हरिवंशराय बच्चन कटती प्रतिमाओं की आवाज Harivansh Rai Katati Pratimaaon Ki Aawaaz

Hindi Kavita

कटती प्रतिमाओं की आवाज-हरिवंशराय बच्चन
Katati Pratimaaon Ki Aawaaz-Harivansh Rai

युग-नाद

आर्य

तुंग-उतुंग पर्वतों को पद-मर्दित करते

करते पार तीव्र धारायों की बर्फानी औ' तूफानी नदियाँ,

और भेदते दुर्मग, दुर्गम गहन भयंकर अरण्‍यों को

आए उन पुरियों को जो थीं

समतल सुस्थित, सुपथ, सुरक्षित;

जिनके वासी पोले, पीले और पिलपिले,

सुख-परस्‍त, सुविधावादी थे;

और कह उठे,

नहीं मारे लिए श्रेय यह

रहे हमारी यही प्रार्थना-

बलमसि बलं मयि धेहि।

वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि।

दिवा-निशा का चक्र

अनवरत चलता जाता;

स्‍वयं समय ही नहीं बदलता,

सबको साथ बदलता जाता।

वही आर्य जो किसी समय

दुर्लंघ्‍य पहाड़ों,

दुस्‍तर नद,

दुभेद्य वनों को

कटती प्रतिमाओं की आवाज़

बने चुनौती फिरते थे,

अब नगर-निवासी थे

संभ्रांत, शांत-वैभव-प्रिय, निष्‍प्रभ, निर्बल,

औ' करती आगाह एक आवाज़ उठी थी-

नायमात्‍मा बलहीनेन लभ्‍य:।

नायमात्‍मा बलहीनेन लभ्‍य:।

यही संपदा की प्रवृत्ति है

वह विभक्‍त हो जाती है

दनुजी-दैवी में-

रावण, राघव,

कंस, कृष्‍ण में;

औ' होता संघर्ष

महा दुर्द्धर्ष, महा दुर्दांत,

अंत में दैवी होती जयी,

दानवी विनत, वनिष्‍ट परास्‍त-

दिग् दिगंत से

ध्‍वनित प्रतिध्‍वनित होता है यह

काल सिद्ध विश्‍वास-

सत्‍यमेव जयते नानृतम्।

सत्‍यमेव जयते नानृतम्।

जग के जीवन में

ऐसा भी युग आता है

जब छाता ऐसा अंधकार

ऊँची से ऊँची भी मशाल

होती विलुप्‍त,

होते पथ के दीप सुप्‍त

सूझता हाथ को नहीं हाथ,

पाए फिर किसका कौन साथ।

एकाकी हो जो जहाँ

वहीं रुक जाता है,

सब पर शासन करता

केवल संनाटा है।

पर उसे भेदकर भी कौई स्‍वर उठता है,

फिर कौई उसे उठाता है,

दुहराता है,

फिर सभी उठाते,

सब उसको दुहराते हैं,

अंधियाले का दु:सह आसन

डिग जाता है-

अप्‍प दीपो भव!

अप्‍प दीपो भव!

rose-wallpaper

जैसे शरीर के

उसी तरह देश-जाती के अंग

संतुलित, संयोजित, संगठित,

स्‍वस्‍थ,

विपरीत,

रुग्‍ण।

दुर्भाग्‍य कि विघटित आज केंद्र,

कुछ नहीं आज किसी मुल संत्र से

नद्ध युक्‍त,

सब शक्‍त‍ि-परीक्षण को तत्‍पर;

परिणाम, प्रतिस्‍पर्धा,

तलवार तर्क,

पशुबल केवल जय का प्रमाण-

गो क्षत-विक्षत प्रत्‍येक पक्ष

औ'

नैतिकता निरपेक्ष,

लोकमान्‍यता उपेक्षक

भनिति भदेस गुंजाती धरती-आसमान-


जिसकी लाठी उसकी भैंस।

जिसकी लाठी उसकी भैंस।


अब कुला विदेशी आक्रांता के लिए

देश, बाहर-भीतर,

खंडित-जर्जर।

पर्व-सागर का पार

लुटेरे-व्‍यापारी आते,

बनते हैं उसके अभिभावक शासक;

वह लुटता, शोषित होता है-

अपमानित, निंदित, अध:पतित

सदियों के कटु अनुभव से

मंथित अंतर से

आवाज़ एक

अवसाद भरी उठती है,

आती व्‍याप दिशा-विदिशाओं में,

नगरों, उपनगरों, गाँवों में,

जन-जन की मन:शिराओं में-


पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।

पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।


फिर-फिर निर्बल विद्रोह

विफल हो जाते हैं,

श्रृंखला खलों की नेक नही ढीली होती।

परवशता की अंतिम सीमा पर

असामर्थ्‍य भी सामर्थ्‍य जगा करता है एक

टेक रखकर करने या मरने की।

तब हार-जीत की फिक्र

कहाँ रह जाती है,

जब किसी, स्‍वप्‍न, आदर्श, लक्ष्‍य से

प्रेरित होकर जाति

दाँव पर निज सर्वस्‍व लगाती है।

गाँधी की जिह्वा पर उस दिन

बूढ़ा भारत,

जैसे फिर से होकर जवान

अब और न सहने का हठकर,

सब धैर्य छोड़,

युग-युग सोया पुरुषार्थ जगा,

साहस बटोरकर बोला था-

वह निर्भय, निश्‍चयपूर्ण शब्‍द

सुनकर उसदिन

परदेशी साशन डोला था-


करो या मरो! मरो या करो।

कुछ न गुज़रो, कुछ न गुज़रो।


आज़ाद मुल्‍क,

दोनों हाथों करके वसूल

कुछ बड़ा शुल्‍क।

क्‍या सर्व हानी आशंका से ही

आधा त्‍याग

नहीं गया?-


जो अर्ध पराजय थी

पनवाई गई बताकर पूर्ण जीत।

धीरे-धीरे परिणाम स्‍पष्‍ट,

टुकड़े-टुकड़े

स्‍वाधीन देश का मोहभंग,

सपना विनष्‍ट।

अवसरवादी नेताओं की,

संघर्षकाल में किए गए

साधन के फल भोगने-सँजोने की वेला

भूखी, नंगी जनता गरीब की अवहेला।

वह दिन-दिन भारी ऋणग्रस्‍त,

दुर्दिन, अकाल, मँहगाई से

संत्रस्‍त, पस्‍त,

अधिकारी, व्‍यापारी, बिचौलिए लोभी

भ्रष्‍टाचार-मस्‍त,

कर्तव्‍यविमूढ़,

आशाविहीन,

संपूर्ण आत्‍म-विश्‍वास-रिक्‍त,

नवदृष्‍ट‍ि-रहित,

उत्‍साह-क्षीण,

सब विधि वंचित,

कुंठा-कवलित भारत समस्‍त।


वे 'अवाँ गार्द',

अर्थात हमारे अग्रिम पंक्‍त‍ि

सफ़र-मैना,

जिनको कोई

युग-नाद उठाना था

ऊँचा कर

कसकर मुट्ठी बँधा हाथ,

टें-टें करते

वे चला रहे हैं वाद, वाद पर वाद,

वाद पर वाद!

जड़ की मुसकान

एक दिन तूने भी कहा था,

जड़?

जड़ तो जड़ ही है,

जीवन से सदा डरी रही है,

और यही है उसका सारा इतिहास

कि ज़मीन में मुँह गड़ाए पड़ी रही है,

लेकिल मैं ज़मीन से ऊपर उठा,


बाहर निकला,

बढ़ा हूँ,

मज़बूत बना हूँ,

इसी से तो तना हूँ।

एक दिन डालों ने भी कहा था,


तना?

किस बात पर है तना?

जहाँ बिठाल दिया गया था वहीं पर है बना।

प्रगतिशील जगती में तील भर नहीं डोला है,

खाया है, मोटाया है, सहलाया चोला है;

लेकिन हम तने में फूटीं,

दिशा-दिशा में गईं

ऊपर उठीं,

नीचे आईं

हर हवा के लिए दोल बनी, लहराईं,

इसी से तो डाल कहलाईं।


एक दिन पत्तियों ने भी कहा था,

डाल?

डाल में क्‍या है कमाल?

माना वह झूमी, झुकी, डोली है

ध्‍वनि-प्रधान दुनिया में

एक शब्‍द भी वह कभी बोली है?

लेकिन हम हर-हर स्‍वर करतीं हैं,

मर्मर स्‍वर मर्म भरा भरती हैं

नूतन हर वर्ष हुई,

पतझर में झर

बाहर-फूट फिर छहरती हैं,

विथकित चित पंथी का

शाप-ताप हरती हैं।


एक दिन फूलों ने भी कहाँ था,

पत्तियाँ?

पत्तियों ने क्‍या किया?

संख्‍या के बल पर बस डालों को छाप लिया,

डालों के बल पर ही चल चपल रही हैं;

हवाओं के बल पर ही मचल रही हैं;

लेकिन हम अपने से खुले, खिले, फूले हैं-

रंग लिए, रस लिए, पराग लिए-

हमारी यक्ष-गंध दूर-दूर फैली है,

भ्रमरों ने आकर हमारे गुन गाए हैं,

हम पर बौराए हैं।

सबकी सुन पाई है,

जड़ मुसकराई है!

ईश्‍वर

उनके पास घर-बार है,

कार है, कारबार है,

सुखी परिवार है,

घर में सुविधाएँ हैं,

बाहर सत्‍कार है,

उन्‍हें ईश्‍वर की इसलिए दरकार है

कि प्रकट करने को

उसे फूल चढ़ाएँ, डाली दें ।


उनके पास न मकान है

न सरोसामान है,

न रोज़गार है,

ज़रूर, बड़ा परिवार है; भीतर तनाव है,

उन्‍हें ईश्‍वर की इसलिए दरकार है कि

किसी पर तो अपना विष उगलें,

किसी को तो गाली दें ।


उनके पास छोटा मकान है,

थोड़ा सामान है,

मामूली रोज़गार है,

मझोला परिवार है,

थोड़ा काम, थोड़ा फुरसत है,

इसी से उनके यहाँ दिमाग़ी कसरत है।


ईश्‍वर है-नहीं है,

पर बहस है,

नतीज़ा न निकला है,

न निकालने की मंशा है,

कम क्‍या बतरस है!

महाबलिपुरम्

कौन कहता

कल्‍पना

सुकुमार, कोमल, वायवी, निस्‍तेज औ'

निस्‍ताप होती?

मैं महाबलीपुरम में

सागर किनारे पड़ी

औ' कुछ फ़ासले पर खड़ी चट्टानें

चकित दृग देखता हूँ

और क्षण-क्षण समा जाता हूँ उन्‍हीं में

और जब-जब निकल पाता,

पूछता हूँ--

कौन कहता

कल्‍पना

सुकुमार, कोमल, वायवी, निस्‍तेज औ'

निस्‍ताप होती?

वर्ष एक सहस्‍त्र से भी अधिक बीते

कल्‍पना आई यहाँ थी

पर न सागर की तरेगें

औ'

न लहरे बादलों के

औ' न नोनखारे झकोरे सिंधु से उठती हवा के

धो-बहा पाए,

उड़ा पाए

पड़े पद-चिह्न उसके पत्‍थरों पर...

औ' मिटा भी नहीं पाएँगे

भविष्‍यत् में

जहाँ तक मानवी दृग देख पाते।

कल्‍पना आई यहाँ पर,

और उसके दृग-कटाक्षों से

लगे पाषाण कटने-

कलश, गोपुर, द्वार, दीर्घाएँ,

गवाक्ष, स्‍तंभ, मंडप, गर्भ-गृह,

मूर्तियाँ और फिर मूर्तियाँ, फिर मूर्तियाँ

उनमुक्‍त निकालीं

बंद अपने में युगों से जिन्‍हें

चट्टानें किए थीं-

मूर्तियाँ जल-थल-गगन के जंतु-जीवों,

मानवों की, यक्ष-युग्‍मों की अधर-चर,

काव्‍य और पुराण वर्णित

देवियों की, देवताओं की अगिनती-

विफल होती,

शीश धुनती।


यहाँ वामन बन त्रिविक्रम

नापते त्रैलोक्‍य अपने तीन डग में,

और आधे के लिए बलि

देह अपने प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

यहाँ दुर्गा

महिष मर्दन कर

विजयिनी का प्रचंडकार धारे।

एक उँगली पर यहाँ पर

कृष्‍ण गोवर्धन सहज-नि:श्रम उठाए

तले ब्रज के गो-गोप सब शरण पाए,

औ' भगीरथ की तपस्‍या यहाँ चलती है कि

सुरसरि बहे धरती पर उतरकर,

सगर के सुत मुक्ति पाएँ।

उग्र यह कैसी तपस्‍या और संक्रमक

कि वन में हिंस्र पशु भी

ध्‍यान की मुद्रा बनाए।...

और बहुत कुछ धुल गया संस्‍कार बनकर

जो हृदय में

शब्‍द वह कैसे बताए!


सोचता हूँ,

कौन शिल्‍पी

किस तरह की छेनियाँ, कैसे हथौड़े लिए,

कैसी विवशता से घिरे-प्रेरे

यहाँ आए होंगे

औ' रहे होंगे जुटे कितने दिनों तक-

दिन लगन, श्रम स्‍वेद के, संघर्ष के

शायद कभी संतोष के भी-

काटते इन मूर्तियों को,

नहीं-

अपने आप को ही।


देखने की वस्‍तु तो

इनसे अधिक होंगे वही,

पर वे मिले

इस देश के इतिहास में,

इसकी अटूट परंपरा में

और इसकी मृत्तिका में

जो कि तुम हो,

जो कि मैं हूँ।

लग रहा

पाषाण की कोई शिला हूँ

और मुझ

पर छेनियाँ रख-रख अनवरत

मारता कोई हथौड़ा

और कट-कट गिर रहा हूँ...

जानता मैं नहीं

मुझको क्‍या बनाना चाहता है

या बना पाया अभी तक।

मैं कटे, बिखरे हुए पाषाण खंडों को

उठाकर देखता हूँ-

अरे यह तो 'हलाहल', 'सतरंगिनी' यह;

देखता हूँ,

वह 'निशा-संगीत',...'खेमे में चार खूँटी';

क्‍या अजीब त्रिभंगिमा इस भंगिमा में!

'आरती' उलटी, 'अँगारे ' दूर छिटके';

यह 'मधुबाला' बिलुंठित;

धराशायी वहाँ 'मधुशाला' कि चट्टानी पड़ीं दो-

आँख से कम सुझता अब-

उस तफ़ 'मधुकलश' लुढ़के पड़े रीते;

'तुम बिन जिअत बहुत दिन बीते'।

दो पीढ़ियां

मुँशी सी तन्नाए,

पर जब उनसे कहा गया,

ऐसा ज़ुल्म और भी सह चुके हैं

तो चले गए दुम दबाए ।


मुंशी सी के लड़के तन्नाए,

पर जब उनसे कहा गया,

ऐमा ज़ुल्म औरों पर भी हुआ है

तो वे और भी तन्नाए ।

Jane Mane Kavi

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