Hindi Kavita
हिंदी कविता
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़- ग़ुब्बार-ए-अय्याम
Ghubar-e-Ayyam in Hindi Faiz Ahmed Faiz
दरबार में अब सतवते-शाही की अलामत -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
दरबार में अब सत्वते-शाही की अलामत
दरबां का असा है कि मुसन्निफ़ की कलम है
आवारा है जो फिर कोहे-निदा पर जो बशारत
तमहीदे-मसर्रत है कि तूले-शबे-ग़म है
जिस धज्जी को गलियों में लिये फिरते हैं तिफ़लां
ये मेरा ग़रेबां है कि लशकर का अलम है
जिस अक्स से है शहर की दीवार दरख़्शां
ये ख़ूने शहीदां है कि ज़रख़ाना-ए-जम है
हलका किये बैठे रहो इक शमआ को यारो
कुछ रौशनी बाकी तो है हरचन्द कि कम है
हम मुसाफ़िर यूँ ही मसरूफ़े सफ़र जाएँगे -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हम मुसाफ़िर यूँ ही मसरूफ़े सफ़र जाएँगे
बेनिशाँ हो गए जब शहर तो घर जाएँगे
किस क़दर होगा यहाँ मेहर-ओ-वफ़ा का मातम
हम तेरी याद से जिस रोज़ उतर जाएँगे
जौहरी बंद किए जाते हैं बाज़ारे-सुख़न
हम किसे बेचने अलमास-ओ-गुहर जाएँगे
नेमते-ज़ीसत का ये करज़ चुकेगा कैसे
लाख घबरा के ये कहते रहें मर जायेंगे
शायद अपना ही कोई बैत हुदी-ख़्वाँ बन कर
साथ जाएगा मेरे यार जिधर जाएँगे
'फ़ैज़' आते हैं रहे-इश्क़ में जो सख़्त मक़ाम
आने वालों से कहो हम तो गुज़र जाएँगे
जैसे हम-बज़्म हैं फिर यारे-तरहदार से हम -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
जैसे हम-बज़्म हैं फिर यारे-तरहदार से हम
रात मिलते रहे अपने दर-ओ-दीवार से हम
सरख़ुशी में यूं ही सरमस्तो-ग़ज़लख़्वां गुज़रे
कू-ए-कातिल से कभी कूचा-ए-दिलदार से हम
कभी मंज़िल, कभी रास्ते ने हमें साथ दिया
हर कदम उलझे रहे काफ़िला-ए-सलार से हम
हम से बेबहरा हुई अब जरसे-गुल की सदा
आश्ना थे, कभी हर रंग की झंकार से हम
अब वहाँ कितनी मुरस्सा है वो सूरज की किरन
कल जहाँ क़त्ल हुए थे, उसी तलवार से हम
'फ़ैज़' जब चाहा जो कुछ चाहा सदा मांग लिये
हाथ फैला के दिले-बे-ज़रो-दीनार से हम
फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाये -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाये
फिर अपनी नज़र शायद ताहद्दे-नज़र जाये
सहरा पे लगे पहरे और कुफ़ल पड़े बन पर
अब शहर-बदर होकर दीवाना किधर जाये
ख़ाके-रहे-जानां पर कुछ ख़ूं था गिरा अपना
इस फ़सल में मुमकिन है ये कर्ज़ उतर जाये
देख आयें चलो हम भी जिस बज़्म में सुनते हैं
जो ख़ुन्दा-ब-लब आये वो ख़ाक ब-सर जाये
या ख़ौफ़ से दर गुज़रें या जां से गुज़र जायें
मरना है कि जीना है इक बात ठहर जाये
फूल मस्ले गये फ़र्शे-गुलज़ार पर -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फूल मस्ले गये फ़र्शे-गुलज़ार पर
रंग छिड़का गया तख़्ता-ए-दार पर
बज़्म बरपा करे जिसको मंज़ूर हो
दावते-रक्स तलवार की धार पर
दावते-बैयते-शह पे मुलज़िम बना
कोई इकरार पर कोई इनकार पर
तुम ही कहो क्या करना है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
जब दुख की नदिया में हमने
जीवन की नाव डाली थी
था कितना कस-बल बांहों में
लोहू में कितनी लाली थी
यूं लगता था दो हाथ लगे
और नाव पूरमपार लगी
ऐसा न हुआ, हर धारे में
कुछ अनदेखी मझधारें थीं
कुछ मांझी थे अनजान बहुत
कुछ बेपरखी पतवारें थीं
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितने चाहो दोश धरो
नदिया तो वही है नाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
अब कैसे पार उतरना है
जब अपनी छाती में हमने
इस देश के घाव देखे थे
था वैदों पर विशवास बहुत
और याद बहुत से नुसख़े थे
यूं लगता था बस कुछ दिन में
सारी बिपता कट जायेगी
और सब घाव भर जायेंगे
ऐसा न हुआ कि रोग अपने
तो सदियों ढेर पुराने थे
वैद इनकी तह को पा न सके
और टोटके सब नाकाम गये
अब जो भी चाहो छान करो
अब चाहे कितने दोश धरो
छाती तो वही है घाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
ये घाव कैसे भरना है
लन्दन, १९८१
इश्क अपने मुजरिमों को पा-ब-जौलां ले चला -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
दार की रस्सियों के गुलूबन्द गर्दन में पहने हुए
गानेवाले इक रोज़ गाते रहे
पायलें बेड़ियों की बजाते हुए
नाचनेवाले धूमें मचाते रहे
हम जो न इस सफ़ में थे और न उस सफ़ में थे
रास्ते में खड़े उनको तकते रहे
रशक करते रहे
और चुपचाप आंसू बहाते रहे
लौटकर आ के देखा तो फूलों का रंग
जो कभी सुरख़ था ज़रद ही ज़रद है
अपना पहलू टटोला तो ऐसा लगा
दिल जहां था वहां दर्द ही दर्द है
गले में कभी तौक का वाहमा
कभी पांव में लमस ज़ंजीर का
और फिर एक दिन इश्क उनहीं की तरह
रसन-दर-गुलू, पा-ब-जौलां हमें
इसी काफ़िले में कशां ले चला
बेरूत, अगसत, १९८१
मेजर इसहाक की याद में -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
लो तुम भी गये हमने तो समझा था कि तुमने
बांधा था कोई यारों से पैमाने-वफ़ा और
ये अहद कि ताउमरे-रवां साथ रहोगे
रसते में बिछड़ जायेंगे जब अहले-सफ़ा और
हम समझे थे सैयाद का तरकश हुआ ख़ाली
बाकी था मगर उसमें अभी तीरे-कज़ा और
हर ख़ार रहे-दश्त का है सवाली
कब देखिये आता है आबला-पा और
आने में तअम्मुल था अगर रोज़े-जज़ा को
अच्छा था ठहर जाते अगर तुम भी ज़रा और
बेरूत, ३ जून, १९८२
एक नग़मा करबला-ए-बेरूत के लिये -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
(बेरूत पर इसराईली हमले के वकत लिखी गई)
बेरूत निगारे-बज़्मे-जहां
बेरूत बदीले-बाग़े-जिनां
बच्चों की हंसती आंखों के
जो आईने चकनाचूर हुए
अब उनके सितारों की लौ से
इस शहर की रातें रौशन हैं
जो चेहरे लहू के ग़ाज़े की
ज़ीनत से सिवा पुरनूर हुए
अब उनकी दमक के परतव से
इस शहर की गलियां रौशन हैं
अब जगमग है अरज़े-लबनां
बेरूत निगारे-बज़्मे-जहां
बेरूत बदीले-बाग़े-जिनां
हर कुशता मकां हर इक खंडर
हम-पाया-ए-कसरे-दारा है
हर ग़ाज़ी रशके-इसकन्दर
हर दुख़तर कामते-लैला है
ये शहर अज़ल से कायम है
बेरूत दिले-अरज़े-लबनां
बेरूत निगारे-बज़्मे-जहां
बेरूत बदीले-बाग़े-जिनां
बेरूत, जून, १९८२
एक तराना मुजाहदीने-फ़लिस्तीन के लिये -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हम जीतेंगे
हक्का हम इक दिन जीतेंगे
बिल आख़िर इक दिन जीतेंगे
क्या ख़ौफ़ ज़ि-यलग़ारे-आदा
है सीना सिपर हर ग़ाज़ी का
क्या ख़ौफ़ युरूशे-जैशे-कज़ा
सफ़बसता हैं अरवाहुल-शुहदा
डर काहे का
हम जीतेंगे
हक्का हम जीतेंगे
कद-ज़ा अलहक्को-ज़हक अलबातिल
फ़रमूदा रब्बे-अकबर
है जन्नत अपने पांवों तले
और साया-ए-रहमत सर पर है
फिर क्या डर है
हम जीतेंगे
हक्का हम इक दिन जीतेंगे
बिल आख़िर इक दिन जीतेंगे
बेरूत, १५ जून, १९८३
ख़्वाब बसेरा -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
इस वकत तो यूं लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अंधेरा न सवेरा
आंखों के दरीचों में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का इक आख़िरी फेरा
शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आ के करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा
इक बैर, न इक महर न इक रबत, न रिशता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा
माना कि ये सुनसान घड़ी सख़्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़कत एक घड़ी है
हिम्मत करो जीने को अभी उमर पड़ी है
मेयो असपताल, लाहौर
४ मारच, १९८२
हिजर की राख और विसाल के फूल -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
आज फिर दर्द-ओ-ग़म के धाग़े में
हम पिरोकर तिरे ख़्याल के फूल
तरक-ए-उलफ़त के दश्त से चुनकर
आशनाई के माह-ओ-साल के फूल
तेरी दहलीज़ पर सजा आये
फिर तिरी याद पर चढ़ा आये
बांधकर आरज़ू के पल्ले में
हजर की राख और विसाल के फूल
ये किस दयार-ए-अदम में -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नहीं है यूं तो नहीं है कि अब नहीं पैदा
किसी के हुस्न में शमशीरे-आफ़ताब का हुस्न
निगाह जिससे मिलायो कि आंख दुखने लगे
किसी अदा में अदा-ए-ख़रामे-बादे-सबा
जिसे ख़्याल में लायो तो दिल सुलगने लगे
किये हैं अब भी अलायो कहीं वो रंगे-बदन
हिजाब था जो किसी तन का पैरहन की तरह
उदास बांहों में खोया हुआ कोई आगोश
कुशादा अब भी है शायद दरे-वतन की तरह
नहीं है यूं तो नहीं है कि अब नहीं बाकी
जहां में बज़्मे-गहे-हुस्नो-इश्क का मेला
बिना-ए-लुतफ़ो-मुहब्बत, रिवाजे-मेहरो-वफ़ा
ये किस दयारे-अदम में मुकीम हैं हम तुम
जहां पे मुजदा-ए-दीदारे-हुस्नो-यार तो क्या
नवैदे-आमदे-रोज़े-जज़ा नहीं आती
ये किस ख़ुमारकदे में नदीम हैं हम तुम
जहां पे शोरिशे-रिन्दाने-मयगुसार तो क्या
शिकसते-शीशा-ए-दिल की सदा नहीं आती
(ना-तमाम)
बेरूत, मारच, १९८१
नज़र-ए-हसरत मोहानी -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मर जायेंगे ज़ालिम कि हिमायत न करेंगे
अहरार कभी तरके-रवायत न करेंगे
क्या कुछ न मिला है जो कभी तुझसे मिले थे
अब तेरे न मिलने की शिकायत न करेंगे
शब बीत गई है तो गुज़र जायेगा दिन भी,
हर लहज़ा जो गुज़री वो हिकायत न करेंगे
ये फ़िकर दिले-ज़ार का एवज़ाना बहुत है
शाही नहीं मांगेंगे विलायत न करेंगे
हम शैख़ न लीडर न मुसाहिब न सहाफ़ी
जो ख़ुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे
जो मेरा तुम्हारा रिश्ता है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मैं क्या लिखूं कि जो मेरा तुम्हारा रिशता है
वो आशिकी की ज़बां में कहीं भी दरज नहीं
लिखा गया है बहुत लुतफ़े-वसलो-दर्दे-फ़िराक
मगर ये कैफ़ियत अपनी रकम नहीं है कहीं
ये अपना इश्क हम आग़ोश जिस में हिजरो-विसाल
ये अपना दर्द कि है कब से हमदमे-महो-साल
इस इश्के-ख़ास को हर एक से छुपाये हुए
गुज़र गया है ज़माना गले लगाये हुए
ताशकन्द, १९८१
आज शब कोई नहीं है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
आज शब दिल के करीं कोई नहीं है
आंख से दूर तिलसमात के दर वा हैं कई
ख़वाब-दर-ख़वाब महल्लात के दर वा हैं कई
और मकीं कोई नहीं है
आज शब दिल के करीं कोई नहीं है
"कोई नग़मा कोई ख़ुशबू कोई काफ़िर-सूरत"
कोई उम्मीद कोई आस मुसाफ़िर सूरत
कोई ग़म कोई कसक कोई शक कोई यकीं
कोई नहीं है
आज शब दिल के करीं कोई नहीं है
तुम अगर हो तो मेरे पास हो या दूर हो तुम
हर घड़ी सायागरे-ख़ातिरे-रंजूर हो तुम
और नहीं हो तो कहीं कोई नहीं कोई नहीं है
आज शब दिल के करीं कोई नहीं है
इधर न देखो -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
इधर न देखो कि जो बहादुर
कलम के या तेग़ के धनी थे
जो अज़मो-हिम्मत के मुद्दई थे
अब उनके हाथों में सिदक ईमां की
आज़मूदा पुरानी तलवार मुड़ गई है
जो कजकुलह साहबे-चशम थे
जो अहले-दसतार मुहतरम थे
हविस के परपेंच रासतों में
कुलह किसी ने गिरो रख दी
किसी ने दसतार बेच दी है
उधर भी देखो
जो अपने रख़्शां लहू के दीनार
मुफ़त बाज़ार में लुटाकर
नज़र से ओझल हुए
और अपनी लहद में इस वकत तक ग़नीं हैं
उधर भी देखो
जो सिरफ़ हक की सलीब पर अपना तन सजाकर
जहां से रुख़्सत हुए
और अहले-जहां में इस वकत तक बनी हैं
शाम-ए-ग़ुरबत -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
दश्त में सोख़ता सामानों पे रात आई है
ग़म के सुनसान बियाबानों पे रात आई है
नूरे-इरफ़ान के दीवानों पे रात आई है
शमए-ईमान के परवानों पे रात आई है
बैते-शब्बीर पे ज़ुल्मत की घटा छाई है
दर्द-सा दर्द है तनहाई-सी तनहाई है
ऐसी तनहाई कि प्यारे नहीं देखे जाते
आंख से आंख के तारे नहीं देखे जाते
दर्द से दर्द के मारे नहीं देखे जाते
ज़ुअफ़ से चांद-सितारे नहीं देखे जाते
ऐसा सन्नाटा कि शमशानों की याद आती है
दिल धड़कने की बहुत दूर सदा आती है
तराना-2 -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वोह दिन के जिसका वादा है
जो लौहे अज़ल में लिक्खा है
जब ज़ुलमो-सितम के कोहे-गरां
रूयी की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पांव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़कड़ कड़केगी
जब अरज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जाएंगे
हम अहले-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख़त गिराये जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा 'अनलहक' का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़लके-ख़ुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
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