त्रिभंगिमा -हरिवंशराय बच्चन Tribhangima -Harivansh Rai Bachchan

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हिंदी कविता

त्रिभंगिमा - हरिवंशराय बच्चन
Tribhangima Harivansh Rai Bachchan


पगला मल्लाह - Harivansh Rai Bachchan

डोंगा डोले,

नित गंग जमुन के तीर,

डोंगा डोले

आया डोला,

उड़न खटोला,

एक परी पर्दे से निकली पहने पंचरंग वीर

डोंगा डोले,

नित गंग जमुन के तीर,

डोंगा डोले


आँखे टक-टक,

छाती धक-धक,

कभी अचानक ही मिल जाता दिल का दामनगीर

डोंगा डोले,

नित गंग जमुन के तीर,

डोंगा डोले


नाव विराजी,

केवट राजी,

डांड छुई भर,बस आ पहुँची संगम पर की भीड़

डोंगा डोले,

नित गंग जमुन के तीर,

डोंगा डोले


मन मुस्काई,

उतर नहाई,

आगे पाँव न देना,रानी,पानी अगम-गंभीर

डोंगा डोले,

नित गंग जमुन के तीर,

डोंगा डोले


बात न मानी,

होनी जानी ,

बहुत थहाई,हाथ न आई जादू की तस्वीर

डोंगा डोले,

नित गंग जमुन के तीर,

डोंगा डोले


इस तट,उस तट,

पनघट, मरघट,

बानी अटपट;

हाय,किसी ने कभी न जानी मांझी-मन की पीर

डोंगा डोले,

नित गंग जमुन के तीर,

डोंगा डोले.डोंगा डोले.डोंगा डोले...

गंगा की लहर - Harivansh Rai Bachchan

गंगा की लहर अमर है,

गंगा की

धन्य भगीरथ

के तप का पथ

गगन कँपा थरथर है

गंगा की,

गंगा की लहर अम्र है

नभ से उतरी

पावन पुतरी,

दृढ शिव-जूट जकड़ है

गंगा की,

गंगा की लहर अमर है

बाँध न शंकर

अपने सिर पर,

यह धरती का वर है

गंगा की,

गंगा की लहर अमर है

जह्नु न हठकर

अपने मुख धर,

तृपित जगत्-अंतर है

गंगा की,

गंगा की लहर अमर है.

एक धार जल

देगा क्या फल?

भूतल सब ऊसर है

गंगा की,

गंगा की लहर अमर है

लक्ष धार हो

भूपर विचरो,

जग में बहुत जहर है

गंगा की,

गंगा की लहर अमर है

सोन मछरी - Harivansh Rai Bachchan

स्त्री

जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी

पिया, सोन मछरी; पिया,सोन मछरी

जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी

जिसकी हैं नीलम की आँखे,

हीरे-पन्ने की हैं पाँखे,

वह मुख से उगलती है मोती की लरी

पिया मोती की लरी;पिया मोती की लरी

जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी


पुरुष

सीता ने सुबरन मृग माँगा,

उनका सुख लेकर वह भागा,

बस रह गई नयनों में आँसू की लरी

रानी आँसू की लरी; रानी आँसू की लरी

रानी मत माँगो;नदिया की सोन मछरी


स्त्री

जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी

पिया, सोन मछरी; पिया,सोन मछरी

जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी

पिया डोंगी ले सिधारे,

मैं खड़ी रही किनारे,

पिया लेके लौटे बगल में सोने की परी

पिया सोने की परी नहीं सोन मछरी

पिया सोन मछरी नहीं सोने की परी


पुरुष

मैंने बंसी जल में डाली,

देखी होती बात निराली,

छूकर सोन मछरी हुई सोने की परी

रानी,सोने की परी; रानी,सोने की परी

छूकर सोन मछरी हुई सोने की परी

Tribhangima-Harivansh-Rai-Bachchan

स्त्री

पिया परी अपनाये,

हुए अपने पराये,

हाय!मछरी जो माँगी कैसी बुरी थी घरी!

कैसी बुरी थी घरी, कैसी बुरी थी घरी

सोन मछरी जो माँगी कैसी बुरी थी घरी


जो है कंचन का भरमाया,

उसने किसका प्यार निभाया,

मैंने अपना बदला पाया,

माँगी मोती की लरी,पाई आँसू की लरी

पिया आँसू की लरी,पिया आँसू की लरी

माँगी मोती की लरी,पाई आँसू की लरी


जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी

पिया, सोन मछरी; पिया,सोन मछरी

जाओ,लाओ,पिया,नदिया से सोन मछरी

(उत्तरप्रदेश के लोक धुन पर आधारित)

लाठी और बाँसुरी - Harivansh Rai Bachchan

पुरुष

लाडो,बाँस की बनाऊं लठिया की बंसिया?

बंसिया की लठिया?लठिया की बंसिया?

लाडो,बाँस की बनाऊं लठिया की बंसिया?


बंसी-धुन कानों में पड़ती,

गोरी के दिल को पकड़ती,

भोरी मछरी को जैसे,मछुआ की कटिया;

मछुआ की कटिया,मछुआ की कटिया;

लाडो,बाँस की बनाऊं लठिया की बंसिया?


जग में दुश्मन भी बन जाते,

मौका पा नीचा दिखलाते,

लाठी रहती जिसके काँधे,उसकी ऊँची पगिया;

उसकी ऊँची पगिया,उसकी ऊँची पगिया;

लाडो,बाँस की बनाऊं लठिया की बंसिया?

स्त्री

राजा,बाँस की बना ले लठिया औ' बंसिया

लठिया औ'बंसिया,बंसिया औ'लठिया;

राजा,बाँस की बना ले लठिया औ' बंसिया


बंसी तेरी पीर बताए,

सुनकर मेरा मन अकुलाए,

सोने दे न जगने दे मेरी फूल-खटिया,

मेरी फूल-सेजिया,मेरी सूनी सेजिया;

राजा,बाँस की बना ले लठिया औ' बंसिया


प्रेमी के दुश्मन बहुतेरे,

ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे,

हारे,भागे न किसी से मेरा रंग-रसिया;

मेरा रंग-रसिया,मेरा रन-रसिया;

राजा,बाँस की बना ले लठिया औ' बंसिया.


खोई गुजरिया - Harivansh Rai Bachchan

मेले में खोई गुजरिया,

जिसे मिले मुझसे मिलाए


उसका मुखड़ा

चाँद का टुकड़ा,

कोई नज़र न लगाये,

जिसे मिले मुझसे मिलाए

मेले में खोई गुजरिया,

जिसे मिले मुझसे मिलाए


खोये-से नैना,

तोतरे बैना,

कोई न उसको चिढ़ाए

जिसे मिले मुझसे मिलाए

मेले में खोई गुजरिया,

जिसे मिले मुझसे मिलाए


मटमैली सारी,

बिना किनारी,

कोई न उसको लजाए,

जिसे मिले मुझसे मिलाए

मेले में खोई गुजरिया,

जिसे मिले मुझसे मिलाए


तन की गोली,

मन की भोली,

कोई न उसे बहकाए,

जिसे मिले मुझसे मिलाये

मेले में खोई गुजरिया,

जिसे मिले मुझसे मिलाये


दूंगी चवन्नी,

जो मेरी मुन्नी,

को लाए कनिया उठाए

जिसे मिले मुझसे मिलाये

मेले में खोई गुजरिया,

जिसे मिले मुझसे मिलाये

(उत्तरप्रदेश के लोकधुन पर आधारित)

नील परी - Harivansh Rai Bachchan

सीपी में नील-परी सागर तरें,

सीपी में

बंसी उस पार बजी,

नयनों की नाव सजी,

पलकों की पालें उसासें भरें,

सीपी में

अंधड़ आकाश चढ़ा,

झोंकों का जोर बढ़ा,

शोर बढ़ा,बादल औ'बिजली लड़े,

सीपी में

सीपी में नील-परी सागर तरें,

सीपी में

आर नहीं, पार नहीं,

तुन का आधार नहीं,

झेल रही लहरों का वार लहरें,

सीपी में

सीपी में नील-परी सागर तरें,

सीपी में

अब किसको याद करें,

किससे फरियाद करे,

आज भरे नयनों से मोती झरे,

सीपी में

सीपी में नील-परी सागर तरें,

सीपी में

सहसा उजियार हुआ,

बेड़ा भी पार हुआ,

पी का दीदार हुआ,

मोदभरी नील-परी पी को वरें,

सीपी में

सीपी में नील-परी सागर तरें,

सीपी में.

महुआ के नीचे - Harivansh Rai Bachchan

महुआ के,

महुआ के नीचे मोती झरे,

महुआ के

यह खेल हँसी,

यह फाँस फँसी,

यह पीर किसी से मत कह रे,

महुआ के,

महुआ के नीचे मोती झरे,

महुआ के

अब मन परबस,

अब सपन परस,

अब दूर दरस,अब नयन भरे

महुआ के,

महुआ के नीचे मोती झरे,

महुआ के

अब दिन बहुरे,

अब जी की कह रे,

मनवासी पी के मन बस रे

महुआ के,

महुआ के नीचे मोती झरे,

महुआ के

घड़ियाँ सुबरन,

दुनियाँ मधुबन,

उसको जिसको न पिया बिसरे

महुआ के,

महुआ के नीचे मोती झरे,

महुआ के

सब सुख पाएँ,

सुख सरसाएँ,

कोई न कभी मिलकर बिछुड़े

महुआ के,

महुआ के नीचे मोती झरे,

महुआ के

(उत्तरप्रदेश की एक लोक धुन पर आधारित)

आंगन का बिरवा - Harivansh Rai Bachchan

(लोक धुन पर आधारित)

आंगन के,

आंगन के बिरवा मीत रे,

आंगन के!


रोप गये साजन,

सजीव हुआ आँगन;

जीवन के बिरवा मीत रे!

आंगन के,

आंगन के बिरवा मीत रे,

आंगन के!


पी की निशानी

को देते पानी

नयनों के घट गए रीत रे!

आंगन के,

आंगन के बिरवा मीत रे,

आंगन के!

फिर-फिर सावन

बिन मनभावन;

सारी उमर गई बीत रे!

आंगन के,

आंगन के बिरवा मीत रे,

आंगन के!

तू अब सूखा,

सब दिन रूखा,

दुखा गले का गीत रे!

आंगन के,

आंगन के बिरवा मीत रे,

आंगन के!

अंतिम शय्या

हो तेरी छैंयाँ,

दैया निभा दे प्रीत रे!

आंगन के,

आंगन के बिरवा मीत रे,

आंगन के!

फिर चुनौती - Harivansh Rai Bachchan

अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--

मैंने अपने पाँवों से पर्वत कुचल दिए,

कदमों से रौंदे कुश-काँटों के वन बीहड़,

दी तोड़ डगों से रेगिस्तानों कि पसली,

दी छोड़ पगों को छाप धरा की छाती पर;

सुस्ताता हूँ;

तन पर फूटी श्रम धारा का

सुख पाता हूँ

अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार-

मैंने सूरज कि आँखों में आँखे डाली,

मैंने शशि को मानस के अंदर लहराया,

मैंने नैनों से नाप निशाओं का अंबर

तारे-तारे को अश्रुकणों से नहलाया;

अलसाया हूँ;

पलकों में अद्भुत सपने

भर लाया हूँ

अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार--

रस-रूप जिधर से भी मैंने आते देखा

चुपचाप बिछाया अपनी बेबस चाहों को;

वामन के भी अरमान असीमित होते हैं,

रंभा की ओर बढ़ाया अपनी बाँहों को;

बतलाता हूँ

जीवन की रंग-उमंगों को

शर्माता हूँ


अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार-

तम आसमान पर हावी होता जाता था,

मैंने उसको उषा-किरणों से ललकारा;

इसको तो खुद दिन का इतिहास बताएगा,

थी जीत हुई किसकी औ'कौन हटा-हारा;

मैं लाया हूँ

संघर्ष प्रणय के गीतों को!

मनभाया हूँ.

अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार-

हर जीत ,जगत् की रीति चमक खो देती है,

हर गीत गूंज कर कानों में धीमा पड़ता,

हर आकर्षण घट जाता है, मिट जाता है,

हर प्रीति निकलती जीवन की साधारणता;

अकुलाता हूँ;

संसृति के क्रम को उलट कहाँ

मैं पाता हूँ

अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार-

पर्वत ने फिर अपना शीश उठाया है,

सूरज ने फिर से वसुंधरा को घूरा है,

रंभा ने कि ताका-झाँकी फिर नंदन से,

उजियाले का तम पर अधिकार अधूरा है;

पछताता हूँ;

अब नहीं भुजाओं में पहला

बल पाता हूँ


अंतर से या कि दिगंतर से आई पुकार-

कब सिंह समय की खाट बिछाकर सोता है,

कब गरुड़ बिताता है अपने दिन कन्दर में,

जड़ खंडहर भी आवाज जवाबी देता है,

वडवाग्नि जगा करती है बीच समुन्दर में;

मुस्काता हूँ

मैं अपनी सीमा,सबकी सीमा से परिचित,

पर मुझे चुनौती देते हो

तो आता हूँ

मिट्टी से हाथ लगाये रह - Harivansh Rai Bachchan

ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,

तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!

मैंने अक्सर यह सोचा है,

यह चाक बनाई किसकी है?

मैंने अक्सर यह पूछा है,

यह मिट्टी लाई किसकी है?

पर सूरज,चाँद,सितारों ने

मुझको अक्सर आगाह किया,

इन प्रश्नों का उत्तर न तुझे मिल पाएगा,

तू कितना ही अपने मन को उलझाए रह

ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,

तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!

मधु-अश्रु-स्वेद-रस-रक्त

हलाहल से इसको नम करने में,

क्या लक्ष्य किसी ने रक्खाहै,

इस भाँति मुलायम करने में?

उल्का,विद्युत्,निहारों ने

पर मेरे ऊपर व्यंग किया,

बहुतेरे उद्भट इन प्रश्नों में भटक चुके,

तू भी चाहे तो अपने को भटकाएरह

ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,

तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!

प्रातः,दिन,संध्या,रात,सुबह

चक्कर पर चक्कर कहा-खाकर,

अस्थिर तन-मन,जर्जर जीवन,

मैं बोल उठा था घबराकर,

जब इतने श्रम-संघर्षण से,

मैं कुछ न बना,मैं कुछ न हुआ,

तो मेरी क्या तेरी भी इज्जत इसमें है,

मुझ मिट्टी से तू अपना हाथ हटाये रह

ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,

तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!

अपनी पिछली नासमझी का,

अब हर दिन होता बोध मुझे,

मेरे बनने के क्रम में था

घबराना, आना क्रोध मुझे,

मेरा यह गीत सुनना भी;

होगा,मेरा चुप होना भी;

जब तक मेरी चेतनता होती सुप्त नहीं,

तू अपने में मेरा विश्वास जगाए रह

ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,

तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!

तुम्हारी नाट्यशाला - Harivansh Rai Bachchan

काम जो तुमने कराया,कर गया;

जो कुछ कहाया कह गया

यह कथानक था तुम्हारा

और तुमने पात्र भी सब चुन लिये थे,

किन्तु उनमे थे बहुत-से

जो अलग हीं टेक अपनी धुन लिये थे,

और अपने आप को अर्पण

किया मैंने कि जो चाहो बना दो;

काम जो तुमने कराया,कर गया;

जो कुछ कहाया कह गया.

मैं कहूँ कैसे कि जिसके

वास्ते जो भूमिका तुमने बनाई,

वह गलत थी;कब किसी कि

छिप सकी कुछ भी,कहीं तुमसे छिपाई;

जब कहा तुमने कि अभिनय में

बड़ा वह जो कि अपनी भूमिका से

स्वर्ग छू ले,बंध गई आशा सभी की

दंभ सबका बह गया

काम जो तुमने कराया,कर गया;

जो कुछ कहाया कह गया.

आज श्रम के स्वेद में डूबा

हुआ हूँ,साधना में लीन हूँ मैं,

आज मैं अभ्यास में ऐसा

जूता हूँ,एक क्या,दो-तीन हूँ मैं,

किन्तु जब पर्दा गिरेगा

मुख्य नायक-सा उभरता मैं दिखूँगा;

ले यही आशा, नियंत्रण

और अनुशासन तुम्हारा सह गया

काम जो तुमने कराया,कर गया;

जो कुछ कहाया कह गया

मंच पर पहली दफा मुँह

खोलते ही हँस पड़े सब लोग मुझ पर,

क्या इसी के वास्ते तैयार

तुमने था मुझको, गुणागर?

आखिरी यह दृश्य है जिसमें

मुझे कुछ बोलना है,डोलना है,

और दर्शक हँस रहे हैं;

अब कहूँगा,थी मुझी में कुछ कमी जो

मैं तुम्हारी नाट्यशाला में

विदूषक मात्र बनकर रह गया

काम जो तुमने कराया,कर गया;

जो कुछ कहाया कह गया.

गीतशेष - Harivansh Rai Bachchan

अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है!

क्षीर क्या मेरे बचपन का

और कहाँ जग के परनाले,

इनसे मिलकर दूषित होने

से ऐसा था कौन बचा ले;

यह था जिससे चरण तुम्हारा

धो सकता तो मैं न लजाता,

अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है!

यौवन का वह सावन जिसमें

जो चाहे सब रस बरसा ले,

पर मेरी स्वर्गिक मदिरा को

सोख गये माटी के प्याले,

अगर कहीं तुम तब आ जाते

जी-भर पीते,भीग-नहाते,

रस से पावन,हे मनभावन,विधना ने विरचा हीं क्या है!

अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है!


अब तो जीवन की संध्या में

है मेरी आँखों में पानी

झलक रही है जिसमें निशि की

शंका,दिन की विषम कहानी--

कर्दम पर पंकज की कलिका,

मरुस्थल पर मानस जल-कलकल--

लौट नहीं जो आ सकता है अब उसकी चर्चा हीं क्या है!

अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है!


मरुथल,कर्दम निकट तुम्हारे

जाते,ज़ाहिर है शरमाए

लेकिन मानस-पंकज भी तो

सम्मुख हो सूखे कुम्हलाए;

नीरस-सरस, अपावन-पावन

छू न तुम्हें कुछ भी पाता है,

इतना ही संतोष कि मेरा

स्वर कुछ साथ दिये जाता है,

गीत छोड़कर साथ तुम्हारे मानव का पहुँचा हीं क्या है!

अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है!

रात-राह-प्रीति-पीर - Harivansh Rai Bachchan

साँझ खिले,

प्रात झड़े,

फूल हर सिंगार के;

रात महकती रही

शाम जले,

भोर बुझे,

दीप द्वार-द्वार के;

राह चमकती रही


गीत रचे,

गीत मिटे,

जीत और हार के;

प्रीति दहकती रही

यार विदा,

प्यार विदा,

दिन विदा बहार के;

पीर कसकती रही

जाल समेटा - Harivansh Rai Bachchan

जाल-समेटा करने में भी

समय लगा करता है, माझी,

मोह मछलियों का अब छोड़ ।


सिमट गई किरणें सूरज की,

सिमटीं पंखुरियां पंकज की,

दिवस चला छिति से मुंह मोड़ ।


तिमिर उतरता है अंबर से,

एक पुकार उठी है घर से,

खींच रहा कोई बे - डोर ।


जो दुनिया जगती, वह सोती;

उस दिन की संध्या भी होती,

जिस दिन का होता है भोर ।


नींद अचानक भी आती है,

सुध-बुध सब हर ले जाती है,

गठरी में लगता है चोर ।


अभी क्षितिज पर कुछ-कुछ लाली,

जब तक रात न घिरती काली,

उठ अपना सामान बटोर ।


जाल-समेटा करने में भी

वक्त लगा करता है, माझी,

मोह मछलियों का अब छोड़ ।


मेरे भी कुछ कागद - पत्रे,

इधर-उधर हैं फैले - बिखरे,

गीतों की कुछ टूटी कड़ियां,


कविताओं की आधी सतरें,

मैं भी रख दूँ सबको जोड़ ।

जब नदी मर गई-जब नदी जी उठी - Harivansh Rai Bachchan

कौन था वह युगल

जो गलती-ठिठुरती यामिनी में

जबकि कैम्ब्रिज

श्रांत,विस्मृत-जड़ित होकर

सो गया था

कैम के पुल पर खड़ा था--

पुरुष का हर अंग

प्रणयांगार की गर्मी लिए

मनुहार-चंचल,

और नारी फ्रीजिडेयर से निकली,

संगमरमर मूर्ति-सी

निश्चेष्ट,

निश्चल

घड़ी ट्रिनिटी की

अठारह बार बोली,

युगल ने

छत्तीस की मुद्रा बना ली;

और तारों से उतर कुहरा

टूटे सपने - Harivansh Rai Bachchan

और छाती बज्र करके

सत्य तीखा

आज वह

स्वीकार मैंने कर लिया है,

स्वप्न मेरे

ध्वस्त सारे हो गए हैं!

किंतु इस गतिवान जीवन का

यही तो बस नहीं है

अभी तो चलना बहुत है,

बहुत सहना, देखना है


अगर मिट्टी से

बने ये स्वप्न होते,

टूट मिट्टी में मिले होते,

ह्रदय में शांत रखता,

मृत्तिका की सर्जना-संजीवनी में

है बहुत विश्वास मुझको

वह नहीं बेकार होकर बैठती है

एक पल को,

फिर उठेगी


अगर फूलों से

बने ये स्वप्न होते

तो मुरझाकर

धरा पर बिखर जाते,

कवि-सहज भोलेपन पर

मुसकराता, किंतु

चित्त को शांत रखता,

हर सुमन में बीज है,

हर बीज में है बन सुमन का

क्या हुआ जो आज सूखा,

फिर उगेगा,

फिर खिलेगा


अगर कंचन के

बने ये स्वप्न होते,

टूटते या विकृत होते,

किसलिए पछताव होता?

स्वर्ण अपने तत्व का

इतना धनी है,

वक्त के धक्के,

समय की छेड़खानी से

नहीं कुछ भी कभी उसका बिगड़ता

स्वयं उसको आग में

मैं झोंक देता,

फिर तपाता,

फिर गलाता,

ढालता फिर!


किंतु इसको क्या करूँ मैं,

स्वप्न मेरे काँच के थे!

एक स्वर्गिक आँच ने

उनको ढला था,

एक जादू ने सवारा था, रँगा था

कल्पना किरणावली में

वे जगर-मगर हुए थे

टूटने के वास्ते थे ही नहीं वे

किंतु टूटे

तो निगलना ही पड़ेगा

आँख को यह

क्षुर-सुतीक्ष्ण यथार्थ दारुण!

कुछ नहीं इनका बनेगा

पाँव इन पर धार बढ़ना ही पड़ेगा

घाव-रक्तस्त्राव सहते

वज्र छाती पर धंसा लो,

पाँव में बांधा ना जाता

धैर्य मानव का चलेगा

लड़खड़ाता, लड़खड़ाता, लड़खड़ाता

चेतावनी - Harivansh Rai Bachchan

भारत की यह परम्परा है

जब नारी के बालों को खींचा जाता है,

धर्मराज का सिंहासन डोला करता है,

क्रुद्ध भीम की भुजा फड़कती,

वज्रघोष मणिपुष्पक औ'सुघोष करते है,

गांडीव की प्रत्यंचा तड़पा करती है;

कहने का तात्पर्य

महाभारत होता है,

अगर कभी झूठी ममता,

दुर्बलता,किंकर्तव्यविमूढ़ता

व्यापा करती,

स्वयं कृष्ण भगवान प्रकट हो

असंदिग्ध औ'स्वतः सिद्धा

स्वर में कहते,

'युध्यस्व भारत.'

भारत की यह परम्परा है--

जब नारी के बालों को खींचा जाता है,

एक महाभारत होता है


तूने भारत को केवल

रेखांश और अक्षांश जाल में

बद्ध चित्रपट समझ लिया है,

जिसकी कुछ शीर्षस्थ लकीरें,

जब तू चाहे घटा-मिटाकर

अपने नक्शे में दिखला ले?


हथकडियाँ कड़कड़ा,बेड़ियों को तड़काकर,

अपने बल पर मुक्त, खड़ी

भारत माता का

रूप विराट

मदांध,नहिं तूने देखा है;

(नशा पुराना जल्द नहिं उतरा करता है

और न अपने भौतिक दृग से देख सकेगा

आकर कवि से दिव्यदृष्टि ले

पूरब,पश्चिम,दक्षिण से आ

अगम जलंभर,उच्छल फेनिल

हिंदमहासागर की अगणित

हिल्लोलित,कल्लोलित लहरें

जिन्हें अहर्निश

प्रक्षालित करती रहती हैं,

अविरल,

वे भारत माता के

पुण्य चरण हैं-

पग-नखाग्र कन्याकुमारिका-मंदिर शोभित

और पूरबी घाट,पश्चिमी घाट

उसी के पिन,पुष्ट,दृढ नघ-पट हैं

विंध्य-मेखला कसी हुई कटि प्रदेश में

ताजमहल - Harivansh Rai Bachchan

जाड़ों के दिन थे,दोनों बच्चे अमित अजित

सर्दी की छुट्टी में पहाड़ के कालेज से

घर आये थे,जी में आया,सब मोटर से

आगरे चलें,देखें शोभामय ताजमहल

जिसकी प्रसिद्धि सारी जगती में फैली है,

जिससे आकर्षित होकर आया करते हैं

दर्शक दुनियाँ के हर हिस्से,हर कोने से;

आगरा और दिल्ली के बीच सड़क पक्की;

दफ्तर के कोल्हू पर चक्कर देते-देते

जी ऊबा है,दिल बहलेगा,पिकनिक होगी

तड़के चलकर हम आठ बजे मथुरा पंहुचे;

मैंने बच्चों से कहा,'यही वह मथुरा है

जो जन्मभूमि है कृष्णचंद्र आनंदकंद की,

जिसके पेड़े हैं प्रसिद्ध भारत भर में!'

बच्चे बोले,'हम जन्मभूमि देखेंगे,पेड़े खाएंगे'


हम इधर-उधर हो केशव टीले पर पहुंचे,

जिसको दे पीठ खड़ी थी मस्जिद एक बड़ी;

टीले की मिट्टी हटा दी गई थी कुछ-कुछ

जिससे अतीत के भव्य, पुरातन मंदिर का

भग्नावशेष अपनी पथराई आँखों से

अन्यायों-अत्याचारों की कटु कथा-व्यथा

बतलाता था; अंकित था एक निकट पट पर-

छ: बार हिंदुयों ने यह मंदिर खड़ा किया,

छ: बार मुसलमानों ने इसको तोड़ दिया;

औरंगजेब ने अंतिम बार ढहा करके

मस्जिद चुनवा दी उस मंदिर के मलवे से-

कुछ भग्न मूर्तियों की ढेरी थी पास पड़ी,

जो खोज-खुदाई में टीले से निकली थीं ।


मानव तो क्या, शायद न समय भी कर पाए !

ओ शाहजहाँ, तूने उस जीवित काया को

कितना दुलराया, कितना सन्माना होगा,

जिसकी मुर्दा मिट्टी का यों श्रृंगार किया-

कल्पना-मृदुल, भावना-धवल पाषाणों से !

सज गई धरा, सज गया गगन का यह कोना

जमुना के तट पर अटक गया बहते-बहते

जैसे कोई टटके, उजले पूजा के फूलों का दोना !


केशव टीले पर मैंने जो कुछ देखा था

उसने मुझमें कुछ क्रोध-क्षोभ उकसाया था,

इस सुधि-समाधि ने मुझको ऐसा सहलाया,

मैं शांत हुआ मुझमें उदारता जाग पड़ी,

हर टूटे मंदिर का खंडहर ही बोल उठा

जैसे मेरे स्वर में, मन का आमर्ष हटा,

'ओ ताजमहल के निर्माता हठधर्मी से

तेरे अग्रज-अनुजों ने जो अपराध किए,

उन सबको, मैंने तुझको देखा, माफ किया!'

जब हम लौटे, टीले की खंडित प्रतिमा से

सारी कटुता थी निकल गई, वह पहले से

अब ज्यादा सुन्दर, कोमल धी, मनमोहक थी !

यह भी देखा:वह भी देखा - Harivansh Rai Bachchan

गाँधी : अन्याय अत्याचार की दासत्व सहती

मूर्च्छिता-मृत जाति की

जड़ शून्यता में

कड़कड़ाती बिजलियों की

प्रबल आँधी :

ज्योति-जीवन-जागरण घन का

तुमुल उल्लास!


गाँधी : स्वार्थपरता,क्षुद्रता,संकीर्णता की

सम्प्रदायी आँधियों में,

डोलती,डिगती,उखड़ती,

ध्वस्त होती,अस्त होगी,

आस्थाओं,मान्यताओं में,

अतल आदर्श की चट्टान पर

जगती हुई लौ का

करुण उच्छ्वास!


गाँधी : बुत पत्थरों का,मूक,

मिट्टी का खिलौना,

रंग-बिरंगा चित्र,

छुट्टी का दिवस,

देशान्तरों में पुस्तकालयों को

समर्पित किये जाने के लिए

सरकार द्वारा,

आर्ट पेपर पर,प्रकाशित

राष्ट्र का इतिहास!

दानवों का शाप - Harivansh Rai Bachchan

देवताओं!

दानवों का शाप

आगे उतरता है!


सिंधु-मंथन के समय

जो छल-कपट,

जो क्षुद्रता,

जो धूर्तता,

तुमने प्रदर्शित की

पचा क्या काल पाया,

भूल क्या इतिहास पाया?

भले सह ली हो,विवश हो,

दानवों ने;

क्षम्य कब समझी उन्होंने?

सब प्रकार प्रवंचितों ने

शाप जो उस दिन दिया था

आज आगे उतरता है

जानते तुम थे

कि पारावार मंथन

हो नहीं सकता अकेले देव-बल से;

दानवों का साथ औ'सहयोग

चाह था इसी से

किंतु क्या सम-साधना-श्रम की व्यवस्था,

उभय पक्षों के लिए,

तुमने बनाई?

किया सोचो,

देवताओं!

जब मथानी के लिए

मन्द्र अचल तुमने उखाड़ा

और ले जाना पड़ा उसको जलधि तक

मूल का वह भीम,भारी भाग

तुमने दानवों की पीठ पर लादा

शिखर का भाग हल्का

तुम चले कर-कंज से अपने सम्भाले

दानवों की पिंडलियाँ चटकीं,

कमर टूटी,

हुई दृढ रीढ़ टेढ़ी,

खिंची गर्दन,

जीभ नीचे लटक आई,

तन पसीने से नहाया,

आँख से औ' नाक से

लोहू बहा,

मुँह से अकरपन फेन छूटा;

औ'तुम्हारे कंज-पद की

चाप भी अंकित न हो पाई धरा पर!

और बासुकि-रज्जू

दम्मर की मथानी पर

लपेटी जब गई तब

किया तुमने दानवों को

सर्प-फन कि ओर

जिनके थप्पड़ों कि चोट

मंथन में अनवरत

झेलते वे रहे क्षण-क्षण!

और खींचा-खींच में जो

नाग-नर ने

धूम्र-ज्वाला पूर्ण शत-शत

अंधकर फुत्कार छोड़े

और फेंके

विष कालानल हलाहल के तरारे

ओड़ते वे रहे उनको

वीरता से,धीरता-गंभीरता से-कष्ट मारे:

जबकि तुमने

कंज-कर से

नागपति की पूँछ

सहलाई--दुही भर!


अन्त में जब

अमृत निकला,

ज्योति फैली,

तब अकेले

उसे पीने के लिए

षड्यंत्र जो तुमने रचा

सब पर विदित है

एक दानव ने

उसे दो बून्द चखने का

चुकाया मोल आना शीश देकर


(औ'अमृत पीकर

अमर जो तुम हुए तो

बे-पिए क्या मर गए सब दैत्य-दानव?

आज भी वे जी रहे हैं,

आज भी सन्तान उनकी

जी रही दूधों नहाती,

और पूतों और पोतों

फल रही है,बढ़ रही है.)


छल-कपट से,

क्षुद्रता से,

धूर्तता से,

सब तरह वंचित उन्होंने

शाप यह उसदिन दिया था:

सृष्टि यदि चलती रही तो

अमृत-मंथन की जरुरत

फिर पड़ेगी!

और मंथन-

वह अमृत के

जिस किसी भी रूप की ख़ातिर

किया जाए-

बिना दो देह-दानव पक्ष के

संभव न होगा

किंतु अब से

मन्दराचल मूल का

वह कठिन,ठोस,स्थूल भारी

भाग देवों की

कमर पर,

पीठ-कंधों पर पड़ेगा,

और दानव शिखर थामे

शोर भर करते रहेंगे,

'अमृत जिंदाबाद,जिन्दा-!'

ख़ास उनमे

अमृत पर व्याख्यान देंगे

और मंथन-काल में भी

देवतागण सर्प का मुख-भाग

पकडेंगे,

फनों की चोट खाएँगे,

जहर कि फूँक घूटेंगे,

मगर दल दानवों का

सर्प कि बस दम हिलाएंगे;

अमृत जब प्राप्त होगा

वे अकेले चाट जाएँगे

सुनो,हे देवताओं!

दानवों का शाप

आगे आज उतरा

यह विगत संघर्ष भी तो

सिंधु-मंथन की तरह था

जानता मैं हूँ कि तुमने हार धोया,

कष्ट झेला,

आपदाएँ सहीं,

कितना जहर घूँटा!

पर तुम्हारा हाथ छूँछा!

देवता जो एक--

दो बूँदें अमृत की

पान करने को,पिलाने को चला था,

बलि हुआ!

लेकिन उन्होंने

शोर आगे से मचाया,

पूँछ पीछे से हिलाई,

वही खीस-निपोर ,

काम-छिछोर दानव ,

सिंधु के सब रत्न-धन को

आज खुलकर भोगते हैं

बात है यह और

उनके कंठ में जा

अमृत मद में बदलता है,

और वे पागल नशे में

हद,हया,मरजाद

मिट्टी में मिलाकर

नाच नंगा नाचते हैं!

और हम-तुम

उस पुरा अभिशाप से

संतप्त-विजड़ित

यह तमाशा देखते हैं.

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