रात पश्मीने की गुलज़ार Raat Pashmine Ki Gulzar

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रात पश्मीने की गुलज़ार
Raat Pashmine Ki Gulzar

बोस्की-१ - गुलज़ार - Gulzar

बोस्की ब्याहने का समय अब करीब आने लगा है

जिस्म से छूट रहा है कुछ कुछ

रूह में डूब रहा है कुछ कुछ

कुछ उदासी है, सुकूं भी

सुबह का वक्त है पौ फटने का,

या झुटपुटा शाम का है मालूम नहीं

यूँ भी लगता है कि जो मोड़ भी अब आएगा

वो किसी और तरफ़ मुड़ के चली जाएगी,

उगते हुए सूरज की तरफ़

और मैं सीधा ही कुछ दूर अकेला जा कर

शाम के दूसरे सूरज में समा जाऊँगा ! 

बोस्की-२ - गुलज़ार - Gulzar

नाराज़ है मुझसे बोस्की शायद

जिस्म का एक अंग चुप चुप सा है

सूजे से लगते है पांव

सोच में एक भंवर की आँख है

घूम घूम कर देख रही है 

बोस्की,सूरज का टुकड़ा है

मेरे खून में रात और दिन घुलता रहता है

वह क्या जाने,जब वो रूठे

मेरी रगों में खून की गर्दिश मद्धम पड़ने लगती है

कायनात-१ - गुलज़ार - Gulzar

बस चन्द करोड़ों सालों में

सूरज की आग बुझेगी जब

और राख उड़ेगी सूरज से

जब कोई चाँद न डूबेगा

और कोई जमीं न उभरेगी

तब ठंढा बुझा इक कोयला सा

टुकड़ा ये जमीं का घूमेगा

भटका भटका

मद्धम खकिसत्री रोशनी में! 

मैं सोचता हूँ उस वक्त अगर

कागज़ पे लिखी इक नज़्म कहीं उड़ते उड़ते

सूरज में गिरे

तो सूरज फिर से जलने लगे!!

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कायनात-२ - गुलज़ार - Gulzar

अपने"सन्तूरी"सितारे से अगर बात करूं

तह-ब-तह छील के आफ़ाक़ कि पर्तें

कैसे पहुंचेगी मेरी बात ये अफ़लाक के उस पर भला?

कम से कम "नूर की रफ़्तार"से भी जाए अगर

एक सौ सदियाँ तो ख़ामोश ख़लाओं से

गुजरने में लगेंगी

कोई माद्दा है मेरी बात में तो

"नून"के नुक्ते सी रह जाएगी "ब्लैक होल"गुजर के

क्या वो समझेगा?

मैं समझाऊंगा क्या? 

कायनात-३ - गुलज़ार - Gulzar

बहुत बौना है ये सूरज 

हमारी कहकशाँ की इस नवाही सी 'गैलेक्सी'में

बहुत बौना सा ये सूरज जो रौशन है..।

ये मेरी कुल हदों तक रौशनी पहुँचा नहीं पाता

मैं मार्ज़ और जुपिटर से जब गुजरता हूँ

भँवर से,ब्लैक होलों के

मुझे मिलते हैं रस्ते में

सियह गिर्दाब चकराते ही रहते हैं

मसल के जुस्तजु के नंगे सहराओं में वापस

फेंक देते हैं

जमीं से इस तरह बाँधा गया हूँ मैं

गले से ग्रैविटी का दायमी पट्टा नहीं खुलता!

कायनात-४ - गुलज़ार - Gulzar

रात में जब भी मेरी आँख खुले

नंगे पाँव ही निकल जाता हूँ

कहकशाँ छू के निकलती है जो इक पगडंडी

अपने पिछवाड़े के "सन्तुरी" सितारे की तरफ़

दूधिया तारों पे पाँव रखता

चलता रहता हूँ यही सोच के मैं

कोई सय्यारा अगर जागता मिल जाए कहीं

इक पड़ोसी की तरह पास बुला ले शायद

और कहे

आज की रात यहीं रह जाओ

तुम जमीं पर हो अकेले

मैं यहाँ तन्हा हूँ

खुदा-१ - गुलज़ार - Gulzar

बुरा लगा तो होगा ऐ खुदा तुझे,

दुआ में जब,

जम्हाई ले रहा था मैं--

दुआ के इस अमल से थक गया हूँ मैं!

मैं जब से देख सुन रहा हूँ,

तब से याद है मुझे,

खुदा जला बुझा रहा है रात दिन,

खुदा के हाथ में है सब बुरा भला--

दुआ करो!

अजीब सा अमल है ये

ये एक फ़र्जी गुफ़्तगू,

और एकतरफ़ा--एक ऐसे शख्स से,

ख़याल जिसकी शक्ल है

ख़याल ही सबूत है

खुदा-२ - गुलज़ार - Gulzar

मैं दीवार की इस जानिब हूँ ।

इस जानिब तो धूप भी है हरियाली भी!

ओस भी गिरती है पत्तों पर,

आ जाये तो आलसी कोहरा,

शाख पे बैठा घंटों ऊँघता रहता है।

बारिश लम्बी तारों पर नटनी की तरह थिरकती,

आँखों से गुम हो जाती है,

जो मौसम आता है,सारे रस देता है!

लेकिन इस कच्ची दीवार की दूसरी जानिब,

क्यों ऐसा सन्नाटा है

कौन है जो आवाज नहीं करता लेकिन-

दीवार से टेक लगाए बैठा रहता है

खुदा-३ - गुलज़ार - Gulzar

पिछली बार मिला था जब मैं

एक भयानक जंग में कुछ मशरूफ़ थे तुम

नए नए हथियारों की रौनक से काफ़ी खुश लगते थे

इससे पहले अन्तुला में

भूख से मरते बच्चों की लाश दफ्नाते देखा था

और एक बार ...एक और मुल्क में जलजला देखा

कुछ शहरों के शहर गिरा के दूसरी जानिब

लौट रहे थे

तुम को फलक से आते भी देखा था मैंने

आस पास के सय्यारों पर धूल उड़ाते

कूद फलांग के दूसरी दुनियाओं की गर्दिश

तोड़ ताड़ के गेलेक्सीज के महवर तुम

जब भी जमीं पर आते हो

भोंचाल चलाते और समंदर खौलाते हो

बड़े 'इरेटिक' से लगते हो

काएनात में कैसे लोगों की सोहबत में रहते हो तुम

 

खुदा-४ - गुलज़ार - Gulzar

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने 

काले घर में सूरज रख के,

तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,

मैंने एक चिराग जला कर,

अपना रास्ता खोल लिया 

तुमने एक समंदर हाथ में लेकर, मुझ पर ढेल दिया

मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी

काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा

मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया 

मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा

मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया 

 

मौत की शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई

मैंने जिस्म का खोल उतर के सौंप दिया 

और रूह बचा ली 

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाजी

वक्त-१ - गुलज़ार - Gulzar

मैं उड़ते हुए पंछियों को डराता हुआ

कुचलता हुआ घास की कलगियाँ

गिराता हुआ गर्दनें इन दरख्तों की,छुपता हुआ

जिनके पीछे से

निकला चला जा रहा था वह सूरज

तआकुब में था उसके मैं

गिरफ्तार करने गया था उसे

जो ले के मेरी उम्र का एक दिन भागता जा रहा था

वक्त-२ - गुलज़ार - Gulzar

वक्त की आँख पे पट्टी बांध के।

चोर सिपाही खेल रहे थे--

रात और दिन और चाँद और मैं--

जाने कैसे इस गर्दिश में अटका पाँव,

दूर गिरा जा कर मैं जैसे,

रौशनियों के धक्के से

परछाईं जमीं पर गिरती है!

धेय्या छोने से पहले ही--

वक्त ने चोर कहा और आँखे खोल के

मुझको पकड़ लिया

वक्त-३ - गुलज़ार - Gulzar

तुम्हारी फुर्कत में जो गुजरता है,

और फिर भी नहीं गुजरता,

मैं वक्त कैसे बयाँ करूँ , वक्त और क्या है?

कि वक्त बांगे जरस नहीं जो बता रहा है

कि दो बजे हैं,

कलाई पर जिस अकाब को बांध कर

समझता हूँ वक्त है,

वह वहाँ नहीँ है!

वह उड़ चुका

जैसे रंग उड़ता है मेरे चेहरे का, हर तहय्युर पे,

और दिखता नहीं किसी को,

वह उड़ रहा है कि जैसे इस बेकराँ समंदर से

भाप उड़ती है

और दिखती नहीं कहीं भी, 

कदीम वजनी इमारतों में,

कुछ ऐसे रखा है, जैसे कागज पे बट्टा रख दें,

दबा दें, तारीख उड़ ना जाये,

मैं वक्त कैसे बयाँ करूँ, वक्त और क्या है?

कभी कभी वक्त यूँ भी लगता है मुझको

जैसे, गुलाम है!

आफ़ताब का एक दहकता गोला उठा के

हर रोज पीठ पर वह, फलक पर चढ़ता है चप्पा

चप्पा कदम जमाकर,

वह पूरा कोहसार पार कर के,

उतारता है, उफुक कि दहलीज़ पर दहकता

हुआ सा पत्थर,

टिका के पानी की पतली सुतली पे, लौट

जाता है अगले दिन का उठाने गोला ,

और उसके जाते ही

धीरे धीरे वह पूरा गोला निगल के बाहर निकलती है

रात, अपनी पीली सी जीभ खोले,

गुलाम है वक्त गर्दिशों का,

कि जैसे उसका गुलाम मैं हूँ

फ़सादात-१ - गुलज़ार - Gulzar

उफुक फलांग के उमरा हुजूम लोगों का

कोई मीनारे से उतरा, कोई मुंडेरों से

किसी ने सीढियां लपकीं, हटाई दीवारें--

कोई अजाँ से उठा है, कोई जरस सुन कर!

गुस्सीली आँखों में फुंकारते हवाले लिये,

गली के मोड़ पे आकर हुए हैं जमा सभी!

हर इक के हाथ में पत्थर हैं कुछ अकीदों के

खुदा कि जात को संगसार करने आये हैं!!

फ़सादात-२ - गुलज़ार - Gulzar

मौजजा कोई भी उस शब ना हुआ--

जितने भी लोग थे उस रोज इबादतगाह में,

सब के होठों पर दुआ थी,

और आँखों में चरागाँ था यकीं का

ये खुदा का घर है,

जलजले तोड़ नहीं सकते इसे, आग जला सकती नहीं!

सैकड़ों मौजजों कि सब ने हिकायात सुनी थीं 

सैकड़ों नामों से उन सब ने पुकारा उसको ,

गैब से कोई भी आवाज नहीं आई किसी की,

ना खुदा कि  ना पुलिस कि! 

सब के सब भूने गए आग में, और भस्म हुये ।

मौजजा कोई भी उस शब् ना हुआ!

फ़सादात-३ - गुलज़ार - Gulzar

मौजजे होते हैं,-- ये बात सुना करते थे!

वक्त आने पे मगर--

आग से फूल उगे, और ना जमीं से कोई दरिया

फूटा

ना समंदर से किसी मौज ने फेंका आँचल,

ना फलक से कोई कश्ती उतरी!

 

आजमाइश की थी काल रात खुदाओं के लिये

काल मेरे शहर में घर उनके जलाये सब ने!!

फ़सादात-४ - गुलज़ार - Gulzar

अपनी मर्जी से तो मजहब भी नहीं उसने चुना था,

उसका मज़हब था जो माँ बाप से ही उसने

विरासत में लिया था

 

अपने माँ बाप चुने कोई ये मुमकिन ही कहाँ है

मुल्क में मर्ज़ी थी उसकी न वतन उसकी रजा से

 

वो तो कुल नौ ही बरस का था उसे क्यों चुनकर,

फिर्कादाराना फसादात ने कल क़त्ल किया

 फ़सादात-५ - गुलज़ार - Gulzar

आग का पेट बड़ा है!

आग को चाहिए हर लहजा चबाने के लिये

खुश्क करारे पत्ते,

आग कर लेती है तिनकों पे गुजारा लेकिन--

आशियानों को निगलती है निवालों की तरह,

आग को सब्ज हरी टहनियाँ अच्छी नहीं लगतीं,

ढूंढती है, कि कहीं सूखे हुये जिस्म मिलें!

 

उसको जंगल कि हवा रास बहुत है फिर भी,

अब गरीबों कि कई बस्तियों पर देखा है हमला करते,

आग अब मंदिरों-मस्जिद की गजा खाती है!

लोगों के हाथों में अब आग नहीं--

आग के हाथों में कुछ लोग हैं अब

फ़सादात-६ - गुलज़ार - Gulzar

शहर में आदमी कोई भी नहीं क़त्ल हुआ,

नाम थे लोगों के जो, क़त्ल हुये।

सर नहीं काटा, किसी ने भी, कहीं पर कोई--

लोगों ने टोपियाँ काटी थीं कि जिनमें सर थे!

 

और ये बहता हुआ सुर्ख लहू है जो सड़क पर,

ज़बह होती हुई आवाजों की गर्दन से गिरा था

मुंबई - गुलज़ार - Gulzar

रात जब मुंबई की सड़कों पर

अपने पंजों को पेट में लेकर

काली बिल्ली की तरह सोती है

अपनी पलकें नहीं गिराती कभी,--

साँस की लंबी लंबी बौछारें

उड़ती रहती हैं खुश्क साहिल पर!

आँसू-१ - गुलज़ार - Gulzar

अल्फाज जो उगते, मुरझाते, जलते, बुझते

रहते हैं मेरे चारों तरफ,

अल्फाज़ जो मेरे गिर्द पतंगों की सूरत उड़ते

रहते हैं रात और दिन

इन लफ़्ज़ों के किरदार हैं, इनकी शक्लें हैं,

रंग रूप भी हैं-- और उम्रें भी!

 

कुछ लफ्ज़ बहुत बीमार हैं, अब चल सकते नहीं,

कुछ लफ्ज़ तो बिस्तरेमर्ग पे हैं,

कुछ लफ्ज़ हैं जिनको चोटें लगती रहती हैं,

मैं पट्टियाँ करता रहता हूँ!

अल्फाज़ कई, हर चार तरफ बस यू हीं

थूकते रहते हैं,

गाली की तरह

मतलब भी नहीं, मकसद भी नहीं

कुछ लफ्ज़ हैं मुँह में रखे हुए

चुइंगगम की तरह हम जिनकी जुगाली करते हैं!

लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं,

और काट लें तो फिर उनके जख्म नहीं भरते!

हर रोज मदरसों में 'टीचर' आते है गालें भर भर के,

छः छः घंटे अल्फाज लुटाते रहते हैं,

बरसों के घिसे, बेरंग से, बेआहंग से,

फीके लफ्ज़ कि जिनमे रस भी नहीं,

मानि भी नहीं!

 

एक भीगा हुआ, छ्ल्का छल्का, वह लफ्ज़ भी है,

जब दर्द छुए तो आँखों में भर आता है

कहने के लिये लब हिलते नहीं,

आँखों से अदा हो जाता है!!

आँसू-२ - गुलज़ार - Gulzar

सुना है मिट्टी पानी का अज़ल से एक रिश्ता है,

जड़ें मिट्टी में लगती हैं,

जड़ों में पानी रहता है।

 

तुम्हारी आँख से आँसू का गिरना था कि दिल

में दर्द भर आया,

ज़रा से बीज से कोंपल निकल आयी!!

 

जड़े मिट्टी में लगती हैं,

जड़ों में पानी रहता है!!

आँसू-३ - गुलज़ार - Gulzar

शीशम अब तक सहमा सा चुपचाप खड़ा है,

भीगा भीगा ठिठुरा ठिठुरा।

बूँदें पत्ता पत्ता कर के,

टप टप करती टूटती हैं तो सिसकी की आवाज

आती है!

बारिश के जाने के बाद भी,

देर तलक टपका रहता है!

 

तुमको छोड़े देर हुई है--

आँसू अब तक टूट रहे हैं

बुड्ढा दरिया-१ - गुलज़ार - Gulzar

मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है

ये बुड्ढा दरिया!

 

कोई पूछे तुझको क्या लेना, क्या लोग किनारों

पर करते हैं,

तू मत सुन, मत कान लगा उनकी बातों पर!

घाट पे लच्छी को गर झूठ कहा है साले माधव ने,

तुझको क्या लेना लच्छी से? जाये,जा के डूब मरे!

 

यही तो दुःख है दरिया को!

जन्मी थी तो "आँवल नाल" उसी के हाथ में सौंपी

थी झूलन दाई ने,

उसने ही सागर पहुचाये थे वह "लीडे",

कल जब पेट नजर आयेगा, डूब मरेगी

और वह लाश भी उसको ही गुम करनी होगी!

लाश मिली तो गाँव वाले लच्छी को बदनाम करेंगे! 

मुँह ही मुँह, कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है

ये बुड्ढा दरिया!!

बुड्ढा दरिया-२ - गुलज़ार - Gulzar

मुँह ही मुँह, कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है

ये बुड्ढा दरिया

 

दिन दोपहरे, मैंने इसको खर्राटे लेते देखा है

ऐसा चित बहता है दोनों पाँव पसारे

पत्थर फेंकें , टांग से खेंचें, बगले आकर चोंच मारें

टस से मस होता ही नहीं है

चौंक उठता है जब बारिश की बूँदें

आ कर चुभती हैं

धीरे धीरे हांफने लाग जाता है उसके पेट का पानी।

तिल मिल करता, रेत पे दोनों बाहें मारने लगता है

बारिश पतली पतली बूंदों से जब उसके पेट में

गुदगुद करती है!

 

मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता रहता है

ये बुड्ढा दरिया!!

बुड्ढा दरिया-३ - गुलज़ार - Gulzar

मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है

ये बुड्ढा दरिया!

 

पेट का पानी धीरे धीरे सूख रहा है,

दुबला दुबला रहता है अब!

कूद के गिरता था ये जिस पत्थर से पहले,

वह पत्थर अब धीरे से लटका के इस को

अगले पत्थर से कहता है,--

इस बुड़ढे को हाथ पकड़ के, पार करा दे!!

 

मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता, बहता रहता

है ये दरिया!

छोटी छोटी ख्वाहिशें हैं कुछ उसके दिल में--

रेत पे रेंगते रेंगते सारी उम्र कटी है,

पुल पर चढ के बहने की ख्वाहिश है दिल में! 

जाडो में जब कोहरा उसके पूरे मुँह पर आ जाता है,

और हवा लहरा के उसका चेहरा पोंछ के जाती है--

ख्वाहिश है कि एक दफा तो

वह भी उसके साथ उड़े और

जंगल से गायब हो जाये!!

कभी कभी यूँ भी होता है,

पुल से रेल गुजरती है तो बहता दरिया,

पल के पल बस रुक जाता है

दरिया - गुलज़ार - Gulzar

इतनी सी उम्मीद लिये--

शायद फिर से देख सके वह, इक दिन उस

लड़की का चेहरा,

जिसने फूल और तुलसी उसको पूज के अपना

वर माँगा था--

 

उस लड़की की सूरत उसने,

अक्स उतारा था जब से, तह में रख ली थी!!

पेन्टिंग-१ - गुलज़ार - Gulzar

खड़खड़ाता हुआ निकला है उफ़ुक से सूरज,

जैसे कीचड़ में फँसा पहिया धकेला हो किसी ने

चिब्बे टिब्बे से किनारों पे नज़र आते हैं।

रोज़ सा गोल नहीं है!

उधरे-उधरे से उजाले हैं बदन पर

उर चेहरे पे खरोचों के निशाँ हैं!!

पेन्टिंग-२ - गुलज़ार - Gulzar

रात जब गहरी नींद में थी कल

एक ताज़ा सफ़ेद कैनवस पर,

आतिशी सुर्ख रंगों से,

मैंने रौशन किया था इक सूरज!

 

सुबह तक जल चुका था वह कैनवस,

राख बिखरी हुई थी कमरे में!!

पेन्टिंग-३

"जोरहट" में, एक दफ़ा

दूर उफ़ुक के हलके हलके कोहरे में

'हेमन बरुआ' के चाय बागान के पीछे,

चान्द कुछ ऐसे रखा थ,

जैसे चीनी मिट्टी की,चमकीली 'कैटल' राखी हो!

बादल-१ - गुलज़ार - Gulzar

रात को फिर बादल ने आकर

गीले गीले पंजों से जब दरवाजे पर दस्तक दी,

झट से उठ के बैठ गया मैं बिस्तर में

 

अक्सर नीचे आकर रे कच्ची बस्ती में,

लोगों पर गुर्राता है

लोग बेचारे डाम्बर लीप के दीवारों पर

बंद कर लेते हैं झिरयाँ

ताकि झाँक ना पाये घर के अंदर

 

लेकिन, फिर भी

गुर्राता, चिन्घार्ता बादल

अक्सर ऐसे लूट के ले जाता है बस्ती,

जसे ठाकुर का कोई गुंडा,

बदमस्ती करता निकले इस बस्ती से!!

बादल-२ - गुलज़ार - Gulzar

कल सुबह जब बारिश ने आकर खिड़की पर

दस्तक दी, थी

नींद में था मैं बाहर अभी अँधेरा था!

 

ये तो कोई वक्त नहीं था, उठ कर उससे मिलने का!

मैंने पर्दा खींच दिया--

गीला गीला इक हवा का झोंका उसने

फूँका मेरे मुँह पर, लेकिन

मेरी 'सेन्स आफ ह्युमर' भी कुछ नींद में थी

मैंने उठकर ज़ोर से खिड़की के पट

उस पर भेड़ दिए

और करवट लेकर फिर बिस्तर में डूब गया!

शयद बुरा लगा था उसको

गुस्से में खिड़की के काँच पे

हत्थड़ मार के लौट गयी वह, दोबारा फिर

आयी नहीं --

खिड़की पर वह चटखा काँच अभी बाकी है!!

पड़ोसी-१- गुलज़ार - Gulzar

कुछ दिन से पड़ोसी के

घर में सन्नाटा है,

ना रेडियो चलता है,

ना रात को आँगन में

उड़ते हुए बर्तन हैं। 

उस घर का पला कुत्ता

खाने के लिये दिन भर,

आ जाता है मेरे घर

फिर रात उसी घर की

दहलीज पे सर रखकर

सो जाया करता है!

पड़ोसी-२ - गुलज़ार - Gulzar

आँगन के अहाते में

रस्सी पे टंगे कपड़े

अफसाना सुनाते हैं

एहवाल बताते हैं

कुछ रोज़ रूठाई के,

माँ बाप के घर रह कर

फिर मेरे पड़ोसी की

बीबी लौट आयी है।

 

दो चार दिनों में फिर,

पहले सी फ़िज़ा होगी,

आकाश भरा होगा,

और रात को आँगन से

कुछ "कामेट" गुज़रेंगे!

कुछ तश्तरियां उतरेंगीं!

किताबें - गुलज़ार - Gulzar

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से

बड़ी हसरत से तकती हैं

महीनों अब मुलाकातें नहीं होती

जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं,

अब अक्सर

गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पर्दों पर

बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें..

इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई हैं,

बड़ी हसरत से तकती हैं,

 

जो क़दरें वो सुनाती थीं।

कि जिनके 'सैल'कभी मरते नहीं थे

वो क़दरें अब नज़र आती नहीं घर में

जो रिश्ते वो सुनती थीं

वह सारे उधरे-उधरे हैं

कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है

कई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं

बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़

जिन पर अब कोई माने नहीं उगते

बहुत सी इसतलाहें हैं

जो मिट्टी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी हैं

गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला

 ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने का

अब ऊँगली 'क्लिक'करने से अब

झपकी गुज़रती है

बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर

किताबों से जो ज़ाती राब्ता था,कट गया है

कभी सीने पे रख के लेट जाते थे

कभी गोदी में लेते थे,

कभी घुटनों को अपने रिहल की सुरत बना कर

नीम सज़दे में पढ़ा करते थे,छूते थे जबीं से

वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी

मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल

और महके हुए रुक्के

किताबें मांगने,गिरने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे

उनका क्या होगा?

वो शायद अब नहीं होंगे!

आईना-१ - गुलज़ार - Gulzar

ये आइना बोलने लगा है,

मैं जब गुजरता हूँ सीढ़ियों से,

ये बातें करता है--आते जाते में पूछता है

"कहाँ गई वह फतुई तेरीये कोट नेक-टाई तुझपे फबती नहीं, ये

मनसूई लग रही है

ये मेरी सूरत पे नुक्ताचीनी तो ऐसी करता है

जैसे मैं उसका अक्स हूँ

और वो जायजा ले रहा है मेरा।

"तुम्हारा माथा कुशादा होने लगा है लेकिन,

तुम्हारे 'आइब्रो' सिकुड़ रहे हैं

तुम्हरी आँखों का फासला कमता जा रहा है

तुम्हारे माथे की बीच वाली शिकन बहुत गहरी

हो गई है

 

कभी कभी बेतकल्लुफी से बुलाकर कहता है!

"यार भोलू-

तुम अपने दफ्तर की मेज़ की दाहिनी तरफ की

दराज में रख के

भूल आये हो मुस्कराहट,

जहाँ पे पोशीदा एक फाइल रखी थी तुमने

वो मुस्कुराहट भी अपने होठों पे चस्पाँ कर लो,"

 

इस आईने को पलट के दीवार की तरफ भी

लगा चुका हूँ--

ये चुप तो हो जाता है मगर फिर भी देखता है--

ये आइना देखता बहुत है!

ये आइना बोलता बहुत है!!

आईना-२ - गुलज़ार - Gulzar

मैं जब भी गुजरा हूँ इस आईने से,

इस आईने ने कुतर लिया कोई हिस्सा मेरा।

इस आईने ने कभी मेरा पूरा अक्स वापस

नहीं किया है--

छुपा लिया मेरा कोई पहलू,

दिखा दिया कोई ज़ाविया ऐसा,

जिससे मुझको,मेरा कोई ऐब दिख ना पाए।

 

मैं खुद को देता रहूँ तसल्ली

कि मुझ सा तो दूसरा नहीं है

उलझन - गुलज़ार - Gulzar

एक पशेमानी रहती है

उलझन और गिरानी भी..

आओ फिर से लड़कर देंखें

शायद इससे बेहतर कोई

और सबब मिल जाए हमको

फिर से अलग हो जाने का!!

ग़ालिब - गुलज़ार - Gulzar

रात को अक्सर होता है,परवाने आकर,

टेबल लैम्प के गिर्द इकट्ठे हो जाते हैं

सुनते हैं,सर धुनते हैं

सुन के सब अश'आर गज़ल के

जब भी मैं दीवान-ए-ग़ालिब

खोल के पढ़ने बैठता हूँ

सुबह फिर दीवान के रौशन सफ़हों से

परवानों की राख उठानी पड़ती है

पंचम - गुलज़ार - Gulzar

याद है बारिशों का दिन पंचम

जब पहाड़ी के नीचे वादी में,

धुंध से झाँक कर निकलती हुई,

रेल की पटरियां गुजरती थीं

धुंध में ऐसे लग रहे थे हम,

जैसे दो पौधे पास बैठे हों,।

हम बहुत देर तक वहाँ बैठे,

उस मुसाफिर का जिक्र करते रहे,

जिसको आना था पिछली शब, लेकिन

उसकी आमद का वक्त टलता रहा!

 

देर तक पटरियों पे बैठे हुये

ट्रेन का इंतज़ार करते रहे।

ट्रेन आई, ना उसका वक्त हुआ,

और तुम यों ही दो कदम चलकर,

धुंद पर पाँव रख के चल भी दिए 

मैं अकेला हूँ धुंध में पंचम!!

वैनगॉग का एक खत - गुलज़ार - Gulzar

तारपीन तेल में कुछ घोली हुयी धूप की डलियाँ,

मैंने कैनवस पर बिखेरी थीं,मगर

क्या करूं लोगों को उस धुप में रंग दिखते नहीं!

 

मुझसे कहता था 'थियो' चर्च की सर्विस कर लूं--

और उस गिरजे की खिदमत में गुजारूँ मैं

शबोरोज जहाँ--

रात को साया समझते हैं सभी, दिन को सराबों

का सफर!

उनको माद्दे की हकीकत तो नज़र आती नहीं,

मेरी तस्वीरों को कहते है तखय्युल हैं,

ये सब वाहमा हैं!

 

मेरे 'कैनवस' पे बने पेड़ की तफसील तो देखें,

मेर तखलीक खुदावंद के उस पेड़ से कुछ कम

तो नहीं है!

 

उसने तो बीज को इक हुक्म दिया था शायद,

पेड़ उस बीज की ही कोख में था, और नुमायाँ

भी हुआ!

जब कोई टहनी झुकी, पत्ता गिरा, रंग अगर जर्द हुआ,

उस मुसव्विर ने कहाँ दखल दिया थ,

जो हुआ सो हुआ--

 

मैंने हार शाख पे, पत्तों के रंग रूप पे मेहनत की है,

उस हकीकत को बयां करने में जो हुस्ने -हकीकत

है असल में

 

इन दरख्तों का ये संभला हुआ कद तो देखो,

कैसे खुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मगरूर नहीं,

इनको शे`रों की तरह मैंने किया है मौज़ूँ!

देखो तांबे की तरह कैसे दहकते है खिज़ां के पत्ते,

 

"कोयला कानों" में झोंके हुये मजदूरों की शक्लें,

लालटेनें हैं, जो शब देर तलक जलती रहीं

आलुओं पर जो गुजर करते हैं कुछ लोग,

"पोटेटो ईटर्ज़'

एक बत्ती के तले, एक ही हाले में बाधे लगते हैं सारे!

 

मैंने देखा था हवा खेतों से जब भाग रही थी,

अपने कैनवस पे उसे रोक लिया------

'रोलाँ' वह 'चिठ्ठी रसां',और वो स्कूल में

पढता लड़का,

'ज़र्द खातून', पड़ोसन थी मेरी,------

फानी लोगों को तगय्युर से बचा कर, उन्हें

कैनवस पे तवारीख की उम्रें दी हैं--!

सालहा साल ये तस्वीरें बनायीं मैंने,

मेरे नक्काद मगर बोले नहीं--

उनकी ख़ामोशी खटकती थी मेरे कनों में,

उस पे तस्वीर बनाते हुये इक कव्वे की वह

चीख पुकार-

कव्व खिड़की पे नहीं, सीधा मेरे कान पे आ

बैठता था,

कान ही काट दिया है मैंने!

 

मेरे 'पैलेट' पे रखी धूप तो अब सूख गयी है,

तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,

आसमां उसका बिछाने के लिये------

चंद बालिश्त का कैनवस भी मेरे पास नहीं है!

 

मैं यहाँ "रेमी" में हूँ,

"सेंट रेमी" के दवाखानों में थोड़ी सी मरम्मत के

लिये भर्ती हुआ हूँ!

उनका कहना है कई पुर्जे मेरे ज़हन के अब

ठीक नहीं हैं--

मुझे लगता है वो पहले से सवा तेज है अब!

गुब्बारे - गुलज़ार - Gulzar

इक सन्नाटा भरा हुआ था,

एक गुब्बारे से कमरे में,

तेरे फोन की घंटी के बजने से पहले।

बासी सा माहौल ये सारा

थोड़ी देर को धड़का था

साँस हिली थी, नब्ज़ चली थी,

मायूसी की झिल्ली आँखों से उतरी कुछ लम्हों को

फिर तेरी आवाज़ को, आखरी बार "खुदा हाफिज़"

कह के जाते देखा था!

इक सन्नाटा भरा हुआ है,

जिस्म के इस गुब्बारे में,

तेरी आखरी फोन के बाद--!!

देर आयद - गुलज़ार - Gulzar

आठ ही बिलियन उम्र जमीं की होगी शायद

ऐसा ही अंदाज़ा है कुछ 'साइंस' का

चार अशारिया छः बिलियन सालों की उम्र तो

बीत चुकी है

कितनी देर लगा दी तुम ने आने में

और अब मिल कर

किस दुनिया की दुनियादारी सोच रही हो

किस मज़हब और ज़ात और पात की फ़िक्र लगी है

आओ चलें अब-

तीन ही 'बिलियन' साल बचे हैं!

 

ऐना कैरेनिना - गुलज़ार - Gulzar

"वर्थ" जो सेंट है मिट्टी का

"वर्थ" जो तुमको भला लगता है

"वर्थ" के सेंट की खुश्बू थी थियेटर में,

गयी रात के शो में,

तुमको देखा तो नहीं,सेंट की खुश्बू से

नज़र आती रही तुम!

दो दो फिल्में थीं,बयक वक्त जो पर्दे पे र'वां थीं,

पर्दे पर चलती हुयी फिल्म के साथ,

और इक फिल्म मेरे जहन पे भी चलती रही!

 

'एना'के रोल में जब देख रहा था तुमको,

'टॉयस्टॉय'की कहानी में हमारी भी कहानी के

सिरे जुड़ने लगे थे--

सूखी मिट्टी पे चटकती हुई बारिश का वह मंजर,

घास के सोंधे,हरे रंग,

जिस्म की मिट्टी से निकली हुयी खुश्बू की वो यादें--

 मंजर-ए-रक्स में सब देख रहे तुम को,

और मैं पाँव के उस ज़ख्मी अंगूठे पे बंधी पट्टी को,

शॉट के फ्रेम में जो आई ना थी

और वह छोटा अदाकार जो उस रक्स में

बे वजह तुम्हें छू के गुज़रता था,

जिसे झिड़का था मैंने!

मैंने कुछ शाट तो कटवा भी दिए थे उस के

 

कोहरे के सीन में,सचमुच ही ठिठुरती हुयी

महसूस हुयीं

हाँलाकि याद था गर्मी में बड़े कोट से

उलझी थीं बहुत तुम!

और मसनुई धुएँ ने जो कई आफतें की थीं,

हँस के इतना भी कहा था तुमने!

"इतनी सी आग है,

और उस पे धुएँ को जो गुमां होता है वो

कितना बड़ा है "

बर्फ के सीन में उतनी ही हसीं थी कल रात,

जिसनी उस रात थीं,फिल्म के पहलगाम से

जब लौटे थे दोनों,

और होटल में ख़बर थी कि तुम्हारे शौहर,

सुबह की पहली फ्लाईट से वहाँ पहुँचे हुए हैं।

 

रात की रात,बहुत कुछ था जो तबदील हुआ,

तुमने उस रात भी कुछ गोलियाँ कहा लेने की

कोशिश की थी,

जिस तरह फिल्म के आखिर में भी

"एना कैरेनिना"

ख़ुदकुशी करती है,इक रेल के नीचे आ कर

 

आखिरी सीन में जी चाहा कि मैं रोक दूँ उस

रेल का इंजन,

आँखे बंद कर लीं,कि मालूम था वह'एन्ड'मुझे!

पसेमंजर में बिलकती हुयी मौसीकी ने उस

रिश्ते का अन्जाम सुनाया,

जो कभी बाँधा था हमने! 

"वर्थ" के सेंट की खुश्बू थी,थिएटर में,

गयी रात बहुत!

खबर है - गुलज़ार - Gulzar

निज़ामे-जहाँ,पढ़ के देखो तो कुछ इस तरह

चल रहा है!

इराक़ और अमरीका की जंग छिड़ने के इमकान

फिर बढ़ गए हैं।

अलिफ़ लैला की दास्ताँ वाला वो शहरे-बग़दाद

बिल्कुल तबाह हो चुका है।

ख़बर है किसी शख्स ने गंजे सर पर भी अब

बाल उगने की एक 'पेस्ट'ईज़ाद की है!

कपिलदेव ने चार सौ विकेटों का अपना

रिकार्ड कायम किया है।

ख़बर है कि डायना और चार्ल्स अब,क्रिसमस

से पहले अलग हो रहे हैं।

किरोशा और सिलवानिया भी अलग होने ही

के लिए लड़ रहे हैं।

प्लास्टिक पे दस फ़ीसदी टैक्स फिर बढ़ गया है।

 

ये पहली नवम्बर की खबरें है सारी,--

निज़ामे जहाँ इस तरह चल रहा है!

 

मगर ये ख़बर तो कहीं भी नहीं है ,

कि तुम मुझसे नाराज़ बैठी हुई हो--

निज़ामे-जहाँ किस तरह चल रहा है?

बौछार - गुलज़ार - Gulzar

मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको,

तेरा चेहरा भी अब धुँधलाने लगा है अब तखय्युल में,

बदलने लग गया है अब यह सुब-हो-शाम का

मामूल,जिसमें,

तुझसे मिलने का ही इक मामूल शामिल था! 

तेरे खत आते रहते थे तो मुझको याद रहते थे

तेरी आवाज़ के सुर भी!

तेरी आवाज़ को कागज़ पे रख के,मैंने चाहा

था कि 'पिन' कर लूँ,

वो जैसे तितलिओं के पर लगा लेता है कोई

अपनी अलबम में--!

तेरा 'बे'को दबा कर बात करना,

"वाव" पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम

जाता था--!

बहुत दिन हो गए देखा नहीं,ना खत मिला कोई--

बहुत दिन हो गए सच्ची!!

तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं!

इक नज़्म - गुलज़ार - Gulzar

ये राह बहुत आसान नहीं,

जिस राह पे हाथ छुड़ा कर तुम

यूँ तन तन्हा चल निकली हो

इस खौफ़ से शायद राह भटक जाओ ना कहीं

हर मोड़ पर मैंने नज़्म खड़ी कर रखी है!

 थक जाओ अगर-

और तुमको ज़रूरत पड़ जाए,

इक नज़्म की ऊँगली थाम के वापस आ जाना!

अगर ऐसा भी हो सकता - गुलज़ार - Gulzar

अगर ऐसा भी हो सकता---

तुम्हारी नींद में,सब ख़्वाब अपने मुंतकिल करके,

तुम्हें वो सब दिखा सकता,जो मैं ख्वाबो में

अक्सर देखा करता हूँ--!

ये हो सकता अगर मुमकिन-

तुम्हें मालूम हो जाता--

तुम्हें मैं ले गया था सरहदों के पार "दीना" में।

तुम्हें वो घर दिखया था,जहाँ पैदा हुआ था मैं,

जहाँ छत पर लगा सरियों का जंगला धूप से दिनभर

मेरे आंगन में सतरंजी बनाता था,मिटाता था--!

दिखायी थी तुम्हें वो खेतियाँ सरसों की "दीना"

में कि जिसके पीले-पीले फूल तुमको

ख़ाब में कच्चे खिलाए थे।

वहीं इक रास्ता था,"टहलियों" का,जिस पे

मीलों तक पड़ा करते थे झूले,सोंधे सावन के

उसी की सोंधी खुश्बू से,महक उठती हैं आँखे

जब कभी उस ख़्वाब से गुज़रूं!

तुम्हें 'रोहतास' का 'चलता-कुआँ' भी तो

दिखाया था,

किले में बंद रहता था जो दिन भर,रात को

गाँव में आ जाता था,कहते हैं,

तुम्हें "काला" से "कालूवाल" तक ले कर

उड़ा हूँ मैं

तुम्हें "दरिया-ए-झेलम"पर अजब मंजर दिखाए थे

जहाँ तरबूज़ पे लेटे हुये तैराक लड़के बहते रहते थे--

जहाँ तगड़े से इक सरदार की पगड़ी पकड़ कर मैं,

नहाता,डुबकियाँ लेता,मगर जब गोता आ

जाता तो मेरी नींद खुल जाती!!

मग़र ये सिर्फ़ ख्वाबों ही में मुमकिन है

वहाँ जाने में अब दुश्वारियां हैं कुछ सियासत की।

वतन अब भी वही है,पर नहीं है मुल्क अब मेरा

वहाँ जाना हो अब तो दो-दो सरकारों के

दसियों दफ्तरों से

शक्ल पर लगवा के मोहरें ख़्वाब साबित

करने पड़ते है।

 

(दीना=गुलज़ार का पैदाइशी कस्बा, जो कि आज जिला-झेलम,

पंजाब,पाकिस्तान में है, रोहतास,काला,कालूवाल= ये सब ज़िला

झेलम के मारुफ मकामात हैं)

नशीरुद्दीन शाह के लिये - गुलज़ार - Gulzar

इक अदाकार हूँ मैं!

मैं अदाकार हूँ ना

जीनी पड़ती है कई जिंदगियां एक हयाती में मुझे!

 

मेरा किरदार बदल जाता है , हर रोज ही सेट पर

मेरे हालात बदल जाते हैं

मेरा चेहरा भी बदल जाता है,

अफसाना-ओ-मंज़र के मुताबिक़

मेर आदात बदल जाती हैं।

और फिर दाग़ नहीं छूटते पहनी हुई पोशाकों के

खस्ता किरदारों का कुछ चूरा सा रह जाता है तह में

कोई नुकीला सा किरदार गुज़रता है रगों से

तो खराशों के निशाँ देर तलक रहते हैं दिल पर

ज़िन्दगी से ये उठाए हुए किरदार

खयाली भी नहीं हैं

कि उतर जाएँ वो पंखे की हवा से

स्याही रह जाती है सीने में,

अदीबों के लिखे जुमलों की

सीमीं परदे पे लिखी

साँस लेती हुई तहरीर नज़र आता हूँ

मैं अदाकार हूँ लेकिन

सिर्फ अदाकार नहीं

वक़्त की तस्वीर भी हूँ

कोहसार - गुलज़ार - Gulzar

नुचे छीले गए कोहसार ने कोशिश तो की

गिरते हुए इक पेड़ को रोकें,

मगर कुछ लोग कंधे पर उठा कर उसको

पगडंडी के रस्ते ले गये थे--कारखानों में!

फलक को देखता ही रह गया पथराइ आँखों से! 

बहुत नोची है मेरी खाल इंसाँ ने,

बहुत छीलें हैं मेरे सर से जंगल उसके तेशों ने,

मेरे दरियाओं,

मेरे आबसारों को बहुत नंगा किया है,

इस हवस आलूद--इंसाँ ने--!!

मेरा सीना तो फट जाता है लावे से,

मगर इंसान का सीना नहीं फटता

वह पत्थर है

रात - गुलज़ार - Gulzar

मेरी दहलीज़ पर बैठी हुयी जानो पे सर रखे

ये शब अफ़सोस करने आई है कि मेरे घर पे

आज ही जो मर गया है दिन

वह दिन हमजाद था उसका!

 

वह आई है कि मेरे घर में उसको दफ्न कर के,

इक दीया दहलीज़ पे रख कर,

निशानी छोड़ दे कि मह्व है ये कब्र,

इसमें दूसरा आकर नहीं लेटे!

 

मैं शब को कैसे बतलाऊँ,

बहुत से दिन मेरे आँगन में यूँ आधे अधूरे से

कफ़न ओढ़े पड़े हैं कितने सालों से,

जिन्हें मैं आज तक दफना नही पाया

वारदात - गुलज़ार - Gulzar

दो बजने में आठ मिनट थे--

जब वह भारी बोरियों जैसी टांगों से बिल्डिंग

की छत पर पहुँचा था

थोड़ी देर को छत के फर्श पर बैठ ग़या था

 

छत पर एक कबाड़ी घर था,

सूखा सुकड़ा तिल्ले वाला, सूद निचोडू जागीरे,

का जूता वो पहचानता था,

इस बिल्डिंग में जिसका जो सामान मरा, बेकार

हुआ, वो ऊपर ला के फेंक गया!

 

उसके पास तो कितना कुछ था,--

कितना कुछ जो टूट चुका है, टूट रहा है--

शौहर और वतन की छोड़ी हमशीरा कल पाकिस्तान

से बच्चे लेकर लौट आई है!

सब के सब कुछ खाली बोतलों डिब्बों जैसे लगते हैं,

चिब्बे, पिचके, बिन लेबल के!

सुबह भी देखा तो बूढी दादी सोयी हुई थी,--

मरी नहीं थी!

जब दोपहर को, पानी पी कर, छत पर आया था

वो तब भी ,

मरी नहीं थी, सोयी हुई थी!

जी चाहा उसको भी ला कर छत पे फेंक दे,

जैसे टूटे एक पलंग की पुश्त पड़ी है!

 

दूर किसी घड़ियाल ने साढ़े चार बजाये,

दो बजने में आठ मिनट थे, जब वो छत पर आया था!

सीढियाँ चढ़ते चढ़ते उसने सोच लिया था,

जब उस पार "ट्रैफिक लाइट" बदलेगी

रुक जायेंगी सारी कारें,

तब वो पानी की टंकी के उपर चढ के, "पैरापेट" पर

उतरेगा, और --

चौदहवीं मंजिल से कूदेगा!

उसके बाद अँधेरे का इक वक़फा होगा!

क्या वो गिरते गिरते आँखें बंद कर लेगा?

या आँखें कुछ और ज्यादा फट जायेंगी?

या बस-सब कुछ बुझ जायेगा?

गिरते गिरते भी उसने लोगों का इक कोहराम सुना!

और लहू के छीटें, उड़ कर पोपट की दूकान

के ऊपर तक भी जाते देख लिये थे! 

रात का एक बजा था जब वह सीढियों से

फिर नीचे उतरा,

और देखा फुटपाथ पे आ कर,

'चॉक' से खींचा, लाश का नक्शा वहीँ पड़ा था,

जिसको उसने छत के एक कबाड़ी घर से फेंका था--!!

खुश आमदेद - गुलज़ार - Gulzar

और अचानक 

तेज हवा के झोंके ने कमरे में आ कर हलचल कर दी --

परदे ने लहरा के मेज़ पे रखी ढेर सी कांच की चीज़ें उलटी कर दीं--

फड फड करके एक किताब ने जल्दी से मुंह ढांप लिया --

एक दवात ने गोता खाके सामने रखे जितने भी कोरे कागज़ थे सबको रंग डाला --

दीवारों पे लटकी तस्वीरों ने भी हैरत से गर्दन तिरछी कर के देखा तुमको !

फिर से आना ऐसे ही तुम

और भर जाना कमरे में!

सिद्धार्थ की वापसी - गुलज़ार - Gulzar

सिद्धार्थ की वापसी

"कपिल अवस्तु" दूर नहीं है,

कपिल नगर के बाहर जंगल, कुछ छिदरा छिदरा लगता है!

क्या लोगों ने सूखने से पहले ही काट दिए हैं पेड़,

या शाख़ें ही जल्दी उतर जाती हैं अब इन पेड़ों की?

 

कपिल नगर से बाहर जाते उस कच्चे रास्ते से आख़िर कौन गया है,

रस्ता अब तक हांफ रहा है!

उस मिट्टी की तह के नीचे,

मेरे रथ के पहियों कि पुरजोर खरोचें,--

उन राहों को याद तो होंगी--

 

बुद्धं शरणम् गच्छामि का जाप मुसलसल जारी है,

"आनंदन" और "राघव" के होंठो पर

जो मेरे साथ चले आये हैं!

उनके होने से मन में कुछ साहस भी है--

'साहस' और 'डर' एक ही साँस के सुर हैं दोनों--

आरोही, अवरोही, जैसे चलते हैं 

और 'अना' ये मेरी कि मैं रहबर हूँ

त्यागी भी हूँ

राजपाट का त्याग किया है,

पत्नी और संतान के होते.

क्या ये भी एक 'अना' है मेरी?

या चेहरे पर जड़ा हुआ ये,

दो आँखों का एक तराजू

क्या खोया, क्या पाया, तौलता रहता है 

शहर की सीमा पर आते ही, साँस के लय में फर्क आया है--

पिंजरे में एक बेचैनी ने पर फड़के हैं!

जाते वक़्त ये पगडण्डी तो,

बाहर कि जानिब उठ उठ कर देखा करती थी!

लौटते वक़्त ये पाँव पकड़ के,

घर कि जानिब क्यूँ मुड़ती है?


मैं सिद्धार्थ था,

जब इस बरगद के नीचे चोला बदला था,

बारह साल में कितना फैल गया है घेरा इस बरगद का,

कद्द भी अब उंचा लगता है,--

"राहुल" का कद्द क्या मेरी नाभि तक होगा?

मुझ पर है तो कान भी उसके लम्बे होंगे--

माँ ने छिदवाए हों शायद--

रंग और आँखें, लगता था माँ से पायी हैं

राज कुँवर है, घोडा दौडाता होगा अब,

'यश' क्या रथ पर जाने देती होगी उसको?

 

बुद्धं शरणम् गच्छामि, और बुद्धं शरणम् गच्छामि--

ये जाप मुसलसल सुनते सुनते,

अब लगता है जैसे मंतर नहीं, चेतावनी है ये--

"मुक्ति राह" से बाहर आना,--

अब उतना ही मुश्किल है, जितना संसार से बाहर जाना मुश्किल था

क्यूँ लौटा हूँ?

क्या था जो मैं छोड़ गया था---

कौन सा छाज बिखेर गया था,

और बटोरने आया हूँ मैं--

उठते उठते शायद मेरी झोली से,

सम्बन्ध भरा इक थाल गिरा था--

गूँज हुई थी, लेकिन मैं ही वो आवाज़ फलाँग आया था---

 

हर सम्बन्ध बंधा होता है,

दोनों सिरों से,

एक सिरा तो खोल गया था,

दूसरा खुलवाना बाक़ी था--

शायद उस मन कि गिरह को खोलने लौट के आया हूँ मैं!

 

आगे पीछे चलते मेरे चेलों कि आवाजें कहती रहती हैं,

महसूर हो तुम, तुम कैदी हो, उस "ज्ञान मंत्र" के,

जो तुमने खुद ही प्राप्त किया है--

बुद्धं शरणम् गच्छामि-- और बुद्धं शरणम् गच्छामि!!

वादी-ए-कश्मीर - गुलज़ार - Gulzar

चल चलेंगे चार-चनारों से मिलेंगे

है वादी-ए-कश्मीर बहारों से मिलेंगे

तेरे ही पर्वतों पे तो फिरदौस रखा है

आ हाथ पकड़ चल के सितारों से मिलेंगे

 

उदास लग रही है तेरी मुस्कुराहटें

पास आ ज़रा सुनूँ मैं तेरी दिल की आहटें

हमको बुलाके हम भी हमारो से मिलेंगे

है वादी-ए-कश्मीर बहारों से मिलेंगे

 

दलनेक पे परदेशी परिंदो का वो आना

वो रूठ गए है तो जरूरी है मनाना

चल उड़ते परिंदो की कतारों से मिलेंगे

है वादी-ए-कश्मीर बहारों से मिलेंगे

 

कश्मीर की बर्फों से निकलते हुए दरिया

बहते है ज़मीनो पे मचलते हुए दरिया

हब्बा के लिखे सारे नज़ारों से मिलेंगे

है वादी-ए-कश्मीर बहारों से मिलेंगे

33. रात तामीर करें

इक रात चलो तामीर करें,

ख़ामोशी के संगे-मरमर पर,

हम तान के तारीकी सर पर,

दो शम'ए जलायें जिस्मों की !

 

जब ओस, दबे पाँव उतरे

आहट भी ना पाये साँसों की..

कोहरे की रेशमी खुशबू में,

खुशबू की तरह ही लिपटे रहें

और जिस्म के सोंधे पर्दों में

रूहों की तरह लहराते रहें..!!

34. स्केच

याद है इक दिन

मेरी मेज़ पे बैठे-बैठे

सिगरेट की डिबिया पर तुमने

एक स्केच बनाया था

आकर देखो

उस पौधे पर फूल आया है !

कुल्लू वादी - गुलज़ार - Gulzar

बादलों में कुछ उड़ती हुई भेड़ें नज़र आती हैं

दुम्बे दिखते हैं कभी भालू से कुश्ती लड़ते

ढीली सी पगड़ी में एक बुड्ढा मुझे देख के

हैरान सा है

 

कोई गुजरा है वहां से शायद

धुप में डूबा हुआ ब्रश लेकर

बर्फों पर रंग छिड़कता हुआ- जिस के कतरे

पेड़ों की शाखों पे भी जाके गिरे हैं 

दौड़ के आती है बेचैन हवा झाड़ने रंगीन छीटें

ऊँचे, जाटों की तरह सफ में खड़े पेड़ हिला देती है

और एक धुंधले से कोहरे में कभी

मोटरें नीचे उतरती हैं पहाड़ों से तो लगता है

चादरें पहने हुए, दो दो सफों में

पादरी शमाएँ जलाये हुए जाते हैं इबादत के लिए

 

कुल्लू की वादी में हर रोज यही होता है

शाम होते ही बादल नीचे

ओढ़नी डाल के मंजर पे, मुनादी करने

आज दिन भर की नुमाइश थी, यहीं ख़त्म हुई

36. ख़ाली समंदर

उसे फिर लौट के जाना है, ये मालूम था उस वक़्त भी जब शाम की –

सुर्खोसुनहरी रेत पर वह दौड़ती आई थी

और लहरा के –

यूं आग़ोश में बिखरी थी जैसे पूरे का पूरा समंदर –

ले के उमड़ी है

 उसे जाना है, वो भी जानती थी,

मगर हर रात फिर भी हाथ रख कर चाँद पर खाते रहे कसमे

ना मैं उतरूँगा अब साँसों के साहिल से,

ना वो उतरेगी मेरे आसमाँ पर झूलते तारों की पींगों से

 मगर जब कहते-कहते दास्ताँ, फिर वक़्त ने लम्बी जम्हाई ली,

ना वो ठहरी 

ना मैं ही रोक पाया था!

 बहुत फूँका सुलगते चाँद को, फिर भी उसे

इक इक कला घटते हुए देखा

बहुत खींचा समंदर को मगर साहिल तलक हम ला नहीं पाये,

सहर के वक़्त फिर उतरे हुए साहिल पे

इक डूबा हुआ ख़ाली समंदर था!

खर्ची - गुलज़ार - Gulzar

मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज मिलता है

मगर हर रोज कोई छीन लेता है

झपट लेता है अंटी से.....

कभी खीसे से गिर पड़ता है

तो गिरने की आहट भी नहीं होती

खरे दिन को भी खोटा समझ कर भूल जाता हूँ मै

 

गिरेबान से पकड़ कर मांगने वाले भी मिलते है

"तेरी गुजरी हुई पुश्तो का कर्जा है , तुझे किश्तें चुकानी है"

जबरदस्ती कोई गिरबी रख लेता है ये कहकर

अभी दो चार लम्हे खर्च करने के लिए रख ले

बकाया उम्र के खाते मे लिख देते है

जब होगा, हिसाब होगा

बड़ी हसरत है पूरा एक दिन एक बार मैं

अपने लिए रख लूँ

तुम्हारे साथ पूरा, एक दिन बस खर्च करने की तमन्ना है

युद्ध - गुलज़ार - Gulzar

सूरज के ज़ख्मों से रिसता लाल लहू

दूर उफ़क से बहते-बहते इस साहिल तक आ पहुँचा है

किरणे मिट्टी फाँक रही है

साये अपना पिंड छुड़ाकर भाग रहे है

थोड़ी देर में लहरायेगा चाँद का परचम

रात ने फिर रण जीत लिया है

आज का दिन फिर हार गया हूँ.....

पतझड़ - गुलज़ार - Gulzar

जब जब पतझड़ में पेड़ों से पीले पीले पत्ते

मेरे लॉन में आकर गिरते हैं

रात को छत पर जाके मैं आकाश को तकता रहता हूँ

लगता है कमज़ोर सा पीला चाँद भी शायद

पीपल के सूखे पत्ते सा

लहराता-लहराता मेरे लॉन में आकर उतरेगा

बीमार याद - गुलज़ार - Gulzar

इक याद बड़ी बीमार थी कल,

कल सारी रात उसके माथे पर,

बर्फ़ से ठंडे चाँद की पट्टी रख रखकर-

इक इक बूँद दिलासा देकर,

अज़हद कोशिश की उसको ज़िन्दा रखने की !

पौ फटने से पहले लेकिन...

आख़िरी हिचकी लेकर वह ख़ामोश हुई !!

चाँद समन - गुलज़ार - Gulzar

रोज आता है ये बहरूपिया,

इक रूप बदलकर,

और लुभा लेता है मासूम से लोगों को अदा से !

पूरा हरजाई है, गलियों से गुजरता है,

कभी छत से, बजाता हुआ सिटी---

रोज आता है, जगाता है, बहुत लोगो को शब् भर !

आज की रात उफक से कोई,

चाँद निकले तो गिरफ्तार ही कर लो !!

मॉनसून - गुलज़ार - Gulzar

कार का इंजन बंद कर के

और शीशे चढ़ा कर बारिश में

घने-घने पेड़ों से ढकी सेंट पॉल रोड़ पर

आंखें मीच के बैठे रहो और कार की छत पर

ताल सुनो तब बारिश की !

गीले बदन कुछ हवा के झोंके

पेड़ों की शाखों पर चलते दिखते हैं

शीशे पे फिसलते पानी की तहरीर में उंगलियां चलती हैं

कुछ खत, कुछ सतरें याद आती हैं

मॉनसून की सिम्फनी में 

सोना - गुलज़ार - Gulzar

ज़रा आवाज़ का लहजा तो बदलो.

ज़रा मद्धिम करो इस आंच को 'सोना'

कि जल जाते हैं कंगुरे नर्म रिश्तों के !

ज़रा अलफ़ाज़ के नाख़ुन तराशो ,

बहुत चुभते हैं जब नाराज़गी से बात करती हो 

बुढ़िया रे - गुलज़ार - Gulzar

बुढ़िया, तेरे साथ तो मैंने,

जीने की हर शह बाँटी है!

 

दाना पानी, कपड़ा लत्ता, नींदें और जगराते सारे,

औलादों के जनने से बसने तक, और बिछड़ने तक!

उम्र का हर हिस्सा बाँटा है  

तेरे साथ जुदाई बाँटी, रूठ, सुलह, तन्हाई भी,

सारी कारस्तानियाँ बाँटी, झूठ भी और सच भी,

मेरे दर्द सहे हैं तूने,

तेरी सारी पीड़ें मेरे पोरों में से गुज़री हैं, 

साथ जिये हैं -

साथ मरें ये कैसे मुमकिन हो सकता है ?

 

दोनों में से एक को इक दिन,

दूजे को शम्शान पे छोड़ के,

तन्हा वापिस लौटना होगा ।

बुढिया रे!

हनीमून - गुलज़ार - Gulzar

कल तुझे सैर करवाएंगे समन्दर से लगी गोल सड़क की

रात को हार सा लगता है समन्दर के गले में !

 

घोड़ा गाडी पे बहुत दूर तलक सैर करेंगे

धोडों की टापों से लगता है कि कुछ देर के राजा है हम !

 

गेटवे ऑफ इंडिया पे देखेंगे हम ताज महल होटल

जोड़े आते हैं विलायत से हनीमून मनाने ,

तो ठहरते हैं यही पर !

 

आज की रात तो फुटपाथ पे ईंट रख कर ,

गर्म कर लेते हैं बिरयानी जो ईरानी के होटल से मिली है

और इस रात मना लेंगे "हनीमून" यहीं जीने के नीचे !

उस रात - गुलज़ार - Gulzar

उस रात बहुत सन्नाटा था !

उस रात बहुत खामोशी थी !!

साया था कोई ना सरगोशी

आहट थी ना जुम्बिश थी कोई !!

आँख देर तलक उस रात मगर

बस इक मकान की दूसरी मंजिल पर

इक रोशन खिड़की और इक चाँद फलक पर

इक दूजे को टिकटिकी बांधे तकते रहे

रात ,चाँद और मैं तीनो ही बंजारे हैं ........

तेरी नम पलकों में शाम किया करते हैं

कुछ ऐसी एहतियात से निकला है चाँद फिर

जैसे अँधेरी रात में खिड़की पे आओ तुम !

क्या चाँद और ज़मीन में भी कोई खिंचाव है

रात ,चाँद और मैं मिलते हैं तो अक्सर हम

तेरे लहज़े में बात किया करते हैं !!

सितारे चाँद की कश्ती में रात लाती है

सहर में आने से पहले बिक भी जाते हैं !

बहुत ही अच्छा है व्यापार इन दिनों शब का

बस इक पानी की आवाज़ लपलपाती है

की घात छोड़ के माझी तमामा जा भी चुके हैं ....

चलो ना चाँद की कश्ती में झील पार करें

रात चाँद और मैं अक्सर ठंडी झीलों को

डूब कर ठंडे पानी में पार किया करते हैं !!

अमलतास - गुलज़ार - Gulzar

खिड़की पिछवाड़े को खुलती तो नज़र आता था

वो अमलतास का इक पेड़, ज़रा दूर, अकेला-सा खड़ा था

शाखें पंखों की तरह खोले हुए

एक परिन्दे की तरह

बरगलाते थे उसे रोज़ परिन्दे आकर

सब सुनाते थे वि परवाज़ के क़िस्से उसको

और दिखाते थे उसे उड़ के, क़लाबाज़ियाँ खा के

बदलियाँ छू के बताते थे, मज़े ठंडी हवा के!

 

आंधी का हाथ पकड़ कर शायद

उसने कल उड़ने की कोशिश की थी

औंधे मुँह बीच-सड़क आके गिरा है!!

इक इमारत - गुलज़ार - Gulzar

इक इमारत

है सराय शायद,

जो मेरे सर में बसी है.

सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक,

बजती है सर में

कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ,

सुनता हूँ कभी

साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,

उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं

चमगादड़ें जैसे

इक महल है शायद!

साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में

कोई खोल के आँखें,

पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को!

चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई 'गन्दुम' के धुएँ में,

खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं!

और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !

एक, मिट्टी का घर है

इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है

शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद!

लिबास - गुलज़ार - Gulzar

मेरे कपड़ों में टंगा है

तेरा ख़ुश-रंग लिबास!

घर पे धोता हूँ हर बार उसे और सुखा के फिर से

अपने हाथों से उसे इस्त्री करता हूँ मगर

इस्त्री करने से जाती नहीं शिकनें उस की

और धोने से गिले-शिकवों के चिकते नहीं मिटते!

ज़िंदगी किस क़दर आसाँ होती

रिश्ते गर होते लिबास

और बदल लेते क़मीज़ों की तरह!

थर्ड वर्ल्ड - गुलज़ार - Gulzar

जिस बस्ती में आग लगी थी कल की रात

उस बस्ती में मेरा कोई नहीं रहता था,

औरतें बच्चे, मर्द कई और उम्र रसीदा लोग सभी , वो

जिनके सर पे जलते हुए शहतीर गिरे

उनमें मेरा कोई नहीं था ।

स्कूल जो कच्चा पक्का था और बनते बनते खाक हुआ

जिसके मलबे में वो सब कुछ दफ़न हुआ जो उस बस्ती का

मुस्तक़बिल कहलाता था

उस स्कूल में-

मेरे घर से कोई कभी पढ़ने न गया न अब जाता था

न मेरी दुकान थी कोई

न मेरा सामान कहीं ।

दूर ही दूर से देख रहा था

कैसे कुछ खुफ़िया हाथों ने जाकर आग लगाई थी।

जब से देखा है दिल में ये खौफ बसा है

मेरी बस्ती भी वैसी ही एक तरक्की करती बढ़ती बस्ती है

और तरक्कीयाफ़्ता कुछ लोगों को ऐसी कोई बात पसंद नहीं।

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