एकांत-संगीत हरिवंशराय बच्चन Ekant-Sangeet Harivansh Rai Bachchan

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हरिवंशराय बच्चन - एकांत-संगीत 
Harivansh Rai Bachchan-Ekant-Sangeet 

एकांत संगीत (कविता) - हरिवंशराय बच्चन

तट पर है तरुवर एकाकी,
नौका है, सागर में,
अंतरिक्ष में खग एकाकी,
तारा है, अंबर में,
भू पर वन, वारिधि पर बेड़े,
नभ में उडु खग मेला,
नर नारी से भरे जगत में
कवि का हृदय अकेला!

अब मत मेरा निर्माण करो - हरिवंशराय बच्चन

अब मत मेरा निर्माण करो!
तुमने न बना मुझको पाया,
युग-युग बीते, मैं न घबराया;
भूलो मेरी विह्वलता को, निज लज्जा का तो ध्यान करो!
अब मत मेरा निर्माण करो!
इस चक्की पर खाते चक्कर
मेरा तन-मन-जीवन जर्जर,
हे कुंभकार, मेरी मिट्टी को और न अब हैरान करो!
अब मत मेरा निर्माण करो!
कहने की सीमा होती है,
सहने की सीमा होती है;
कुछ मेरे भी वश में, मेरा कुछ सोच-समझ अपमान करो!
अब मत मेरा निर्माण करो!

मेरे उर पर पत्थर धर दो - हरिवंशराय बच्चन

मेरे उर पर पत्थर धर दो!
जीवन की नौका का प्रिय धन
लुटा हुआ मणि-मुक्ता-कंचन
तो न मिलेगा, किसी वस्तु से इन खाली जगहों को भर दो!
मेरे उर पर पत्थर धर दो!
मंद पवन के मंद झकोरे,
लघु-लघु लहरों के हलकोरे
आज मुझे विचलित करते हैं, हल्का हूँ, कुछ भारी कर दो!
मेरे उर पर पत्थर धर दो!
पर क्यों मुझको व्यर्थ चलाओ?
पर क्यों मुझको व्यर्थ बहाओ?
क्यों मुझसे यह भार ढुलाओ? क्यों न मुझे जल में लय कर दो!
मेरे उर पर पत्थर धर दो!

मूल्य दे सुख के क्षणों का - हरिवंशराय बच्चन

मूल्य दे सुख के क्षणों का!
एक पल स्वच्छंद होकर
तू चला जल, थल, गगन पर,
हाय! आवाहन वही था विश्व के चिर बंधनों का!
मूल्य दे सुख के क्षणों का!
पा निशा की स्वप्न छाया
एक तूने गीत गाया,
हाय! तूने रुद्ध खोला द्वार शत-शत क्रंदनों का!
मूल्य दे सुख के क्षणों का!
आँसुओं से ब्याज भरते
अनवरत लोचन सिहरते,
हाय! कितना बढ़ गया ॠण होंठ के दो मधुकणों का!
मूल्य दे सुख के क्षणों का!
harivansh-rai-bachchan-sad-shayari

कोई गाता, मैं सो जाता - हरिवंशराय बच्चन

कोई गाता, मैं सो जाता!
संसृति के विस्तृत सागर पर
सपनों की नौका के अंदर
सुख-दुख की लहरों पर उठ-गिर बहता जाता मैं सो जाता!
कोई गाता मैं सो जाता!
आँखों में भरकर प्यार अमर,
आशीष हथेली में भरकर
कोई मेरा सिर गोदी में रख सहलाता, मैं सो जाता!
कोई गाता मैं सो जाता!
मेरे जीवन का खारा जल,
मेरे जीवन का हालाहल
कोई अपने स्वर में मधुमय कर बरसाता, मैं सो जाता!
कोई गाता मैं सो जाता!

मेरा तन भूखा, मन भूखा - हरिवंशराय बच्चन

मेरा तन भूखा, मन भूखा!
इच्छा, सब सत्यों का दर्शन,
सपने भी छोड़ गये लोचन!
मेरे अपलक युग नयनों में मेरा चंचल यौवन भूखा!
मेरा तन भूखा, मन भूखा!
इच्छा, सब जग का आलिंगन,
रूठा मुझसे जग का कण-कण!
मेरी फैली युग बाहों में मेरा सारा जीवन भूखा!
मेरा तन भूखा, मन भूखा!
आँखें खोले अगणित उडुगण,
फैला है सीमाहीन गगन!
मानव की अमिट विभुक्षा में क्या अग-जग का कारण भूखा?
मेरा तन भूखा, मन भूखा!

व्यर्थ गया क्या जीवन मेरा - हरिवंशराय बच्चन

व्यर्थ गया क्या जीवन मेरा?
प्यासी आँखें, भूखी बाँहें,
अंग-अंग की अगणित चाहें;
और काल के गाल समाता जाता है प्रति क्षण तन मेरा!
व्यर्थ गया क्या जीवन मेरा?
आशाओं का बाग लगा है,
कलि-कुसुमों का भाग जगा है;
पीले पत्तों-सा मुर्झाया जाता है प्रति पल मन मेरा!
व्यर्थ गया क्या जीवन मेरा?
क्या न किसी के मन को भाया,
दिल न किसी का बहला पाया?
क्या मेरे उर के अंदर ही गूँज मिटा उर क्रंदन मेरा?
व्यर्थ गया क्या जीवन मेरा?

खिड़की से झाँक रहे तारे - हरिवंशराय बच्चन

खिड़की से झाँक रहे तारे!
जलता है कोई दीप नहीं,
कोई भी आज समीप नहीं,
लेटा हूँ कमरे के अंदर बिस्तर पर अपना मन मारे!
खिड़की से झाँक रहे तारे!
सुख का ताना, दुख का बाना,
सुधियों ने है बुनना ठाना,
लो, कफ़न ओढाता आता है कोई मेरे तन पर सारे!
खिड़की से झाँक रहे तारे!
अपने पर मैं ही रोता हूँ,
मैं अपनी चिता संजोता हूँ,
जल जाऊँगा अपने कर से रख अपने ऊपर अंगारे!
खिड़की से झाँक रहे तारे!

नभ में दूर-दूर तारे भी - हरिवंशराय बच्चन

नभ में दूर-दूर तारे भी!
देते साथ-साथ दिखलाई,
विश्व समझता स्नेह-सगाई;
एकाकी पन का अनुभव, पर, करते हैं ये बेचारे भी!
नभ में दूर-दूर तारे भी
उर-ज्वाला को ज्योति बनाते,
निशि-पंथी को राह बताते,
जग की आँख बचा पी लेते ये आँसू खारे भी!
नभ में दूर-दूर तारे भी
अंधकार से मैं घिर जाता,
रोना ही रोना बस भाता
ध्यान मुझे जब जब यह आता-
दूर हृदय से कितने मेरे, मेरे जो सबसे प्यारे भी
नभ में दूर-दूर तारे भी

मैं क्यों अपनी बात सुनाऊँ - हरिवंशराय बच्चन

मैं क्यों अपनी बात सुनाऊँ?
जगती के सागर में गहरे
जो उठ-गिरतीं अगणित लहरें,
उनमें एक लहर लघु मैं भी, क्यों निज चंचलता दिखलाऊँ?
मैं क्यों अपनी बात सुनाऊँ?
जगती के तरुवर में प्रति पल
जो लगते-गिरते पल्लव-दल,
उनमें एक पात लघु मैं भी, क्यों निज मरमर-गायन गाऊँ?
मैं क्यों अपनी बात सुनाऊँ?
मुझ-सा ही जग भर का जीवन,
सब में सुख-दुख, रोदन-गायन,
कुछ बतला, कुछ बात छिपा क्यों एक पहेली व्यर्थ बुझाऊँ?
मैं क्यों अपनी बात सुनाऊँ?

छाया पास चली आती है - हरिवंशराय बच्चन

छाया पास चली आती है!
जड़ बिस्तर पर पड़ा हुआ हूँ,
तम-समाधि में गड़ा हुआ हूँ;
तन चेतनता-हीन हुआ है, साँस महज चलती जाती है!
छाया पास चली आती है!
तन सफ़ेद है, पट सफ़ेद है,
अंग-अंग में भरा भेद है,
निकट खिसकती देख इसे धकधक करती मेरी छाती है!
छाया पास चली आती है!
हाथों में कुछ है प्याला-सा,
प्याले में कुछ है काला-सा,
जान गया क्या मुझे पिलाने यह साकीबाला लाती है!
छाया पास चली आती है!

मध्य निशा में पंछी बोला - हरिवंशराय बच्चन

मध्य निशा में पंछी बोला!
ध्वनित धरातल और गगन है,
राग नहीं है, यह क्रंदन है,
टूटे प्यारी नींद किसी की, इसने कंठ करुण निज खोला!
मध्य निशा में पंछी बोला!
निश्चित गाने का अवसर है,
सीमित रोने को निज घर है,
ध्यान मुझे जग का रखना है, धिक मेरा मानव तन चोला!
मध्य निशा में पंछी बोला!
कितनी रातों को मन मेरा,
चाहा, कर दूँ चीख सबेरा,
पर मैंने अपनी पीड़ा को चुप-चुप अश्रुकणों में घोला!
मध्य निशा में पंछी बोला!

जा कहाँ रहा है विहग भाग - हरिवंशराय बच्चन

जा कहाँ रहा है विहग भाग?
कोमल नीड़ों का सुख न मिला,
स्नेहालु दृगों का रुख न मिला,
मुँह-भर बोले, वह मुख न मिला, क्या इसीलिये, वन से विराग?
जा कहाँ रहा है विहग भाग?
यह सीमाओं से हीन गगन,
यह शरणस्थल से दीन गगन,
परिणाम समझकर भी तूने क्या आज दिया है विपिन त्याग?
जा कहाँ रहा है विहग भाग?
दोनों में है क्या उचित काम?
मैं भी लूँ तेरा संग थाम,
या तू मुझसे मिलकर गाए जीवन-अभाव का करुण राग!
जा कहाँ रहा है विहग भाग?

जा रही है यह लहर भी - हरिवंशराय बच्चन

जा रही है यह लहर भी!
चार दिन उर से लगाया,
साथ में रोई, रुलाया,
पर बदलती जा रही है आज तो इसकी नजर भी!
जा रही है यह लहर भी!
हाय! वह लहरी न आती,
जो सुधा का घूँट लाती,
जो न आकर लौटती फिर, कर मुझे देती अमर भी!
जा रही है यह लहर भी!
वो गई तृष्णा जगाकर,
वह गई पागल बनाकर,
आँसुओं से यह भिगाकर,
क्यों लहर आती नहीं है जो पिला जाती जहर भी!
जा रही है यह लहर भी!

प्रेयसि, याद है वह गीत - हरिवंशराय बच्चन

प्रेयसि, याद है वह गीत?
गोद में तुझको लेटाकर,
कंठ में उन्मत्त स्वर भर,
गा जिसे मैंने लिया था स्वर्ग का सुख जीत!
प्रेयसि, याद है वह गीत?
है न जाने तू कहाँ पर,
कंठ सूखा, क्षीणतर स्वर,
सुन जिसे मैं आज हो उठता स्वयं भयभीत!
प्रेयसि, याद है वह गीत?
तू न सुनने को रही जब,
राग भी जब वह गया दब,
तब न मेरी जिंदगी के दिन गये क्यों बीत!
प्रेयसि, याद है वह गीत?

कोई नहीं, कोई नहीं - हरिवंशराय बच्चन

कोई नहीं, कोई नहीं!
यह भूमि है हाला-भरी,
मधुपात्र-मधुबाला-भरी,
ऐसा बुझा जो पा सके मेरे हृदय की प्‍यास को-
कोई नहीं, कोई नहीं!
सुनता, समझता है गगन,
वन के विहंगों के वचन,
ऐसा समझ जो पा सके मेरे हृदय- उच्‍छ्वास को-
कोई नहीं, कोई नहीं!
मधुऋतु समीरण चल पड़ा,
वन ले नए पल्‍लव खड़ा,
ऐसा फिरा जो ला सके मेरे लिए विश्‍वास को-
कोई नहीं, कोई नहीं!

किसलिये अंतर भयंकर - हरिवंशराय बच्चन

किसलिये अंतर भयंकर?
चाहता मैं गान मन का,
राग बन जाता गगन का,
किंतु मेरा स्वर मुझी में लीन हो मिटता निरंतर!
किसलिये अंतर भयंकर?
चाहता वह गीत गाना,
सुन जिसे हो खुश जमाना,
किंतु मेरे गीत मुझको ही रुला जाते निरंतर!
किसलिये अंतर भयंकर?
चाहता मैं प्यार मेरा,
विश्व का बनता बसेरा,
किंतु अपने आप को ही मैं घृणा करता निरंतर!
किसलिये अंतर भयंकर?

अब तो दुख दें दिवस हमारे - हरिवंशराय बच्चन

अब तो दुख दें दिवस हमारे!
मेरा भार स्वयं ले करके,
मेरी नाव स्वयं खे करके,
दूर मुझे रखते जो श्रम से, वे तो दूर सिधारे!
अब तो दुख दें दिवस हमारे!
रह न गये जो हाथ बटाते,
साथ खेवाकर पार लगाते,
कुछ न सही तो साहस देते होकर खड़े किनारे!
अब तो दुख दें दिवस हमारे!
डूब रही है नौका मेरी,
बंद जगत हैं आँखें तेरी,
मेरी संकट की घड़ियों के साखी नभ के तारे!
अब तो दुख दें दिवस हमारे!

मैंने गाकर दुख अपनाए - हरिवंशराय बच्चन

मैंने गाकर दुख अपनाए!
कभी न मेरे मन को भाया,
जब दुख मेरे ऊपर आया,
मेरा दुख अपने ऊपर ले कोई मुझे बचाए!
मैंने गाकर दुख अपनाए!
कभी न मेरे मन को भाया,
जब-जब मुझको गया रुलाया,
कोई मेरी अश्रु धार में अपने अश्रु मिलाए!
मैंने गाकर दुख अपनाए!
पर न दबा यह इच्छा पाता,
मृत्यु-सेज पर कोई आता,
कहता सिर पर हाथ फिराता-
ज्ञात मुझे है, दुख जीवन में तुमने बहुत उठाये!
मैंने गाकर दुख अपनाए!

चढ़ न पाया सीढ़ियों पर - हरिवंशराय बच्चन

चढ़ न पाया सीढ़ियों पर!
प्रात आया, भक्त आए,
पुष्प-जल की भेंट लाए,
देव-मंदिर पहुँच पाए,
औ’उन्हें देखा किया मैं लोचनों में नीर भर-भर!
चढ़ न पाया सीढ़ियों पर!
साँझ आई, भक्त लौटे,
भक्ति से अनुरक्त लौटे,
जान पाए-चाह मेरी वे गए कितनी कुचलकर!
चढ़ न पाया सीढ़ियों पर!
सब गए जब, रात आई,
पंथ-रज मैंने उठाई,
देवता मेरे मिले मुझको उसी रज से निकलकर!
चढ़ न पाया सीढ़ियों पर!

क्या दंड के मैं योग्य था - हरिवंशराय बच्चन

क्या दंड के मैं योग्य था!
चलता रहूँ यह चाह दी,
पर एक ही तो राह दी,
किस भाँति होती दूसरी इस देह-यात्रा की कथा!
क्या दंड के मैं योग्य था!
तेरी रजा पर मैं चला,
तब क्या बुरा, तब क्या भला,
फिर भी मुझे मिलती सजा, तेरी निराली है प्रथा!
क्या दंड के मैं योग्य था!
यह दंड तेरे हाथ का
है चिह्न तेरे साथ का
इस दंड से मैं मुक्त हो जाता कभी का, अन्यथा!
क्या दंड के मैं योग्य था?

मैं जीवन में कुछ न कर सका - हरिवंशराय बच्चन

मैं जीवन में कुछ न कर सका!
जग में अँधियारा छाया था,
मैं ज्‍वाला लेकर आया था
मैंने जलकर दी आयु बिता, पर जगती का तम हर न सका!
मैं जीवन में कुछ न कर सका!
अपनी ही आग बुझा लेता,
तो जी को धैर्य बँधा देता,
मधु का सागर लहराता था, लघु प्‍याला भी मैं भर न सका!
मैं जीवन में कुछ न कर सका!
बीता अवसर क्‍या आएगा,
मन जीवन भर पछताएगा,
मरना तो होगा ही मुझको, जब मरना था तब मर न सका!
मैं जीवन में कुछ न कर सका!

कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं - हरिवंशराय बच्चन

कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं!
उर में छलकता प्यार था,
दृग में भरा उपहार था,
तुम क्यों ड़रे, था चाहता मैं तो प्रणय-प्रतिकार मे-
कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं!
मुझको गये तुम छोड़कर,
सब स्वप्न मेरा तोड़कर,
अब फाड़ आँखें देखता अपना वृहद संसार में-
कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं!
कुछ मौन आँसू में गला,
कुछ मूक श्वासों में ढला,
कुछ फाड़कर निकला गला,
पर, हाय, हो पाई कमी मेरे हृदय के भार में-
कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं!

जैसा गाना था, गा न सका - हरिवंशराय बच्चन

जैसा गाना था, गा न सका!
गाना था वह गायन अनुपम,
क्रंदन दुनिया का जाता थम,
अपने विक्षुब्ध हृदय को भी मैं अब तक शांत बना न सका!
जैसा गाना था, गा न सका!
जग की आहों को उर में भर
कर देना था, मुझको सस्वर,
निज आहों के आशय को भी मैं जगती को समझा न सका!
जैसा गाना था, गा न सका!
जन-दुख-सागर पर जाना था,
डुबकी ले थाह लगाना था,
निज आँसू की दो बूँदों में मैं कूल-किनारा पा न सका!
जैसा गाना था, गा न सका!

गिनती के गीत सुना पाया - हरिवंशराय बच्चन

गिनती के गीत सुना पाया!
जब जग यौवन से लहराया,
दृग पर जल का पर्दा छाया,
फिर मैंने कंठ रुँधा पाया,
जग की सुषमा का क्षण बीता मैं कर मल-मलकर पछताया!
गिनती के गीत सुना पाया!
संघर्ष छिड़ा अब जीवन का,
कवि के मन का, पशु के तन का,
निर्द्वंद-मुक्त हो गाने का अब तक न कभी अवसर आया!
गिनती के गीत सुना पाया!
जब तन से फुरसत पाऊँगा,
नभ-मंड़ल पर मँडराऊँगा,
नित नीरव गायन गाऊँगा,
यदि शेष रही मन की सत्ता मिटने पर मिट्टी की काया!
गिनती के गीत सुना पाया!

किसके लिए? किसके लिए - हरिवंशराय बच्चन

किसके लिए? किसके लिए?
जीवन मुझे जो ताप दे,
जग जो मुझे अभिशाप दे,
जो काल भी संताप दे, उसको सदा सहता रहूँ,
किसके लिए? किसके लिए?
चाहे सुने कोई नहीं,
हो प्रतिध्‍वनित न कभी कहीं,
पर नित्‍य अपने गीत में निज वेदना कहता रहूँ,
किसके लिए? किसके लिए?
क्‍यों पूछता दिनकर नहीं,
क्‍यों पूछता गिरिवर नहीं,
क्‍यों पूछता निर्झर नहीं,
मेरी तरह, चलता रहूँ, गलता रहूँ, बहता रहूँ
किसके लिए? किसके लिए?

बीता इकतीस बरस जीवन - हरिवंशराय बच्चन

बीता इकतीस बरस जीवन!
वे सब साथी ही हैं मेरे,
जिनको गृह-गृहिणी-शिशु घेरे,
जिनके उर में है शान्ति बसी, जिनका मुख है सुख का दर्पण!
बीता इकतीस बरस जीवन!
कब उनका भाग्य सिहाता हूँ,
उनके सुख में सुख पाता हूँ,
पर कभी-कभी उनसे अपनी तुलना कर उठता मेरा मन!
बीता इकतीस बरस जीवन!
मैं जोड़ सका यह निधि सयत्न-
खंड़ित आशाएँ, स्वप्न भग्न,
असफल प्रयोग, असफल प्रयत्न,
कुछ टूटे फूटे शब्दों में अपने टूटे दिल का क्रंदन!
बीता इकतीस बरस जीवन!

मेरी सीमाएँ बतला दो - हरिवंशराय बच्चन

मेरी सीमाएँ बतला दो!
यह अनंत नीला नभमंडल,
देता मूक निमंत्रण प्रतिपल,
मेरे चिर चंचल पंखों को इनकी परिमित परिधि बता दो!
मेरी सीमाएँ बतला दो!
कल्पवृक्ष पर नीड़ बनाकर
गाना मधुमय फल खा-खाकर!
स्वप्न देखने वाले खग को जग का कडुआ सत्य चखा दो!
मेरी सीमाएँ बतला दो!
मैं कुछ अपना ध्येय बनाऊँ,
श्रेय बनाऊँ, प्रेय बनाऊँ;
अन्त कहाँ मेरे जीवन का एक झलक मुझको दिखला दो!
मेरी सीमाएँ बतला दो!

किस ओर मैं? किस ओर मैं - हरिवंशराय बच्चन

किस ओर मैं? किस ओर मैं?
है एक ओर असित निशा,
है एक ओर अरुण दिशा,
पर आज स्‍वप्‍नों में फँसा, यह भी नहीं मैं जानता-
किस ओर मैं? किस ओर मैं?
है एक ओर अगम्‍य जल,
है एक ओर सुरम्‍य थल,
पर आज लहरों से ग्रसा, यह भी नहीं मैं जानता-
किस ओर मैं? किस ओर मैं?
है हार एक तरफ पड़ी,
है जीत एक तरफ खड़ी,
संघर्ष-जीवन में धँसा, यह भी नहीं मैं जानता-
किस ओर मैं? किस ओर मैं?

जन्म दिन फिर आ रहा है - हरिवंशराय बच्चन

जन्म दिन फिर आ रहा है!
हूँ नहीं वह काल भूला,
जब खुशी के साथ फूला
सोचता था जन्मदिन उपहार नूतन ला रहा है!
जन्म दिन फिर आ रहा है!
वर्षदिन फिर शोक लाया,
सोच दृग में नीर छाया,
बढ़ रहा हूँ-भ्रम मुझे कटु काल खाता जा रहा है!
जन्म दिन फिर आ रहा है!
वर्षगाँठों पर मुदित मन,
मैं पुनः पर अन्य कारण-
दुखद जीवन का निकटतर अंत आता जा रहा है!
जन्म दिन फिर आ रहा है!

क्या साल पिछला दे गया - हरिवंशराय बच्चन

क्या साल पिछला दे गया?
कुछ देर मैं पथ पर ठहर,
अपने दृगों को फेरकर,
लेखा लगा लूँ काल का जब साल आने को नया!
क्या साल पिछला दे गया?
चिंता, जलन, पीड़ा वही,
जो नित्य जीवन में रहीं,
नव रूप में मैंने सहीं,
पर हो असह्य उठीं कई परिचित निगाहों की दया!
क्या साल पिछला दे गया?
दो-चार बूँदें प्यार की
बरसीं, कृपा संसार की,
(हा, प्यास पारावार की)
जिनके सहारे चल रही है जिंदगी यह बेहया!
क्या साल पिछला दे गया?

सोचा, हुआ परिणाम क्‍या - हरिवंशराय बच्चन

सोचा, हुआ परिणाम क्‍या?
जब सुप्‍त बड़वानल जगा,
जब खौलने सागर लगा,
उमड़ीं तरंगे ऊर्ध्‍वगा,
लें तारकों को भी डुबा, तुमने कहा-हो शीत, जम!
सोचा, हुआ परिणाम क्‍या?
जब उठ पड़ा मारुत मचल
हो अग्निमय, रजमय, सजल,
झोंके चले ऐसे प्रबल,
दे पर्वतों को भी उड़ा, तुमने कहा-हो मौन, थम!
सोचा, हुआ परिणाम क्‍या?
जब जग पड़ी तृष्‍णा अमर,
दृग में फिरी विद्युत लहर,
आतुर हुए ऐसे अधर,
पी लें अतल मधु-सिंधु को, तुमने कहा-मदिरा खतम!
सोचा, हुआ परिणाम क्‍या?

फिर वर्ष नूतन आ गया - हरिवंशराय बच्चन

फिर वर्ष नूतन आ गया!
सूने तमोमय पंथ पर,
अभ्यस्त मैं अब तक विचर,
नव वर्ष में मैं खोज करने को चलूँ क्यों पथ नया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!
निश्चित अँधेरा तो हुआ,
सुख कम नहीं मुझको हुआ,
दुविधा मिटी, यह भी नियति की है नहीं कुछ कम दया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!
दो-चार किरणें प्यार कीं, मिलती रहें संसार की,
जिनके उजाले में लिखूँ मैं जिंदगी का मर्सिया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!

यह अनुचित माँग तुम्हारी है - हरिवंशराय बच्चन

यह अनुचित माँग तुम्हारी है!
रोएँ-रोएँ तन छिद्रित कर
कहते हो, जीवन में रस भर!
हँस लो असफलता पर मेरी, पर यह मेरी लाचारी है।
यह अनुचित माँग तुम्हारी है!
कोना-कोना दुख से उर भर,
कहते हो, खोल सुखों के स्वर!
मानव की परवशता के प्रति यह व्यंग तुम्हारा भारी है।
यह अनुचित माँग तुम्हारी है!
समकक्षी से परिहास भला,
जो ले बदला, जो दे बदला,
मैं न्याय चाहता हूँ केवल जिसका मानव अधिकारी है।
यह अनुचित माँग तुम्हारी है!

क्या ध्येय निहित मुझमें तेरा - हरिवंशराय बच्चन

क्या ध्येय निहित मुझमें तेरा?
जन-रव में घुल मिल जाने से,
जन की वाणी में गाने से
संकोच किया क्यों करता है यह क्षीण, करुणतम स्वर मेरा?
क्या ध्येय निहित मुझमें तेरा?
जग-धारा में बह जाने से,
अपना अस्तित्व मिटाने से
घबराया करता किस कारण दो कण खारा आँसू मेरा?
क्या ध्येय निहित मुझमें तेरा?
क्यों भय से उठता सिहर-सिहर,
जब सोचा करता हूँ पल-भर,
उन कलि-कुसुमों की टोली पर,
जो आती संध्या को, प्रातः को कूच किया करती ड़ेरा?
क्या ध्येय निहित मुझमें तेरा?

मैं क्या कर सकने में समर्थ - हरिवंशराय बच्चन

मैं क्या कर सकने में समर्थ?
मैं आधि-ग्रस्त, मैं व्याधि ग्रस्त,
मैं काल-त्रस्त, मैं कर्म-त्रस्त,
मैं अर्थ ध्येय में रख चलता, मुझसे हो जाता है अनर्थ!
मैं क्या कर सकने में समर्थ?
मुझसे विधि, विधि की सृष्टि क्रुद्ध,
मुझसे संसृति का क्रम विरुद्ध,
इसलिए व्यर्थ मेरे प्रयत्न, इस कारण सब प्रार्थना व्यर्थ!
मैं क्या कर सकने में समर्थ?
निर्जीव पंक्ति में निर्विवेक,
क्रंदन रख रचना पद अनेक-
क्या यह भी जग का कर्म एक?
मुझको अब तक निश्चित न हुआ, क्या मुझसे होगा सिद्ध अर्थ!
मैं क्या कर सकने में समर्थ?

पूछता, पाता न उत्‍तर - हरिवंशराय बच्चन

पूछता, पाता न उत्‍तर!
जब चला जाता उजाला,
लौटती जब विहग-माला
"प्रात को मेरा विहग जो उड़ गया था, लौट आया?"
पूछता, पाता न उत्‍तर!
जब गगन में रात आती,
दीप मालाएँ जलाती,
"अस्‍त जो मेरा सितारा था हुआ, फिर जगमगाया?"
पूछता, पाता न उत्‍तर!
पूर्व में जब प्रात आता,
भृंग-दल मधुगीत गाता,
"मौन जो मेरा भ्रमर था हो गया, फिर गुनगुनाया?"
पूछता, पाता न उत्‍तर!

तब रोक न पाया मैं आँसू - हरिवंशराय बच्चन

तब रोक न पाया मैं आँसू!
जिसके पीछे पागल होकर
मैं दौड़ा अपने जीवन-भर,
जब मृगजल में परि‍वर्तित हो मुझपर मेरा अरमान हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!
जिसमें अपने प्राणों को भर
कर देना चाहा अजर-अमर,
जब विस्‍मृति के पीछे छिपकर मुझ पर वह मेरा गान हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!
मेरे पूजन-आराधन को,
मेरे संपूर्ण समर्पन को,
जब मेरी कमजोरी कहकर मेरा पूजित पाषाण हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!

गंध आती है सुमन की - हरिवंशराय बच्चन

गंध आती है सुमन की!
किस कुसुम का श्वास छूटा?
किस कली का भाग्य फूटा?
लुट गयी सहसा खुशी इस कालिमा में किस चमन की?
गंध आती है सुमन की!
आज कवि का हृदय टूटा,
आज कवि का कंठ फूटा,
विश्व समझेगा हुई क्षति आज क्या मेरे भवन की!
गंध आती है सुमन की!
अल्प गंध, विशाल आँगन,
गीत क्षीण, प्रचंड़ क्रंदन,
है असंभव गमक, गुंजन,
एक ही गति है कुसुम के प्राण की, कवि के वचन की!
गंध आती है सुमन की!

है हार नहीं यह जीवन में - हरिवंशराय बच्चन

है हार नहीं यह जीवन में!
जिस जगह प्रबल हो तुम इतने,
हारे सब हैं मानव जितने,
उस जगह पराजित होने में है ग्लानि नहीं मेरे मन में!
है हार नहीं यह जीवन में!
मदिरा-मज्जित कर मन-काया,
जो चाहा तुमने कहलाया,
क्या जीता यदि जीता मुझको मेरी दुर्बलता के क्षण में!
है हार नहीं यह जीवन में!
सुख जहाँ विजित होने में है,
अपना सब कुछ खोने में है,
मैं हारा भी जीता ही हूँ जग के ऐसे समरांगण में!
है हार नहीं यह जीवन में!

मत मेरा संसार मुझे दो - हरिवंशराय बच्चन

मत मेरा संसार मुझे दो!
जग की हँसी, घृणा, निर्ममता
सह लेने की तो दो क्षमता,
शांति भरी मुस्कानों वाला यदि न सुखद परिवार मुझे दो!
मत मेरा संसार मुझे दो!
ज्योति न को ऐसी तम घन में,
राह दिखा, दे धीरज मन में,
जला मुझे जड़ राख बना दे ऐसे तो अंगार मुझे दो!
मत मेरा संसार मुझे दो!
योग्य नहीं यदि मैं जीवन के,
जीवन के चेतन लक्षण के,
मुझे खुशी से दो मत जीवन, मरने का अधिकार मुझे दो!
मत मेरा संसार मुझे दो!

मैंने मान ली तब हार - हरिवंशराय बच्चन

मैंने मान ली तब हार!
पूर्ण कर विश्वास जिसपर,
हाथ मैं जिसका पकड़कर,
था चला, जब शत्रु बन बैठा हृदय का गीत,
मैंने मान ली तब हार!
विश्व ने बातें चतुर कर,
चित्त जब उसका लिया हर,
मैं रिझा जिसको न पाया गा सरल मधुगीत,
मैंने मान ली तब हार!
विश्व ने कंचन दिखाकर
कर लिया अधिकार उसपर,
मैं जिसे निज प्राण देकर भी न पाया जीत,
मैंने मान ली तब हार!

देखतीं आकाश आँखें - हरिवंशराय बच्चन

देखतीं आकाश आँखें!
श्वेत अक्षर पृष्ठ काला,
तारकों की वर्णमाला,
पढ़ रहीं हैं एक जीवन का जटिल इतिहास आँखें!
देखतीं आकाश आँखें!
सत्य यों होगी कहानी,
बात यह समझी न जानी,
खो रही हैं आज अपने आप पर विश्वास आँखें!
देखतीं आकाश आँखें!
छिप गये तारे गगन के,
शून्यता आगे नयन के,
किस प्रलोभन से करातीं नित्य निज उपहास आँखें!
देखतीं आकाश आँखें!

तेरा यह करुण अवसान - हरिवंशराय बच्चन

तेरा यह करुण अवसान!
जब तपस्या-काल बीता,
पाप हारा, पूण्य जीता,
विजयिनी, सहसा हुई तू, हाय, अंतर्धान!
तेरा यह करुण अवसान!
जब तुझे पहचान पाया,
देवता को जान पाया,
खींच तुझको ले गया तब काल का आह्वान!
तेरा यह करुण अवसान!
जब मिटा भ्रम का अँधेला,
जब जगी वरदान-बेला,
तू अनंत निशीथ-निद्रा में हुई लयमान!
तेरा यह करुण अवसान!

बुलबुल जा रही है आज - हरिवंशराय बच्चन

बुलबुल जा रही है आज!
प्राण सौरभ से भिदा है,
कंटकों से तन छिदा है,
याद भोगे सुख-दुखों की आ रही है आज!
बुलबुल जा रही है आज!
प्यार मेरा फूल को भी,
प्यार मेरा शूल को भी,
फूल से मैं खुश, नहीं मैं शूल से नाराज!
बुलबुल जा रही है आज!
आ रहा तूफान हर-हर,
अब न जाने यह उड़ाकर,
फेंक देगा किस जगह पर!
तुम रहो खिलते, महकते कलि-प्रसून-समाज!
बुलबुल जा रही है आज!

जब करूँ मैं काम - हरिवंशराय बच्चन

जब करूँ मैं काम!
प्रेरणा मुझको नियम हो,
जिस घड़ी तक बल न कम हो,
मैं उसे करता रहूँ यदि काम हो अभिराम!
जब करूँ मैं काम!
जब करूँ मैं गान,
हो प्रवाहित राग उर से,
हो तरंगित सुर मधुर से,
गति रहे जब तक न इसका हो सके अवसान!
जब करूँ मैं गान!
जब करूँ मैं प्यार,
हो न मुझपर कुछ नियंत्रण,
कुछ न सीमा, कुछ न बंधन,
तब रुकूँ जब प्राण प्राणों से करे अभिसार!
जब करूँ मैं प्यार!

मिट्टी दीन कितनी, हाय - हरिवंशराय बच्चन

मिट्टी दीन कितनी, हाय!
हृदय की ज्‍वाला जलाती,
अश्रु की धारा बहाती,
और उर-उच्‍छ्वास में यह काँपती निरुपाय!
मिट्टी दीन कितनी, हाय!
शून्‍यता एकांत मन की,
शून्‍यता जैसे गगन की,
थाह पाती है न इसका मृत्तिका असहाय!
मिट्टी दीन कितनी, हाय!
वह किसे दोषी बताए,
और किसको दुख सुनाए,
जब कि मिट्टी साथ मिट्टी के करे अन्‍याय!
मिट्टी दीन कितनी, हाय!

घुल रहा मन चाँदनी में - हरिवंशराय बच्चन

घुल रहा मन चाँदनी में!
पूर्णमासी की निशा है,
ज्योति-मज्जित हर दिशा है,
खो रहे हैं आज निज अस्तित्व उडुगण चाँदनी में!
घुल रहा मन चाँदनी में!
हूँ कभी मैं गीत गाता,
हूँ कभी आँसू बहाता,
पर नहीं कुछ शांति पाता,
व्यर्थ दोनों आज रोदन और गायन चाँदनी में!
घुल रहा मन चाँदनी में!
मौन होकर बैठता जब,
भान-सा होता मुझे तब,
हो रहा अर्पित किसी को आज जीवन चाँदनी में!
घुल रहा मन चाँदनी में!

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