पुखराज -गुलज़ार Pukhraj - Gulzar

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

पुखराज -गुलज़ार
Pukhraj -Gulzar

आमीन -गुलज़ार - Gulzar

ख्याल, सांस नज़र, सोच खोलकर दे दो

लबों से बोल उतारो, जुबां से आवाज़ें

हथेलियों से लकीरें उतारकर दे दो

हाँ, दे दो अपनी 'खुदी' भी की 'खुद' नहीं हो तुम

उतारों रूह से ये जिस्म का हसीं गहना

उठो दुआ से तो 'आमीन' कहके रूह दे दो

मरियम -गुलज़ार - Gulzar

रात में देखो झील का चेहरा

किस कदर पाक, पुर्सुकुं, गमगीं

कोई साया नहीं है पानी पर

कोई सिलवट नहीं है आँखों में

नीन्द आ जाये दर्द को जैसे

जैसे मरियम उडाद बैठी हो

 

जैसे चेहरा हटाके चेहरे का

सिर्फ एहसास रख दिया हो वहाँ

आह! -गुलज़ार - Gulzar

ठंडी साँसे ना पालो सीने में

लम्बी सांसों में सांप रहते हैं

ऐसे ही एक सांस ने इक बार

डस लिया था हसी क्लियोपेत्रा को 

मेरे होटों पे अपने लब रखकर

फूँक दो सारी साँसों को 'बीबा' 

मुझको आदत है ज़हर पीने की

मानी -गुलज़ार - Gulzar

चौक से चलकर, मंडी से, बाज़ार से होकर

लाल गली से गुज़री है कागज़ की कश्ती

बारिश के लावारिस पानी पर बैठी बेचारी कश्ती

शहर की आवारा गलियों से सहमी-सहमी पूछ रही हैं

हर कश्ती का साहिल होता है तो-

मेरा भी क्या साहिल होगा?

 

एक मासूम-से बच्चे ने

बेमानी को मानी देकर

रद्दी के कागज़ पर कैसा ज़ुल्म किया है

मुन्द्रे -गुलज़ार - Gulzar

नीले-नीले से शब के गुम्बद में

तानपुरा मिला रहा है कोई

 

एक शफ्फाफ़ काँच का दरिया

जब खनक जाता है किनारों से

देर तक गूँजता है कानो में

 

पलकें झपका के देखती हैं शमएं

और फ़ानूस गुनगुनाते हैं

मैंने मुन्द्रों की तरह कानो में

तेरी आवाज़ पहन रक्खी है

Hindi-shayari

त्रिवेणी-1 -गुलज़ार - Gulzar

आओ, सारे पहन लें आईने

सारे देखेंगे अपना ही चेहरा 

रूह? अपनी भी किसने देखी है 

क्या पता कब, कहाँ से मारेगी

बस कि मैं ज़िन्दगी से डरता हूँ 

मौत का क्या है, एक बार मारेगी 

उठते हुए जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा

देर तक हाथ हिलाती रही वो शाख़ फ़िज़ा में 

अलविदा कहने को, या पास बुलाने के लिए?

त्रिवेणी-2 -गुलज़ार - Gulzar

सब पे आती है सब की बारी से

मौत मुंसिफ़ है कम-ओ-बेश नहीं 

ज़िन्दगी सब पे क्यूँ नहीं आती 

कौन खायेगा किसका हिस्सा है

दाने-दाने पे नाम लिखा है 

'सेठ सूदचंद मूलचंद आक़ा 

उफ़! ये भीगा हुआ अख़बार

पेपर वाले को कल से चेंज करो 

'पांच सौ गाँव बह गए इस साल'

कांच के ख्वाब -गुलज़ार - Gulzar

देखो आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा

देखना, सोच-समझकर ज़रा पाँव रखना

जोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं

कांच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में

ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जायें देखो 

जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जायेगा

आदत -गुलज़ार - Gulzar

सांस लेना भी कैसी आदत है

जिए जाना भी क्या रवायत है

कोई आहट नहीं बदन में कहीं

कोई साया नहीं है आँखों में

पावँ बेहिस हैं, चलते जाते हैं

इक सफ़र है जो बहता रहता है

कितने बरसों से कितनी सदियों से

जिए जाते हैं, जिए जाते हैं 

आदतें भी अजीब होती हैं

एक और दिन -गुलज़ार - Gulzar

खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआ

यूँ ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआ

बेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआ

ठोकरें खाता हुआ खाली लुढ़कता डिब्बा

 

यूँ भी होता है कोई खाली-सा- बेकार-सा दिन

ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन

शरारत -गुलज़ार - Gulzar

आओ तुमको उठा लूँ कंधों पर

तुम उचककर शरीर होठों से चूम लेना

चूम लेना ये चाँद का माथा

 

आज की रात देखा ना तुमने

कैसे झुक-झुक के कोहनियों के बल

चाँद इतना करीब आया है

फिर कोई नज़्म कहें -गुलज़ार - Gulzar

आओ फिर नज़्म कहें

फिर किसी दर्द को सहलाकर सुजा ले आँखें

फिर किसी दुखती हुई रग में छुपा दें नश्तर

या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर एक बार

नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज़ ही दें लें 

फिर कोई नज़्म कहें

मौसम -गुलज़ार - Gulzar

बर्फ पिघलेगी जब पहाड़ों से

और वादी से कोहरा सिमटेगा

बीज अंगड़ाई लेके जागेंगे

अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे

सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर 

गौर से देखना बहारों में

पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे

कोपलों की उदास आँखों में

आँसुओं की नमी बची होगी

लैण्डस्केप -गुलज़ार - Gulzar

दूर सुनसान- से साहिल के क़रीब

इक जवाँ पेड़ के पास

उम्र के दर्द लिए, वक़्त का मटियाला दुशाला ओढ़े

बूढ़ा - सा पाम का इक पेड़ खड़ा है कब से

सैंकड़ों सालों की तन्हाई के बाद

झुकके कहता है जवाँ पेड़ से: 'यार,

सर्द सन्नाटा है तन्हाई है,

कुछ बात करो'

गली में -गुलज़ार - Gulzar

बारिश होती है तो पानी को भी लग जाते हैं पावँ

दरों दीवार से टकरा के गुज़रता है गली से

और उछलता है छपाकों में

किसी मैच में जीते हुए लड़कों की तरह

 

जीत कर आते हैं मैच जब गली के लड़के

जूते पहने हुए कैनवास के उछालते हुए गेंदों की तरह

दरों दीवार से टकरा के गुज़रते हैं

वो पानी की छपाकों की तरह

दंगे -गुलज़ार - Gulzar

शहर में आदमी कोई भी नहीं क़त्ल हुआ

नाम थे लोगों के जो क़त्ल हुए

सर नहीं कटा किसी ने भी कहीं पर कोई

लोगों ने टोपियाँ काटी थीं, कि जिनमें सर थे 

और ये बहता हुआ, लहू है जो सड़क पर

सिर्फ आवाजें-ज़बा करते हुए खून गिरा था

अख़बार -गुलज़ार - Gulzar

सारा दिन मैं खून में लथपथ रहता हूँ

सारे दिन में सूख-सूख के काला पड़ जाता है ख़ून

पपड़ी सी जम जाती है

खुरच-खुरच के नाख़ूनों से चमड़ी छिलने लगती है

नाक में ख़ून की कच्ची बू

और कपड़ों पर कुछ काले-काले चकत्ते-से रह जाते हैं 

रोज़ सुबह अख़बार मेरे घर

ख़ून से लथपथ आता है

वो जो शायर था चुप सा रहता था -गुलज़ार - Gulzar

वो जो शायर था चुप-सा रहता था

बहकी-बहकी-सी बातें करता था

आँखें कानों पे रख के सुनता था

गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!

 

जमा करता था चाँद के साए

और गीली- सी नूर की बूँदें

रूखे-रूखे- से रात के पत्ते

ओक में भर के खरखराता था 

वक़्त के इस घनेरे जंगल में

कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था

हाँ वही, वो अजीब- सा शायर

रात को उठ के कोहनियों के बल

चाँद की ठोड़ी चूमा करता था

 

चाँद से गिर के मर गया है वो

लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है |

क़ब्रें -गुलज़ार - Gulzar

कैसे चुपचाप मर जाते हैं कुछ लोग यहाँ

जिस्म की ठंडी सी

तारीक सियाह कब्र के अंदर!

न किसी सांस की आवाज़

न सिसकी कोई

न कोई आह, न जुम्बिश

न ही आहट कोई

 

ऐसे चुपचाप ही मर जाते हैं कुछ लोग यहाँ

उनको दफ़नाने की ज़हमत भी उठानी नहीं पड़ती !

क़र्ज़ -गुलज़ार - Gulzar

इतनी मोहलत कहाँ कि घुटनों से

सिर उठाकर फ़लक को देख सको

अपने तुकडे उठाओ दाँतो से

ज़र्रा-ज़र्रा कुरेदते जाओ

वक़्त बैठा हुआ है गर्दन पर

तोड़ता जा रहा है टुकड़ों में

 

ज़िन्दगी देके भी नहीं चुकते

ज़िन्दगी के जो क़र्ज़ देने हों

घुटन -गुलज़ार - Gulzar

जी में आता है कि इस कान में सुराख़ करूँ

खींचकर दूसरी जानिब से निकालूँ उसको

सारी की सारी निचोडूँ ये रगें साफ़ करूँ

भर दूँ रेशम की जलाई हुई भुक्की इसमें

 

कह्कहाती हुई भीड़ में शामिल होकर

मैं भी एक बार हँसूँ, खूब हँसूँ, खूब हँसूँ

गुज़ारिश -गुलज़ार - Gulzar

मैंने रक्खी हुई हैं आँखों पर

तेरी ग़मगीन-सी उदास आँखें

जैसे गिरजे में रक्खी ख़ामोशी

जैसे रहलों पे रक्खी अंजीलें 

एक आंसू गिरा दो आँखों से

कोई आयत मिले नमाज़ी को

कोई हर्फ़-ए-कलाम-ए-पाक मिले

तन्हा  - Gulzar

कहाँ छुपा दी है रात तूने

कहाँ छुपाये है तूने अपने गुलाबी हाथों के ठन्डे फाये

कहाँ है तेरे लबों के चेहरे

कहाँ है तू आज - तू कहाँ है ? 

ये मेरे बिस्तर पे कैसा सन्नाटा सो रहा है ?

पतझड़ -गुलज़ार - Gulzar

जब जब पतझड़ में पेड़ों से पीले पीले पत्ते

मेरे लॉन में आकर गिरते हैं

रात को छत पर जाके मैं आकाश को तकता रहता हूँ

लगता है कमज़ोर सा पीला चाँद भी शायद

पीपल के सूखे पत्ते सा

लहराता-लहराता मेरे लॉन में आकर उतरेगा

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