थ को

 

मन्दिर- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

जब मानते हैं व्यापी जलभूमि में अनिल में

तारा-शशांक में भी आकाश मे अनल में

फिर क्यो ये हठ है प्यारे ! मन्दिर में वह नहीं है

वह शब्द जो ‘नही’ है, उसके लिए नहीं है

 

जिस भूमि पर हज़ारों हैं सीस को नवाते

परिपूर्ण भक्ति से वे उसको वहीं बताते

कहकर सइस्त्र मुख से जब है वही बताता

फिर मूढ़ चित्त को है यह क्‍यों नही सुहाता

 

अपनी ही आत्मा को सब कुछ जो जानते हो

परमात्मा में उसमें नहिं भेद मानते हो

जिस पंचतत्व से है यह दिव्य देह-मन्दिर

उनमें से ही बना है यह भी तो देव-मन्दिर

 


 

उसका विकास सुन्दर फूलों में देख करके

बनते हो क्यों मधुव्रत आनन्द-मोद भरके

इसके चरण-कमल से फिर मन क्यों हटाते हो

भव-ताप-दग्ध हिय को चन्दन नहीं चढ़ाते

 

 

प्रतिमा ही देख करके क्यों भाल में है रेखा

निर्मित किया किसी ने इसको, यही है रेखा

हर-एक पत्थरो में वह मूर्ति ही छिपी है

शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया, वही है

 

इस भाव को हमारे उसको तो देख लीजे

धरता है वेश वोही जैसा कि उसको दिजे

यों ही अनेक-रूपी बनकर कभी पुजाया

लीला उसी की जग में सबमें वही समाया

 

मस्जिद, पगोडा, गिरजा, किसको बनाया तूने

सब भक्त-भावना के छोटे-बड़े नमूने

सुन्दर वितान कैसा आकाश भी तना है

उसका अनन्त-मन्दिर, यह विश्‍व ही बना है

 

करुण क्रन्दन- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

करुणा-निधे, यह करुण क्रन्दन भी ज़रा सुन लीजिये

कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये

 

हम मानते, हम हैं अधम, दुष्कर्म के भी छात्र हैं

हम है तुम्हारे, इसलिये फिर भी दया के पात्र हैं

 

सुख में न तुमको याद करता, है मनुज की गति यही

पर नाथ, पड़कर दुःख में किसने पुकारा है नहीं

 

सन्तुष्ट बालक खेलने से तो कभी थकता नहीं

कुछ क्लेश पाते, याद पड़ जाते पिता-माता वही

 

संसार के इस सिन्धु में उठती तरंगे घोर हैं

तैसी कुहू की है निशा, कुछ सूझता नहीं छोर हैं

 

झंझट अनेकों प्रबल झंझा-सदृश है अति-वेग में

है बुद्धि चक्कर में भँवर सी घूमती उद्वेग में

 

गुण जो तुम्हारा पार करने का उसे विस्मृत न हो

वह नाव मछली को खिलाने की प्रभो बंसी न हो

 

 

हे गुणाधार, तुम्हीं बने हो कर्णधार विचार लो

है दूसरा अब कौन, जैसे बने नाथ ! सम्हार लो

 

ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दिन-रात हैं

कुविचार-क्रूरों के कठिन कैसे कुठिल आघात हैं

 

हे नाथ, मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में

फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरूद्ध में

 

महाक्रीड़ा- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

सुन्दरी प्रााची विमल ऊषा से मुख धोने को है

पूर्णिमा की रात्रि का शश्‍ाि अस्त अब होने को है

 

तारका का निकर अपनी कान्ति सब खोने को है

स्वर्ण-जल से अरूण भी आकाश-पट धोने को है

 

गा रहे हैं ये विहंगम किसके आने कि कथा

मलय-मारूत भी चला आता है हरने को व्यथा

 

चन्द्रिका हटने न पाई, आ गई ऊषा भली

कुछ विकसने-सी लगी है कंज की कोमल कली

 

हैं लताएँ सब खड़ी क्यों कुसुम की माला लिये

क्यों हिमांशु कपूर-सा है तारका-अवली लिये

 

अरूण की आभा अभी प्राची में दिखलाई पड़ी

कुछ निकलने भी लगी किरणो की सुन्दर-सी लड़ी

 

देव-दिनकर क्या प्रभा-पूरित उदय होने को हैं

चक्र के जोड़े कहो कया मोदमय होने को हैं

 

 

वृत आकृत कुंकुमारूण कंज-कानन-मित्र है

पूर्व में प्रकटित हुआ यह चरित जिसके चित्र हैं

 

कल्पना कहती है, कन्दुक है महाशिशु-खेल का

जिसका है खिलवाड़ इस संसार में सब मेल का

 

हाँ, कहो, किस ओर खिंचते ही चले जाओगे तुम

क्या कभी भी खेल तजकर पास भी आओगे तुम

 

नेत्र को यों मीच करके भागना अच्छा नहीं

देखकर हम खोज लेंगे, तुम रहो चाहे कहीं

 

पर कहो तो छिपके तुम जाओगे क्यों किस ओर को

है कहाँ वह भूमि जो रक्खे मेरे चितचोर को

 

बनके दक्षिण-पौन तुम कलियो से भी हो खेलते

अलि बने मकरन्द की मीठी झड़ी हो झेलते

 


 

गा रहे श्‍यामा के स्वर में कुछ रसीले राग से

तुम सजावट देखते हो प्रकृति की अनुराग से

 

देके ऊषा-पट प्रकृति को हो बनाते सहचरी

भाल के कुंकुम-अरूण की दे दिया बिन्दी खरी

 

नित्य-नूतन रूप हो उसका बनाकर देखते

वह तुम्हें है देखती, तुम युगल मिलकर खेलते

करुणा-कुंज- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेष है

मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है

भारी भोझा लाद लिया न सँभार है

छल छालों से पैर छिले न उबार है

 

चले जा रहे वेग भरे किस ओर को

मृग-मरीचिका तुुम्हें दिखाती छोर को

किन्तु नहीं हे पथिक ! वह जल है नहीं

बालू के मैदान सिवा कुछ है नहीं

 

ज्वाला का यह ताप तुम्हें झुलसा रहा

मनो मुकुल मकरन्द-भरा कुम्हला रहा

उसके सिंचन-हेतु न यह उद्योग है

व्यर्थ परिश्रम करो न यह उपयोग है

 

कुसुम-वाहना प्रकृति मनोज्ञ वसन्त है

मलयज मारूत प्रेम-भरा छविवन्त है

खिली कुसुम की कली अलीगण घूमते

मद-माते पिक-पुंज मंज्जरी चूमते

 

किन्तु तुम्हें विश्राम कहाँ है नाम को

केवल मोहित हुए लोभ से काम को

ग्रीष्मासन है बिछा तुम्हारे हृदय में

कुसुमाकर पर ध्यान नहीं इस समय में

 

अविरल आँसू-धार नेत्र से बह रहे

वर्षा-ऋतु का रूप नहीं तुम लख रहे

मेघ-वाहना पवन-मार्ग में विचरती

सुन्दर श्रम-लव-विन्दु धरा को वितरती

 

तुम तो अविरत चले जा रहे हो कहीं

तुम्हें सुघर से दृश्‍य दिखाते हैं नहीं

शरद-शर्वरी शिशिर-प्रभंजन-वेग में

चलना है अविराम तुम्हें उद्वेग में

 

भ्रम-कुहेलिका से दृग-पथ भी भ्रान्त है

है पग-पग पर ठोकर, फिर नहि शान्त है

व्याकुल होकर, चलते हो क्यो मार्ग में

छाया क्या है नहीं कही इस मार्ग में

 

त्रस्त पथिक, देखो करुणा विश्‍वेश की

खड़ी दिलाती तुम्हें याद हृदयेश की

शाीतातप की भीति सता सकती नही

दुख तो उसका पता न पा सकता कहीं

 

भ्रान्त शान्त पथिकों का जीवन-मूल है

इसका ध्यान मिटा देना सब भूल है

कुसुमित मधुमय जहाँ सुखद अलिपुंज है

शान्त-हेतु वह देखो ‘करुणा-कुंज है

 

प्रथम प्रभात- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

मनोवृत्तियाँ खग-कुल-सी थी सो रही,

अन्तःकरण नवीन मनोहर नीड़ में

नील गगन-सा शान्त हृदय भी हो रहा,

बाह्य आन्तरिक प्रकृति सभी सोती रही

 

स्पन्दन-हीन नवीन मुकुल-मन तृष्ट था

अपने ही प्रच्छन्न विमल मकरन्द से

अहा! अचानक किस मलयानिल ने तभी,

(फूलों के सौरभ से पूरा लदा हुआ)-

 

आते ही कर स्पर्श गुदगुदाया हमें,

खूली आँख, आनन्द-दृश्य दिखला दिया

मनोवेग मधुकर-सा फिर तो गूँज के,

मधुर-मधुर स्वर्गीय गान गाने लगा

 

वर्षा होने लगी कुसुम-मकरन्द की,

प्राण-पपीहा बोल उठा आनन्द में,

कैसी छवि ने बाल अरुण सी प्रकट हो,

शून्य हृदय को नवल राग-रंजित किया

सद्यःस्नात हुआ फिर प्रेम-सुतीर्थ में,

मन पवित्र उत्साहपूर्ण भी हो गया,

विश्व विमल आनन्द भवन-सा बन रहा

मेरे जीवन का वह प्रथम प्रभात था

 

नव वसंत- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही

इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं

युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा

हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा

कूल पर का कुसुम-कानन भी महाकमनीय हैं

शुभ्र प्रासादावली की भी छटा रमणीय है

है कहीं कोकिल सघन सहकार को कूंजित किये

और भी शतपत्र को मधुकर कही गुंजित किये

 

मधुर मलयानिल महक की मौज में मदमत्त है

लता-ललिता से लिपटकर ही महान प्रमत्त है

क्यारियों के कुसुम-कलियो को कभी खिझला दिया

सहज झोंके से कभी दो डाल को हि मिला दिया

 

घूमता फिरता वहाँ पहुँचा मनोहर कुंज में

थी जहाँ इक सुन्दरी बैठी महा सुख-पुंज में

धृष्ट मारूत भी उड़ा अंचल तुरत चलता हुआ

माधवी के पत्र-कानों को सहज मलता हुआ

 

ज्यो उधर मुख फेरकर देखा हटाने के लिये

आ गया मधुकर इधर उसके सताने के लिये

कामिनी इन कौतुकों से कब बहलने ही लगी

किन्तु अन्यमनस्क होकर वह टहलने ही लगी

 

ध्यान में आया मनोहर प्रिय-वदन सुख-मूल वह

भ्रान्त नाविक ने तुरत पाया यथेप्सित कूल वह

नील-नीरज नेत्र का तब तो मनोज्ञ विकास था

अंग-परिमल-मधुर मारूत का महान विलास था

 

मंजरी-सी खिल गई सहकार की बाला वही

अलक-अवली हो गई सु-मलिन्द की माला वही

शान्त हृदयाकाश स्वच्छ वसंत-राका से भरा

कल्पना का कुसुम-कानन काम्य कलियों से भरा

 

चुटकियाँ लेने लगीं तब प्रणय की कोरी कली

मंजरी कम्पित हुई सुन कोकिला की काकली

सामने आया युवक इक प्रियतमे ! कहता हुआ

विटप-बाहु सुपाणि-पल्लव मधुर प्रेम जता छुआ

 

कुमुद विकसित हो गये तब चन्द्रमा वह सज उठा

कोकिला-कल-रव-समान नवीन नूमुर बज उठा

प्रकृति और वसंत का सुखमय समागम हो गया

मंजरी रसमत्त मधुकर-पुंज का कम हो गया

 

सौरभित सरसिज युगल एकत्र होकर खिल गये

लोल अलकावलि हुई मानो मधुव्रत मिल गये

श्‍वास मलयज पवन-सा आनन्दमय करने लगा

मधुर मिश्रण युग-हृदय का भाव-रस भरने लगा

 

दृश्‍य सुन्दर हो गये, मन में अपूर्व विकास था

आन्तरिक और ब्राहृ सब में नव वसंत-विलास था

 

मर्म-कथा- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

प्रियतम ! वे सब भाव तुम्हारे क्या हुए

प्रेम-कंज-किजल्क शुष्क कैसे हए

हम ! तुम ! इतना अन्तर क्यों कैसे हुआ

हा-हा प्राण-अधार शत्रु कैसे हुआ

कहें मर्म-वेदना दुसरे से अहो-

‘‘जाकर उससे दुःख-कथा मेरी कहो’’

नही कहेंगे, कोप सहेंगे धीर हो

दर्द न समझो, क्या इतने बेपीर हो

चुप रहकर कह दुँगा मैं सारी कथा

बीती है, हे प्राण ! नई जितनी व्यथा

मेरा चुप रहना बुलवावेगा तुम्हें

मैं न कहूँगा, वह समझावेगा तुम्हें

जितना चाहो, शान्त बनो, गम्भीर हो

खुल न पड़ो, तब जानेंगे, तुम धीर हो

रूखे ही तुम रहो, बूँद रस के झरें

हम-तुम जब हैं एक, लोग बकतें फिरें

 

हृदय-वेदना- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

सुनो प्राण-प्रिय, हृदय-वेदना विकल हुई क्या कहती है

तव दुःसह यह विरह रात-दिन जैसे सुख से सहती है

मै तो रहता मस्त रात-दिन पाकर यही मधुर पीड़ा

वह होकर स्वच्छन्द तुम्हारे साथ किया करती क्रीड़ा

 

हृदय-वेदना मधुर मूर्ति तब सदा नवीन बनाती है

तुम्हें न पाकर भी छाया में अपना दिवस बिताती है

कभी समझकर रूष्ट तुम्हें वह करके विनय मनाती है

तिरछी चितवन भी पा करके तुरत तुष्ट हो जाती है

 

जब तुम सदय नवल नीरद से मन-पट पर छा जाते हो

पीड़ास्थल पर शीतल बनकर तब आँसू बरसाते हो

मूर्ति तुम्हारी सदय और निर्दय दोनो ही भाती है

किसी भाँति भी पा जाने पर तुमको यह सुख पाती है

 

कभी-कभी हो ध्यान-वंचिता बड़ी विकल हो जाती है

क्रोधित होकर फिर यह हमको प्रियतम ! बहुत सताती है

इसे तम्हारा एक सहारा, किया करो इससे क्रीड़ा

मैं तो तुमको भूल गया हूँ पाकर प्रेममयी पीड़ा

 

ग्रीष्म का मध्यान्ह- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं

किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं

 

छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है

चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है

 

प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है

तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है

 

स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं

जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं

 

पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है

होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है

 


 

निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है

डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं

 

देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह कैसा है

आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है

 

लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है

कुम्भकर्ण-सा कोटर-मुख से अगणित जीव उगिलता है

 

हरे-हरे पत्‍ते वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं

देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं

 

धूल उड़ाता प्रबल प्रभंजन उनको साथ उड़ाता है

अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है

 

जलद-आहृवान- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

शीघ्र आ जाओ जलद ! स्वागत तुम्हारा हम करें

ग्रीष्म से सन्तप्त मन के ताप को कुछ कम करें

है धरित्री के उरस्थल में जलन तेरे विना

शून्य था आकाश तेरे ही जलद ! घेरे विना

मानदण्ड-समान जो संसार को है मापता

लहू की पंचाग्नि जो दिन-रात ही है तापता

जीव जिनके आश्रमो की-सी गुहा में मोद से

वास करते, खेलते है बालवृन्द विनोद से

पत्रहीना वल्लरी-जैसे जटा बिखरी हुई

उत्‍तरीय-समान जिन पर धूप है निखरी हुई

शैल वे साधक सदा जीवन-सुधा को चाहते

ध्यान में काली घटा के नित्य ही अवगाहते

धूलिधूसर है धरा मलिना तुम्हारे ही लिये

है फटी दूर्वादलों की श्‍याम साड़ी देखिये

जल रही छाती, तुम्हारा प्रेम-वारि मिला नहीं

इसलिये उसका मनोगत-भाव-फूल खिला नहीं

नेत्र-निर्झर सुख-सलिल से भरें, दु,ख सारे भगें

शीघ्र आ जाओ जलद ! आनन्द के अंकुर उगें

 

भक्तियोग- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

दिननाथ अपने पीत कर से थे सहारा ले रहे

उस श्रृंग पर अपनी प्रभा मलिना दिखाते ही रहे

 

वह रूप पतनोन्मुख दिवाकर का हुआ पीला अहो

भय और व्याकुलता प्रकट होती नहीं किसकी कहो

 

जिन-पत्तियों पर रश्‍िमयाँ आश्रम ग्रहण करती रहीं

वे पवन-ताड़ित हो सदा ही दूर को हटती रहीं

 

सुख के सभी साथी दिखाते है अहो संसार में

हो डूबता उसको बचाने कौन जाता धार में

 

कुल्या उसी गिरि-प्रान्त में बहती रही कल-नाद से

छोटी लहरियाँ उठ रही थी आन्तरिक आहृलाद से

 


 

पर शान्त था वह शैल जैसे योग-मग्न विरक्त हो

सरिता बनी माया उसे कहती कि ‘तुम अनुरक्त हो’

 

वे वन्य वीरूध कुसुम परिपूरित भले थे खिल रहे

कुछ पवन के वश में हुए आनन्द से थे खिल रहे

 

देखो, वहाँ वह कौन बैठा है शिला पर, शान्त है

है चन्द्रमा-सा दीखता आसन विमल-विधु-कान्त है

 

स्थिर दृष्टि है जल-विन्दु-पूरित भाव—मानस का भरा

उन अश्रुकण में एक भी उनमें न इस भव से डरा

 

वह स्वच्छ शरद-ललाट चिन्तित-सा दिखाई दे रहा

पर एक चिन्ता थी वही जिसको हृदय था दे रहा

 

 

था बुद्ध-पद्मासन, हृदय अरविन्द-सा था खिल रहा

वह चिन्त्य मधुकर भी मधुर गुंजार करता मिल रहा

 

प्रतिक्षण लहर ले बढ़ रहे थे भाव-निधि में वेग से

इस विष्व के आलोक-मणि की खोज में उद्वेग से

 

प्रति श्‍वास आवाहन किया करता रहा उस इष्ट को

जो स्पर्श कर लेता कमी था पुण्य प्रेम अभीष्ट को

 

परमाणु भी सब स्तब्ध थे, रोमांच भी था हो रहा

था स्फीत वक्षस्थल किसी के ध्यान में होता रहा

 

आनन्द था उपलब्ध की सुख-कल्पना मे मिल रहा

कुछ दुःख भी था देर होने से वही अनमिल रहा

 

दुष्प्राप्य की ही प्राप्ति में हाँ बद्ध जीवनमुक्त था

कहिये उसे हम क्या कहें, अनुरक्त था कि विरक्त था

 

कुछ काल तक वह जब रहा ऐसे मनोहर ध्यान में

आनन्द देती सुन पड़ी मंजीर की ध्वनि कान में

 

 

नव स्वच्छ सन्ध्या तारका में से अभी उतरी हुई

उस भक्त के ही सामने आकर खड़ी पुतरी हुई

 

वह मुर्त्ति बोल-‘भक्तवर! क्यों यह परिश्रम हो रहा

क्यों विश्‍व का आनन्द-मंदिर आह! तू यों खो रहा

 

यह छोड़कर सुख है पड़ा किसके कुहक के जाल में

सुख-लेख मैं तो पढ़ रही हूँ स्पष्ट तेरे भाल में

 

सुन्दर सुहृद सम्पति सुखदा सुन्दरी ले हाथ में

संसार यह सब सौंपना है चाहता तव हाथ में

 


 

फिर भागते हो क्यों ? न हटता यो कभी निर्भीक है

संसार तेरा कर रहा है स्वागत, चलो, सब ठीक है

 

उन्नत हुए भ्रू-युग्म फिर तो बंक ग्रीवा भी हुई

फिर चढ़ गई आपादमस्तक लालिमा दौड़ी हुई

 

‘है सत्य सुन्दरि ! तव कथन, पर कुछ सुनो मेरा कहा’

आनन्द के विह्वल हुए-से भक्त ने खुलकर कहा

 

‘जब ये हमारे है, भला किस लिये हम छोड़ दें

दुष्प्राप्य को जो मिल रहा सुख-सुत्र उसको तोड़ दें

 

जिसके बिना फीके रहें सारे जगत-सुख-भोग ये

उसको तुरत ही त्याग करने को बताते लोग ये

 

उस ध्यान के दो बूँद आँसू ही हृदय-सर्वस्व हैं

जिस नेत्र में हों वे नहीं समझो की वे ही निःस्व है

 

 

उस प्रेममय सर्वेश का सारा जगत् औ’ जाति है

संसार ही है मित्र मेरा, नाम को न अराति है

 

फिर, कौन अप्रिय है मुझे, सुख-दुःख यह सब कुछ नहीं

केवल उसी की है कृपा आनन्द और न कुछ कहीं

 

हमको रूलाता है कभी, हाँ, फिर हँसाता है कभी

जो मौज में आता जभी उसके, अहो करता तभी

 

वह प्रेम का पागल बड़ा आनन्द देता है हमें

हम रूठते उससे कभी, फिर भी मनाता है हमें

 

हम प्रेम-मतवाले बने, अब कौन मतवाले बनें

मत-धर्म सबको ही बहाया प्रेमनिधि-जल में घने

 

आनन्द आसन पर सुधा-मन्दाकिनी में स्नात हो

हम और वह बैठे हए हैं प्रेम-पुलकित-गात हो

 

 

यह दे ईर्ष्‍या हो रही है, सुन्दरी ! तुमको अभी

दिन बीतने दो दो कहाँ, फिर एक देखोगी कभी

 

फिर यह हमारा हम उसी के, वह हमीं, हम वह हुए

तब तुम न मुझसे भिन्न हो, सब एक ही फिर हो गये

 

यह सुन हँसी वही मूर्ति करूणा की हुई कादम्बिनी

फिर तो झड़ी-सी लग गई आनन्द के जल की घनी

 

रजनीगंधा- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

दिनकर अपनी किरण-स्‍वर्ण से रंजित करके

पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के

 

प्रिय-संगम से सुखी हुई आनन्द मानती

अरूण-राग-रंजित कपोल से सोभा पाती

 

दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर

वही हुए अति मुदित विहंगम अवसर पाकर

 

कोमल कल-रव किया बड़ा आनन्द मनाया

किया नीड़ में वास, जिन्हें निज हाथ बनाया

 

देखो मन्थर गति से मारूत मचल रहा है

हरी-हरी उद्यान-लता में विचल रहा है

 

 

कुसुम सभी खिल रहे भरे मकरन्द-मनोहर

करता है गुंजार पान करके रस मधुकर

 

देखो वह है कौन कुसुम कोमल डाली में

किये सम्पुटित वदन दिवाकर-किरणाली में

 

गौर अंग को हरे पल्लवों बीच छिपाती

लज्जावती मनोज्ञ लता का दृष्य दिखाती

 

मधुकर-गण का पुंज नहीं इस ओर फिरा है

कुसुमित कोमल कुंज-बीच वह अभी घिरा है

 

मलयानिल मदमत्त हुआ इस ओर न आया

इसके सुन्दर सौरभ का कुछ स्वाद न पाया

 


 

तिमिर-भार फैलाती-सी रजनी यह आई

सुन्दर चन्द्र अमन्द हुआ प्रकटित सुखदाई

 

स्पर्श हुआ उस लता लजीली से विधु-कर का

विकसित हुई प्रकाश किया निज दल मनहर का

 

देखो-देखो, खिली कली अलि-कुल भी आया

उसे उड़़ाया मारूत ने पराग जो पाया

 

सौरभ विस्तृत हुआ मनोहर अवंसर पाकर

म्लान वदन विकसाया इस रजनी ने आकर

 

 

कुल-बाला सी लजा रही थी जो वासर में

रूप अनूपम सजा रही है वह सुख-सर में

 

मघुमय कोमल सुरभि-पूर्ण उपवन जिससे है

तारागण की ज्योति पड़ी फीकी इससे है

 

रजनी में यह खिली रहेगी किस आशा पर

मधुकर का भी ध्यान नहीं है क्या पाया फिर

 

अपने-सदृष समूह तारका का रजनी-भर

निर्निमेष यह देख रही है कैसे सुख पर

 

कितना है अनुराग भरा अस छोटे मन में

निशा-सखी का प्रेम भरा है इसके तन में

 

‘रजनी-गंधा’ नाम हुआ है सार्थक इसका

चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका

 

सरोज- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

अरुण अभ्युदय से हो मुदित मन प्रशान्त सरसी में खिल रहा है

प्रथम पत्र का प्रसार करके सरोज अलि-गन से मिल रहा है

गगन मे सन्ध्या की लालिमा से किया संकुचित वदन था जिसने

दिया न मकरन्द प्रेमियो को गले उन्ही के वो मिल रहा है

तुम्हारा विकसित वदन बताता, हँसे मित्र को निरख के कैसे

हृदय निष्कपट का भाव सुन्दर सरोज ! तुझ पर उछल रहा है

निवास जल ही में है तुम्हारा तथापि मिश्रित कभी न होेते

‘मनुष्य निर्लिप्त होवे कैसे-सुपाठ तुमसे ये मिल रहा है

उन्ही तरंगों में भी अटल हो, जो करना विचलित तुम्हें चाहती

‘मनुष्य कर्त्तव्य में यों स्थिर हो’-ये भाव तुममें अटल रहा है

तुम्हें हिलाव भी जो समीरन, तो पावे परिमल प्रमोद-पूरित

तुम्हारा सौजन्य है मनोहर, तरंग कहकर उछल रहा है

तुम्हारे केशर से हो सुगन्धित परागमय हो रहे मधुव्रत

‘प्रसाद’ विश्‍वेश का हो तुम पर यही हृदय से निकल रहा है

 

मलिना- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

नव-नील पयोधर नभ में काले छाये

भर-भरकर शीतल जल मतवाले धाये

 

लहराती ललिता लता सुबाल लजीली

लहि संग तरून के सुन्दर बनी सजीली

 

फूलो से दोनों भरी डालियाँ हिलतीं

दोनों पर बैठी खग की जोड़ी मिलती

 

बुलबुल कोयल हैं मिलकर शोर मचाते

बरसाती नाले उछल-उछल बल खाते

 


 

वह हरी लताओ की सुन्दर अमराई

बन बैठी है सुकुमारी-सी छावि छाई

 

हर ओर अनूठा दृश्‍य दिखाई देता

सब मोती ही-से बना दिखाई देता

 

वह सघन कुंज सुख-पुंज भ्रमर की आली

कुछ और दृश्‍य है सुषमा नई निराली

 

 

बैठी है वसन मलीन पहिन इक बाला

पुरइन-पत्रों के बीच कमल की माला

 

उस मलिन वसन में अंग-प्रभा दमकीली

ज्यों घूसर नभ में चन्द्र-कला चमकीली

 

पर हाय ! चन्द्र को घन ने क्‍यों है घेरा

उज्जवल प्रकाश के पास अजीब अँधेरा

 

उस रस-सरवर में क्यों चिन्ता की लहरी

चंचल चलती है भाव-भरी है गहरी

 

कल-कमल कोश पर अहो ! पड़ा क्यों पाला

कैसी हाला ने किया उसे मतवाला

 

 

किस धीवर ने यह जाल निराला डाला

सीपी से निकली है मोती की माला

 

उत्ताल तरंग पयोनिधि में खिलती है

पतली मृणालवाली नलिनी हिलती है

 

नहीं वेग-सहित नलिनी को पवन हिलाओ

प्यारे मधुकर से उसको नेक मिलाओ

 

नव चंद अमंद प्रकाश लहे मतवाली

खिलती है उसको करने दो मनवाली

 

जल-विहारिणी- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

चन्द्रिका दिखला रही है क्या अनूपम सी छटा

खिल रही हैं कुसुम की कलियाँ सुगन्धो की घटा

सब दिगन्तो में जहाँ तक दृष्टि-पथ की दौड़ है

सुधा का सुन्दर सरोवर दीखता बेजोड़ है

रम्य कानन की छटा तट पर अनोखी देख लो

शान्त है, कुछ भय नहीं है, कुछ समय तक मत टलो

अन्धकार घना भरा है लता और निकुंज में

चन्द्रिका उज्जवल बनाता है उन्हें सुख-पुंजमें

शैल क्रीड़ा का बनाया है मनोहर काम ने

सुधा-कण से सिक्त गिरि-श्रेणी खड़ी है सामने

प्रकृति का मनमुग्धकारी गूँजता-सा गान है

शैल भी सिर को उठाकर खड़ा हरिण-समान है

 

गान में कुछ बीण की सुन्दर मिली झनकार है

कोकिला की कूक है या भृंग का गुंजार है

स्वच्छ-सुन्दर नीर के चंचल तरंगो में भली

एक छोटी-सी तरी मन-मोहिनी आती चली

 

 

पंख फैलाकर विहंगम उड़ रहा अकाश में

या महा इक मत्स्य है, जो खेलता जल-वास में

चन्द्रमण्डल की समा उस पर दिखाई दे रही

साथ ही में शुक्र की शोभा अनूठी ही रही

 

पवन-ताड़ित नीर के तरलित तरंगों में हिले

मंजु सौरभ-पुंज युग ये कंज कैसे हैं खिले

या प्रशान्त विहायसी में शोभते है प्रात के

तारका-युग शुभ्र हैं आलोक-पूरन गात के

 

या नवीना कामिनी की दीखती जोड़ी भली

एक विकसित कुसुम है तो दूसरी जैसे कली

जव-विहार विचारकर विद्याधरो की बालिका

आ गई हैं क्या ? कि ये इन्दु-कर की मालिका

 

एक की तो और ही बाँकी अनोखी आन है

मधुर-अधरों में मनोहर मन्द-मृदु मुसक्यान है

इन्दु में उस इन्दु के प्रतिबिम्ब के सम है छटा

साथ में कुछ नील मेघों की घिरी-सी है घटा

नील नीरज इन्दु के आलोक में भी खिल रहे

बिना स्वाती-विन्दु विद्रुम सीप में मोती रहें

रूप-सागर-मध्य रेखा-वलित कम्बु कमाल है

कंज एक खिला हुआ है, युगल किन्तु मृणाल है

चारू-तारा-वलित अम्बर बन रहा अम्बर अहा

चन्द उसमें चमकता है, कुछ नही जाता कहा

 

कंज-कर की उँगलियाँ हैं सुन्दरी के तार में

सुन्दरी पर एक कर है और ही कुछ तार में

चन्द्रमा भी मुग्ध मुख-मण्डल निरखता ही रहा

कोकिला का कंठ कोमल राग में ही भर रहा

इन्दु सुन्दर व्योम-मध्य प्रसार कर किरणावली

क्षुद्र तरल तरंग को रजताभ करता है छली

प्रकृति अपने नेत्र-तारा से निरखती है छटा

घिर रही है घोर एक आनन्द-घन की-सी घटा

 

ठहरो- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

वेेगपूर्ण है अश्‍व तुम्हारा पथ में कैसे

कहाँ जा रहे मित्र ! प्रफुल्लित प्रमुदित जैसे

देखो, आतुर दृष्टि किये वह कौन निरखता

दयादृष्टि निज डाल उसे नहि कोई लखता

 

‘हट जाओ’ की हुंकार से होता है भयभीत वह

यदि दोगे उसको सान्त्वना, होगा मुदित सप्रीत वह

 

उसे तुम्हारा आश्रय है, उसको मत भूलो

अपना आश्रित जान गर्व से तुम मत फूलो

कुटिला भृकुटी देख भीत कम्पित होता है

डरने पर भी सदा कार्य में रत होता है

 


 

यदि देते हो कुछ भी उसे, अपमान न करना चाहिये

उसको सम्बोधन मधुर से तुम्हें बुलाना चाहिये

 

तनक न जाओ मित्र ! तनिक उसकी भी सुन लो

जो कराहता खाट धरे, उसको कुछ गुन लो

कर्कश स्वर की बोल कान में न सुहाती है

मीठी बोली तुम्हें नहीं कुछ भी आती है

 

उसके नेत्रों में अश्रु है, वह भी बड़ा समुद्र है

अभिमान-नाव जिस पर चढ़े हो वह तो अति क्षद्र है

 

 

वह प्रणाम करता है, तुम नहिं उत्तर देते

क्यों, क्या वह है जीव नहीं जो रूख नहिं देते

कैसा यह अभिमान, अहो कैसी कठिनाई

उसने जो कुछ भूल किया, वह भूलो भाई

उसका यदि वस्त्र मलीन है, पास बिठा सकते नहीं

क्या उज्जवल वस्त्र नवीन इक उसे पिन्हा सकते नहीं

 

कुंचित है भ्रू-युगल वदन पर भी लाली है

अधर प्रस्फुरित हुआ म्यान असि से खाली है

डरता है वह तुम्हें देख, निज कर को रोको

उस पर कोई वार करे तो उसको टोको

 

है भीत जो कि संसार से, असि नहिं है उसके लिये

है उसे तुम्हारी सान्त्वना नम्र बनाने के लिये

 

बाल-क्रीड़ा- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

हँसते हो तो हँसो खूब, पर लोट न जाओ

हँसते-हँसते आँखों से मत अश्रु बहाओ

ऐसी क्या है बात ? नहीं जो सुनते मेरी

मिली तुम्हें क्या कहो कहीं आनन्द की ढेरी

 

ये गोरे-गोरे गाल है लाल हुए अति मोद से

क्या क्रीड़ा करता है हृदय किसी स्वतंत्र विनोद से

 

उपवन के फल-फूल तुम्हारा मार्ग देखते

काँटे ऊँवे नहीं तुम्हें हैं एक लेखते

मिलने को उनसे तुम दौड़े ही जाते हो

इसमें कुछ आनन्द अनोखा पा जाते हो

 

माली बूढ़ा बकबक किया करता है, कुछ बस नहीं

जब तुमने कुछ भी हँस दिया, क्रोध आदि सब कुछ नहीं

 

राजा हा या रंक एक ही-सा तुमको है

स्नेह-योग्य है वही हँसता जो तुमको है

मान तुम्हारा महामानियो से भारी है

मनोनीत जो बात हुई तो सुखकारी है

 

वृद्धों की गल्पकथा कभी होती जब प्रारम्भ है

कुछ सुना नहीं तो भी तुरत हँसने का आरम्भ है

 

कोकिल- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

नया हृदय है, नया समय है, नया कुंज है

नये कमल-दल-बीच गया किंजल्क-पुंज है

नया तुम्हारा राग मनोहर श्रुति सुखकारी

नया कण्ठ कमनीय, वाणि वीणा-अनुकारी

 

यद्यपि है अज्ञात ध्वनि कोकिल ! तेरी मोदमय

तो भी मन सुनकर हुआ शीतल, शांत, विनोदमय

विकसे नवल रसाल मिले मदमाते मधुकर

आलबाल मकरन्द-विन्दु से भरे मनोहर

मंजु मलय-हिल्लोल हिलाता है डाली को

मीठे फल के लिये बुलाता जो माली को

बैठे किसलय-पुंज में उसके ही अनुराग से

कोकिल क्या तुम गा रहे, अहा रसीले राग से

 

कुमुद-बन्धु उल्लास-सहित है नभ में आया

बहुत पूर्व से दौड़ा था, अब अवसर पाया

रूका हुआ है गगन-बीच इस अभिलाषा से

ले निकाल कुछ अर्थ तुम्हारी नव भाषा से

 

गाओ नव उत्साह से, रूको न पल-भर के लिये

कोकिल ! मलयज पवन में भरने को स्वर के लिये

 

सौन्दर्य- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

नील नीरद देखकर आकाश में

क्यो खड़ा चातक रहा किस आश में

क्यो चकोरों को हुआ उल्लास है

क्या कलानिधि का अपूर्व विकास है

 

क्या हुआ जो देखकर कमलावली

मत्त होकर गूँजती भ्रमरावली

कंटको में जो खिला यह फूल है

देखते हो क्यों हृदय अनुकूल है

 


 

है यही सौन्दर्य में सुषमा बड़ी

लौह-हिय को आँच इसकी ही कड़ी

देखने के साथ ही सुन्दर वदन

दीख पड़ता है सजा सुखमय सदन

 

देखते ही रूप मन प्रमुदित हुआ

प्राण भी अमोद से सुरभित हुआ

रस हुआ रसना में उसके बोेलकर

स्पर्श करता सुख हृदय को खोलकर

 

लोग प्रिय-दर्शन बताते इन्दु को

देखकर सौन्दर्य के इक विन्दु को

किन्तु प्रिय-दर्शन स्वयं सौन्दर्य है

सब जगह इसकी प्रभा ही वर्य है

 

जो पथिक होता कभी इस चाह में

वह तुरत ही लुट गया इस राह में

मानवी या प्राकृतिक सुषमा सभी

दिव्य शिल्पी के कला-कौशल सभी

 

देख लो जी-भर इसे देखा करो

इस कलम से चित्त पर रेखा करो

लिखते-लिखते चित्र वह बन जायेगा

सत्य-सुन्दर तब प्रकट हो जायेगा

 

एकान्त में- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

आकाश श्री-सम्पन्न था, नव नीरदों से था घिरा

संध्या मनोहर खेलती थी, नील पट तम का गिरा

यह चंचला चपला दिखाती थी कभी अपनी कला

ज्यों वीर वारिद की प्रभामय रत्नावाली मेखला

हर और हरियाली विटप-डाली कुसुम से पूर्ण है

मकरन्दमय, ज्यों कामिनी के नेत्र मद से पूर्ण है

यह शैला-माला नेत्र-पथ के सामने शोभा भली

निर्जन प्रशान्त सुशैल-पथ में गिरी कुसुमों की कली

कैसी क्षितिज में है बनाती मेघ-माला रूप को

गज, अश्‍व, सुरभी दे रही उपहार पावस भूप को

यह शैल-श्रृंग विराग-भूमि बना सुवारिद-वृन्द की

कैसी झड़ी-सी लग रही है स्वच्छ जल के बिन्दु की

स्त्रोतस्विनी हरियालियों में कर रही कलरव महा

ज्यों हरे धूँघट-ओट में है कामिनी हँसती अहा

किस ओर से यह स्त्रोत आता है शिखर में वेग से

जो पूर्ण करता वन कणों से हृदय को आवेग से

अविराम जीवन-स्त्रोत-सा यह बन रहा है शैल पर

उद्देश्‍य-हीन गवाँ रहाँ है समय को क्यों फैलकर

कानन-कुसुम जो हैं वे भला पूछो किसी मति धीर से

उत्तंग जो यह श्रृंग है उस पर खड़ा तरूराज है

शाखावली भी है महा सुखमा सुपुष्प-समाज है

होकर प्रमत्त खड़ा हुआ है यह प्रभंजन-वेग में

हाँ ! झूमता है चित्त के आमोद के आवेग में

यह शून्यता वन की बनी बेजोड़ पूरी शान्ति से

करूणा-कलित कैसी कला कमनीय कोमल कान्ति से

चल चित्त चंचल वेग को तत्काल करता धीर है

एकान्त में विश्रान्त मन पाता सुशीतल नीर है

निस्तब्धता संसार की उस पूर्ण से है मिल रही

पर जड़ प्रकृति सब जीव में सब ओर ही अनमिल रही

 

दलित कुमुदिनी- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

अहो, यही कृत्रिम क्रीड़ासर-बीच कुमुदिनी खिलती थी

हरे लता-कुंजो की छाया जिसको शीतल मिलती थी

इन्दु-किरण की फूलछड़ी जिसका मकरन्द गिराती थी

चण्ड दिवाकर की किरणें भी पता न जिसका पाती थीं

रहा घूमता आसपास में कभी न मधुर मृणाल छुआ

राजहंस भी जिस सुन्दरता पर मोहित सम मत्त हुआ

जिसके मधुर पराग-अन्ध हो मधुप किया करते फेरा

मृदु चुम्बन-उल्लास-भरी लहरी का जिस पर था घेरा

शीत पवन के मधुर स्पर्श से सिहर उठा करती थी जो

श्‍यामा का संगीत नवीन सकम्प सुना करती थी जो

छोटी-छोटी स्वर्ण मछलियों का जिस पर रहता पहरा

स्वच्छ आन्तरिक प्रेम-भाव का रंग चढ़ा जिस पर गहरा

जिसका मधुर मरन्द-स्त्रोत भी उछल-उछल मिलता जल में

सौरभ उसका फैलाता था रम्य सरोवर निर्मल में

जिसका मुग्ध विकास हदय को अहो मुग्ध कर देता था

सरज पीत केसर भी खिलकर भव्य भाव पर देता था

किसी स्वार्थी मतवाले हाथी से हा ! पद-दलित हुई

वही कुमुदिनी, ग्रीष्मताप-तापिज रज में परिमिलित हुई

छिन्न-पत्र मकरन्दहीन हो गई न शोभा प्यारी है

पड़ी कण्टकाकीर्ण मार्ग में, कालचक्र गति न्यारी है

 

निशीथ-नदी- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो कर के

नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा

प्रेम के दृग-तारा-से ये निर्निमेष हैं

देख रहे-से रूप अलौकिक सुन्दर किसका

दिशा, धारा, तरू-राजि सभी ये चिन्तित-से हैं

शान्त पवन स्वर्गीय स्पर्श से सुख देता है

दुखी हृदय में प्रिय-प्रतीति की विमल विभा-सी

तारा-ज्योति मिल है तम में, कुछ प्रकाश है

कुल युगल में देखो कैसी यह सरिता है

चारों ओर दृश्य सब कैसे हरे-भरे हैं

बालू भी इस स्नेहपूर्ण जल प्रभाव से

उर्वर हैं हो रहे, करारे नहीं काटते

पंकिल करते नहीं स्वच्छशीला सरिता को

तरूगण अपनी शाखाओं से इंगित करके

उसे दिखाते ओर मार्ग, वह ध्यान न देकर

चली जा रही है अपनी ही सीधी धुन में

उसे किसी से कुछ न द्वेष है, मोह भी नहीं

उपल-खण्ड से टकराने का भाव नहीं है

पंकिल या फेनिल होना भी नहीं जानती

पर्ण-कुटीरों की न बहाती भरी वेग से

क्षीणस्त्रोत भी नहीं हुई खर ग्रीष्म-ताप से

गर्जन भी है नहीं, कहीं उत्पात नहीं है

कोमल कल-कलनाद हो रहा शान्ति-गीत-सा

कब यह जीवन-स्त्रोत मधुर ऐसा ही होगा

हृदय-कुसुम कब सौरभ से यों विकसित होकर

पूर्ण करेगा अपने परिमल से दिगंत को

शांति-चित्त को अपने शीतल लहरों से कब

शांत करेगा हर लेगा कब दुःख-पिपासा

 

विनय- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

बना लो हृदय-बीच निज धाम

करो हमको प्रभु पूरन-काम

शंका रहे न मन में नाथ

रहो हरदम तुम मेरे साथ

अभय दिखला दो अपना हाथ

न भूलें कभी तुम्हारा नाम

बना लो हृदय-बीच निज धाम

 

मिटा दो मन की मेरे पीर

धरा दो धर्मदेव अब धीर

पिला दो स्वच्छ प्रेममय नीर

बने मति सुन्दर लोक-ललाम

बना लो हृदय-बीच निज धाम

 

काट दो ये सारे दुःख द्वन्द्व

न आवे पास कभी छल-छन्द

मिलो अब आके आनँदकन्द

रहें तव पद में आठो याम

बना लो हृदय-बीच निज धाम

करो हमको प्रभु पूरन-काम

 

तुम्हारा स्मरण- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

सकल वेदना विस्मृत होती

स्मरण तुम्हारा जब होता

विश्वबोध हो जाता है

जिससे न मनुष्य कभी रोता

 

आँख बंद कर देखे कोई

रहे निराले में जाकर

त्रिपुटी में, या कुटी बना ले

समाधि में खाये गोता

 

खड़े विश्व-जनता में प्यारे

हम तो तुमको पाते हैं

तुम ऐसे सर्वत्र-सुलभ को

पाकर कौन भला खोता

 

प्रसन्न है हम उसमे, तेरी-

प्रसन्नता जिसमें होवे

अहो तृषित प्राणों के जीवन

निर्मल प्रेम-सुधा-सोता

 

नये-नये कौतुक दिखलाकर

जितना दूर किया चाहो

उतना ही यह दौड़-दौड़कर

चंचल हृदय निकट होता

 

याचना- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

जब प्रलय का हो समय, ज्वालामुखी निज मुख खोल दे

सागर उमड़ता आ रहा हो, शक्ति-साहस बोल दे

ग्रहगण सभी हो केन्द्रच्युत लड़कर परस्पर भग्न हों

उस समय भी हम हे प्रभो ! तव पदृमपद में लग्न हो

 

जब शैल के सब श्रृंग विद्युद़ वृन्द के आघात से

हों गिर रह भीषण मचाते विश्व में व्याघात-से

जब र घिर रहे हों प्रलय-घन अवकाश-गत आकाश में

तब भी प्रभो ! यह मन खिंचे तव प्रेम-धारा-पाश में

 

जब क्रूर षडरिपु के कुचक्रों में पड़े यह मन कभी

जब दुःख कि ज्वालावली हों भस्म करती सुख सभी

जब हों कृतघ्नों के कुटिल आघात विद्युत्पात-से

जब स्वार्थी दुख दे रहे अपने मलिन छलछात से

 

जब छोड़कर प्रेमी तथा सन्मित्र सब संसार में

इस घाव पर छिड़कें नमक, हो दुख खड़ा आकार में

करूणानिधे ! हों दुःखसागर में कि हम आनन्द में

मन-मधुप हो विश्वस्त-प्रमुदित तव चरण अरविन्द में

 

हम हाें सुमन की सेज पर या कंटको की आड़ में

पर प्राणधन ! तुम छिपे रहना, इस हृदय की आड़ में

हम हो कहीं इस लोक में, उस लोक में, भूलोक में

तव प्रेम-पथ में ही चलें, हे नाथ ! तव आलोक में

 

पतित पावन- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

पतित हो जन्म से, या कर्म ही से क्यों नहीं होवे

पिता सब का वही है एक, उसकी गोद में रोवे

पतित पदपद्म में होवे

ताे पावन हो जाता है

 

पतित है गर्त में संसार के जो स्वर्ग से खसका

पतित होना कहो अब कौन-सा बाकी रहा उसका

पतित ही को बचाने के

लिये, वह दौड़ आता है

 

पतित हो चाह में उसके, जगत में यह बड़ा सुख है

पतित हो जो नहीं इसमें, उसे सचमुच बड़ा दुख है

पतित ही दीन होकर

प्रेम से उसको बुलाता है

 

पतित होकर लगाई धूल उस पद की न अंगों में

पतित है जो नहीं उस प्रेमसागर की तरंगो में

पतित हो ‘पूत’ हो जाना

नहीं वह जान पाता है

 

‘प्रसाद’ उसका ग्रहण कर छोड़ दे आचार अनबन है

वो सब जीवों का जीवन है, वही पतितों का पावन है

पतित होने की देरी है

तो पावन हो ही जाता है

 

खंजन- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

व्याप्त है क्या स्वच्छ सुषमा-सी उषा भूलोक में

स्वर्णमय शुभ दृश्य दिखलाता नवल आलोक में

शुभ्र जलधर एक-दो कोई कहीं दिखला गये

भाग जाने का अनिल-निर्देश वे भी पा गये

 

पुण्य परिमल अंग से मिलने लगा उल्लास से

हंस मानस का हँसा कुछ बोलकर आवास से

मल्लिका महँकी, अली-अवली मधुर-मधु से छकी

एक कोने की कली भी गन्ध-वितरण कर सकी

 

बह रही थी कूल में लावण्य की सरिता अहो

हँस रही थी कल-कलध्वनि से प्रफुल्लितगात हो

खिल रहा शतदल मधुर मकरन्द भी पड़ता चुआ

सुरभि-संयच-कोश-सा आनन्द से पूरित हुआ

 

शरद के हिम-र्विदु मानो एक में ढाले हुए

दृश्यगोचर हो रहे है प्रेम से पाले हुए

है यही क्या विश्ववर्षा का शरद साकार ही

सुन्दरी है या कि सुषमा का खड़ा आकार ही

 

कौन नीलोज्ज्वल युगल ये दो यहाँ पर खेलते

हैं झड़ी मकरन्द की अरविन्द में ये झेलते

क्या समय था, ये दिखाई पड़ गये, कुछ तो कहो

सत्य क्या जीवन-शरद के ये प्रथम खंजन अहो

 

विरह- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

प्रियजन दृग-सीमा से जभी दूर होते

ये नयन-वियोगी रक्त के अश्रु रोते

सहचर-सुखक्रीड़ा नेत्र के सामने भी

प्रति क्षण लगती है नाचने चित्त में भी

 

प्रिय, पदरज मेघाच्छन्न जो हो रहा हो

यह हृदय तुम्हारा विश्व को खो रहा हो

स्मृति-सुख चपला की क्या छटा देखते हो

अविरल जलधारा अश्रु में भींगते हो

 

हृदय द्रवित होता ध्यान में भूत ही के

सब सबल हुए से दीखते भाव जी के

प्रति क्षण मिलते है जो अतीताब्धि ही में

गत निधि फिर आती पूर्ण की लब्धि ही में

 

यह सब फिर क्या है, ध्यान से देखिये तो

यह विरह पुराना हो रहा जाँचिये तो

हम अलग हुए हैं पूर्ण से व्यक्त होके

वह स्मृति जगती है प्रेम की नींद सोके

 

रमणी-हृदय- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

सिन्धु कभी क्‍या बाड़वाग्नि को यों सह लेता

कभी शीत लहरों से शीतल ही कर देता

रमणी-हृदय अथाह जो न दिखालाई पड़ता

तो क्या जल होकर ज्वाला से यों फिर लड़ता

कौन जानता है, नीचे में, क्या बहता है

बालू में भी स्नेह कहाँ कैसे रहता है

फल्गू की है धार हृदय वामा का जैसे

रूखा ऊपर, भीतर स्नेह-सरोवर जैसे

ढकी बर्फ से शीतल ऊँची चोटी जिनकी

भीतर है क्या बात न जानी जाती उनकी

ज्वालामुखी-समान कभी जब खुल जाते हैं।

भस्म किया उनको, जिनको वे पा जाते हैं

स्वच्छ स्नेह अन्तर्निहित, फल्‍गू-सदृश किसी समय

कभी सिन्धु ज्वालामुखी, धन्य-धन्य रमणी हृदय

 

हाँ, सारथे ! रथ रोक दो- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

हाँ, सारथे ! रथ रोक दो, विश्राम दो कुछ अश्व को

यह कुंज था आनन्द-दायक, इस हृदय के विश्व को

यह भूमि है उस भक्त की आराधना की साधिका

जिसको न था कुछ भय यहाँ भवजन्य आधि व्याधि का

 

जब था न कुछ परिचित सुधा से हृदय वन-सा था बना

तब देखकर इस कुंज को कुसुमित हुआ था वह घना

बरसा दिया मकरन्द की झीनी झड़ी उल्लास से

सुरभित हुआ संसार ही इस कुसुम के सुविकास से

 

जब दौड़ जीवन-मार्ग में पहली हमारी थी हुई

उच्छ्वासमय तटिनी-तरंगों के सदृश बढ़ती गई

था लक्ष्यहीन नवीन वर्षा के पवन-सा वेग में

इस कुंज ही में रूक गया था उस प्रबल उद्वेग में

 

जन्मान्तर-स्मृति याद कर औ’ भूलकर निज चौकड़ी

मन-मृग रूका गर्दन झुकाकर छोड़कर तेजी बड़ी

अज्ञात से पदचिन्ह का कर अनुसरण आया यहाँ

निज नाभि-सौरभ भूल फूलो का सुरस पाया यहाँ

 

सुख-दुःख शीतातप भुलाकर प्राण की आराधना

इस स्थान पर की थी अहो सर्वस्व ही की साधना

हे सारथे ! रथ रोक दो, स्मृति का समाधिस्थान है

हम पैर क्या, शिर से चलें, तो भी न उचित विधान है

 

गंगा सागर- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

प्रिय मनोरथ व्यक्त करें कहो

जगत्-नीरवता कहती ‘नहीं’

गगन में ग्रह गोलक, तारका

सब किये तन दृष्टि विचार में

पर नहीं हम मौन न हो सकें

कह चले अपनी सरला कथा

पवन-संसृति से इस शून्य में

भर उठे मधुर-ध्वनि विश्व में

‘‘यह सही, तुम ! सिन्धु अगाध हो

हृदय में बहु रत्न भरे पड़े

प्रबल भाव विशाल तरंग से

प्रकट हो उठते दिन-रात ही

न घटते-बढ़ते निज सीम से-

तुम कभी, वह बाड़व रूप की

लपट में लिपटी फिरती नदी

प्रिय, तुम्हीं उसके प्रिय लक्ष्य हो

यदि कहो घन पावस-काल का

प्रबल वेग अहो क्षण काल का

यह नहीं मिलना कहला सके

मिलन तो मन का मन से सही

जगत की नीव कल्पित कल्पना

भर रही हृदयाब्धि गंभीर में

‘तुम नहीं इसके उपयुक्त हो

कि यह प्रेम महान सँभाल लो’

जलधि ! मैं न कभी चाहती

कि ‘तुम भी मुझपर अनुरक्त हो’

पर मुझे निज वक्ष उदार में

जगह दो, उसमें सुख में रहें’

 

प्रियतम- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

क्यों जीवन-धन ! ऐसा ही है न्याय तुम्हारा क्या सर्वत्र

लिखते हुए लेखनी हिलती, कँमता जाता है यह पत्र

औरों के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसका मुझको दुःख नहीं

जिसके तुम हो एक सहारा, उसको भूल न जाव कहीं

निर्दय होकर अपने प्रति, अपने को तुमको सौंप दिया

प्रेम नहीं, करूणा करने को क्षण-भर तुमने समय दिया

अब से भी वो अच्छा है, अब और न मुझे करो बदनाम

क्रीड़ा तो हो चुकी तुम्हारी, मेरा क्या होता है काम

स्मृति को लिये हुए अन्तर में, जीवन कर देंगे निःशेष

छोड़ो अब भी दिखलाओ मत, मिल जाने का लोभ विशेष

कुछ भी मत दो, अपना ही जो मुझे बना लो, यही करो

रक्खो जब तक आँखो में, फिर और ढार पर नहीं ढरो

कोर बरौनी का न लगे हाँ, इस कोमल मन को मेरे

पुतली बनकर रहें चमकते, प्रियतम ! हम दृग में तेरे

 

मोहन- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

अपने सुप्रेम-रस का प्याला पिला दे मोहन

तेरे में अपने को हम जिसमें भुला दें मोहन

निज रूप-माधुरी की चसकी लगा दे मुझको

मुँह से कभी न छूटे ऐसी छका दे मोहन

सौन्दर्य विश्व-भर में फैला हुआ जो तेरा

एकत्र करके उसको मन में दिखा दे मोहन

अस्तित्व रह न जाये हमको हमारे ही में

हमको बना दे तू अब, ऐसी प्रभा दे मोहन

जलकर नहीं है हटते जो रूप की शीखा से

हमको, पतंग अपना ऐसा बना दे मोहन

मेरा हृदय-गगन भी तब राग में रँगा हो

ऐसी उषा की लाली अब तो दिखा दे मोहन

आनन्द से पुलककर हों रोम-रोम भीने

संगीत वह सुधामय अपना सुना दे मोहन

 

भाव-सागर- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

थोड़ा भी हँसते देखा ज्योंही मुझे

त्योही शीध्र रुलाने को उत्सुक हुए

क्यों ईर्ष्या है तुम्हे देख मेरी दशा

पूर्ण सृष्टि होने पर भी यह शून्यता

अनुभव करके दृदय व्यथित क्यों हो रहा

क्या इसमें कारण है कोई, क्या कभी

और वस्तु से जब तक कुछ फिटकार ही

मिलता नही हृदय को, तेरी ओर वह

तब तक जाने को प्रस्तुत होता नही

कुछ निजस्व-सा तुम पर होता भान है

गर्व-स्फीत हृदय होता तव स्मरण में

अहंकार से भरी हमारी प्रार्थना

देख न शंकित होना, समझो ध्यान से

वह मेरे में तुम हो साहस दे रहे

लिखता हूँ तुमको, फिर उसको देख के

स्वयं संकुचित होकर भेज नही सका

क्या? अपूर्ण रह जाती भाषा, भाव भी

यथातथ्य प्रकटित हो सकते ही नही

अहो अनिर्वचनीय भाव-सागर! सुनो

मेरी भी स्वर-लहरी क्या है कह रही

 

मिल जाओ गले- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

देख रहा हूँ, यह कैसी कमनीयता

छाया-सी कुसुमित कानन में छा रही

अरे, तुम्हारा ही यह तो प्रतिबिम्ब है

क्यों मुझको भुलवाते हो इनमे ? अजी

तुम्हें नहीं पाकर क्या भूलेगा कभी

मेरा हृदय इन्ही काँटों के फूल में

जग की कृत्रिम उत्तमता का बस नहीं

चल सकता है, बड़ा कठोर हृदय हुआ

मानस-सर में विकसित नव अरविन्द का

परिमल जिस मधुकर को छू भी गया हो

कहो न कैसे यह कुरबक पर मुग्ध हो

घूम रहा है कानन में उद्देश्य से

फूलों का रस लेने की लिप्सा नहीं

मघुकर को वह तो केवल है देखता

कहीं वही तो नहीं कुसुम है खिल रहा

उसे न पाकर छोड़ चला जाता अहो

उसे न कहो कि वह कुरबक-रस लुब्ध है

हृदय कुचलने वालों से बस कुछ नहीं

उन्हें घृणा भी कहती सदा नगण्य है

वह दब सकता नहीं, न उनसे मिल सके

जिसमें तेरी अविकल छवि हो छा रही

तुमसे कहता हूँ प्रियतम ! देखो इधर

अब न और भटकाओ, मिल जाओ गले

 

नहीं डरते- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

क्या हमने यह दिया, हुए क्यों रूष्ट हमें बतलाओ भी

ठहरो, सुन लो बात हमारी, तनक न जाओ, आओ भी

रूठ गये तुम नहीं सुनोगे, अच्छा ! अच्छी बात हुई

सुहृद, सदय, सज्जन मधुमुख थे मुझको अबतक मिले कई

सबको था दे चुका, बचे थे उलाहने से तुम मेरे

वह भी अवसर मिला, कहूँगा हृदय खोलकर गुण तेरे

कहो न कब बिनती थी मेरी सच कहना की ‘मुझे चाहो’

मेरे खौल रहे हृत्सर में तुम भी आकर अवगाहो

फिर भी, कब चाहा था तुमने हमको, यह तो सत्य कहो

हम विनोद की सामग्री थे केवल इससे मिले रहो

तुम अपने पर मरते हो, तुम कभी न इसका गर्व करो

कि ‘हम चाह में व्याकुल है’ वह गर्म साँस अब नहीं भरो

मिथ्या ही हो, किन्तु प्रेम का प्रत्याख्यान नहीं करते

धोखा क्या है, समझ चुके थे; फिर भी किया, नहीं डरते

 

महाकवि तुलसीदास- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

अखिल विश्व में रमा हुआ है राम हमारा

सकल चराचर जिसका क्रीड़ापूर्ण पसारा

इस शुभ सत्ता को जिसमे अनुभूत किया था

मानवता को सदय राम का रूप दिया था

नाम-निरूपण किया रत्न से मूल्य निकाला

अन्धकार-भव-बीच नाम-मणि-दीपक बाला

दीन रहा, पर चिन्तामणि वितरण करता था

भक्ति-सुधा से जो सन्ताप हरण करता था

प्रभु का निर्भय-सेवक था, स्वामी था अपना

जाग चुका था, जग था जिसके आगे सपना

प्रबल-प्रचारक था जो उस प्रभु की प्रभुता का

अनुभव था सम्पूर्ण जिसे उसकी विभुता का

राम छोड़कर और की, जिसने कभी न आस की

'राम-चरित-मानस'-कमल जय हो तुलसीदास की

 

धर्मनीति- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

जब कि सब विधियाँ रहें निषिद्ध, और हो लक्ष्मी को निर्वेद

कुटिलता रहे सदैव समृद्ध, और सन्तोष मानवे खेद

वैध क्रम संयम को धिक्कार

अरे तुम केवल मनोविकार

 

वाँधती हो जो विधि सद्भाव, साधती हो जो कुत्सित नीति

भग्न हो उसका कुटिल प्रभाव, धर्म वह फैलावेगा भीति

भीति का नाशक हो तब धर्म

नहीं तो रहा लुटेरा-कर्म

 

दुखी है मानव-देव अधीर-देखकर भीषण शान्त समुद्र

व्यथित बैठा है उसके तीर- और क्या विष पी लेगा रूद्र

करेगा तब वह ताण्डव-नृत्य

अरे दुर्बल तर्कों के भृत्य

 

गुंजरित होगा श्रृंगीनाद, धूसरित भव बेला में मन्द्र

कँपैंगे सब सूत्रों के पाद, युक्तियाँ सोवेंगी निस्तन्द्र

पंचभूतों को दे आनन्द

तभी मुखरित होगा यह छन्द

 

दूर हों दुर्बलता के जाल, दीर्घ निःश्वासों का हो अन्त

नाच रे प्रवंचना के काल, दग्ध दावानल करे दिगन्त

तुम्हारा यौवन रहा ललाम

नम्रते ! करुणे ! तुझे प्रणाम

 

गान- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

जननी जिसकी जन्मभूमि हो; वसुन्धरा ही काशी हो

विश्व स्वदेश, भ्रातृ मानव हों, पिता परम अविनाशी हो

दम्भ न छुए चरण-रेणु वह धर्म नित्य-यौवनशाली

सदा सशक्त करों से जिसकी करता रहता रखवाली

शीतल मस्तक, गर्म रक्त, नीचा सिर हो, ऊँचा कर भी

हँसती हो कमला जिसके करूणा-कटाक्ष में, तिस पर भी

खुले-किवाड़-सदृश हो छाती सबसे ही मिल जाने को

मानस शांत, सरोज-हृदय हो सुरभि सहित खिल जाने को

जो अछूत का जगन्नाथ हो, कृषक-करों का ढृढ हल हो

दुखिया की आँखों का आँसू और मजूरों का कल हो

प्रेम भरा हो जीवन में, हो जीवन जिसकी कृतियों में

अचल सत्य संकल्प रहे, न रहे सोता जागृतियों में

ऐसे युवक चिरंजीवी हो, देश बना सुख-राशी हो

और इसलिये आगे वे ही महापुरुष अविनाशी हो

 

मकरन्द-विन्दु- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

तप्त हृदय को जिस उशीर-गृह का मलयानिल

शीतल करता शीघ्र, दान कर शान्ति को अखिल

जिसका हृदय पुजारी है रखता न लोभ को

स्वयं प्रकाशानुभव-मुर्ति देती न क्षोभ जो

प्रकृति सुप्रांगण में सदा, मधुक्रीड़ा-कूटस्थ को

नमस्कार मेरा सदा, पूरे विश्व-गृहस्थ को

 

हैं पलक परदे खिचें वरूणी मधुर आधार से

अश्रुमुक्ता की लगी झालर खुले दृग-द्वार से

चित्त-मन्दिर में अमल आलोक कैसा हो रंहा

पुतलियाँ प्रहरी बनीं जो सौम्य हैं आकार से

मुद मृदंग मनोज्ञ स्वर से बज रहा है ताल में

कल्पना-वीणा बजी हर-एक अपने ताल से

इन्द्रियाँ दासी-सदृश अपनी जगह पर स्तब्ध है

मिल रहा गृहपति-सदृश यह प्राण प्राणधार से

 

हृदय नहिं मेंरा शून्य रहे

तुम नहीं आओ जो इसमें तो, तब प्रतिबिम्ब रहे

मिलने का आनन्द मिले नहिं जो इस मन को मेरे

करूण-व्यथा ही लेकर तेरी जिये प्रेम के डेरे

 

 

मिले प्रिय, इन चरणों की धूल

जिसमें लिपटा ही आया है सकल सुमंगल-मूल

बड़े भाग्य से बहुत दिनो पर आये हो तुम प्यारे

बैठो, घबराओ मन, बोलो, रहो नहीं मन मारे

हृदय सुनाना तुम्हें चाहता, गाथाएँ जो बीतीं

गदगद कंठ, न कह सकता हूँ, देखी बाजी जीती

 

प्रथम, परम आदर्श विश्व का जो कि पुरातन

अनुकरणों का मुख्य सत्य जो वस्तु सनातन

उत्तमता का पूर्ण रूप आनन्द भरा धन

शक्ति-सुधा से सिचा, शांति से सदा हरा वन

परा प्रकृति से परे नहीं जो हिलामिला है

सन्मानस के बीच कमल-सा नित्य खिला है

चेतन की चित्कला विश्व में जिसकी सत्ता

जिसकी ओतप्रोंत व्योम में पूर्ण महत्ता

स्वानुभूति का साक्षी है जो जड़ क चेतन

विश्व-शरीरी परमात्मा-प्रभुता का केतन

अणु-अणु में जो स्वभाव-वश गति-विधि-निर्धारक

नित्य-नवल-सम्बन्ध-सूत्र का अद्भूत कारक

जो विज्ञानाकार है, ज्ञानों का आधार हैं

नमस्कार सदनन्त को ऐसे बारम्बार है

 

गज समान है ग्रस्त, त्रस्त द्रोपती सदृश है

ध्रुव-सा धिक्कृत और सुदामा-सा वह कृश है

बँधा हुआ प्रहलाद सदृश कुत्सिम कर्मों से

अपमानित गौतमी न थी इतनी मर्मों से

धर्म बिलखता सोचता

हम क्या से क्या हो गये

थक कर, कुछ अवतार ले

तुम सुख-निधि में सो गये

 

चित्रकूट- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

उदित कुमुदिनी-नाथ हुए प्राची में ऐसे

सुधा-कलश रत्नाकार से उठाता हो जैसे

 

धीरे-धीरे उठे गई आशा से मन में

क्रीड़ा करने लगे स्वच्छ-स्वच्छन्द गगन में

 

चित्रकूट भी चित्र-लिखा-सा देख रहा था

मन्दाकिनी-तरंग उसी से खेल रहा था

 

स्फटिक-शीला-आसीन राम-वैदेही ऐसे

निर्मल सर में नील कमल नलिनी हो जैसे

 

निज प्रियतम के संग सुखी थी कानन में भी

प्रेम भरा था वैदेही के आनन में भी

 

मृगशावक के साथ मृगी भी देख रही थी

सरल विलोकन जनकसुता से सीख रही थी

 

निर्वासित थे राम, राज्य था कानन में भी

सच ही हैं श्रीमान् भोगते सुख वन में भी

 

चन्द्रतप था व्योम, तारका रत्न जड़े थे

स्वच्छ दीप था सोम, प्रजा तरू-पुज्ज खड़े थे

 

शान्त नदी का स्त्रोत बिछा था अति सुखकारी

कमल-कली का नृत्य हो रहा था मनहारी

 

बोल उठा हंस देखकर कमल-कली को

तुरत रोकना पड़ा गूँजकर चतुर अली को

 

हिली आम की डाल, चला ज्यों नवल हिंडोला

‘आह कौन है’ पच्चम स्वर से कोकिल बोला

 

मलयानिल प्रहारी-सा फिरता था उस वन में

शान्ति शान्त हो बैठी थी कामद-कानन में

 

राघव बोले देख जानकी के आनन को-

‘स्वर्गअंगा का कमल मिला कैसे कानन ने

 

‘निल मघुप को देखा, वहीं उस कंज की कली ने

स्वयं आगमन किया’-कहा यह जनक-लली ने

 

बोले राघव--‘प्रिय ! भयावह-से इस वन में

शंका होती नहीं तुम्हारे कोमल मन में’

 

कहा जानकी ने हँसकार--‘अहा ! महल, मन्दिर मनभावन

स्परण न होते तुम्हें कहो क्या वे अति पावन,

 

रहते थे झंकारपूर्ण जो तव नूपुरर से

सुरभिपूर्ण पुर होता था जिस अन्तःपुर में

 

जनकसुता ने कहा --‘नाथ ! वह क्या कहते हैं

नारी के सुख सभी साथ पति के रहते हैं

 

कहो उसे प्रियप्राण ! अभाव रहा फिर किसका

विभव चरण का रेणु तुम्हारा ही है जिसका

 

मधुर-मधुर अलाप करते ही पिय-गोद में

मिठा सकल सन्ताप, वैदेही सोने लगी

 

 

पुलकित-तनु ये राम, देख जानकी की दशा

सुमन-स्पर्श अभिराम, सुख देता किसको नहीं

 

नील गगन सम राम, अहा अंक में चन्द्रमुख

अनुपम शोभधाम आभूषण थे तारका

 

खुले हुए कच-भार बिखर गये थे बदन पर

जैसे श्याम सिवार आसपास हो कमल के

 

कैसा सुन्दर दृश्य ! लता-पत्र थे हिल रहे

जैसे प्रकृति अदृश्य, बहु कर से पंखा झले

 

निर्निमेष सौन्दर्य, देख जानकी-अंग का

नृपचूड़ामणिवर्य राम मुग्ध-से हो रहे

 

‘कुछ कहना है आर्य’ बोले लक्ष्मण दूर से

‘ऐसा ही है कार्य, इससे देता कष्ट हूँ’

 

राघव ने सस्नेह कहा--‘कहो, क्या बात है

कानन हो या गेह, लक्ष्मण तुम चिरबन्धु हो

 

फिर कैसा संकोच ? आओ, बैठो पास में

करो न कुछ भी सोच, निर्भय होकर तुम कहो’

 

पाकर यह सम्मान, लक्ष्मन ने सविनय कहा--

‘आर्य ! आपका मान, यश, सदैव बढ़ता रहे

 

फिरता हूँ मैं नित्य, इस कानन में ध्यान से

परिचय जिसमें सत्य मिले मुझे इस स्थान का

 

अभी टहलकर दूर, ज्योंही मै लौटा यहाँ

एक विकटमुख क्रूर भील मिला उस राह में

 

मेरा आना जान, उठा सजग हो भील वह

मैने शर सन्धान किया जानकर शत्रु को

 

किन्तु, क्षमा प्रति बार, माँगा उसने नम्र हो

रूका हमारा वार, पूछा फिर--‘तुम कौन हो’

 

उसने फिर कर जोड़ कहा--‘दास हूँ आपका

चरण कमल को छोड़, और कहाँ मुझको शरण,

 

निषादपति का दूत मैं प्रेरित आया यहाँ

कहना है करतूत भरत भूमिपति का प्रभो

 

सजी सैन्य चतुरड़्ग बलशाली ले साथ में

किये और ही ढंग, आते हैं इस ओंर को’

 

 

पुलकित होकर राम बोले लक्ष्मण वीर से--

‘और नहीं कुछ काम मिलने आते हैं भरत’

 

सोते अभी खग-वृन्द थे निज नीड़ में आराम से

ऊषा अभी निकली नहीं थी रविकरोज्ज्वल-दास से

 

केवल टहनियाँ उच्च तरूगण की कभी हिलती रहीं

मलयज पवन से विवस आपस में कभी मिलती रहीं

 

ऊँची शिखर मैदान पर्णकुटीर, सब निस्तब्ध थे

सब सो रहे; जैसे आभागों के दुखद प्रारब्ध थे

 

झरने पहाड़र चल रहे थे, मधुर मीठी चाल से

उड़ते नहीं जलकण अभी थे उपलखण्ड विशाल से

 

आनन्द के आँसू भरे थे, गगन में तारावली

थी देखती रजनी विदा होते निशाकर को भली

 

कलियाँ कुसुकम की थी लजाई प्रथम-स्मर्श शरीर से

चिटकीं बहुत जब छेड़छाड़ हुआ समीर अधीर से

 

थी शान्ति-देवी-सी खड़ी उस ब्रह्मवेला में भली

मन्दाकिनी शुभ तरल जल के बीच मिथिलाधिप लली

 

रजलिप्त स्वच्छ शरीर होता था सरोज-पराग से

जल भी रँगा था श्यामलोज्ज्वल राम के अनुराग से

 

जल-बिन्दु थे जो वदन पर, उस इन्दु मन्द प्रकाश में

द्रवचन्द्रकान्त मनोज्ञ मणि के बने विमल विलास में

 

आकराठ-मज्जित जानकी चन्द्रभमय जल में खड़ी

सचमुच वदन-विधु था, शरद-घन बीच जिसकी गति अड़ी

 

जल की लहरियाँ घेरती वन मेघमाला-सी उसे

हो पवन-ताड़ित इन्दु कर मलता निरख करके जिसे

 

कर स्नान पर्णकुटीर को अपने सिधारी जानकी

तब कंजलोचन के जगाने की क्रिया अनुमान की

 

 

रविकर-सदृश हेमाभ उँगाली से चरण-सरसिज छुआ

उन्निद्र होने से लगे दृगकज्ज, कम्प सहज हुआ

 

उस नित्यपरिचित स्पर्श से राघव सजग हो जग गये

होकर निरालस नित्यकृत्य सुधारने में लग गये

 

फलफूल लेने के लिए तब जानकी तरू-पुंज में

सच्चारिणी ललिता लता-सी हो गई घन-कुंज में

 

अपने सुकृत-फल के समान मिले उन्हें फल ढेर से

मीठे, नवीन, सुस्वादु, जो संचित रहे थे देर से

 

हो स्वस्थ प्रातःकर्म से जब राम पर्णकूटीर में

आये टहल मन्दाकिनी-तट से प्रभात-समीर में

 

देखा कुशासन है बिछा, फल और जल प्रस्तुत वहाँ

हैं जानकी भी पास, पर लक्ष्मण न दिखलाते वहाँ

 

सीता ने जब खोज लिया सौमित्र को

तरू-समीप में, वीर-विचित्र चरित्र को

 

‘लक्ष्मण ! आवो वत्स, कहाँ तुम चढ़ रहे’

प्रेम-भरे ये वचन जानकी ने कहे

 

 

‘आये, होगा स्वादु मधुर फल यह पका

देखो, अपने सौरभ से है सह छका’

 

लक्ष्मण ने यह कहा और अति वेग से

चले वृक्ष की ओर, चढ़े उद्वेग से

 

ऊँचा था तरूराज, सघन वह था हरा

फल-फूलों से डाल-पात से था भरा

 

लक्ष्मण तुरत अदृश्य उसी में हो गये

जलद-जाल के बीच विमल विधु-से हुऐ

 

टहल रहे थे राम उसी ही स्थान में

कोलाहल रव पड़ा सुनाई कान में

 

चकित हुए थे राम, बात न समझ पड़ी

लक्ष्मण की पुकार तब तक यह सुन पड़ी-

 

‘आर्य, आर्यं, बस धनुष मुझे दे दीजिये’

कुछ भी देने में विलम्ब मत कीजिये’

 

कहा राम ने--‘वत्स, कहो क्या बात है

सुनें भला कुछ, कैसा यह उत्पात है’

 

लक्ष्मण ने फिर कहा--‘देर मत कीजिये

आया है वह दुष्ट मारने दीजिये’

 

‘कौन ? कहो तो स्पष्ट, कौन अरि है यहाँ !’

कहा राम नें--‘सुनें भला, वह है कहाँ’

 


 

‘दुष्ट भरत आता ले सेना संग में

रँगा हुआ है क्रूर राजमद-रंग में

 

उसका हृद्गत भाव और ही आर्य है

आता करने को कुछ कुत्सित कार्य है’

 

सुनकर लक्ष्मण के यह वाक्य प्रमाद से--

भरे, हँसे तब राम मलीन विषाद से

 

कहा--‘उतर आओ लक्ष्मण उस वृक्ष से

हटो शीघ्र उस भ्र्रम-पूरित विषवृक्ष से’

 

लक्ष्मण नीचे आकर बोले रोष से--

‘वनवासी हुए हैं आप निज दोष से’

 

भरत इसी क्षण पहुँचे, दौड़ समीप में

बढ़ा प्रकाश सुभ्रातृस्नेह के दीप में

 

चरण-स्पर्श के लिए भरत-भुज ज्यों बढ़े

राम-बहु गल-बीच पड़े, सुख से मढ़े

 

अहा ! विमल स्वर्गीय भाव फिर आ गया

नील कमल मकरन्द-विन्दु से छा गया

 

भरत- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

हिमगिरि का उतुंग श्रृंग है सामने

खड़ा बताता है भारत के गर्व को

पड़ती इस पर जब माला रवि-रश्मि की

मणिमय हो जाता है नवल प्रभात में

बनती है हिम-लता कुसुम-मणि के खिले

पारिजात का पराग शुचि धूलि है

सांसारिक सब ताप नहीं इस भूमि में

सूर्य-ताप भी सदा सुखद होता यहाँ

हिम-सर में भी खिले विमल अरविन्द हैं

कहीं नहीं हैं शोच, कहाँ संकोच है

चन्द्रप्रभा में भी गलकर बनते नदी

चन्द्रकान्त से ये हिम-खंड मनोज्ञ हैं

फैली है ये लता लटकती श्रृंग में

जटा समान तपस्वी हिम-गिरि की बनी

कानन इसके स्वादु फलो से है भरे

सदा अयचित देते हैं फल प्रेम से

इसकी कैसी रम्य विशाल अधित्यका

है जिसके समीप आश्रम ऋषिवर्य का

 

अहा ! खेलता कौन यहाँ शिशु सिंह से

आर्यवृन्द के सुन्दर सुखमय भाग्य-सा

कहता है उसको लेकर निज गोद में --

‘खोल, गोल, मुख सिंह-बाल, मैं देखकर

गिन लूँगा तेरे दाँतो को है भले

देखूँ तो कैसे यह कुटिल कठोर हैं’

 


 

देख वीर बालक के इस औद्धत्य को

लगी गरजने भरी सिंहिनी क्रोध से

छड़ी तानकर बोला बालक रोष से--

‘बाधा देगी क्रीड़ा में यदि तू कभी

मार खायगी, और तुझे दूँगा नहीं--

इस बच्चे को; चली जा, अरी भाग जा’

 

अहा, कौन यह वीर बाल निर्भीक है

कहो भला भारतवासी ! हो जानते

यही ‘भरत’ वह बालक हैं, जिस नाम से

‘भारत संज्ञा पड़ी इसी वर भूमि की

कश्यप के गुरूकुल में शिक्षित हो रहा

आश्रम में पलकर कानन में घूमकर

 

निज माता की गोद मोद भरता रहा

जो पति से भी विछुड़ रही दुदैंव-वश

जंगल के शिशु-सिंह सभी सहचर रहे

राह घूमता हो निर्भीक प्रवीर यह

 

जिसने अपने बलशाली भुजदंड

भारत का साम्राज्य प्रथम स्थापित किया

 

वही वीर यह बालक है दुष्यन्त का

भारत का शिर-रत्न ‘भरत’ शुभ नाम है

 

शिल्प सौन्दर्य- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

कोलाहल क्यों मचा हुआ है ? घोर यह

महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा

अथवा तापों के मिस से हुंकार यह

करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा

नहीं; महा संघर्षण से होकर व्यथित

हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा

आर्यमंदिरों के सब ध्वंस बचे हुए

धूल उड़ाने लगे, पड़ी जो आँख में--

उनके, जिनके वे थे खुदवाये गये

जिससे देख न सकते वे कर्तव्य-पथ

दुर्दिन-जल-धारा न सम्हाल सकी अहो

बालू की दींवाल मुगल-साम्राज्य की

आर्य-शिल्प के साथ गिरा वह भी

जिसे, अपने कर से खोदा आलमगीर ने

मुगल-महीपति के अत्याचारी, अबल

कर कँपने-से लगे ! अहो यह क्या हुआ

मुगल-अदृष्टाकाश-मध्य अति तेज से

धूमकेतु-से सूर्यमल्ल समुदित हुए

सिंहद्वार है खुला दीन के मुख सदृश

प्रतिहिंसा-पूरित वीरों की मण्डली

व्याप्त हो रही है दिल्ली के दुर्ग में

मुगल-महीपाें के आवासादिक बहुत

 

टूट चुके हैं, आम खास के अंश भी

किन्तु न कोई सैनिक भी सन्मुख हुआ

रोषानल से ज्वलित नेत्र भी लाल हैं

मुख-मण्डल भीषण प्रतिहिंसा-पूर्ण हे

सूर्यमल्ल मध्याह्न सूर्य सम चण्ड हो

मोती-मस्जिद के प्रांगण में है खड़े

भीम गदा है कर में, मन में वेग है

उठा, क्रुद्ध हो सबलज हाथ लेकर गदा

छज्जे पर जा पड़ा, काँपकर रह गई

मर्मर की दीवाल, अलग टुकड़ा हुआ

किन्तु न फिर वह चला चण्डकर नाश को

क्यों जी, यह कैसा निष्किय प्रतिरोध है

सूर्यमल्ल रूक गये, हृदय भी रूक गया

भीषणता रूक कर करूणा-सी हो गई।

कहा-‘नष्ट कर देंगे यदि विद्वेष से--

इसको, तो फिर एक वस्तु संसार की

सुन्दरता से पूर्ण सदा के लिए ही

हो जायेगी लुप्त।’ बड़ा आश्चर्य है

आज काम वह किया शिल्प-सौन्दर्य ने

जिसे करती कभी सहस्त्रों वक्तृता

अति सर्वत्र अहो वर्जित है, सत्य ही

कहीं वीरता बनती इससे क्रूरता

धर्म-जन्य प्रतिहिंसा ने क्या-क्या नहीं

किया, विशेष अनिष्ट शिल्प-साहित्य का

 

लुप्त हो गये कितने ही विज्ञान के

साधन, सुन्दर ग्रन्थ जलाये वे गये

तोड़े गये, अतीत-कथा-मकरन्द को

रहे छिपाये शिल्प-कुसुम जो शिला हो

हे भारत के ध्वंस शिल्प ! स्मृति से भरे

कितनी वर्षा शीताताप तुम सह चुके

तुमको देख करूण इस वेश में

कौन कहेगा कब किसने निर्मित किया

शिल्पपूर्ण पत्थर कब मिट्टी हो गये

किस मिट्टी की ईंटें हैं बिखरी हुई।

 

कुरूक्षेत्र- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

नील यमुना-कूल में तब गोप-बालक-वेश था

गोप-कुल के साथ में सौहार्द-प्रेम विशेष था

बाँसुरी की एक ही बस फूंकी तो पर्याप्त थी

गोप-बालों की सभा सर्वत्र ही फिर प्राप्त थी

उस रसीले राग में अनुराग पाते थे सभी

प्रेम के सारल्य ही का राग गाते थे सभी

देख मोहन को न मोहे, कौन था इस भूमि में

रास की राका रूकी थी देख मुख ब्रजभूमि में !

धेनु-चारण-कार्य कालिन्दी-मनोहर-कूल में

वेणुवादन-कुंज में, जो छिप रहा था फूल में

भूलकर सब खेल ये, कर ध्यान निज पितु-मात का-

कंस को मारा, रहा जो दुष्ट पीवर गात का

 

थी इन्होने ही सही सत्रह कठोर चढ़ाइयाँ

हारकर भागा मगध-सम्राट कठिन लड़ाइयाँ

देखकर दौर्वृत्य यह दुर्दम्य क्षत्रिय-जाति का

कर लिया निश्चित अरिन्दन ने निपात अराति का

वीर वार्हद्रथ बली शिशुपाल के सुन सन्धि को

और भी साम्राज्य-स्थापना की महा अभिसन्धि को

छोड़कर ब्रज, बालक्रीड़ा-भूमि, यादव-वृन्द ले

द्वारका पहुंचे, मधुप ज्यों खोज ही अरविन्द ले

सख्यस्थापन कर सुभद्रा को विवाहा पार्थ में

आप साम-भागी हुए तब पाण्डवों के स्वार्थ से

वीर वार्हद्रथ गया मारा कठिन रणनीति से

आप संरक्षक हुए फिर पाण्डवों के, प्रीति से

केन्द्रच्युत नक्षत्र-मण्डल-से हुए राजन्य थे

आन्तरिक विद्वेष के भी छा गये पर्यन्य थे

दिव्य भारत का अदृष्टाकाश तमसाच्छन्न था

मलिनता थी व्याप्त कोई भी कहीं न प्रसन्न था

सुप्रभात किया अनुष्ठित राजसूय सुरीति से

हो गई ऊषा अमल अभिषेक-जलयुत प्रीति से

धर्मराज्य हुआ प्रतिष्ठित धर्मराज नरेश थे

इस महाभारत-गगन के एक दिव्य दिनेश थे

यो सरलता से हुआ सम्पन्न कृष्ण-प्रभाव से

देखकर वह राजसूय जला हृदय दुर्भाव से

हो गया सन्नद्ध तब शिशूपाल लड़ने के लिये

और था ही कौन केशव संग लड़ने के लिये

थी बड़ी क्षमता, सही इससे बहुत-सी गालियाँ

फूल उतने ही भरे, जितनी बड़ी हो डालियाँ

क्षमा करते, पर लगे काँटे खटकने और को

चट धराशायी किया तब पाप के शिरमौर को

 

पांडवों का देख वैभव नीच कौरवनाथ ने

द्युत-रचना की, दिया था साथ शकुनी-हाथ ने

कुटिल के छल से छले जाकर अकिच्चन हो गये

हारकर सर्वस्व पाण्डव विपिनवासी हो गये

कष्ट से तेरह बरस कर वास कानन-कुंज में

छिप रहे थे सूर्य-से जो वीर वारिद-पुंज में

कृष्ण-मारूत का सहारा पा, प्रकट होना पड़ा

कर्मं के जल में उन्हें निज दुःख सब धोना पड़ा

आप अध्वर्य्य हुए, ब्रह्म यधिष्ठिर को किया

कार्य होता का धनंजय ने स्वयं निज कर लिया

धनुष की डोरी बनी उस यज्ञ में सच्ची स्त्रुवा

उस महारण-अग्नि में सब तेज-बल ही घी हुवा

बध्य पशु भी था सुयोधन, भार्गवादिक मंत्र थे

भीम के हुंकार ही उद्गीथ के सब तंत्र थे

रक्त-दुःशासन बना था सोमरस शुचि प्रीति से

कृष्ण ने दीक्षित किया था धनुवैंदिक रीति से

कौरवादिक सामने, पीछे पृथसुत सैन्य है

दिव्य रथ है बीच में, अर्जुन-हृदय में दैन्य है

चित्र हैं जिसके चरित, यह कृष्ण रथ से सारथी

चित्र ही-से देखते यह दृश्य वीर महारथी

मोहनी वंशी नहीं है कंज कर में माधुरी

रश्मि है रथ की, प्रभा जिसमें अनोखी है भरी

शुद्ध सम्मोहन बजाया वेणु से ब्रजभूमि में

नीरधर-सी धीर ध्वनि का शंख अब रणभूमि में

नील तनु के पास ऐसी शुभ्र अश्वों की छटा

उड़ रहे जैसे बलाका, घिर रही उन पर घटा

स्वच्छ छायापथ-समीप नवीन नीरद-जाल है

या खड़ा भागीरथी-तट फुल्ल नील तमाल है

 

छा गया फिर मोह अर्जुन को, न वह उत्साह था

काम्य अन्तःकरण में कारूण्य-नीर-प्रवाह था

‘क्यों करें बध वीर निज कुल का सड़े-से स्वार्थ से

कर्म यह अति घोर है, होगा नहीं यह रथ के वहाँ

सव्यासाची का मनोरथ भी चलाते थे वहाँ

जानकर यह भाव मुख पर कुछ हँसी-सी छा गई

दन्त-अवली नील घन की वारिधारा-सी हुई

कृष्ण ने हँसकर कहा-‘कैसी अनोखी बात है

रण-विमुख होवे विजय ! दिन में हुई कब रात है

कयह अनार्यों की प्रथा सीखी कहाँ से पार्थ ने

धर्मच्युत होना बताया एक छोटे स्वार्थ ने

क्यों हुए कादर, निरादर वीर कर्माें का किया

सव्यसाची ने हृदय-दौर्बल्य क्यों धारण किया

छोड़ दो इसको, नहीं यह वीन-जन के योग्य है

युद्ध की ही विजय-लक्ष्मी नित्य उनके भोग्य है

रोकते हैं मारने से ध्यान निज कुल-मान के

यह सभी परिवार अपने पात्र हैं सम्मान के

किन्तु यह भी क्या विदित है हे विजय ! तुमको सभी

काल के ही गाल में मरकर पडे़ हैं ये कभी

नर न कर सकत कभी, वह एक मात्र निमित्त है

प्रकृति को रोके नियति, किसमें भला यह वित्त है

क्या न थे तुम, और क्या मै भी न था, पहले कभी

क्या न होंगे और आगे वीर ये सेनप सभी

आत्मा सबकी सदा थी, है, रहेगी मान लो

नित्य चेतनसूत्र की गुरिया सभी को जान लो

ईश प्रेरक-शक्ति है हृद्यंत्र मे सब जीव के

कर्म बतलाये गये हैं भिन्न सारे जीव के

कर्म जो निर्दिष्ट है, हो धीर, करना चाहिये

पर न फल पर कर्म के कुछ ध्यान रखना चाहिये

कर रहा हूँ मैं, करूँगा फल ग्रहण, इस ध्यान से

कर रहा जो कर्म, तो भ्रान्त है अज्ञान से

 

मारता हूँ मैं, मरेंगे ये, कथा यह भ्रान्त है

ईश से विनियुक्त जीव सुयंत्र-सा अश्रान्त है

है वही कत्त, वहीं फलभोक्ता संसार का

विश्व-क्रीड़ा-क्षेत्र है विश्वेश हृदय-उदार का

रण-विमुख होगे, बनोगे वीर से कायर कहो

मरण से भारी अयश क्यों दौड़कर लेना चहो

उठ खड़े हो, अग्रसर हो, कर्मपथ से मत डरो

क्षत्रियोचित धर्म जो है युद्ध निर्भय हो करो

सुन सबल ये वाक्य केशव के भरे उत्साह स

तन गये डोरे दृगों के, धनुरूष के, अति चाह से

हो गये फिर तो धनजंय से विजय उस भूमि में

है प्रकट जो कर दिखाया पार्थ ने रणभूमि में

 

वीर बालक- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

भारत का सिर आज इसी सरहिन्द मे

गौरव-मंडित ऊँचा होना चाहता

अरूण उदय होकर देता है कुछ पता

करूण प्रलाप करेगा भैरव घोषणा

पाच्चजन्य बन बालक-कोमल कंठ ही

धर्म-घोषणा आज करेगा देश में

जनता है एकत्र दुर्ग के समाने

मान धर्म का बालक-युगल-करस्थ है

युगल बालकों की कोमल यै मूर्तियां

दर्पपूर्ण कैसी सुन्दर है लग रही

जैसे तीव्र सुगन्ध छिपाये हृदय में

चम्पा की कोमल कलियाँ हों शोभती

 

सूबा ने कुछ कर्कश स्वर से वेग में

कहा-‘सुनो बालको, न हो बस काल के

बात हमारी अब भी अच्छी मान लो

अपने लिये किवाड़े खोलो भाग्य के

सब कुछ तुम्हें मिलेगा, यदि सम्राट की

होगी करूणा। तुम लोगों के हाथ है

उसे हस्तगत करो, या कि फेंको अभी

किसने तुम्हें भुलाया है ? क्यों दे रहे

जाने अपनी, अब से भी यह सोच लो

यदि पवित्र इस्लाम-धर्म स्वीकार है

तुम लोगों को, तब तो फिर आनन्द है

नहीं, शास्ति इसकी केवल वह मृत्यु है

जो तुमको आशामय जग से अलग ही

कर देगी क्षण-भर में, सोचो, समय है

अभी भविष्यत् उज्जवल करने के लिये

शीघ्र समझकर उत्तर दो इस प्रश्न का’

 

 

शान्त महा स्वर्गीय शान्ति की ज्योति से

आलोकित हो गया सुवदन कुमार का

पैतृक-रक्त-प्रवाह-पूर्ण धमकी हुई

शरत्काल के प्रथम शशिकला-सी हँसी

फैल गई मुख पर ‘जोरावरसिंह’ के

कहा-‘यवन ! क्यों व्यर्थ मुझे समझा रहे

वाह-गुरू की शिक्षा मेरी पूर्ण है

उनके चरणों की आभा हृत्पटल पर

अंकित है, वह सुपथ मुझे दिखला रही

परमात्मा की इच्छा जो हो, पूर्ण हो’

कहा घूमकर फिर लघुभ्राता से--‘कहो,

क्या तुम हो भयभीत मृत्यु के गर्त से

गड़ने में क्या कष्ट तुम्हें होगा नहीं’

शिशु कुमार ने कहा--बड़े भाई जहाँ,

वहाँ मुझे भय क्या है ? प्रभु की कृपा से’

 

निष्ठुर यवन अरे क्या तू यह कह रहा

धर्म यही है क्या इस निर्मय शास्त्र का

कोमल कोरक युगल तोड़कर डाल से

मिट्टी के भीतर तू भयानक रूप यह

महापाप को भी उल्लंघन कर गया

कितने गये जलासे; वध कितने हुए

निर्वासित कितने होकर कब-कब नहीं

बलि चढ़ गये, धन्य देवी धर्मान्धते

 

राक्षस से रक्षा करने को धर्म की

प्रभु पाताल जा रहे है युग मूर्ति-से

अथवा दो स्थन-पद्म-खिले सानन्द है

ईंटों से चुन दिये गये आकंठ वे

बाल-बराबर भी न भाल पर, बल पड़ा--

जोरावर औ’ फतहसिंह के; धन्य है--

जनक और जननी इनकी, यह भूमि भी


 

सूबा ने फिर कहा-‘अभी भी समय है-

बचने का बालको, निकल कर मान लो

बात हमारी।’ तिरस्कार की दृष्टि फिर

खुलकर पड़ी यवन के प्रति। वीणा बजी-

‘क्यों अन्तिम प्रभु-स्मरण-कार्य में भी मुझे

छेड़ रहे हो ? प्रभु की इच्छा पूर्ण हो’

 

सब आच्छादित हुआ यवन की बुद्धि-सा

कमल-कोश में भ्रमर गीत-सा प्रेममय

मधुर प्रणव गुज्जति स्वच्छ होले लगा, ष्

शान्ति ! भयानक शान्ति ! ! और निस्तब्धता !

 

श्रीकृष्ण-जयन्ती- Jaishankar Prasad Kanan Kusum

कंस-हृदय की दुश्चिन्ता-सा जगत् में

अन्धकार है व्याप्त, घोर वन है उठा

भीग रहा है नीरद अमने नीर से

मन्थर गति है उनकी कैसी व्याम में

रूके हुए थे, ‘कृष्ण-वर्ण’ को देख लें-

जो कि शीघ्र ही लज्जित कर देगा उन्हें

जगत् आन्तरिक अन्धकार से व्याप्त है

उसका ही यह वाह्य रूप है व्योम में

उसे उजेले में ले आने को अभी

दिव्य ज्योति प्रकटित होगी क्या सत्य ही

 

सुर-सुन्दरी-वृन्द भी है कुछ ताक में

हो करके चंचला घूमती हैं यहाँ -

झाँक-झाँककर किसको हैं ये देखती

छिड़क रहा है प्रेम-सुधा क्यों मेघ भी

किसका हैं आगमन अहो आनन्दमय

मधुर मेध-गर्जन-मृदंग है बज रहा

झिल्ली वीणा बजा रही है क्यों अभी

तूर्यनाद भी शिखिगण कैसे कर रहे

दौड़-दौड़कर सुमन-सरभि लेता हुआ

पवन स्पर्श करना किसको है चाहता

तरूण तमाल लिपटकर अपने पत्र में

 

किसका प्रेम जताता है आनन्द से

रह-रहकर चातक पुकारता है किसे-

मुक्त कंठ से, किसे बुलाता है कहो

रहो-रहो वह झगड़ा निबटेगा तभी

छिपी हुई जब ज्योति प्रकट हो जायगी

हाँ, हाँ नीरद-वृन्द, और तम चाहिये

कोई परदा वाला है यह आ रहा

परदा खोलेगा जो एक नया यहीं-

जगत-रंगशाला में। मंगल-पाठ हो

द्विजकुल-चातक और जरा ललकार दो-

‘अरे बालको इस सोये संसार के

जाग पड़ो, जो अपनी लीला-खेल में

तुम्हें बतावेंगे उस गुप्त रहस्य को-

जिसका सोकर स्वप्न देखते हो अभी

मानव-जाति बनेगी गोधन, और जो

बनकर गोपाल घुमावेंगे उन्हें-

वहीं कृष्ण हैं आते इस संसार में

परमोज्जवल कर देंगे अपनी कान्ति से

अन्धकारमय भव को। परमानन्दमय

कार्म-मार्ग दिखलावेंगे सब जीव को

 


 

यमुने ! अपना क्षीण प्रवाह बढ़ा रखो

और वेग से बहो, कि चरण पवित्र से

संगम होकर नील कमल खिल जायगा

ब्रजकानन ! सब हरे रहो। लतिका घनी-

हो-होकर तरूराजी से लिपटी रहें

कृष्णवर्ण के आश्रय होकर स्थित रहें

घन ! घेरो आकाश नीलमणि-रंग से

जितना चाहो, पर अब छिपने की नहीं

नवल ज्योति वह, प्रकटित होगी जो अभी

भव-बन्धन से खुलो किवाड़ो ! शीघ्र ही

परम प्रबल आगमन रोक सकती नहीं

यह श्रृंखला, तुम्हारे में हैजो लगी

दिव्य, आलौकिक हर्ष और आलोक का-

स्वच्छ स्त्रोत खर वेग सहित बहता रहे

खल दृग जिसको देख न सकें, न सह सकें

 

जलद-जाल-सा शीतलकारी जगत् को

विद्युद्वृन्द समान तेजमय ज्योति वह

प्रकट गई। पपिहा-पुकार-सा मधुर औ’-

मनमोहन आनन्द विश्व में छा गया

बरस पड़े नव नीरद मोती औ’ जुही

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