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हिंदी कविता
हरिवंशराय बच्चन सूत की माला
Harivansh Rai Bachchan Soot Ki Mala
नत्थू ख़ैरे ने गांधी का कर अंत दिया - Harivansh Rai Bachchan
नत्थू ख़ैरे ने गांधी का कर अंत दियाक्या कहा, सिंह को शिशु मेंढक ने लिल लिया!
धिक्कार काल, भगवान विष्णु के वाहन को
सहसा लपेटने
में समर्थ हो
गया लबा!
पड़ गया सूर्य क्या ठंडा हिम के पाले से,
क्या बैठ गया गिरि मेरु तूल के गाले से!
प्रभु पाहि देश, प्रभु त्राहि जाति, सुर के तन को
अपने मुँह में
लघु नरक कीट ने
लिया दबा!
यह जितना ही मर्मांतक उतना ही सच्चा,
शांतं पापं, जो बिना दाँत का बच्चा,
करुणा ममता-सी मूर्तिमान मा को कच्चा
देखते देखते
सब दुनिया के
गया चबा!
आओ बापू के अंतिम दर्शन कर जाओ - Harivansh Rai Bachchan
आओ बापू के अंतिम दर्शन कर जाओ,चरणों में श्रद्धांजलियाँ अर्पण कर जाओ,
यह रात आखिरी उनके भौतिक जीवन की,
कल उसे करेंगी
भस्म चिता की
ज्वालाएँ।
डांडी के यारत्रा करने वाले चरण यही,
नोआखाली के संतप्तों की शरण यही,
छू इनको ही क्षिति मुक्त हुई चंपारन की,
इनकी चापों ने
पापों के दल
दहलाए।
यह उदर देश की भुख जानने वाला था,
जन-दुख-संकट ही इसका ही नित्य नेवाला था,
इसने पीड़ा बहु बार सही अनशन प्रण की
आघात गोलियाँ
के ओढ़े
बाएँ-दाएँ।
यह छाती परिचित थी भारत की धड़कन से,
यह छाती विचलित थी भारत की तड़पन से,
यह तानी जहाँ, बैठी हिम्मत गोले-गन की
अचरज ही है
पिस्तौल इसे जो
बिठलाए।
इन आँखों को था बुरा देखना नहीं सहन,
जो नहीं बुरा कुछ सुनते थे ये वही श्रवण,
मुख यही कि जिससे कभी न निकला बुरा वचन,
यह बंद-मूक
जग छलछुद्रों से
उकताए।
यह देखो बापू की आजानु भुजाएँ हैं,
उखड़े इनसे गोराशाही के पाए हैं,
लाखों इनकी रक्षा-छाया-में आए हैं,
ये हाथ सबल
निज रक्षा में
क्यों सकुचाए।
यह बापू की गर्वीली, ऊँची पेशानी,
बस एक हिमालय की चोटी इनकी सनी,
इससे ही भारत ने अपनी भावी जानी,
जिसने इनको वध करने की मन में ठानी
उसने भारत की किस्मत में फेरा पानी;
इस देश-जाती के हुए विधाता
ही बाएँ।
यह कौन चाहता है बापूजी की काया - Harivansh Rai Bachchan
यह कौन चाहता है बापूजी की कायाकर शीशे की ताबूत-बद्ध रख ली जाए,
जैसे रक्खी है लाश मास्को में अब तक
लेनिन की, रशिया
के प्रसिद्धतम
नेता की।
हम बुत-परस्त मशहूर भूमि के ऊपर हैं,
शव-मोह मगर हमने कब ऐसा दिखलाया,
क्या राम, कृष्ण, गौतम, अकबर की
हम, अगर चाहते,
लाश नही रख सकते थे।
आत्मा के अजर-अमरता के हम विश्वासी,
काया को हमने जीर्ण वसन बस माना है,
इस महामोह की बेला में भी क्या हमको
वाजीब अपनी
गीता का ज्ञान
भुलना है।
क्या आत्मा को धरती माता का ऋण है,
बापू को अपना अंतिम कर्ज चुकाने दो,
वे जाति, देश, जग, मानवता से उऋण हुए,
उन पर मृत मिट्टी
का ऋण मत रह जाने दो।
रक्षा करने की वस्तु नहीं है उनकी काया,
उनकी विचार संचित करने की चीज़ें हैं,
उनको भी मत जिल्दों में करके बंद धरो,
उनके जन-जन
मन-मन, कण-कण
में बिखरा जाओ।
अब अर्द्धरात्रि है और अर्द्धजल बेला - Harivansh Rai Bachchan
अब अर्द्धरात्रि है और अर्द्धजल बेला,अब स्नान करेगा यह जोधा अलबेला,
लेकिन इसको छेड़ते हुए डर लगता,
यह बहुत अधिक
थककर धरती पर
सोता।
क्या लाए हो जमुना का निर्मल पानी,
परिपाटी के भी होते हैं कुछ मानी,
लेकिन इसकी क्या इसको आवश्यक्ता,
वीरों का अंतिम
स्नान रक्त से
होता।
मत यह लोहू से भीगे वस्त्र उतारो
मत मर्द सिपाही का श्रृंगार बिगाड़ो,
इस गर्द-खून पर चोवा-चंदन वारो
मानव-पीड़ा प्रतिबिंबित ऐसों का मुँह,
भगवान स्वयं
अपने हाथों से
धोता।
तुम बड़ा उसे आदर दिखलाने आए - Harivansh Rai Bachchan
तुम बड़ा उसे आदर दिखलाने आएचंदन, कपूर की चिता रचाने आए,
सोचा, किस महारथी की अरथी आती,
सोचा, उसने किस रण में प्राण बिछाए?
लाओ वे फरसे, बरछे, बल्लम, भाले,
जो निर्दोषों के लोहू से हैं काले,
लाओ वे सब हथियार, छुरे, तलवारें,
जिनसे बेकस-मासूम औरतों, बच्चों,
मर्दों,के तुमने लाखों शीश उतारे,
लाओ बंदूकें जिनसे गिरें हजारों,
तब फिर दुखांत, दुर्दांत महाभारत के
इस भीष्म पितामह की हम चिता बनाएँ।
जिससे तुमने घर-घर में आग लगाई,
जिससे तुमने नगरों की पाँत जलाई,
लाओं वह लूकी सत्यानाशी, घाती,
तब हम अपने बापू की चिता जलाएँ।
वे जलें, बनी रह जाए फिरकेबंदी
वे जलें मगर हो आग न उसकी मंदी,
तो तुम सब जाओ, अपने को धिक्कारो,
गाँधी जी ने बेमतलब प्राण गँवाए।
भेद अतीत एक स्वर उठता - Harivansh Rai Bachchan
भेद अतीत एक स्वर उठता-नैनं दहति पावक...
निकट, निकटतर, निकटतम
हुई चिता के अरथी, हाय,
बापू के जलने का भी अब, आँखें, देखो दृश्य दुसह।
भेद अतीत एक स्वर उठता-
नैनं दहति पावक...
चंदन की शैया के ऊपर
लेटी है मिट्टी निरुपाय
लो अब लपटों से अभिभूषित चिता दहकती है दह-दह।
भेद अतीत एक स्वर उठता-
नैनं दहति पावक...
अगणित भावों की झंझा में
खड़े देखते हैं हम असहाय
और किया भी क्या जाय,
क्षार-क्षार होती जाती है बापू की काया रह-रह।
भेद अतीत एक स्वर उठता-
नैनं दहति पावक...
भारत के सब प्रसिद्ध तीर्थों से, नगरों से - Harivansh Rai Bachchan
भारत के सब प्रसिद्ध तीर्थों से, नगरों सेहै आज आ रही माँग तपोमय गाँधी की
अंतिम धूनी से राख हमें भी चुटकी भर
मिल जाए जिससे उसे सराएँ ले जाकर
पावन करते
निकटस्थ नदी,
नद, सर, सागर।
अपने तन पर अधिकार समझते थे सब दिन
वे भारत की मिट्टी, भारत के पानी का,
जो लोग चाहते थे ले जाएँ राख आज,
है ठीक वही जसिको चाहे सारा समाज,
संबद्ध जगह जो हो गाँधी जी की मिट्टी से
साधना करे
रखने को उनकी
कीर्ति-लाज
हे देश-जाति के दीवानों के चूड़ामणि,
इस चिर यौवनमय, सुंदर, पावन वसुंधरा
की सेवा में मनुहार सहज करते करते
दी तुमने अपनी उमर गँवा, दी देह त्याग;
अब राख तुम्हारी आर्यभूमि की भरे माँग,
हो अमर तुम्हें खो
इस तपस्विनी
का सुहाग।
थैलियाँ समर्पित कीं सेवा के हित हजार - Harivansh Rai Bachchan
थैलियाँ समर्पित कीं सेवा के हित हजार,श्रद्धांजलियाँ अर्पित कीं तुमको लाख बार,
गो तुम्हें न थी इनकी कोई आवश्यक्ता,
पुष्पांजलियाँ भी तुम्हें देश ने दीं अपार,
अब, हाय, तिलांजलि
देने की आई बारी।
तुम तील थे लेकिन झुकाते सदा ताड़,
तुम तिल थे लेकिन लिए ओट में थे पहाड़,
शंकर-पिनाक-सी रही तुम्हारी जमी धाक,
तुम हटी न तिल भर, गई दानवी शक्ति हार;
तिल एक तुम्हारे जीवन की
व्याख्या सारी।
तिल-तिल कर तुमने देश कीच से उठा लिया,
तिल-तिल निज को उसकी चिंता में गला दिया,
तुमने स्वदेश का तिलक किया आज़ादी से,
जीवन में क्या, मरकर भी ऐसा तलिस्म किया;
क़ातिल ने महिमा
और तुम्हारी विस्तारी।
तुम कटे मगर तिल भर भी सत्ता नहीं कटी,
तुम लुप्त हुए, तिल मात्र महत्ता नहीं घटी,
तुम देह नहीं थे, तुम थे भारत की आत्मा,
ज़ाहिर बातिल थी, बातिल ज़ाहिर बन प्रकटी,
तिल की अंजलि को आज
मिले तुम अधिकारी।
बापू की हत्या के चालिस दिन बाद गया - Harivansh Rai Bachchan
बापू की हत्या के चालिस दिन बाद गयामैं दिल्ली को, देखने गया उस थल को भी
जिस पर बापू जी गोली खाकर सोख गए,
जो रँग उठा
उनके लोहू
की लाली से।
बिरला-घर के बाएँ को है है वह लॉन हरा,
प्रार्थना सभा जिस पर बापू की होती थी,
थी एक ओर छोटी सी वेदिका बनी,
जिस पर थे गहरे
लाल रंग के
फूल चढ़े।
उस हरे लॉन के बीच देख उन फूलों को
ऐसा लगता था जैसे बापू का लोहू
अब भी पृथ्वी
के ऊपर
ताज़ा ताज़ा है!
सुन पड़े धड़ाके तीन मुझे फिर गोली के
काँपने लगे पाँवों के नीचे की धरती,
फिर पीड़ा के स्वर में फूटा 'हे राम' शब्द,
चीरता हुआ विद्युत सा नभ के स्तर पर स्तर
कर ध्वनित-प्रतिध्वनित दिक्-दिगंत बार-बार
मेरे अंतर में पैठ मुझे सालने लगा!...
'हे राम' खचित यह वही चौतरा, भाई - Harivansh Rai Bachchan
'हे राम' - खचित यह वही चौतरा, भाई,जिस पर बापू ने अंतिम सेज बिछाई,
जिस पर लपटों के साथ लिपट वे सोए,
गलती की हमने
जो वह आग बुझाई।
पारसी अग्नि जो फारस से लाए,
हैं आज तलक वे उसे ज्वलंत बनाए,
जो आग चिता पर बापू के जगी थी
था उचित उसे
हम रहते सदा जगाए।
है हमको उनकी यादगार बनवानी,
सैकड़ों सुझाव देंगे पंडित-ज्ञानी,
लेकिन यदि हम वह ज्वाल लगाए रहते,
होती उनकी
सबसे उपयुक्त
निशानी।
तम के समक्ष वे ज्योति एक अविचल थे,
आँधी-पानी में पड़कर अडिग-अटल थे,
तप के ज्वाला के अंदर पल-पल जल-जल
वे स्वयं अग्नि-से
अकलुष थे,
निर्मल थे।
वह ज्वाला हमको उनकी याद दिलाती,
वह ज्वाला हमको उनका पथ दिखलाती,
वह ज्वाला भारत के घर-घर में जाती,
संदेश अग्निमय
जन-जन को
पहुँचाती।
पुश्तहापुश्त यह आग देखने आतीं,
इससे अतीत की सुधियाँ सजग बनातीं,
भारत के अमर तपस्वी की इस धूनी
से ले भभूत
अपने सिर-माथ
चढ़ातीं।
पर नहीं आग की बाकी यहाँ निशानी,
प्रह्लाद-होलिका फिर घटी कहानी,
बापू ज्वाला से निकल अछूते आए,
मिल गई राख-
मिट्टी में चिता
भवानी।
अब तक दुहरातीं मस्जिद की मिनारें,
अब तक दुहरातीं घर घर की दीवारें,
दुहराती पेड़ों की हर तरु कतारें,
दुहराते दरिया के जल-कूल-कगारे,
चप्पे-चप्पे इस राजघाट के रटते
जो लोग यहाँ थे चिता-शाम के नारे-
हो गए आज बापू अमर हमारे,
हो गए आज बापू अमर हमारे!
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