Hindi Kavita
हिंदी कविता
गुलज़ार-कुछ और नज्में
Gulzar-Kuchh Aur Nazmein
त’आरुफ़ - Gulzar
इस मजमूए का, जिसे मैं हिन्दी में संग्रह भी कह सकता हूँ, परिचय कराना कुछ ज़रूरी लग रहा है। इसमें क़रीब 1965 से लेकर 1979 तक की चुनी हुई नज़्में हैं, जिन्हें मैंने अपनी मर्जी से चुना है। उससे पहले की नज़्में भी अपनी मर्जी से ही एक बार तैश में आकर जला दी थीं।
अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने के कारण और फिल्मों की स्क्रिप्ट में अंग्रेजी माध्यम इस्तेमाल करने की वजह से बहुत कुछ अंग्रेजी में ही सोचने की आदत हो गई है, इसलिए कहीं-कहीं अंग्रेजी का लफ़्ज़ भी नज़र आ जाता है। लेकिन सिर्फ़ उतना ही ज़ितना कि चेहरे पर एक ‘पिम्पल’। खुजली करता है लेकिन अगर तोड़ दो तो ज़ख़्म हो जाता है। लहू की बूँद नज़र आने लगती है। उसे तजुर्मा कर दो तो कुछ कम हो जाता है, जैसे म्यूज़ियम, गेट-टुगेदर, फ़ेमिली-ट्री। इन लफ़्ज़ों के हिन्दी या उर्दू लफ़्ज़ मिल जाते हैं, लेकिन वही कि, अनुवाद से ही लगते हैं। मुझे वे अनुवाद सूखे हुए अमलों की तरह लगते हैं। तासीर वही है लेकिन न रस रहा न मस।
लम्बी नज़्मों का एक हिस्सा है, जिनके उनवान अंग्रेज़ी में दे रहा हूँ।
दूसरे हिस्सों में नज़्मों के उनवान नहीं हैं, सिर्फ़ हिस्सों के नाम हैं।
उर्दू में एक शे’र के दो मिसरे होते हैं, जिसमें पहले मिसरे को ‘ऊला’ कहते हैं और दूसरे मिसरे को ‘सानी’।
मिसला-ए-उला में क़ैफ़ियत तो होती है, लेकिन वह अपने आप में पूरा नहीं होता। उसे मिसला-ए-सानी की जरूरत होती है, जो पिछले मिसरे की बात पूरी कर दे और शे’र के माने को गिरह लगा दे।
इस किताब में ‘ऊला’ की नज़्में उन मिसरों की तरह हैं जो अपने दूसरे हिस्से को ढूँढ़ती नज़र आती हैं। उनमें क़ैफ़ियत तो है लेकिन कहीं गिरह नहीं लगा पातीं। और जब गिरह लगी, कुछ-कुछ माने कहीं-कहीं समझ आने लगे तो अपने-आप ‘सानी’ की नज़्में हो गईं। ऐसा अकसर होता है ज़िन्दगी में ‘ऊला’ क़ैफ़ियत से गुज़रते रहते हैं और सानी को गिरह देर तक नहीं लगती।
एक और बात।
सैल्फ़-कनफ़ैशन।
बोलते-बोलते अपनी बात बनाना भी सीख जाता है। कभी चाहते हुए, कभी न चाहते हुए।
हो सकता है, ऊला और सानी को आप इस तरह न देखें जैसे मैं देख रहा हूँ। और वह ज़रूरी भी नहीं। ज़रूरी नहीं कि शाम की शफ़क़ आप भी उसी तरह देखें जैसे मैं देखता हूँ। ज़रूरी नहीं कि उसकी सुर्खी आपके अन्दर भी वही रंग घोले जो मेरे अन्दर घोलती है। पर लम्हा, हर इंसान अपनी तरह खोलकर देखता है इसलिए मैंने उन लम्हों पर कोई मुहर नहीं लगाई, कोई नाम नहीं दिया। लेकिन इतना ज़रूर है कि उन लम्हों को मैंने बिल्कुल इसी तरह महसूस किया है जिस तरह कहने की कोशिश की है और बग़ैर महसूस किए कभी कुछ नहीं कहा।
एक और हिस्सा है, ‘ख़ाके’। इनमें पेंटिंग्ज़ हैं, कुछ पोर्ट्रेट हैं, कुछ लैंडस्केप हैं और कुछ महज़ स्केचेज़। जी चाहता था, अपनी फ़िल्म की ज़ुबान में उन्हें क्लोज-अप, लांग-शाट या डिज़ाल्व कहके बुलाऊँ, लेकिन ऐसा नहीं किया, आपकी आसानी के लिए।
‘दस्तख़त’ का एक हिस्सा है। उसमें बड़ी निज़ी-सी नज़्में हैं, बड़ी निजी-से लम्हे हैं। कुछ ऐसे लम्हे, जिनमें से लोग गुजरते तो हैं लेकिन उन्हें ‘रफ़-वर्क़’ की तरह अलग रख देते हैं। मैंने उन अलग रखे पन्नों पर भी दस्तख़त कर दिए हैं।
ख़ास चीज़ जिसका ख़ासतौर से त’आरुफ़ कराना चाहता हूँ, वह ‘त्रिवेणी’ है।
भूषण बनमाली बड़े पुराने एक दोस्त हैं, और सिर्फ़ एक ही हैं। त्रिवेणी की ‘फ़ार्म’ उन्हीं की इंस्पिरेशन’ का नतीजा है। ‘त्रिवेणी’ की फ़ार्म कुछ ऐसी ही है कि पहले दो मिसरों में शे’र अपने-आप में पूरा हो जाता है और वह तीसरा मिसरा, जो गुप्त है, उसके जाहिर होते ही शे’र का मक़सद यानी ‘स्ट्रेस’ बदल जाता है, जो ज़ाहिर है कि किसी हद तक माने में तब्दील कर देगा।
लेकिन ज़रूरी है कि ‘त्रिवेणी’ तीन मिसरों में कहीं नज़्म न हो। बस।
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है - Gulzar
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो !
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे हैं।
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है
यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर
कहीं तो अंजाम-जो-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो !
नज़्म-ख़लाओं में तैरते जज़ीरों पे - Gulzar
ख़लाओं में तैरते जज़ीरों पे चम्पई धूप देख कैसे बरस रही है
महीन कोहरा सिमट रहा है
हथेलियों में अभी तलक तेरे नर्म चेहरे का लम्स ऐसे छलक रहा है
कि जैसे सुबह को ओक में भर लिया हो मैंने
बस एक मद्धम-सी रोशनी मेरे हाथों-पैरों में बह रही है
तेरे लबों पर ज़बान रखकर
मैं नूर का वह हसीन क़तरा भी पी गया हूँ
जो तेरी उजली धुली हुई रूह से फिसलकर तेरे लबों पर ठहर गया था
आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ - Gulzar
आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा।
आज फिर सीने में उलझी हुई वज़नी साँसे
फटके बस टूट ही जाएँगी बिखर जाएँगी
आज फिर जागते-गुज़रेगी तेरे ख़्वाब में रात
आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ
नीले-नीले से शब के गुम्बद में - Gulzar
नीले-नीले से शब के गुम्बद में
तानपूरा मिला रहा है कोई
एक शफ़्फ़ाक काँच का दरिया
जब खनक जाता है किनारों से
देर तक गूँजता है कानों में
पलकें झपका के देखती हैं श’में
और फ़ानूस गुनगुनाते हैं
गुनगुनाती हैं बिल्लौर की बूँदें
तेरी आवाज़ पहन रखी है कानों में मैंने
(शफ़्फ़ाक=निर्मल)
फ़ासला - Gulzar
तकिये पे तेरे सर का वह टिप्पा है, पड़ा है
चादर में तेरे जिस्म की वह सोंधी सी–ख़ुशबू
हाथों में महकता है तेरे चेहरे का एहसास
माथे पे तेरे होठों की मोहर लगी है
तू इतनी क़रीब है कि तुझे देखूँ तो कैसे
थोड़ी-सी अलग हो तेरे चेहरे को देखूँ
तन्हा - Gulzar
कहाँ छुपा दी है रात तूने
कहाँ छुपाए हैं तूने अपने गुलाबी हाथों से ठंडे फाये
कहाँ हैं तेरे लबों के चेहरे
कहाँ है तू आज-तू कहाँ है ?
यह मेरे बिस्तर पे कैसा सन्नाटा सो रहा है ?
झड़ी-बन्द शीशों के परे देख दरीचों के उधर - Gulzar
बन्द शीशों के परे देख दरीचों के उधर
सब्ज पेड़ों पे घनी शाख़ों पे फूलों पे वहाँ
कैसे चुपचाप बरसता है मुसलसल पानी
कितनी आवाज़ें हैं, यह लोग हैं, बातें हैं मगर
ज़हन के पीछे किसी और ही सतह पे कहीं
जैसे चुपचाप बरसता है तसव्वुर तेरा
रूह देखी है कभी! - Gulzar
रूह देखी है, कभी रूह को महसूस किया है ?
जागते जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपटकर
साँस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है ?
या शिकारे में किसी झील पे जब रात बसर हो
और पानी के छपाकों में बजा करती हों टलियाँ
सुबकियाँ लेती हवाओं के वह बैन सुने हैं ?
चौदहवीं रात के बर्फ़ाब से इस चाँद को जब
ढेर-से साये पकड़ने के लिए भागते हैं
तुमने साहिल पे खड़े गिरजे को दीवार से लगकर
अपनी गहनाती हुई कोख को महसूस किया है ?
जिस्म सौ बार जले फिर वही मिट्टी का ढेला
रूह इक बार जलेगी तो वह कुन्दन होगी
रूह देखी है, कभी रूह को महसूस किया है ?
(टलियाँ=घंटियाँ, बर्फ़ाब=ठंडा, साहिल=किनारा,तट)
उखाड़ दो अरज़-ओ-तूल खूँटों से बस्तियों के - Gulzar
उखाड़ दो अरज़-ओ-तूल खूँटों से बस्तियों के
समेटो सड़कें, लपेटो राहें
उखाड़ दो शहर का कशीदा
कि ईंट-गारे से घर नहीं बन सका किसी का
पनाह मिल जाये रूह को जिसका हाथ छूकर
उसी हथेली पर घर बना लो
कि घर वही है
पनाह भी है।
तुम्हारे हाथों में मैंने देखी थी एक अपनी लकीर, सोनाँ
(अरज़-ओ-तूल=लंबाई और चौड़ाई, विस्तार)
एक लम्स - Gulzar
एक लम्स
हल्का सुबुक
और फिर लम्स-ए-तवील
दूर उफ़क़ के नीले पानी में उतर जाते हैं तारों के हुजूम
और थम जाते हैं सय्यारों की गर्दिश के क़दम
ख़त्म हो जाता है जैसे वक़्त का लम्बा सफ़र
तैरती रहती है इक़ ग़ुंचे के होंटों पे कहीं
एक बस निथरी हुई शबनम की बूँद
तेरे होंटों का बस इक लम्स-ए-तावील
तेरी बाँहों की बस एक सन्दली गिरह
दो सोंधे-सोंधे जिस्म - Gulzar
दो सोंधे-सोंधे जिस्म जिस वक़्त एक मुट्ठी में सो रहे थे
लबों की मद्धम तवील सरगोशियों में साँसे उलझ गई थीं
मुँदे हुए साहिलों पे जैसे कहीं बहुत दूर ठंडा सावन बरस रहा था—
बस एक ही रूह जागती थी ?
बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था ?
बता तो उस वक़्त तू कहाँ थी ?
(सरगोशियों=चुपके-चुपके बातें करना)
कल की रात गिरी थी शबनम - Gulzar
कल की रात गिरी थी शबनम
हौले-हौले कलियों के बन्द होंठों पर
बरसी थी शबनम
कल की रात...
फूलों के रुख़सारों से रुख़सार मिलाकर
नीली रात की चुनरी के साये में शबनम
परियों के अफ़सानों के पर खोल रही थी
कल की रात गिरी थी शबनम
दिल की मद्धम-मद्धम हलचल में
दो रूहें तैर रही थीं
जैसे अपने नाज़ुक पंखों पर
आकाश को तोल रही हों
कल की रात गिरी थी शबनम
कल की रात बड़ी उजली थी
कल की रात तेरे संग गुज़री
कल की रात गिरी थी शबनम…
पाँच बजे हैं - Gulzar
पाँच बजे हैं
टी.वी. पर आनेवाले हफ़्ते की झाँकी
‘इस हफ़्ते में...’
सोमवार जाना है तुमको—
टी.वी. पर इक ड्रामा होगा
फ़िल्म पुरानी-छाया गीत !
वीरवार तुम लन्दन होगी
तीन दिनों में...मैं और...
हिन्दोस्तान में हिन्दी और..
इंदिरा गाँधी तेहरान का दौरा
विएतनाम में आज़ादी का जश्न मनेगा
शायद उस दिन ख़त आएगा
पाँच बचे हैं
चंद घण्टों के बाद तुम्हारा ‘प्लेन’ उड़ेगा।
नज़्म उलझी हुई है सीने में - Gulzar
नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए होंटों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ, मैं ‘जानम’
सादे काग़ज़ पर लिखके नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगा
खोलकर बाँहों के दो उलझे हुए-से मिसरे - Gulzar
खोलकर बाँहों के दो उलझे हुए-से मिसरे
हौले से चूमके दो नींद से छलकी हुई पलकें
होंट से लिपटी हुई जुल्फ़ को मिन्नत से हटाकर
कान पर धीमे से रख दूँगा जो आवाज़ के दो होंट
मैं जगाऊँगा तुम्हें नाम से ‘सोनाँ-ओए सोनाँ !
-और तुम धीरे से जब पलके उठाओगी ना, उस वक़्त
दूर ठहरे हुए पानी से सहर खोलेगी आँखें
सुबह हो जाएगी तब सुबह ज़मीं पर
जिसके गालों में टिप्पे पड़ते हैं - Gulzar
ज़िक़्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दाँ अपना
(ग़ालिब)
‘ज़िक़्र उस परीवश का’
जिसके गालों में टिप्पे पड़ते हैं
जिसके दाँतों में बर्क़ रखी है
खिलखिलाकर वह जब भी हँसती है
नाक भी फड़फड़ाके हँसती है
उसके कानों में सुर्ख़ बेर लटकाकर
जो मयस्सर थी कायनात उसमें
और दो सय्यारे ढूँढ़े हैं
ज़िक़्र उस परीवश का
और फिर बयाँ अपना..
मेरे शेरों में झाँकते हैं लोग
चुप रहूँ मैं तो खाँसते हैं लोग
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