खादी के फूल हरिवंशराय बच्चन Khadi Ke Phool Harivansh Rai Bachchan

Hindi Kavita
0

Hindi Kavita
हिंदी कविता

खादी के फूल हरिवंशराय बच्चन
Khadi Ke Phool Harivansh Rai Bachchan

हो गया क्‍या देश के सबसे सुनहले दीप का निर्वाण - Harivansh Rai Bachchan

हो गया क्‍या देश के
सबसे सुनहले दीप का
निर्वाण!
1
वह जगा क्‍या जगमगया देश का
तम से घिरा प्रसाद,
वह जगा क्‍या था जहाँ अवसाद छाया,
छा गया अह्लाद,
वह जगा क्‍या बिछ गई आशा किरण
की चेतना सब ओर,
वह जगा क्‍या स्‍वप्‍न से सूने हृदय-
मन हो गए आबाद
वह जगा क्‍या ऊर्ध्‍व उन्‍नति-पथ हुआ
आलोक का आधार,
वह जगा क्‍या कि मानवों का स्‍वर्ग ने
उठकर किया आह्वान,
हो गया क्‍या देश के
सबसे सुनहले दीप का
निर्वाण!

hindi-kavita

2
वह जला क्‍या जग उठी इस जाति की
सोई हुई तक़दीर,
वह जला क्‍या दासता की गल गई
बन्‍धन बनी ज़ंजीर,
वह जला क्‍या जग उठी आज़ाद होने
की लगन मज़बूत
वह जला क्‍या हो गई बेकार कारा-
गार की प्राचीर,
वह जला क्‍या विश्‍व ने देखा हमें
आश्‍चर्य से दृग खोल,
वह ला क्‍या मर्दितों ने क्रांति की
देखी ध्‍वाजा अम्‍लान,
हो गया क्‍या देश के
सबसे दमके दीप का
निर्वाण!


3
वह हँसा तो मृम मरुस्‍थल में चला
मधुमास-जीवन-श्‍वास,
वह हँसा तो क़ौम के रौशन भविष्‍यत
का हुआ विश्‍वास,
वह हँसा तो जड़ उमंगों ने किया
फिर से नया श्रृंगार,
वह हँसा तो हँस पड़ा देश का
रूठा हुआ इतिहास,
वह हँसा तो रह गया संदेह-शंका
को न कोई ठौर,
वह हँसा तो हिचकिचाहट-भीती-भ्रम का
हो गया अवसान,
हो गया क्‍या देश के
सबसे चमकते दीप का
निर्वाण!
4
वह उठा एक लौ में बंद होकर
आ गई ज्‍यों भोर,
वह उठा तो उठ गई सब देश भर की
आँख उनकी ओर,
वह उठा तो उठ पड़ीं सदियाँ विगत
अँगड़ाइयाँ ले साथ,
वह उठा तो उठ पड़े युग-युग दबे
दुखिया, दलित, कमज़ोर,
वह उठा तो उठ पड़ीं उत्‍साह की
लहरें दृगों के बीच
वह उठा तो झुक गए अन्‍याय,
अत्‍याचार के अभिमान,
हो गया क्‍या देश के
सबसे प्रभामय दीप का
निर्वाण!

5
वह न चाँदी का, न सोने का न कोई
धातु का अनमोल,
थी चढ़ी उस पर न हीरे और मोती
की सजीली खोल,
मृत्‍त‍िका की एक मुट्ठी थी कि उपमा
सादगी थी आप,
किन्‍तु उसका मान सारा स्‍वर्ग सकता
था कभी क्‍या तोल?
ताज शाहों के अगर उसने झुकाए
तो तअज्‍जुब कौन,
कर सका वह निम्‍नतम, कुचले हुओं का
उच्‍चमतम उत्‍थान,
हो गया था देश के
सबसे मनस्‍वी दीप का
निवार्ण!
6
वह चमकता था, मगर था कब लिए,
तलवार पानीदार,
वह दमकता था, मगर अज्ञात थे
उसको सदा हथियार,
एक अंजलि स्‍नेह की थी तरलता में
स्‍नेह के अनुरूप,
किन्‍तु उसकी धार में था डूब सकता
देश क्‍या, संसार;
स्‍नेह में डूबे हुए ही तो हिफ़ाज़त
से पहुँते पार,
स्‍नेह में जलते हुए ही तो कर सके हैं
ज्‍योति-जीवनदान,
हो गया क्‍या देश के
सबसे तपस्‍वी दीप का
निर्वाण!
7
स्‍नेह में डूबा हुआ था हाथ से
काती रुई का सूत,
थी बिखरती देश भर के घर-डगर में
एक आभा पूत,
रोशनी सबके लिए थी, एक को भी
थी नहीं अंगार,
फ़र्क अपने औ' पराए में न समझा
शान्ति का वह दूत,
चाँद-सूरज से प्रकाशित एक से हैं
झोंपड़ी-प्रासाद,
एक-सी सबको विभा देते जलाते
जो कि अपने प्राण,
हो गया क्‍या देश के
सबसे यशस्‍वी दीप का
निर्वाण!
8
ज्‍योति में उसकी हुए हम एक यात्रा
के लिए तैयार,
की उसी के आधार हमने तिमिर-गिरि
घाटियाँ भी पार,
हम थके माँदे कभी बैठे, कभी
पीछे चले भी लौट,
किन्‍तु वह बढ़ता रहा आगे सदा
साहस बना साकार,
आँधियाँ आईं, घटा छाई, गिरा
भी वज्र बारंबार,
पर लगता वह सदा था एक-
अभ्‍युत्‍थान! अभ्‍युत्‍थान!
हो गया क्‍या देश के
सबसे अचंचल दीप का
निर्वाण!9
लक्ष्‍य उसका था नहीं कर दे महज़
इस देश को आज़ाद,
चाहता वह था कि दुनिया आज की
नाशाद हो फिर शाद,
नाचता उसके दृगों में था नए
मानव-जगत का ख्‍़वाब,
कर गया उसको कौन औ'
किस वास्‍ते बर्बाद,
बुझ गया वह दीप जिसकी थी नहीं
जीवन-कहानी पूर्ण,
वह अधूरी क्‍या रही, इंसानियत का
रुक गया आख्‍यान।
हो गया क्‍या देश के
सबसे प्रगतिमय दीप का
निर्वाण!
10
विष-घृणा से देश का वातावरण
पहले हुआ सविकार,
खू़न की नदियाँ बहीं, फिर बस्तियाँ
जलकर गईं हो क्षार,
जो दिखता था अँधेरे में प्रलय के
प्‍यार की ही राह,
बच न पाया, हाय, वह भी इस घृणा का
क्रूर, निंद्य प्रहार,
सौ समस्‍याएँ खड़ी हैं, एक का भी
हल नहीं है पास,
क्‍या गया है रूठ प्‍यारे देश भारत-
वर्ष से भगवान!
हो गया क्‍या देश के
सबसे ज़रूरी दीप का
निर्वाण!

यदि होते बीच हमारे श्री गुरुदेव आज - Harivansh Rai Bachchan

यदि होते बीच हमारे श्री गुरुदेव आज,
देखते, हाय, जो गिरी देश पर महा गाज,
होता विदीर्ण उनका अंतस्तल तो ज़रूर,
यह महा वेदन
किंतु प्राप्त
करता वाणी ।
हो नहीं रहा है व्यक्त आज मन का उबाल,
शब्दों कें मुख से जीभ किसी ने ली निकाल,
किस मूल केंद्र को बेधा तूने, समय क्रूर,
घावों को धोने
को अलभ्य
दृग का पानी ।
होते कवींद्र इन काली घड़ियों के त्राता,
होते रवींद्र तो मातम का तम कट जाता,
सत्यं, शिव, सुदर फिर से थापित हो पाता,
मरहम-सा बनकर देश-काल को सहलाता,
जो कहते वे
गायक-नायक
ज्ञानी-ध्यानी ।

इस महा विपद में व्याकुल हो मत शीश धुनो, - Harivansh Rai Bachchan

अरविंद संत के, धर अंतर में धीर सुनो
यह महा वचन विश्वास और आशादायी--
दृढ़ खड़े रहो
चाहे जितना हो
अंधकार ।
है रही दिखाती तुम्हें मार्ग जो वर्षों से
जो तुम्हें बचा लाई है सौ संघर्षों से,
वह ज्योति, भले ही नेता आज धराशायी,
है ऊर्धवमुखी
वह नहीं सकेगी
कभी हार ।
मिथ्याँध मोह-मत्सर को जीतेगा विवेक
यह खंडित भारतवर्ष बनेगा पुन: एक,
इस महा भूमि का निश्चय है भान्याभिषेक,
मा पुन: करेगी
सब पुत्रों का
समाहार ।

वे आत्‍माजीवी थे काया से कहीं परे - Harivansh Rai Bachchan

वे आत्‍माजीवी थे काया से कहीं परे,
वे गोली खाकर और जी उठे, नहीं मरे,
जब तक तन से चढ़कर चिता हो गया राख-धूर,
तब से आत्‍मा
की और महत्‍ता
जना गए।
उनके जीवन में था ऐसा जादू का रस,
कर लेते थे वे कोटि-कोटि को अपने बस,
उनका प्रभाव हो नहीं सकेगा कभी दूर,
जाते-जाते
बलि-रक्‍त-सुरा
वे छना गए।
यह झूठ कि, माता, तेरा आज सुहाग लुटा,
यह झूठ कि तेरे माथे का सिंदूर छुटा,
अपने माणिक लोहू से तेरी माँग पूर
वे अचल सुहागिन
तुझे अभागिन,
बना गए।

उसने अपना सिद्धान्‍त न बदला मात्र लेश - Harivansh Rai Bachchan

उसने अपना सिद्धान्‍त न बदला मात्र लेश,
पलटा शासन, कट गई क़ौम, बँट गया देश,
वह एक शिला थी निष्‍ठा की ऐसी अविकल,
सातों सागर
का बल जिसको
दहला न सका।
छा गया क्षितिज तक अंधक-अंधड़-अंधकार,
नक्षत्र, चाँद, सूरज ने भी ली मान हार,
वह दीपशिखा थी एक ऊर्ध्‍व ऐसी अविचल,
उंचास पवन
का वेग जिसे
बिठला न सका।
पापों की ऐसी चली धार दुर्दम, दुर्धर,
हो गए मलिन निर्मल से निर्मल नद-निर्झर,
वह शुद्ध छीर का ऐसा था सुस्थिर सीकर,
जिसको काँजी
का सिंधु कभी
बिलगा न सका।

था उचित कि गाँधी जी की निर्मम हत्‍या पर - Harivansh Rai Bachchan

था उचित कि गाँधी जी की निर्मम हत्‍या पर
तारे छिप जाते, काला हो जाता अंबर,
केवल कलंक अवशिष्‍ट चंद्रमा रह जाता,
कुछ और नज़ारा
था जब ऊपर
गई नज़र।
अंबर में एक प्रतीक्षा को कौतूहल था,
तारों का आनन पहले से भी उज्‍ज्‍वल था,
वे पंथ किसी का जैसे ज्‍योतित करते हों,
नभ वात किसी के
स्‍वागत में
फिर चंचल था।
उस महाशोक में भी मन में अभिमान हुआ,
धरती के ऊपर कुछ ऐसा बलिदान हुआ,
प्रतिफलित हुआ धरणी के तप से कुछ ऐसा,
जिसका अमरों
के आँगन में
सम्‍मान हुआ।
अवनी गौरव से अंकित हों नभ के लेखे,
क्‍या लिए देवताओं ने ही यश के ठेके,
अवतार स्‍वर्ग का ही पृथ्‍वी ने जाना है,
पृथ्‍वी का अभ्‍युत्‍थान
स्‍वर्ग भी तो
देखे!

ऐसा भी कोई जीवन का मैदान कहीं - Harivansh Rai Bachchan

ऐसा भी कोई जीवन का मैदान कहीं
जिसने पाया कुछ बापू से वरदान नहीं?
मानव के हित जो कुछ भी रखता था माने
बापू ने सबको
गिन-गिनकर
अवगाह लिया।
बापू की छाती की हर साँस तपस्‍या थी
आती-जाती हल करती एक समस्‍या थी,
पल बिना दिए कुछ भेद कहाँ पाया जाने,
बापू ने जीवन
के क्षण-क्षण को
थाह लिया।
किसके मरने पर जगभर को पछताव हुआ?
किसके मरने पर इतना हृदय मथाव हुआ?
किसके मरने का इतना अधिक प्रभाव हुआ?
बनियापन अपना सिद्ध किया अपना सोलह आने,
जीने की किमत कर वसूल पाई-पाई,
मरने का भी
बापू ने मूल्‍य
उगाह लिया।

तुम उठा लुकाठी खड़े चौराहे पर - Harivansh Rai Bachchan

तुम उठा लुकाठी खड़े चौराहे पर;
बोले, वह साथ चले जो अपना दाहे घर;
तुमने था अपना पहले भस्‍मीभूत किया,
फिर ऐसा नेता
देश कभी क्‍या
पाएगा?
फिर तुमने हाथों से ही अपना सर
कर अलग देह से रक्‍खा उसको धरती पर,
फिर उसके ऊपर तुमने अपना पाँव दिया
यह कठिन साधना देख कँपे धरती-अंबर;
है कोई जो
फिर ऐसी राह
बनाएगा?
इस कठिन पंथ पर चलना था आसान नहीं,
हम चले तुम्‍हारे साथ, कभी अभिमान नहीं,
था, बापू, तुमने हमें गोद में उठा लिया,
यह आनेवाला
दिन सबको
बतलाएगा।

गुण तो नि:संशय देश तुम्‍हारे गाएगा - Harivansh Rai Bachchan

गुण तो नि:संशय देश तुम्‍हारे गाएगा,
तुम-सा सदियों के बाद कहीं फिर पाएगा,
पर जिन आदर्शों को तुम लेकर तुम जिए-मरे,
कितना उनको
कल का भारत
अपनाएगा?
बाएँ था सागर औ' दाएँ था दावानल,
तुम चले बीच दोनों के, साधक, सम्‍हल-सम्‍हल,
तुम खड्गधार-सा पंथ प्रेम का छोड़ गए,
लेकिन उस पर
पाँवों को कौन
बढ़ाएगा?
जो पहन चुनौती पशुता को दी थी तुमने,
जो पहन दनुज से कुश्‍ती ली थी तुमने,
तुम मानवता का महाकवच तो छोड़ गए,
लेकिन उसके
बोझे को कौन
उठाएगा?
शासन-सम्राट डरे जिसकी टंकारों से,
घबराई फ़िरकेवारी जिसके वारों से,
तुम सत्‍य-अहिंसा का अजगव तो छोड़ गए,
लेकिन उस पर
प्रत्‍यंचा कौन
चढ़ाएगा?

ओ देशवासियो, बैठ न जाओ पत्‍थर से - Harivansh Rai Bachchan

ओ देशवासियो, बैठ न जाओ पत्‍थर से,
ओ देशवासियो, रोओ मत यों निर्झर से,
दरख्‍वास्‍त करें, आओ, कुछ अपने ईश्‍वर से
वह सुनता है
ग़मज़ादों और
रंजीदों की।
जब सार सरकता-सा लगता जग-जीवन से,
अभिषिक्‍त करें, आओ, अपने को इस प्रण से-
हम कभी न मिटने देंगे भारत के मन से
दुनिया ऊँचे
आदर्शों की,
उम्‍मीदों की।
साधना एक युग-युग अंतर में ठनी रहे-
यह भूमि बुद्ध-बापू-से सुत की जनी रहे;
प्रार्थना एक युग-युग पृथ्‍वी पर बनी रहे
यह जाति
योगियों, संतों
और शहीदों की।

आधुनिक जगत की स्‍पर्धापूर्ण नुमाइश में - Harivansh Rai Bachchan

आधुनिक जगत की स्‍पर्धापूर्ण नुमाइश में
हैं आज दिखावे पर मानवता की क़िस्‍में,
है भरा हुआ आँखों में कौतूहल-विस्‍मय,
देखें इनमें
कहलाया जाता
कौन मीर?
दुनिया के तानाशाहों का सर्वोच्‍च शिखर,
यह फ्रैको, टोजो, मसोलिनी पर हर हिटलर,
यह रूज़वेल्‍ट, यह ट्रूमन, जिसकी चेष्‍टा पर
हीरोशीमा, नागासाकी पर ढहा क़हर,
यह है चियांग, जापान गर्व को मर्दित कर
जो अर्द्ध चीन के साथ आज करता संगर,
यह भीमकाय चर्चिल है जिसको लगी फ़ि‍कर
इंगलिस्‍तानी साम्राज्‍य रहा है बिगड़-बिखर,
यह अफ्रीक़ा का स्‍मट्स ख़बर है जिसे नहीं,
क्‍या होता, गोरे-काले चमड़े के अंदर,
यह स्‍टलिनग्राड
का स्‍टलिन लौह का
ठोस वीर।
जग के इस महाप्रदर्शन में नम्रता सहित
संपूर्ण सभ्‍यता भारतीय, सारी संस्‍कृति
के युग-युग की साधना-तपस्‍या की परिणति,
हम में जो कुछ सर्वोत्‍तम है उसका प्रतिनिधि
हम लाए हैं
अपना बूढ़ा-
नंगा फ़कीर।

हम गाँधी की प्रतिभा के इतने पास खड़े - Harivansh Rai Bachchan

हम गाँधी की प्रतिमा के इतने पास खड़े
हम देख नहीं पाते सत्‍ता उनकी महान,
उनकी आभा से आँखें होतीं चकाचौंध,
गुण-वर्णन में
साबित होती
गूँगी ज़बान।
वे भावी मानवता के हैं आदर्श एक,
असमर्थ समझने में है उनको वर्तमान,
वर्ना सच्‍चाई और अहिंसा की प्रतिमा
यह जाती दुनिया
से होकर
लोहू लुहान!
जो सत्‍यं, शिव, सुन्‍दर, शुचितर होती है
दुनिया रहती है उसके प्रति अंधी, अजान,
वह उसे देखती, उसके प्रति नतशिर होती
जब कोई कवि
करता उसको
आँखें प्रदान।
जिन आँखों से तुलसी ने राघव को देखा,
जिस अतर्दृग से सूरदास ने कान्‍हा को,
कोई भविष्‍य कवि गाँधी को भी देखेगा,
दर्शाएगा भी
उनकी सत्‍ता
दुनिया को।
भारत का गाँधी व्‍यक्‍त नहीं तब तक होगा
भारती नहीं जब तक देती गाँधी अपना,
जब वाणी का मेधावी कोई उतरेगा,
तब उतरेगा
पृथ्‍वी पर गाँधी
का सपना।
जायसी, कबीरा, सूरदास, मीरा, तुलसी,
मैथिली, निराला, पंत, प्रसाद, महादेवी,
ग़ालिबोमीर, दर्दोनज़ीर, हाली, अकबर,
इक़बाल, जोश, चकबस्‍त फिराक़, जिगर, सागर
की भाषा निश्‍चय वरद पुत्र उपजाएगी
जिसके तेजस्वी-ओजस्वी वचनों में
मेरी भविष्‍य
वाणी सच्‍ची
हो जाएगी।

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Harivansh Rai Bachchan) #icon=(link) #color=(#2339bd)

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!