फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अश्यार-ओ-क़तात Ashaar-o-Qataat Faiz Ahmed Faiz

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़- अश्यार-ओ-क़तात 

Faiz Ahmed Faiz - Ashaar-o-Qataat 

रात यूं दिल में तिरी खोई हुई याद आई -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रात यूं दिल में तिरी खोई हुई याद आई

जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाये

जैसे सहरायों में चले हौले से बादे-नसीम

जैसे बीमार को बे-वजह करार आ जाये

जुलाई, १९२९

 

(सहरा=उजाड़,जंगल, बादे नसीम =महकी हवा)

दिल रहीने-ग़मे-जहां है आज -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दिल रहीने-ग़मे-जहां है आज

हर नफ़स तशना-ए-फ़ुग़ां है आज

सख़्त वीरां है महफ़िले-हसती

ऐ ग़मे-दोस्त तू कहां है आज

मार्च, १९३०

(रहीने-ग़मे-जहां=दुनिया के दुक्खां

तों दुखी, नफ़स=साँस, तशना-ए-

फ़ुग़ां=आहों की प्यासी)

 

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वक़्फ़े-हरमानो-यास रहता है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

वक़्फ़े-हरमानो-यास रहता है

दिल है अक़्सर उदास रहता है

तुम तो ग़म दे के भूल जाते हो

मुझ को एहसां का पास रहता है

जून, १९३१

(वकफ़े-हरमानो-यास=नाउमीदी

में डूबा हुआ, पास=ख़्याल)

 

 

 

फ़ज़ा-ए-दिल पे उदासी बिखरती जाती है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

फ़ज़ा-ए-दिल पे उदासी बिखरती जाती है

फ़सुरदगी है कि जां तक उतरती जाती है

फ़रेबे-जीसत से कुदरत का मुद्दआ मालूम

येह होश है कि जवानी गुज़रती जाती है

जनवरी, १९३३

(फ़सुरदगी=उदासी, फ़रेबे-जीसत=ज़िन्दगी

का धोखा)

 

 

 

मता-ए-लौह-ओ-कल्म छिन गई तो क्या ग़म है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मता-ए-लौह-ओ-कल्म छिन गई तो क्या ग़म है

कि ख़ूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने

ज़बां पे मुहर लगी है तो क्या कि रख दी है

हर इक हल्का-ए-ज़ंज़ीर में ज़ुबां मैंने

सितम्बर, १९५२

न पूछ जब से तिरा इंतज़ार कितना है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

न पूछ जब से तिरा इंतज़ार कितना है

कि जिन दिनों से मुझे तेरा इंतज़ार नहीं

तिरा ही अक़्स है उन अजनबी बहारों में

जो तेरे लब, तिरे बाजू, तेरा कनार नहीं

जून, १९५०

(कनार=गोद)

 

सबा के हात में नरमी है उनके हातों की -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सबा के हात में नरमी है उनके हातों की

ठहर-ठहर के ये होता है आज दिल को गुमां

वो हाथ ढूंढ रहे हैं बिसाते-महफ़िल में

कि दिल के दाग़ कहां हैं, नशिसते-दर्द कहां

अगसत, १९५९

(नशिसते-दर्द=दुख की जगह)

 

 

 

फिर हशर के सामां हुए ऐवान-ए-हवस में -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

फिर हशर के सामां हुए ऐवान-ए-हवस में

बैठे हैं ज़विल-अदल गुनहगार खड़े हैं

हां, जुर्मे-वफ़ा देखिये किस किस पे है साबित

वोह सारे ख़ताकार सरे-दार खड़े हैं

मई, १९५१

(ऐवान=महल, ज़विल-अदल=न्याय करने

वाले, सरे-दार=फांसी के तख़्ते पर)

तेरा जमाल निगाहों में ले के उट्ठा हूं -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तेरा जमाल निगाहों में ले के उट्ठा हूं

निखर गई है फ़ज़ा तेरे पैरहन की-सी

नसीम तेरे शबिसतां से हो के आई है

मेरी सहर में महक है तेरे बदन की-सी

जून, १९५१

(पैरहन=लिबास, शबिसतां=रात-बसेरा)

 

 

 

हमारे दम से है कू-ए-जुनूं में अब भी ख़जल -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हमारे दम से है कू-ए-जुनूं में अब भी ख़जल

अबा-ए-शेख़-ओ-कबा-ए-अमीर-ओ-ताज-ए-शही

हमीं से सुन्नते-मंसूरो-कैस ज़िन्दा है

हमें से बाकी है गुलदामनी-ओ-कजकुलही

 

नवम्बर, १९५१

मयख़ानों की रौनक हैं, कभी ख़ानकहों की -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मयख़ानों की रौनक हैं, कभी ख़ानकहों की

अपना ली हवसवालों ने जो रसम चली है

दिलदारी-ए-वायज़ को हमीं बाकी हैं वरना

अब शहर में हर रिन्दे-ख़राबात वली है

जुलाई, १९५७

ना आज लुत्फ़ कर इतना कि गुज़र न सके -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

ना आज लुत्फ़ कर इतना कि गुज़र न सके

वोह रात जो कि तेरे गेसुयों की रात नहीं

ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम

विसाले-यार फ़क़्त आरज़ू की बात नहीं

नवम्बर, १९५३

 

फ़िक्रे-सूद-ओ-ज़ियां तो छूटेगी -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

फ़िक्रे-सूद-ओ-ज़ियां तो छूटेगी

मिन्नते-ईं-ओ-आं तो छूटेगी

ख़ैर, दोज़ख में मय मिले न मिले

शैख़ साहब से जां तो छूटेगी

मई, १९५४

सुबह फूटी तो आसमां पे तिरे -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सुबह फूटी तो आसमां पे तिरे

रंगे-रुख़सार की फोहार गिरी

रात छाई तो रू-ए-आलम पर

तेरी ज़ुल्फ़ों की आबशार गिरी

जनवरी, १९५५

(रू-ए-आलम=दुनिया का चेहरा,

आबशार=झरना)

तमाम शब दिले-वहशी तलाश करता है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तमाम शब दिले-वहशी तलाश करता है

हर इक सदा में तिरे हर्फ़े-लुत्फ़ का आहंग

हर इक सुबह मिलाती है बार-बार नज़र

तिरे दहन से हर इक लाला-ओ-गुलाब का रंग

मार्च, १९५६

 

तुम्हारे हुस्न से रहती है हमकिनार नज़र -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तुम्हारे हुस्न से रहती है हमकिनार नज़र

तुम्हारी याद से दिल हमकलाम रहता है

रही फ़राग़ते-हज़रां तो हो रहेगा तय

तुम्हारी चाह का जो-जो मुकाम रहता है

हैदराबाद जेल, १९५१

 

खिले जो एक दरीचे में आज हुस्न के फूल, -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

खिले जो एक दरीचे में आज हुस्न के फूल,

तो सुबह झूम के गुलज़ार हो गई यकसर

जहां कहीं भी गिरा नूर उन निगाहों से

हर इक चीज़ तरहदार हो गई यकसर

जिनाह असपताल, कराची

रात ढलने लगी है सीनों में -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रात ढलने लगी है सीनों में

आग सुलगायो आबगीनों में

दिले-उशाक की ख़बर लेना

फूल खिलते हैं इन महीनों में

मार्च, १९५७

 

येह ख़ूं की महक है कि लबे-यार की ख़ुशबू -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

येह ख़ूं की महक है कि लबे-यार की ख़ुशबू

किस राह की जानिब से सदा आती है देखो

गुलशन में बहार आई, कि ज़िन्दां हुआ आबाद

किस सिमत से नग़मों की सदा आती है देखो

फरवरी, १९५७

आज तनहाई किसी हमदमे-दैरीं की तरह -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

आज तनहाई किसी हमदमे-दैरीं की तरह

करने आई है मेरी साकीगरी शाम ढले

मुंतज़िर बैठे हैं हम दोनों कि महताब उभरे

और तेरा अक़्स झलकने लगे हर साये तले

अप्रैल, १९५७

(हमदमे-दैरीं=पुराना दोस्त, महताब=चाँद)

 

 

 

न दीद है न सुख़न, अब न हर्फ़ है न प्याम -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

न दीद है न सुख़न, अब न हर्फ़ है न प्याम

कोई भी हीला-ए-तसकीं नहीं और आस बहुत है

उम्मीदे-यार, नज़र का मिज़ाज, दर्द का रंग

तुम आज कुछ भी न पूछो कि दिल उदास बहुत है

जनवरी, १९५८

हम खसतातनों से मुहतसिबो -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हम खसतातनों से मुहतसिबो क्या माल मनाल का पूछते हो

जो उमर से हमने भर पाया सब सामने लाये देते हैं

दामन में है मुश्ते-ख़ाके-जिगर, साग़र में है ख़ूने-हसरते-मय

लो हमने दामन थाम लिया, लो जाम उलटाये देते हैं

किला लाहौर, मार्च, १९५९

 

आ गई फ़सले-सुकूं चाक गरेबां-वालो -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

आ गई फ़सले-सुकूं चाक गरेबां-वालो

सिल गए होंठ, कोई ज़ख़्म सिले या न सिले

दोस्तो बज़्म सजायो कि बहार आई है

खिल गए ज़ख़्म, कोई फूल खिले या न खिले

अप्रैल, १९५९

ढलती है मौजे-मय की तरह रात इन दिनों -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

ढलती है मौजे-मय की तरह रात इन दिनों

खिलती है सुबहे-गुल की तरह रंगो-बू से पुर

वीरां है जाम, पास करो कुछ बहार का

दिल आरज़ू से पुर करो, आंखें लहू से पुर

फरवरी, १९५९

 

इन दिनों रस्मो-रहे-शहरे-निगारां क्या है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

इन दिनों रस्मो-रहे-शहरे-निगारां क्या है

कासिदा, कीमते-गुलगशते-बहारां क्या है

कू-ए-जानां है, कि मक़तल है, कि मयख़ाना है

आजकल सूरते-बरबादी-ए-यारां क्या है

 

 

 

जून, १९६८

अदा-ए-हुस्न की मासूमीयत को कम कर दे -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

अदा-ए-हुस्न की मासूमीयत को कम कर दे

गुनाहगार नज़र को हिजाब आता है

ज़िन्दां-ज़िन्दां शोरे-अनल-हक, महफ़िल-महफ़िल कुलकुले-मय

ख़ूने-तमन्ना दरिया-दरिया, दरिया-दरिया ऐश की लहर

दामन-दामन रुत फूलों की, आंचल-आंचल अश्कों की

करीया-करीया जशन बपा है, मातम-मातम शहर-ब-शहर

कराची, जनवरी, १९६५

दीदा-ए-तर पे वहां कौन नज़र करता है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दीदा-ए-तर पे वहां कौन नज़र करता है

कासा-ए-चश्म में ख़ूं-नाबे-जिगर ले के चलो

अब अगर जायो पये-अरज़ो-तलब उनके हुज़ूर

दस्तो-कशकोल नहीं कासा-ए-सर ले के चलो

कराची, जनवरी, १९६५

 

दीवार-ए-शब और अक़्से-रुख़े-यार सामने -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दीवार-ए-शब और अक़्से-रुख़े-यार सामने

फिर दिल के आईने से लहू फूटने लगा

फिर वज़ए-एहत्यात से धुंधला गई नज़र

फिर जबते-आरज़ू से बदन टूटने लगा

जून, १९६६

 

इक सुख़न मुतरिबे-ज़ेबा कि सुलग उट्ठे बदन -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

इक सुख़न मुतरिबे-ज़ेबा कि सुलग उट्ठे बदन

इक कदा साकी-ए-महवश जो करे होश तमाम

ज़िकरे-सब है कि रुख़े-यार से रंगीं था चमन

यादे-शबहा कि तने-यार था आग़ोश तमाम

जून, १९७०

मैं दिलफ़िगार नहीं तू सितम शआर नहीं -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मैं दिलफ़िगार नहीं तू सितम शआर नहीं

बहुत दिनों से मुझे तेरा इंतज़ार नहीं

तेरा ही अक़्स है इन अजनबी बहारों में

जो तेरे लब, तेरे बाज़ू, तेरा कनार नहीं

 

इक सुख़न मुतरिबे-ज़ेबा कि सुलग उट्ठे बदन -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

इक सुख़न मुतरिबे-ज़ेबा कि सुलग उट्ठे बदन

इक कदा साकी-ए-महवश जो करे होश तमाम

ज़िकरे-सब है कि रुख़े-यार से रंगीं था चमन

यादे-शबहा कि तने-यार था आग़ोश तमाम

जून, १९७०

मैं दिलफ़िगार नहीं तू सितम शआर नहीं -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मैं दिलफ़िगार नहीं तू सितम शआर नहीं

बहुत दिनों से मुझे तेरा इंतज़ार नहीं

तेरा ही अक़्स है इन अजनबी बहारों में

जो तेरे लब, तेरे बाज़ू, तेरा कनार नहीं

शायद कभी अफ़शा हो निगाहों पे तुम्हारी -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

शायद कभी अफ़शा हो निगाहों पे तुम्हारी

हर सादा वरक जो सुख़ने-कुशता से ख़ूं है

शायद कभी उस गीत का परचम हो सर-अफ़राज़

जो आमदे-सरसर की तमन्ना में निगूं है

शायद कभी उस दिल की कोई रग तुम्हें चुभ जाये

जो संगे-सरे-राह की मानिन्द ज़ुबूं है

 

जो पैरहन में कोई तार मुहतसिब से बचा -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

जो पैरहन में कोई तार मुहतसिब से बचा

दराज़ दस्त्या-ए-पीरे-मुग़ां की नज़र हुआ

अगर जराहते-कातिल से बख़शवा लाये

तो दिल सियासते-चारागरां की नज़र हुआ

मार्च, १९७१

हज़ार दर्द शबे-आरज़ू की राह में हैं -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हज़ार दर्द शबे-आरज़ू की राह में हैं

कोई ठिकाना बतायो कि काफ़िला उतरे

करीब और भी आओ कि शौके-दीद मिटे

शराब और पिलायो कि कुछ नशा उतरे

जनवरी, १९७२

 

दूर जाकर करीब हो जितने -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दूर जाकर करीब हो जितने

हमसे कब तुम करीब थे इतने

अब न आओगे तुम न जाओगे

वस्लो-हज़रां बहम हुए कितने

बेरूत, १९७८

मक़तल में ना मसजिद में ना ख़राबात में कोई -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मक़तल में ना मसजिद में ना ख़राबात में कोई

हम किस की अमानत में ग़मे-कारे-जहां दें

शायद कोई उनमें से कफ़न फाड़ के निकले

अब जायें, शहीदों के मज़ारों पे अज़ां दें

बेरूत, १९७९

हम अपने वक़्त में गुज़रे जहाने-गुज़रां से -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हम अपने वक़्त में गुज़रे जहाने-गुज़रां से

नज़र में रात लिये दिल में आफ़ताब लिये

हम अपने वक़्त पे पहुंचे हुज़ूरे-यज़दां में

ज़बां पे हमद लिये हाथ में शराब लिये

बेरूत, १९८१

 

अपने इनआमे हुस्न के बदले -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

अपने इनआमे हुस्न के बदले

हम तहीदामनों से क्या लेना

आज फ़ुरकतज़दों पे लुत्फ़ करो

फिर कभी सबर आज़मा लेना

बेरूत, १९८२

३९

देस-परदेस के याराने-कदहख़्वार के नाम

हुस्ने-आफ़ाक जमाले-लबो-रुख़सार के नाम

दस्ते-तहे-संग का समर्पण

रफ़ीके-राह थी मंज़िल हर इक तलाश के बाद -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रफ़ीके-राह थी मंज़िल हर इक तलाश के बाद

छुटा ये साथ तो रह की तलाश भी न रही

मलूल था दिले-आईना हर ख़राश के बाद

जो पाश-पाश हुआ इक ख़राश भी न रही

शाम धुंधलाने लगी और मिरी तनहाई -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

शाम धुंधलाने लगी और मिरी तनहाई

दिल में पत्थर की तरह बैठ गई

चांद उभरने लगा यकबार तिरी याद के साथ

ज़िन्दगी मूनिसो ग़मख़्वार नज़र आने लगी

 

४२

बाकी है कोई साथ तो बस एक उसी का

पहलू में लिये फिरते हैं जो दर्द किसी का

इक उमर से इस धुन में कि उभरे कोई ख़ुरशीद

बैठे हैं सहारा लिये शम्मए-सहरी का

(शम्मए सहरी=अन्तिम पहर का टिमटिमाता

दिया)

४३

लब बन्द हैं साकी, मिरी आंखों को पिला दे

वो जाम जो मिन्नतकशे-सहबा नहीं होता

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