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हिंदी कविता
दो चट्टानें हरिवंशराय बच्चन
Do Chattanein Harivansh Rai Bachchan
बहुरि बंदि खलगन सति भाएँ - Harivansh Rai Bachchan
बहुरि बंदि खलगन सति भाएँ...
खलों की (अ) स्तुति
हमारे पूर्वजन करते रहे हैं,
और मुझको आज लगता,
ठीक ही करते रहे हैं;
क्योंकि खल,
अपनी तरफ से करे खलता,
रहे टेढ़ी,
छल भरी,
विश्वासघाती चाल चलता,
सभ्यता के मूल्य,
मर्यादा,
नियम को
क्रूर पाँवों से कुचलता;
वह विपक्षी को सदा आगाह करता,
चेतना उसकी जगाता,
नींद, तंद्रा, भ्रम भगाता
शत्रु अपना खड़ा करता,
और वह तगड़ा-कड़ा यदि पड़ा
तो तैयार अपनी मौत की भी राह करता।
आज मेरे देश की
गिरि-श्रृंग उन्नत,
हिम-समुज्ज्वल,
तपःपावन भूमि पर
जो अज़दहा
आकर खड़ा है,
वंदना उसकी
बड़े सद्भाव से मैं कर रहा हूँ;
क्योंकि अपने आप में जो हो,
हमारे लिए तो वह
ऐतिहासिक,
मार्मिक संकेत है,
चेतावनी है।
और उसने
कम नहीं चेतना
मेरे देश की छेड़ी, जगाई।
पंचशीली पँचतही ओढ़े रज़ाई,
आत्मतोषी डास तोषक,
सब्ज़बागी, स्वप्नदर्शी
योजना का गुलगुला तकिया लगाकर,
चिर-पुरातन मान्यताओं को
कलेजे से सटाए,
देश मेरा सो रहा था,
बेखबर उससे कि जो
उसके सिरहाने हो रहा था।
तोप के स्वर में गरजकर,
प्रध्वनित कर घाटियों का
स्तब्ध अंतर,
नींद आसुर अजदहे ने तोड़ दी,
तंद्रा भगा दी।
देश भगा दी।
देश मेरा उठ पड़ा है,
स्वप्न झूठा पलक-पुतली से झड़ा है,
आँख फाड़े घूरता है
घृण्य, नग्न यथार्थ को
जो सामने आकर खड़ा है।
प्रांत, भाषा धर्म अर्थ-स्वार्थ का
जो वात रोग लगा हुआ था–
अंग जिससे अंग से बिलगा हुआ था...
एक उसका है लगा धक्का
कि वह गायब हुआ-सा लग रहा है,
हो रहा है प्रकट
मेरे देश का अब रूप सच्चा !
अज़दहे, हम किस क़दर तुझको सराहें,
दाहिना ही सिद्ध तू हमको हुआ है
गो कि चलता रहा बाएँ।
विभाजितों के प्रति - Harivansh Rai Bachchan
दग्ध होना ही
अगर इस आग में है
व्यर्थ है डर,
पाँव पीछे को हटाना
व्यर्थ बावेला मचाना।
पूछ अपने आप से
उत्तर मुझे दो,
अग्नियुत हो?
बग्नियुत हो?
आग अलिंगन करे
यदि आग को
किसलिए झिझके?
चाहिए उसको भुजा भर
और भभके!
और अग्नि
निरग्नि को यदि
अंग से अपने लगाती,
और सुलगाती, जलाती,
और अपने-सा बनाती,
तो सौभाग्य रेखा जगमगाई-
आग जाकर लौट आई!
किन्तु शायद तुम कहोगे
आग आधे,
और आधे भाग पानी।
तुम पवभाजन की, द्विधा की,
डरी अपने आप से,
ठहरी हुई-सी हो कहानी।
आग से ही नहीं
पानी से डरोगे,
दूर भागोगे,
करोगे दीन क्रंदन,
पूर्व मरने के
हजार बार मरोगे।
क्यों कि जीना और मरना
एकता ही जानती है,
वह बिभाजन संतुलन का
भेद भी पहचानती है।
२६-१-’६३ - Harivansh Rai Bachchan
वे झंडों से सजी राजधानी के अन्दर
बैण्ड बजाकर बतलाते हैं--
ये सेना के नौजवान हैं
जो दुश्मन के मुकाबले में
नहीं टिक सके-
ये बन्दूकें, जिनके घोड़े
अरि की बन्दूकों की गोली की वर्षा में
नहीं दब सके:
ये ट्रक-टैंक, चढ़ाई पाकर
कांख-कांखकर बैठ गए जो;
औ' ये तोपें, जो मुंह बाए खड़ी रह गईं,
शत्रु सैकड़ों मील देश की
सीमा के अन्दर घुस आया;
और अन्त में ये जहाज़ हैं ।
ऊपर के साखी
नीचे के सैन्य-व्यूह-विघटन-मर्दन के !
और हार की
धरती में धँस जानेवाली लाज भुलाए
एक बेहया, बेग़ैरत, बेशर्म जाति के
लाखों मर्द, औरतें, बच्चे
रंग-बिरंगी पोशाकों में
राजमार्ग पर भीड़ लगाकर,
उन्हें देखकर शोर मचाकर,
अपनी खुशियाँ ज़ाहिर करते !
शब्द हमारे आहें भरते !
मूल्य चुकाने वाला - Harivansh Rai Bachchan
वे हमें पद-दलित करके चले गए,
वे हमें मान-मर्दित करके चले गए,
वे हमें कलंकित करके चले गए,
वे हमारे नाम, हमारी साख को
खाक में मिलाकर चले गए,
................................
अपनी नसों के अन्तिम स्पन्दन तक,
अपनी छाती की अन्तिम धड़कन तक,
अपनी चौकी पर डटे रहकर,
सारे देश के अपमान,
सारी जाति की लज्जा का मूल्य चुकाया ।
२७ मई - Harivansh Rai Bachchan
चाल काल की
कितनी तेज़ कभी होती है ।
अभी प्रात ही तो हमने प्रस्थान किया था
और दोपहर आते-आते
जैसे हम युग एक पार कर खड़े हुए हैं!
असमान का रंग,
धरा का रूप
अचानक बदल गया है ।
वह पर्वत जो साथ हमारे चलता-सा था
ओझल सहसा,
देवदार-बन झाड़ी-झुरमुट में परिवर्तित,
धूलि-धुंध में खोई-खोई हुई दिशाएँ
रुकी हवाएँ.
सारा वातावरण
अनिश्चय, आश्चर्य, आशंका विजड़ित ।
स्पष्ट परिस्थिति ।
फूट पड़ा कोलाहल-क्रंन्दन,
आंख-आंख में विगलित जल-कण,
जन-जन विचलित, व्याकुल, निर्धन ।
क्या न पकड़ना सम्भव होगा कुछ बीते क्षण?
सहज नहीं मन मान सकेगा-
यह युग की इति !
यह युग की इति !
राह रोक कर काल खड़ा है--
'ओ मानव नादान, बता तो
पीछे किसका कदम पड़ा है!'
किन्तु कल्पना, विह्वल, पागल,
कालचक्र को बारम्बार उलटकर कितने
विगत क्षणों को फिर-फिर जीती,
प्यासी रहती, प्यासी रहती, प्यासी रहती,
मृगजल पीती !
गुलाब की पुकार - Harivansh Rai Bachchan
सुना कि
गंगा और जमुना के संगम पर
एक गुलाब का फूल खिला है ।
सुना कि
उसे देखने को-देखने भर को-
तोड़ने की बात ही नहीं उठती-
मुहल्ले-मुहल्ले से,
घर-घर से;
लोग जाते हैं-
सभ्य, शौकीन, सफेदपोश, शहराती
इनको गुलाब ने,
दुर्निवार पुकारा है,
खींचा है,
क्योंकि वह कभी तो उगा है,
पंखुरियों में फूटा है, फूला है, जगा है,
जब इनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी के
दर्द ने, दुख ने,
आँसू औ' पसीने की बूंद ने, धार ने,
रक्त ने सींचा है ।
खून ने खून को पुकारा है;
मिट्टी और फूल में अटूट भाई-चारा है ।
द्वीप-लोप - Harivansh Rai Bachchan
लहरें, लहरें, लहरें...
जहाँ तक आँखें जाती हैं,
जिधर भी आँखें जाती हैं,
लहरें, लहरों पर लहरें
उठती, दबती, उभरती, जागे बढ़ती
हहराती चली आती हैं--,
लहरें, लहरों के आगे लहरें,
लहरें, लहरों के पीछे लहरें !
लहरें कि लाखहा सिन्धु-कन्याएँ?---
खोले हुए लहराती लटाएँ,
घबराई, भभराई,
कतार की कतार,
तरंगों पर सवार-
बढ़ी ही चली आती हैं,
न खुद रुकती हैं,
न किसी को रुकने देती हैं ।
सागर के बीच एक द्वीप था,
द्वीप में एक वन था,
वन में एक पेड़ था,
पेड़ पर एक फूल था,
फूल था गुलाब का-
जादुई सुगंध, रंग, आब का ।
फूल और पेड़ और वन को लिए हुए
द्वीप वह तरा गया,
सिन्धु में समा गया !
फटी-फटी आँखों से
लाखों सिन्धु-कन्याएँ
खोजती हैं द्वीप को,
वन को, पेड़ को, फूल को,
किन्तु नहीं पाती हैं,
बहुत फटफटाती हैं,
मथती हैं सागर को तल से अतल तक,
हार हार, थक-थक,
रोती हैं सिर पटक, सिर पटक...
शोध नहीं पाती हैं
प्रकृति की,
नियति की,
नियन्ता की भूल को !
गुलाब, कबूतर और बच्चा - Harivansh Rai Bachchan
अस्त जिस दिन हो गया
अपराह्न का वह सूर्य
छाया तिमिर चारों ओर,
पंछी चतुर्दिक से,
पंख आतुर,
हो इकट्ठा लगे करने शोर-
हर लिया क्यों गया
किरणों का अमित भण्डार,
वासर शेष,
संध्या दूर,
असमय रात,
दिन का चल रहा था दौर,
दिन का दौर !
दिन का दौर! !दिन का...
उस तिमिर में
एक फूटा सोत,
पानी लगा भरने ओ उभरने,
और ऊपर, और ऊपर, और ऊपर
लगा उठने ।
एक पारावार उमड़ा है
फफकता, क्षितिज छूता,
लक्ष-लक्ष पसार का लहरें उठाता,
जो उमड़तीं,
जो कि थोड़ी दूर बढ़तीं,
और गिरतीं, और मिटतीं;
पुन: उठतीं, पुन: बढ़तीं, पुन: मिटतीं
..........................
दो फूल - Harivansh Rai Bachchan
एक डाल पर फूल खिले दो,
एक पूर्व-मुख,
और दूसरा कुछ पच्छिम रुख ।
एक श्वेत, प्रभ, पुण्य-प्रभाती,
श्वेत-शरद पूनों का चन्दा;
श्वेत-शिखर का हिम किरीट ज्यों,
श्वेत-मानसर के मराल-सा,
कामधेनु की दुग्ध-धार-सा,
अतल सिन्धु के धवल फेन-सा,
देश-जागरण-दिव्य शंख-सा,
कमल-पत्र पर अमल अश्रु-सा,
श्वेत कि जैसे घुलकर उजली निखरी खादी ।
और दूसरा लाल रंग का-
रंग प्रीति का,
रंग जीत का,
लाल-उषा का उठता घूंघट,
लाल-रची हाथों में मेंहदी,
लाल-रची पावों में जावक,
लाल-जगा प्राणों का पावक,
लाल-जाति की ध्वजा क्रांन्ति की,
लाल-रक्त जैसे शहीद का औ' दोनों फूलों की आभा
बहुत दिनों तक
रही बिखरती, तम-भ्रम हरती,
तृण-तृण को अनुप्रेरित करती,
किन्तु समय ऐसा आता है,
जब फूला हर फूल
डाल से टूट-छूटकर,
भू पर गिरकर,
मुरझाता है, मर जाता है ।
भीतर-भीतर दोनों फूलों में
कैसा विचित्र नाता था!
श्वेत पुष्प जा गिरा उस समय
तप्त शहीदी रक्त-स्नात था ।
लाल फूल
अपने लोहू की बूंद-बूंद जी
बूंद-बूंद पी,
गिरा जिस समय
उज्ज्वल, शीतल श्वेत, शांत था ।
कील-काँटों में फूल - Harivansh Rai Bachchan
घन वज्रपात हुआ,
भीषण आघात हुआ,
पर मशीन,
जैसे कल चलती थी,
आज चली जाती है,
कल चली जाएगी;
कोई इसे रोक नहीं पाएगा,
रुक नहीं पाएगी ।
रुकीं नहीं फाइलें
थमीं नहीं पेंसिलें,
चुपी नहीं टिपिर-टिपिर,
रुकी नहीं वर्दियों की
दौड़-धूप, चल-फिर
यह मशीन
हृदय-हीन, शुष्क है,
जीव-रहित जड़ है,
फिर भी सचर है,
ऊब-भरा स्वर है,
क्या इसे फिकर है,
कौन कल गिर गया,
आज गया मर है ।
इसका बस
एक गुन, एक धुन गति है,
मंज़िलेमकतूद बिना
चलती अनवरत है ।
जादूगर एक था,
बीच कील-कांटों के
फूल खिला देता था,
मरी इस मशीन को
ज़रा जिला लेता था ।
हरता था
मशीन की मशीनियत
दे करके
थोड़ी इन्सानियत,
थोड़ी रूहानियत ।
आज वह विदा हुआ,
फूल कील-कांटों से
है छिदा-भिदा हुआ ।
अब पेंच-पुर्जों से
कल, कील, काँटों से
रुप कभी घूंघट न उठाएगा,
रंग कभी नहीं आँख मारेगा,
रस पिचकारी नहीं छोड़ेगा,
औ' मशीन के मलीन तेल से
उठ सुगन्ध मन्द-मन्द कभी नहीं आएगी,
पर मशीन चले चली जाएगी,
चले चली जाएगी !
चलती चली जाएगी !...
विक्रमादित्य का सिंहासन - Harivansh Rai Bachchan
(नेहरु निवास को नेहरू-संग्रहालय बनाने के
निर्णय से प्रेरित एक काल्पनिका (फैंटेसी)
कहा कन्हैया ने दैया से
रहट चलते,
"काका, तुमने खबर सुनी ? बेकरम पुरा से
बुआ रात को आई हैं, वे बतलाती थीं,
वहाँ एक पासी का लड़का आठ बरस का,
अनपढ़, जिसको काला अक्षर भैंस बराबर,
बैठ एक टीले के ऊपर, हाकिम जैसे,
लोगों के मामलों-मुकदमों को सुनता है,
तुरत-फुरत फैसला सुनाता, और फैसला
ऐसा जैसे दूध-दूध हो पानी पानी !"
कहा सुनंदा ने कुंता से
पानी भरते,
"जीजी, तुमने खबर सुनी ? बेकरम पुरा में
एक बड़ी ही अचरज वाली बात हुई है,
पासी के घर पुरुब जन्म का हाकिम जन्मा,
उमर आठ की मगर पेट के अन्दर दाढ़ी,
टीले पर वह बैठ मुकदमों को सुनता है
और फैसला दे देता है आनन-फानन,
उसके आगे सब सच्चाई खुल जाती है,
और झूठ की एक नहीं चलने पाती है ।"
कहा सुबन्ना ने चन्ना से,
मेले जाते
'दीदी, तुमने भी क्या ऐसी खबर सुनी है?
नहीं सुनी तो तुम किस दुनिया में रहती हो?
जगह-जगह पर चर्चा है बेकरम पुरा की,
और वहाँ के लड़के की, जो आठ बरस का,
मगर समझ जो रखता साठ बरस वाले की,
वह टीले के ऊपर बैठ मुकदमे करता,
सबकी सुनता, पर जब अपना निर्णय देता,
लगता, जैसे न्याय-धरम का काँटा बोला ।"
और खबर यह ऐसी फैली
दूर-पास के गाँव-गांव से
अपने-अपने लिए मुकदमे
लोग बेकरम पुरा पहुँचते
और न्याय-सन्तुष्ट लौटते ।
चमत्कार स्वाभाविक, सच्चा न्याय ग्राह्य है ग्रामीणों में ।
खबर शहर के अन्दर पहुंची
मगर मुकदमे लेकर कोई वहाँ न पहुंचा-
कारण समझा जा सकता है-
पहुंच गए पर कई आधुनिक शोध-विचक्षण ।
टीले से नीचे लड़का है
महा गावदी, बोदा, बुद्धू;
टीले के ऊपर है पण्डित,
तर्क-विभूषण, न्याय-विपश्चित ।
चमत्कार क्या टीले में है?
हुई खुदाई । एक राजसिंहासन निकला ।
धातु-परीक्षण, रूप-अध्ययन और स्थान-सर्वेक्षण द्वारा
पुरातत्त्ववेत्ता-मण्डल ने सिद्ध किया,
यह न्याय-मूर्ति विक्रमादित्य का सिंहासन है ।
(सिद्धि-पीठ पर इसीलिए साधना विहित है)
विक्रमपुर ही बिगड़ के बेकरम पुरा बना है ।
आगे का इतिहास मौन है ।
बाकी सारी बात गौण है ।
शासन का आदेश आ गया,
यह सिंहासन राष्ट्र संग्रहालय के अन्दर रहे सुरक्षित ।
जनता में इसके दर्शन का कौतूहल है ।
न्याय-पीठिका अधिक मान्य उपलब्ध उसे है ।
(सिंहासन जो न्याय कहेगा
उसे आज का युग मानेगा?
और सहेगा?)
गाँधी - Harivansh Rai Bachchan
एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था,
जिस समय हिंसा,
कुटिल विज्ञान बल से हो समंवित,
धर्म, संस्कृति, सभ्यता पर डाल पर्दा,
विश्व के संहार का षड्यंत्र रचने में लगी थी,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्या किया था!
एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था,
जिस समय अन्याय ने पशु-बल सुरा पी-
उग्र, उद्धत, दंभ-उन्मद-
एक निर्बल, निरपराध, निरीह को
था कुचल डाला
तुम कहाँ थे? और तुमने क्या किया था?
एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्म गाँधी को दिया था,
जिस समय अधिकार, शोषण, स्वार्थ
हो निर्लज्ज, हो नि:शंक, हो निर्द्वन्द्व
सद्य: जगे, संभले राष्ट्र में घुन-से लगे
जर्जर उसे करते रहे थे,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्या किया था?
क्यों कि गाँधी व्यर्थ
यदि मिलती न हिंसा को चुनौती,
क्यों कि गाँधी व्यर्थ
यदि अन्याय की ही जीत होती,
क्यों कि गाँधी व्यर्थ
जाति स्वतंत्र होकर
यदि न अपने पाप धोती!
युग-पंक : युग-ताप - Harivansh Rai Bachchan
दूध-सी कर्पूर-चंदन चाँदनी में
भी नहाकर, भीगकर
मैं नहीं निर्मल, नहीं शीतल
हो सकूँगा,
क्यों कि मेरा तन-बसन
युग-पंक में लिथड़ा-सना है
और मेरी आत्मा युग-ताप से झुलसती हुई है;
नहीं मेरी ही तुम्हारी, औ' तुम्हारी और सबकी।
वस्त्र सबके दाग़-धब्बे से भरे हैं,
देह सबकी कीच-काँदों में लिसी, लिपटी, लपेटी।
कहाँ हैं वे संत
जिनके दिव्य दृग
सप्तावरण को भेद आए देख-
करूणासिंधु के नव नील नीरज लोचनों से
ज्योति निर्झर बह रहा है,
बैठकर दिक्काल
दृढ़ विश्वास की अविचल शिला पर
स्नान करते जा रहे हैं
और उनका कलुष-कल्मष
पाप-ताप-' भिशाप घुलता जा रहा है।
कहाँ हैं वे कवि
मदिर-दृग, मधुर-कंठी
और उनकी कल्पना-संजात
प्रेयसियाँ, पिटारी जादुओं की,
हास में जिनके नहाती है जुन्हाई,
जो कि अपनी बहुओं से घेर
बाड़व के हृदय का ताप हरतीं,
और अपने चमत्कारी आँचलों से
पोंछ जीवन-कालिमा को
लालिमा में बदलतीं,
छलतीं समय को।
आज उनकी मुझे, तुमको,
और सबको है जरुरत।
कहाँहैं वे संत?
वे कवि हैं कहाँ पर?-
नहीं उत्तर।
वायवी सब कल्पनाएँ-भावनाएँ
आज युग के सत्य से ले टक्करें
गायब हुई हैं।
कुछ नहीं उपयोग उनका।
था कभी? संदेह मुझको।
किन्तु आत्म-प्रवंचना जो कभी संभव थी
नहीं अब रह गई है।
तो फँसा युग-पंक में मानव रहेगा?
तो जला युग-ताप से मानव करेगा?
नहीं।
लेकिन, स्नान करना उसे होगा
आँसुओं से- पर नहीं असमर्थ, निर्बल और कायर,
सबल पश्चा के उन आँसुओं से,
जो कलंको का विगत इतिहास धोते।
स्वेद से- पर नहीं दासों के, खरीदे और बेचे,-
खुद बहाए, मृत्तिका जिसे कि अपना ऋण चुकाए।
रक्त से- पर नहीं अपने या पराए,
उसी पावन रक्त से
जिनको कि ईसा और गाँधी की
हथेली और छाती ने बहाए।
बाढ़-पीड़ितों के शिविर में - Harivansh Rai Bachchan
यहाँ अजीब-अजीब नेता आते हैं,
चक्कर लगाते हैं,
तरह-तरह के नारे लगवाते हैं,
उनका मतलब हम नहीं समझ पाते हैं ।
कहते हैं कानून भंग करो,
यानी सरकार को तंग को,
सरकार है तो बाढ़ रोके,
यह नहीं कर सकती
तो गद्दी से हटे, भाड़ झोंके!
और हम जो बाढ़ के शिकार हैं,
समझने में लाचार हैं
कि सरकार अगर भाड़ भी झोंकेगी
तो बाढ़ कैसे रोकेगी!
बाढ़ तो पहले भी आती थी,
अब भी आती है,
हम भी इसके आदी हैं;
अगले सालों की तरह अबके भी आ गई है,
मुसीबत है, पर क्या नई है?...
जैसे पहले झेली थी, अब भी झेलेंगे
किस्मत हमसे खेल करती है,
हम भी किस्मत से खेलेंगे ।
बरसात है, बरखा है, लगातार मूसलाधार-
डबहे से तलैया, तलैया से ताल, ताल से तालाब
तालाब से झील, झील मीलों-मील;
उधर से नदी भरी है, नहीं, उठी है, उमगी है, उफनाई है,
अपनी बहन झील से गले मिलने आई है ।
बीच में डूब गए हैं हमारे खेत-खलिहान,
फूस-छाए मकान,
खेतिहर के छोटे-मोटे सामान ।
घरों में क्या है जो हम हटाएँ,
न हटा पाने पर कोहराम मचाएँ,
न किताबें, न कुर्सियां, न कालीनें, न आलमाराएँ ।
हमारे पुरखों ने सिखलाया
कि जब-जब बाढ़ आए,
दो चीज़ बचाना--
छाती में विश्वास
और हाँडी में दाना ।
वही लिए हम यहाँ आए हैं,
उसी के सहारे हम यहाँ बैठे हैं,
उसी बीज और विश्वास के भरोसे-
जब पानी उतरेगा, घटेगा, हटेगा,
और ज़मीन उबरेगी,
तरोताज़ा होकर उभरेगी,
जैसे ग्रहण छूट जाने पर चांद-
हम वापस जाएँगे;
नए, उर्वर खेतों में;
चना-मटर बोएंगे, सरसों
धरती हरियाएगी, पियराएगी,
हम फसल काटकर घर लाएँगे,
होली जलाएंगे,
गाएँगे फाग,
पानी-परेशानी पर
आग-राग की जय मनाएँगे
(थोडी देर के लिए भूल जाएँगे
कि पानी-हलाकानी के दिन फिर आएँगे । )
युग और युग - Harivansh Rai Bachchan
उस नक्कारे की यकायक डमकार
कि घटाटोप तम का परदा
चर्र से फटकर अलग हो गया ।
प्रकाश आकाश से फूटकर-
जैसे किसी की बाँध को तोड़कर जल-धार-
आर-पार फैल गया ।
सूरज घर-घर घूमने लगा,
किरणों के तार द्वार-द्वार बिछ गए ।
दूर ऊँचे पर्वतों से
निर्झर नीचे को चले-दौड़े,
पेड़ों पर चिड़ियों के पर-स्वर खुले,
मैदानों में नदियां उठीं, कगारे गिरे,
पाट हो गए चौड़े ।
जो पशु वन कर सोए थे
नर बनकर जगे,
देव बनकर खड़े हुए,
देवता बनकर चले;
कितने छोटे कितने बड़े हुए,
कितने खोटे, कितने भले !
उस नक्कारे पर मढ़ने को
किस नाहर ने अपनी खाल दी थी-
जैसे दधीचि ने अपनी हड्डी-
कि उस पर एक चोट
कि एक युग का विस्फोट !
धुआँ है, धुंध है, अँधेरा है,
मंजिल भी ओझल हो गई है,
रास्ता भी लापता है,
कोई नहीं कहता, कौन शाह, कौन लुटेरा है,
सब कहते हैं, लूट है, चोरी है, हेरा-फेरी है ।
झरनों का संगीत मन्द है,
विहंगम नीड़ों में बन्द हैं,
उनके पर झड़ रहे हैं,
नदियां सूख रही हैं,
कछारों में दरारे पड़ रहे हैं ।
विकास के क्रम में विपर्यय है,
बड़ा बौना हो रहा है,
बौना बितौना,
अंधेरे की नीति है-
उजले को पकड़े जाने का डर है,
काला निर्भय है ।
कुछ चमगादडों के चाम को
जोड़-जाड़कर
एक दमामे पर चढ़ाने का
प्रयास हो रहा है,
किसको नवयुग-उद्घोष का
विश्वास हो रहा है?
लेखनी का इशारा - Harivansh Rai Bachchan
ना ऽ ऽ ऽ ग!
-मैंने रागिनी तुझको सुनाई बहुत,
अनका तू न सनका-
कान तेरे नहीं होते,
किन्तु अपना कान केवल गान के ही लिए
मैंने कब सुनाया,
तीन-चौथाई हृदय के लिए होता।
इसलिए कही तो तुझेमैंने कुरेदा और छेड़ा
भी कि तुझमें जान होगी अगर
तो तू फनफनाकर उठ खड़ाा होगा,
गरल-फुफकार छोड़ेगा,
चुनौती करेगा स्वीकार मेरी,
किन्तु उलझी रज्जु की तू एक ढेरी।
इसी बल पर,
धा ऽ ऽ ऽ ध,
कुंडल मारकर तू
उस खजाने पर तू डटा बैठा हुआ है
जो हमारे पूर्वजों के
त्याग, तप बलिदान,
श्रम की स्वेद की गाढ़ी कमाई?
हमें सौपी गई थी यह निधि
कि भोगे त्याग से हम उसे,
जिससे हो सके दिन-दिन सवाई;
किन्तु किसका भोग,
किसका त्याग,
किसकी वृद्धि।
पाई हुई भी है
आज अपनाई-गँवाई।
दूर भग,
भय कट चुका,
भ्रम हट चुका-
अनुनय-विनय से
रीझनेवाला हृदय तुझमें नहीं है-
खोल कुंडल,
भेद तेरा खुल चुका है,
गरल-बल तुझमें नहीं अब,
क्यों कि उससे विषमतर विषपर
बहुत दिन तू पला है,
चाटता चाँदी रहा है,
सूँघता सोना रहा है।
लट्ठबाजों की कमी
कुछ नहीं मेरे भाइयों में,
पर मरे को मार करके-
लिया ही जिसने, दिया कुछ नहीं,
यदि वह जिया तो कौन मुर्दा?
कौन शाह मदार अपने को कहाए!
क़लम से ही
मार सकता हूँ तुझे मैं;
क़लम का मारा हुया
बचता नहीं है।
कान तेरे नहीं,
सुनता नहीं मेरी बात
आँखें खोलकर के देख
मेरी लेखनी का तो इशारा-
उगा-डूबा है इसी पर
कहीं तुझसे बड़ों,
तुझसे जड़ों का
कि़स्मत-सितारा!
कुकडूँ-कूँ - Harivansh Rai Bachchan
इनमें से कोई कहता है,
मैं युगान्तकारी हूँ!
कोई पुकारता है,
मैं युगान्तकारी हूँ!
कोई चीखता है,
मैं युगप्रवर्तक हूँ।
कोई चिल्लाता है,
मैं नव जागरण का दूत हूँ।
कोई आवाज़ लगाता है,
मैं नव प्रभात का सूर्य हूँ।
कोई घोषणा करता है,
मैं नव युग का तूर्य हूँ ।
और मैं अपनी निद्रा-प्रेयसी के
अर्द्ध शिथिल बाहुपाश से
धीरे से अपने को मुक्त करता हूँ,
चारपाई से धरती पर पाँव धरता हूँ,
अस्फुट स्वर में कहता हूँ,
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यँ पादस्पर्श क्षमस्व मे ।।
फिर आसमान की तरफ आँख उठाता हूँ,
कुछ ऐसा संकेत पाता हूँ,
सारे जीवन से एक हो जाता हूँ,
हवा के साथ बहता हूँ,
सुगन्ध के साथ बहकता हूँ,
चिड़ियों के साथ चहकता हूँ,
सूरज के साथ उठता हूँ,
किरनों के साथ उतरता हूँ,
सब पर बिखरता हूँ,
सबको जगाता-उठाता हूँ,
वचन पर मौन की,
मौन पर कर्म की जय मनाता हूँ।
नव युग,
नव प्रभात, नव जागरण
मैं लाता नहीं स्वयं हूँ
और ये हैं
नव युग,
नव जागरण,
नव प्रभात के मुर्गे ।
इन्सानों की दुनिया में
कुकडूँ-कूँ....कुक
कई तरह से की जा सकती है;
शायद मैंने भी की हो,
गो कविता लिख दी हो ।
मूल बात यह है
कि सवेरा होने पर मुर्गे बोलते हैं,
मुर्गे के बोलने से सवेरा नहीं होता ।
सुबह की बाँग - Harivansh Rai Bachchan
मुर्गा इतना मूर्ख, भोला, आत्मदंभी नहीं
इतना भी न समझे,
प्रात होता है सदा अपने समय से,
सूर्य उठता क्षितिज पर
अगणित किरण के शर चलाता,
तिमिर हो भयभीत-आहत
भागता चुपचाप,
जीवन-ज्योति-जागृती-गान
कण-कण गूँजता है ।
किन्तु उसके शीश पर जो
अरुणिमा का ताज रक्खा गया
उसकी लाज,
उसकी आन भी उसको निभानी;
और उसके वक्ष में जो आग,
उसके कंठ में जो राग,
स्वर जो तीव्र, तार, सुतीक्ष्ण
रक्खा गया उसका
निष्कलुष दायित्व भी उसको उठाना ।
रात-दिन क्रम में
निशा की कालिमा अनिवार्य
यह वह जानता है,
भैरवी की भूमिका के मौन की पदचाप वह पहचानता है,
किन्तु आशा-आस्था करती प्रतीक्षा,
थकी, अलसाई हुई,
अन्तिम प्रहर की
नर्म, जैसे मर्म सहलाती हवा में सो न जाएँ,
अचकचा चेतन्त होता,
वायवी सपने पलक से झाड़ता है,
फेफड़ों का जोर, फिर, पूरा लगाता
वक्त को ललकारता-
ललकारता-
ललकारता है ।
गत्यवरोध - Harivansh Rai Bachchan
बीतती जब रात,
करवट पवन लेता
गगन की सब तारिकाएँ
मोड़ लेती बाग,
उदयोन्मुखी रवि की
बाल-किरणें दौड़
ज्योतिर्मान करतीं
क्षितिज पर पूरब दिशा का द्वार,
मुर्ग़ मुंडेर पर चढ़
तिमिर को ललकारता,
पर वह न मुड़कर देखता,
धर पाँव सिर पर भागता,
फटकार कर पर
जाग दल के दल विहग
कल्लोल से भूगोल और खगोल भरते,
जागकर सपने निशा के
चाहते होना दिवा-साकार,
युग-श्रृंगार।
कैसा यह सवेरा!
खींच-सी ली गई बरबस
रात की ही सौर जैसे और आगे-
कुढ़न-कुंठा-सा कुहासा,
पवन का दम घुट रहा-सा,
धुंध का चौफेर घेरा,
सूर्य पर चढ़कर किसी ने
दाब-जैसा उसे नीचे को दिया है,
दिये-जैसा धुएँ से वह घिर,
गहरे कुएँ में है दिपदिपाता,
स्वयं अपनी साँस खाता।
इस अनिष्टकारी तिमिर से जूझना तो दूर-
एक घुग्घू,
पच्छिमी छाया-छपे बन के
गिरे; बिखरे परों को खोंस
बैठा है बकुल की डाल पर,
गोले दृगों पर धूप का चश्मा लगाकर-
प्रात का अस्तित्व अस्वीकार रने के लिए
पूरी तरह तैयार होकर।
और, घुघुआना शुरू उसने किया है-
गुरू उसका वेणुवादक वही
जिसकी जादुई धुन पर नगर कै
सभी चूहे निकल आए थे बिलों से-
गुरू गुड़ था किन्तु चेला शकर निकाला-
साँप अपनी बाँबियों को छोड़
बाहर आ गए हैं,
भूख से मानो बहुत दिन के सताए,
और जल्दी में, अँधेरे में, उन्होंने
रात में फिरती छछूँदर के दलों को
धर दबाया है-
निगलकर हड़बड़ी में कुछ
परम गति प्राप्त करने जा रहे हैं,
औ' जिन्होंने अचकचाकर,
भूल अपनी भाँप मुँह फैला दिया था,
वे नयन की जोत खोकर,
पेट धरती में रगड़ते,
राह अपनी बाँबियों की ढूँढते हैं,
किन्तु ज्यादातर छछूँदर छटपटाती-अधमरी
मुँह में दबाए हुए
किंकर्तव्यविमूढ़ बने पड़े हैं;
और घुग्घू को नहीं मालूम
वह अपने शिकारी या शिकारों को
समय के अंध गत्यवरोध से कैसे निकाले,
किस तरह उनको बचा ले।
गैंडे की गवेषणा - Harivansh Rai Bachchan
मैं अपने गुण की उद्घोषणा करता हूं।
'गुन प्रगटै अवगुनहिं दुरावै ।'
अहं मेरा सहज स्वधर्म है ।
मैं स्वधर्म की उद्घोषणा करता हूँ ।
'स्वधर्मे निधनं श्रेय:'
पर जो स्वधर्म छोड़ता ही नहीं,
उसको निधन तोड़ता ही नहीं ।
अहं अजर, अमर है,
अगर वही अपने को न मारे।
पर वह अपने मरने का सामान पैदा कस्ता है,
यानी सन्तान पैदा करता है,
सन्तान से अधिक कोई अहं को नहीं तोड़ता ।
मेरा बाप मूर्ख था
जो उसने मुझे पैदा किया,
इसी से वह मर गया ।
मैं सन्तान नहीं पैदा करूंगा
पर यह नहीं कि नारी नहीं करूंगा,
अनुत्पादक कहलाऊँगा,
नपुंसक नहीं कहलाऊँगा ।
एक नारी करूंगा,
दो नारी करूंगा,
तीन नारी करूंगा,
ऊपर भी जाऊँगा ।
नारी के समर्पण से अधिक
कोई अहं को नहीं बढ़ाता ।
स्थाई दुनिया में कुछ भी नहीं,
जो बढ़ेगा नहीं वह घटेगा,
जो घटेगा वह मिटेगा,
मैं न-मिटने के लिए
कुछ भी करने में न हिचकूंगा ।
जीना ही तो पहला धर्म है,
यानी अस्तित्व बनाये रहना ।
दुनिया जैसी बनी है
उसमें कुछ मिटकर ही कुछ बनता है।
किसी का अस्तित्व मिटेगा,
तभी किसी का बनेगा ।
और किसका अस्तित्व
सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है ?-
मुझे दुबारा सोचना नहीं है,
अपना ! अपना !! अपना !!!
अपना अस्तित्व बनाये रखने को
सबका अस्तित्व मिटाना भी पड़े
तो भी नहीं झिझकूँगा ।
लेकिन मिटा भी सकूं
तो मैं उन्हें मिटाऊँगा नहीं,
उन्हे कम करके, घटा करके,
नीचा दिखा करके छोड़ दूँगा ;
तुलना में अपने को उनसे अधिक,
उनमे बढ़कर, उनसे ऊँचा
सिद्ध कर ही तो मैं अपने अहं को
पोषित करता रह सकता हूँ।
मिटाने-मिटाने में
लोग मिट भी जाते हैं,
पर मैं ? - मैं ? मिटने को बना हूँ ?-
देखते नहीं मेरा
महाभारी, महा भरकम शरीर,
जैसे हो अहं का सुदृढ़, सुमढ़, सुगढ़,
गढ़ के चारों ओर चौड़े-पक्के पुश्ते,
घन, ठोस, दुर्भेद्य प्राचीर !
भी चरने-चोंथने के लिए है
जंगल की सारी घास,
पीने को है झील-भर पानी,
या करने को जल-क्रीड़ा, जल-विलास !
चलता है वतास
कि मैं ले सकूं स्वच्छन्द सांस,
मेरी नाक की सींग पर
टिका है आकाश का आकाश,
दायित्व कितना बड़ा है मेरे ऊपर !
चन्द्र-दर्शन के समय
मैं छिप जाता हूँ सिकुड़कर
कि मेरे सींग की खाकर टक्कर
कहीं गिर न पड़े वह भू पर !
इतना कुछ कहा है
तो खोल हूँ अब पूरा ही भेद,
मैं हूं कर्ण का अवतार
सबूत में, देखते नहीं
आया हूँ शरीर पर कवच धार ।
दानी के तीन गुण-
दे, न दे, दे कर ले ले ।
कवच ले लिया,
कुण्डल रहने दिया ।
'अर्ध तजहिं बुध सर्वस जाता ।'
कुण्डल काम भी क्या आता ।
यहाँ सबको है आज़ादी
करें ख़यालों का इज़हार,
होती हैं सभाएँ,
निकलते हैं जलूस,
चिपकाए जाते हैं इश्तहार,
छापे जाते हैं अख़बार,
यानी हर तरफ से होता है वार ।
अगर लेकर न आता इतनी मोटी खाल,
जीना होता बहुत दुश्वार ।
दुनिया में हैं
बहुत-से मत, मतान्तर,
बहुत-से आद-वाद,
पर सबसे ज्यादा काम का है गैंडावाद,
(यानी बेहयावाद)
जिसकी अनुयाई हैं सब सरकारें,
सब संस्थाएँ सब स्कूल, सब उस्ताद,
कोई करता रहे कितनी ही आलोचना, प्रालोचना,
परालोचना, प्रत्यालोचना, समालोचना, कितने ही वार,
तुम चले जायो अपनी ही चाल,
करे जायो अपनी ही बात,
किए जायो अपना ही गुण-गान;
'रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान ।
श्रृगालासन - Harivansh Rai Bachchan
शार्दूलस्य गुहां शून्यां नीच: क्रष्टाभिमर्दति
-महाभारत, आदि पर्व, 212-8
शेरों के आसन पर
बैठा है आज स्यार
- (निराला के प्रति क्षमायाचना सहित)
बहुत ऊंची
एक मीनारी जगह पर-
सब जगह से दृष्टिगोचर-
आप आसन मानकर
बैठे हुए हैं,
कभी दाएँ
कभी बाएँ सिर घुमाते,
कभी ऊपर सिर उठाते,
कभी नीचे सिर झुकाते,
प्रदर्शन की नम्रता से,
और कद कुछ और ऊँचा लगे,
इससे बीच-बीच उचक रहे हैं;
गति नजर को
खींचती है,
और जितनी दृष्टियां
जितनी दफा पड़ सकें तन पर
आपका मन गुदगुदातीं ।
तुष्ट लोकेषणा
है वरदान कितना बड़ा
जिसके बल
न जाने और कितनी
सिद्धियां उपलब्ध होतीं
फी ज़माना !
आप इतने से
नहीं सन्तुष्ट लेकिन-,
एक साधन और
आकर्षण अगर वह बन सके
तो हर्ज क्या है ।
आप अपनी कान-फाड़
'हुआ-हुआ' से भी
दिशायों को ध्वनित, प्र' ध्वनित करते ।
लोग पूछें,
'क्या हुए हैं? क्या हुए हैं?'
और दुनिया
जिस तरह अपनी बनी है
वहाँ नीचे पड़े लोगों की
कमी कोई नहीं है ।
किसी भी ऊँची जगह पर
जहाँ कोई नजर आता,
हीन-ग्रन्थि-विवश,
उसे सत्कार देने
या कुतूहल ज्ञात करने को
हजारों टूट पड़ते ।
होइए खुश
गर्दनें दुख रहीं उनकी
और उनकी टोपियां-पगड़ियाँ गिरतीं ।
जिस तरह जयकार सुनने का
किन्हीं को रोग होता,
मर्ज़ होता किन्ही को
जय बोलने का ।
हर 'हुआ' पर
'वाह' की आवाज़ आती,
और फिर अख़बार का कालम सजाती
औ' सुयश-दर-सुयश
बढ़ता रोज़ जाता,
फैलता बाहर
न घर में जब समाता ।
बहुत ऊँची और मीनारी जगह पर-
सब जगह से दृष्टिगोचर-
तू जहाँ बैठा हुआ है
वह सिंहासन;
शेर को अधिकार
उस पर बैठने का
जो तमककर तके उसको,
ढुके,
अपने सख्त और सशक्त पंजों के सहारे
एक तीर-छलांग मारे,
और सबके देखते ही देखते
उस पर सुनिश्चित बैठ जाए,
शान से, गम्भीरता से,
हैं अशोकस्तम्भ पर ज्यों सिंह बैठे ।
और क्या बैठे !
हटाने की न हो हिम्मत समय को
और तू मत्था टिका
किन ड्योढ़ियों पर,
नाक अपनी रगड़कर
किन सीढ़ियों पर,
किन खुशामद औ' बरामद
के रज़ील बरामदों में
खीस अपनी काढ़ता,
किन चुग़लखोरी, चापलूसी के
कमीने आंगनों में,
मुँह चलाता, दुम हिलाता,
नापता दब्बू पगों से
कौन गलियारे अंधेरे
और बदबूदार, सीलन-भरे, सँकरे,
आँख दुनिया की बचाता,
इस जगह तक आ सका है,
बना चौकन्ना कि तेरे,
पांव की आहट किसी को मिल न पाए
तब तलक जब तलक आसन पर न हो जाता सुरक्षित !
स्वाभिमानी सिंह से
यह कभी हो सकता नहीं है,
'फर्रुखाबादी'
खड़ा औ' खुला
उसका खेल होता,
किन्तु दुनिया तो नतीजा देखती है ।
सिंह का बल
स्यार के छल से पराजित,
मूल्य का विघटन यही है!
(फर्रुखाबादी=हमारे इलाहाबाद की तरफ एक
कहावत कही जाती है; 'खड़ा खेल फ़र्रुखाबादी' ।
अर्थ है, ऐसा काम जिसमें कोई दुराव-छिपाव न हो,
जो खुले-खज़ाना किया जा सके । इस कहावत
का मूल-स्रोत क्या है, मुझे नहीं मालूम ।)
कवि से, केंचुआ - Harivansh Rai Bachchan
छिपकलियों, बीछीयों, केंचुओं, बर्रों में रम,
जीवन की कल्पना सिसकती"
-पन्त (वाणी)
ओ समानधर्मा !-
मेरे इस संबोधन से
चौंक, ठिठक मत ।
समय आ गया है
यथार्थ को
खुली आँख देखने,
पूर्ण भोगने,
निडर स्वीकृत करने का,
सपने को पाषाणों के अन्दर सेने का ।
उन्नत पर्वत जहाँ कभी थे
वहां टेकरी, टीले, ढीहे,
नद-नदियों की सन्तानें
नाले-नली हैं,
जल-प्रपात का नाती है
नलके का पानी !
यानी,
अब यह नहीं किसी से छिपा हुआ
युग लघु लोगों का-
काश, इसे आकार-प्रकारों तक
सीमित रक्खा जा सकता--
नहीं, साथ ही, यह युग
लघुता का, छोटेपन, ओछेपन का,
जिसका सबसे हीन रूप यह-
बड़े बड़ा कर औरों को
खुद बड़े हुए थे ।
छोटे औरों को अपने से छोटा रखने में
छोटे से छोटे,
छोटे-से-छोटे होते जाते हैं ।
अविरत क्रम है,
किसको गम है?
पूर्वज तेरे
आसमान में सिर ऊँचा रखकर चलते थे,
इन्द्रधनुष की पगड़ी बाँधे;
सूरज, चाँद, सितारे उनसे
आँख मिलाते शरमाते थे ।
जब गाते थे
दिग्-दिगन्त उसकी कड़ियों को दुहराते थे,
मरु से थी रसधार निकलती,
अंधकार में सपनों के दीपक जलते थे?
बोल, तुझे इस महानगर में कौन जानता ?
तेरी भी कोई हस्ती है, कौन मानता ?
सीढ़ी-दर-सीढ़ी पद-क्रम की लगी हुई जो
उस पर तेरा स्थान कहां है?
तुझे निम्नतम से भी धक्के देनेवाले ।
किसको फुरसत है तेरी वाणी सुनने की ?
जीवन-यापन के उपकरण जुटा सकने में-
और उसी के लिए यहां सब जद्दोजहद है-
तेरे शब्द मदद क्या देंगे?
क्रुद्ध युवा बनाम क्रुद्ध वृद्ध - Harivansh Rai Bachchan
"हम सब नपुंसक हैं
बीसवीं सदी की
कमज़ोर, नामर्द औलादें"
सुना
कि अपने देश के
जवान लोग क्रुद्ध हैं-,
सुना
कि देश की जो है
परम्परा, परिस्थिति,
वे उससे
असन्तुष्ट और रुष्ट हैं,
सुना
कि बोलते हैं ऐसी बात
खामखाह जो बुरी लगे,
औ' करते ऐसे काम
देखकर जिन्हें
अवाम आँख फाड़ दे,
ठिठक रहे ।
किसी जगह,
किसी तरह,
वे दबके चलने के
बहुत खिलाफ हैं;
वे खुलके रहने,
खुलके चलने,
खुलके खेलने के
पैरोकार हैं ।
वे कहते हैं,
पुरानी रस्म-रीतियों के
इम नहीं गुलाम हैं,
जहान में
नई फिज़ाएँ लाने को
विकल हैं,
बेकरार हैं !
क्रुद्ध
युवा क्या होंगे,
हम जो वृद्ध क्रुद्ध हैं ।
परम्परायों को
हममें वे मूर्त न समझें,
अपने यौवन में
हम भी उनसे झगड़े हैं ।
उखड़ गए हम,
खड़ी हुईं ये,
कमबख्तों की
कितनी पाएदार,
और मजबूत जड़ें हैं ।
खून-पसीने से
जो कर न सके हम,
बातों से कर लेंगे;
बरखुरदार बड़े भोले हैं ।
ठोस कदम क्या वे रक्खेंगे,
जो कि खोखले हैं, पोले हैं ।
व्यंग्य सुगम हैं,
चुहल सरल है,
कर लें, देखें, क्या बनता है?
दम जिनमें है नहीं
टोलियों से, उच्छृंखल,
और नपुंसक-दल से कोई रण ठनता है?
तोड़-फोड़ आसान,
सृजन के लिए रक्त देना पड़ता है,
अपनी वृद्ध नसों से हम दें ?
दे सकते हैं ।
और देंगे भी ।
हम अब भी कुछ कर सकने का साहस रखते हैं ।
इम सरोष, त्यक्ताश,
आज कुछ कर गुज़रेंगे ।
हट जाएँ, हम बहुत गरम हैं !
काठ का आदमी - Harivansh Rai Bachchan
मैंने काठ का आदमी देखा है !
विश्वास नहीं?
काठ के उल्लू पर विश्वास है,
काठ के आदमी पर नहीं !
मैंने काठ का आदमी देखा है!
वह चलता-फिरता है,
हाथ उठाता-गिराता है,
शीश झुकाता है,
मुँह चलाता है,
आँख मटकाता है,
हंसता है, बोलता है, गाता है,
प्रेयसी को गले लगाता है ।
हाड़-मांस के मनुष्य से
फर्क सिर्फ इतना है,
मंज़िल पर पहुंचकर
थकने का सुख नहीं पाता है,
पुलकित नहीं होता है ।
सिर झुके सौ नहीं, हजार बार,
समर्पित नहीं होता है ।
मुँह तो चलाता, पर
बात सदा दूसरे की
दूसरे के स्वर में दुहराता है।
गाता हुआ, गाता नहीं,
दूसरे का टेप किया गीत ही बजाता है।
सम्भोग करता है,
सृजन नहीं करता है,
कर नहीं पाता है !
जो कुछ कहा है मैंने, ठीक है न ?
देखो, हाथ खट से उठाता है !
माँस का फर्नीचर - Harivansh Rai Bachchan
दिनानुदिन
दिन को रात-सा किए,
वातानुकूलित कमरे में या
बिजली के पंखे के तले,
भारी परदों से घिरा,
कुर्सी-मेज़ के बीच माँस के फर्नीचर-सा
जीवन मुझें नहीं सुहाता-
नौ-बटा-दस मोकप्पड़,
चश्मा नाक पर,
उल्लू-सा चिन्तन-रत,
बिजली की रोशनी में
रीति-बद्ध शब्द पढ़ता,
लीक-बंधी पंक्ति लिखता,
विद्वान-सा दिखता,
कभी-कभी नज़र मार लेता
घड़ी की सुइयों पर
ड्यूटी भर पूरी कर
गाड़ी में लदकर घर जाता ।
मैं चाहता हूं
कि वह खुले में निकले
वजन उठाए, ढोए-,
बोझभरी गाड़ी ठेले,
कड़ी जमीन गोड़े,
मिट्टी के ढोंके फोड़े,
नौ-बटा-दस नग्न
पोर-पोर सूरज की किरन पिए,
नस-नस जिए,
तर-तर पसीना चुए
चोटी से एड़ी तक,
मध्यान्तर जाने वह
सिर पर परछाईं जब
छोटी हो पांव छुए,
औ' जब वह क्षितिज छुए
छोटी से लम्बी हो,
काम पूर्ण,
नीड़-मुखी पंछी-सा
गाता हुआ घर जाए,
हर-हर नहाए,
मूख कुलबुलाए'
तृप्त-शान्त सो जाए,
पूर्णकाम ।
माँस के फर्नीचर को उसे देख ईर्ष्या हो,
माँस के फर्नीचर को देख, वह तरस खाए ।
भुस की गठरी और हरी घास का आँगन - Harivansh Rai Bachchan
जी नहीं,
मेरे दिमाग में भूसा नहीं भरा है,
भूसा जड़, अँधेरी, बन्द, बुसी
कोठरियों में भरा रहता है;
मेरा दिमाग खुला है,
उसपर ताजी हवाएँ बहती हैं,
सूरज-चांद की किरणें बिखरती हैं
उसपर बरसात झड़ती है,
घास उगती है,
घास-मरकती-सी हरी,
चिकनी, ठंडी, मर्मस्पर्शी,
आँखों को भानेवाली, जुड़ानेवाली,
तलवों को ही नहीं,
मन को भी गुदगुदानेवाली,
सबका दामन थामकर बिठलानेवाली,
जानदार है, जड़ नहीं, जड़दार है,
पकड़ है, पुकार है, मनुहार है ।
तुम पशु हो तो उसे चरो,
इससे तुम्हारा पेट भरेगा,
बैठो, जुगाली करो ।
प्रेमी हो तो इस प्रकार बिचरो,
लेटो, सुख की इससे अच्छी सेज नहीं बनी
एक ही तरह का अनुभव करते हैं,
क्या गरीब-क्या धनी ।
चिंतित हो तो इसे कुतरो,
चिन्ता कुछ घटेगी,
इसका आश्वासन नहीं देता
कि पूरी तरह कटेगी,
चिन्ताएँ कुछ और कठोर खाकर अघाती हैं ।
थके हो मांदे हो तो आओ,
इस पर बैठकर सुस्ताओ;
तुम ताज़े होकर उठोगे ।
तुम ऐसे कुछ भी नहीं हो,
साधारण हो,
तो भी यह तुम्हारा आंगन है,
हरी घास पर सबके लिए आकर्षण है ।
अच्छा है कि यहां
कली नहीं फूल नहीं,
फलों-भरी डाल नहीं;
दानों लदी बाल नहीं,
धन नहीं, धान्य नहीं ।
यह सब अगर होता
तो बड़ा भार होता,
घर उठाने का बखेड़ा - Harivansh Rai Bachchan
और लोमश इस तरह सौ वर्ष जीते ।
और लोमश ऋषि रहा करते धरा में खोद गढ्ढा !
एक दिन उनसे किसी ने कहा,
"मुनिवर, घर बना लेते कहीं पर !"
क्वचित अन्यमनस्कता से कहा मुनि ने,
"कौन इतने अल्प जीवन के लिए
घर खड़ा करने का बखेड़ा सिर उठाए !"
मुनि विरागी ही नहीं थे,
थे बड़े व्यवहारकुशल, बड़े हिसाबी;
एक घर यदि सौ बरस तक खड़ा रहता,
झेलता हिम, ग्रीष्म, वर्षा,
ज़रा सोचो तो कि अपने 'अल्प' जीवन में
उठाना उन्हें कितनी बार पड़ता
घर उठाने का बखेड़ा ।
दयनीयता : संघर्ष : ईर्ष्या - Harivansh Rai Bachchan
निम्नतम स्तर पर पड़ा तू
आज है मोहताज
झंझी कौड़ियों के लिए
जिनका मूल्य तुझको रुपयों से अधिक
पाई दाय में जो दीनता, जो हीनता
वह अखरती हर समय,
पर सविशेष प्रात: और सायंकाल,
जाना है कहीं संकोच,
आना किसी का संताप-लज्जापूर्ण,
सह ले सौ अभाव मनुष्य,
कैसे सहे घर में पड़े प्रियजन रुग्ण,
दूभर पथ्य और इलाज,
कैसे आत्मा अपनी बचाए,
लाज से नीचे गड़े, गड़ता न जाए,
यदि बने, परबस,
अपरिचित और परिचित
जनों की दयनीयता का पात्र ।
करुणा उतरती है,
नहीं ऊपर को उठाती,
और उसपर पला करते आत्मघाती ।
देश-काल-समाज, यदि कुछ भाग्य,
उसकी भी चुनौती
आज तू स्वीकारता है,
शक्तियां सोई जगाता और दृढ़ संकल्प-साहस
बाँध करके मुट्ठियों में
चढ़ रहा है सीढ़ियों पर
जो कि सीधी खड़ी, ऊँची,
और जिनपर डटे पहले से
किसी भी नए के पद को
वहाँ टिकने न देते,
रोकते, बलपूर्वक धक्के लगाते,
और नीचे ठेल और ढकेल देते ।
आज कुछ ऊपर अगर तू आ सका है,
पोर-पोर थकान, नस-नस पीर,
तन का नील औ' लोहू-पसीना,
काम आए हुए प्रियजन,
साक्षी संघर्ष के
जो तुझे इसके वास्ते करना पड़ा है ।
व्यक्ति संघ-विधान से जब जूझता है
जीतता भी तो, बहुत कुछ टूटता है ।
और ताली जीत पर बस खेल के मैदान में है,
क्षेत्र जीवन का उपेक्षा का,
लगाए धूप का चश्मा दृगों पर, बेहया,
औ' तेल डाले कान में है ।
आज किसको याद है
संघर्ष की तेरी कहानी ?
आज किसको याद है वह दिन
कि जब तू निम्नतम स्तर पर पड़ा था ?
आज तुझसे जो पड़े नीचे
कि जो नीचे पड़े ही रह गए हैं,
समझते हैं,
नियति ने अपनी कृपा से
गोद में तुझको उठा ऊपर बिठाया-
पक्षपात किया गया है--
और तेरे प्रति अगर कुछ,
ईर्ष्या है, ईर्ष्या ही ईर्ष्या है ।
और मैं संध्या समय बैठा हुआ
यह सोचता, क्या
आज का युग-व्यक्ति जीवन-क्रम
यही दयनीयता, संघर्ष, ईर्ष्या ?
सहन करनी पड़ी थी दयनीयता,
संषर्घ झेला,
सही जाती नहीं ईर्ष्या,
क्योंकि किससे ?
इन अकिंचन, बड़ा मूल्य वसूलकर
उपलब्धियों से !
तो मनुज संकीर्ण कितना, संकुचित है,
हीन, दैन्यग्रस्त है !
अन्तर व्यथित है ।
दिए की माँग - Harivansh Rai Bachchan
रक्त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्नेह से मैंने जगाया।
बड़ा अचरज हुया
किन्तु विवेक बोला:
आज अचरज की जगह दुनिया नहरं है,
जो असंभव को और संभव को विभाजित कर रही थी
रेख अब वह मिट रही है।
आँख फाड़ों और देखो
नग्न-निमर्म सामने जो आज आया।
रक्त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्नेह से मैंने जगाया।
वक्र भौंहें हुईं
किन्तु विवेक बोला:
क्रोध ने कोई समस्या हल कभी की?
दीप चकताचूर होकर भूमि के ऊपर पड़ा है,
तेल मिट्टी सोख़ती है,
वर्तिका मुँह किए काला,
बोल तेरी आँख को यह चित्र भाया?
रक्त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्नेह से मैंने जगाया।
मन बड़ा ही दुखी,
किन्तु विवेक चुप है।
भाग्य-चक्र में पड़ा कितना कि मिट्टी से दिया हो,
लाख आँसु के कणों का सत्त कण भर स्नेह विजेता,
वर्तिका में हृदय तंतु बटे गए थे,
प्राण ही जलता रहा है।
हाय, पावस की निशा में, दीप, तुमने क्या सुनाया?
रक्त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्नेह से मैंने जगाया।
स्नेह सब कुछ दान,
मैंने क्या बचाया?
एक अंतर्दाह, चाहूँ तो कभी गल-पिघल पाऊँ।
क्या बदा था, अंत में मैं रक्त के आँसू बहाऊँ?
माँग पूरी कर चुका हूँ,
रिक्त दीपक भर चुका हूँ,
है मुझे संतोष मैंने आज यह ऋण भी चुकाया।
रक्त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्नेह से मैंने जगाया।
शिवपूजन सहाय के देहावसान पर - Harivansh Rai Bachchan
मृत्यु यहाँ जन्म दिया करती है ।
भस्म हुई काया थी,
यश-काया जलती है न मरती है,
काल-जई युग-युग निखरती है ।
वाङ्मय स्वरूप धार
खड़ा हुआ ज्यों पहाड़;
पीठ पर बहुत बड़ा साया है;
आयो नव जोधाओ,
सन्मुख बाधाओं, विरोधों का
निर्भय करो निदान,
हिन्दी की शक्ति और क्षमता का
देना तुम्हें प्रमाण !
ड्राइंग रूम में मरता हुआ गुलाब - Harivansh Rai Bachchan
(गजानन माधव मुक्तिबोध की स्मृति में)
गुलाब
तू बदरंग हो गया है
बदरूप हो गया है
झुक गया है
तेरा मुंह चुचुक गया है
तू चुक गया है ।
ऐसा तुझे देख कर
मेरा मन डरता है
फूल इतना डरावाना हो कर मरता है!
खुशनुमा गुलदस्ते में
सजे हुए कमरे में
तू जब
ऋतु-राज राजदूत बन आया था
कितना मन भाया था-
रंग-रूप, रस-गंध टटका
क्षण भर को
पंखुरी की परतो में
जैसे हो अमरत्व अटका!
कृत्रिमता देती है कितना बडा झटका!
तू आसमान के नीचे सोता
तो ओस से मुंह धोता
हवा के झोंके से झरता
पंखुरी पंखुरी बिखरता
धरती पर संवरता
प्रकृति में भी है सुंदरता
दो रातें - Harivansh Rai Bachchan
(एक याद, एक आशंका)
उस दिन भी ऐसी ही
क्रुद्ध, काली, डरावनी,
फुफकारती-सी रात थी;
घुप्प, घिरा, भरा, थर्राया
आसमान था-
रह-रहकर चमकता,
रह-रहकर कड़कता,
जीवन-परीक्षा
और देते ये परीक्षाएँ
उमर ही कट गई है,
हिचकिचाहट, भीति, शंका
सब तरह की हट गई है,
औ’ नतीजे के लिए होता
नहीं चंचल-विकल मन,
सफलता औ' विफलता के
बीच दूरी घट गई है;
किन्तु निश्चित जानता हूँ
क्रम नहीं यह टूटने का
जब तलक सम्बन्ध साँसों
से जुड़ा है, जब तलक रहना यहां है।
जिन्दगी तो इम्तहाँ-दर-इम्तहाँ है ।
वह परीक्षा भी जिसकी
सब परीक्षाएँ तयारी,
और देने में जिसे मिट
जाएगी काया बिचारी?
जान पाएंगे कभी
परिणाम मेरे बाद वाले ?
और टूटेगी कि टूटेगी नहीं मेरी खुमारी?
जो परीक्षा पूर्व मेरे
दे गए थे, वे बने हैं
एक अबूझ रहस्य, उनकी-सी
तुम्हारी और मेरी दास्तां है।
जिन्दगी इम्तहाँ-दर-इम्तहाँ है ।
एक फिकर–एक डर - Harivansh Rai Bachchan
यही घड़ी है बन्धु,
दिल को कड़ा करने की,
यह घड़ी है नहीं, भाई,
याद करने की-
स्वेद-श्रम की धार
रोम-कूपों से निकलती,
देह के ऊपर सरकती;
और अन्तर में करकती;
फेन मुख से विवश निर्गत;
पंथ के कुश-कंकड़ों की पत्थरों की
चुभन, धसन, कठोर-ठोकर से
बहा जो खून,
तलवों, उंगलियों से,
सना मिट्टी से, जमा,
सूखा, बिथा-काला पड़ा;
नस-नस चटकती-सी;
हिली-सी हर एक हड्डी;
और मन टूटा-गिरा-सा;
और छुट्टी हुई हिम्मत;
और हारी-सी तबीयत;-
यह घड़ी है नहीं
यह सब याद करने की,
यह घड़ी है, बंधु
दिल को कड़ा करने की ।
जहाँ पहुंचा हूँ
वहाँ पर पहुंचने को
कब चला था?
और उससे कम नहीं
अंदर चला था ।
और मंज़िल, जिस तरह की भी,
मुझे मन भा रही है ।
सफर लम्बा इस क़दर निकला-
बड़ा खुश हूँ-
कि जो कुछ भी सँजोया
भार इतना लगा,
हल्का हुआ
उसको फेंक-फांक, उतार कर ही ।
कटा अपने-आप फंदा,
आज बंदा है छरिंदा !
और मेरी राह मुश्किल-
बड़ा खुश हूँ-
इस कदर निकली कि साथी
साथ अपने-आप मेरा छोड़ भागे-
यह नहीं आसान धंधा-
कटा अपने-आप फंदा,
आज बंदा है छरिंदा !
पंथ है या मुक्त नभ है,
द्विपद हूँ या हूँ परिंदा !
एक ही मुझको फिकर है,
और कम उसका न डर है,-
जिन पथों-पगडंडियों को
गीत से अपने गुंजाता मैं चला था,
आज उठ उनसे प्रतिध्वनि आ रही है
और मेरा दिल कड़ा जो हो चला था
फिर उसे पिघला रही है!
माली की साँझ - Harivansh Rai Bachchan
बटोही की थकन हरते;
कदम्ब, जो पुष्पों के गुच्छों से
आँखों के कांटे निकालते;
अंब, जो अपने फलों से
तन की क्षुधा हरते,
मन को तृप्त करते;
महुए, जो अपने मधु तोय में
कुछ कटुता कुछ कुंठा डुबा लेते न कुछ अर्जित हुआ,
न कुछ अर्पित हुआ,
न दुआ सुनी, न शुक्रिया,
न गर्व ने छेड़ा,
न संतोष ने छुआ,
और अब आई खड़ी जीवन की साँझ है ।
कभी बीज निगल गई
ज़मीन हृदयहीन, कठोर,
कभी नए अँखुयों पर
आसमान हुआ निर्मम,
कभी उठते पौधों के
प्रतिकूल हुआ मौसम,
कभी खा-खूँद गए
सहज भाव से गुज़रते हुए ढोर,
कभी जान-बूझकर
ईर्ष्या और द्वेष भी दिखाते रहे ज़ोर
कभी शहज़ोरी,
कभी चोराचोरी ।
जीवन की श्रम-स्वेद से भरी दुपहरी ने
सनकी चुनौती ली,
किन्तु अब पी ली, पी ली,
आई खड़ी जीवन की साँझ है;
चुका-चुका आज है:
किन्तु कहीं दूर से आती आवाज़ है-
थकी-लटी मिट्टी से अच्छी
नहीं खाद हुआ करती है,
जो न हुए सच्चे उन सपनों से अच्छे
नहीं बीज हुआ करते हैं,
आँसू से सिंचे हुए निश्चय ही
एक दिन उभरते हैं,
सब कर ले, श्रम न हज़म
कर सकती धरती है,
मरने को जीते जो
जीने को मरते हैं,
निश-कालिमा समेट
पात बन बिखरते हैं,
सबसे यह बढ़कर है,
अपने अनुदान से
अनजान बने रहते हैं,
पृथ्वी पर अहं की वे
वृद्धि नहीं करते हैं ।
दो युगों में - Harivansh Rai Bachchan
(एक तुलना : एक असंतोष : एक संतोष)
एक युग ने
प्रथम रश्मि का स्वागत किया
और अपने मधुर-मधुर तप के
बल पर
उसे स्वर्ण किरण में बदल दिया ।
एक युग ने
सूर्य का स्वागत किया
पर जब वह मारतंड हुआ,
प्रचण्ड हुआ, प्रखर हुआ,
तब उसने डरकर धूप का चश्मा लगाया,
घबराकर अपने को किसी कोने में छिपा लिया ।
मैं प्रथम रश्मि के आंगन में खेला,
स्वर्ण किरण में नहाया,
पूत हुआ;
सूर्य निकला
तो मैंने काम में हाथ लगाया,
कंठ से राग उठाया ।
मारतंड तपा
तो मैंने उसे सहा,
बहुत स्वेद बहा,
पर मैं लगा रहा ।
और अब मेरा दिन ढलता है,
मेरे जैसों के श्रम से,
संगीत से, कहाँ कुछ बदलता है;
पर इतना भी क्या कम है
कि जब मेरा तन श्रांत है,
मेरा मन शांत है ।
दो बजनिए - Harivansh Rai Bachchan
"हमारी तो कभी शादी न हुई,
न कभी बारात सजी,
न कभी दूल्हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन में क्वाँरे ही रह गए।"
दूल्हन को साथ लिए लौटी बारात को
दूल्हे के घर पर लगाकर,
एक बार पूरे जोश, पूरे जोर-शोर से
बाजों को बजाकर,
आधी रात सोए हुए लोगों को जगाकर
बैंड बिदा हो गया।
अलग-अलग हो चले बजनिए,
मौन-थके बाजों को काँधे पर लादे हुए,
सूनी अँधेरी, अलसाई हुई राहों से।
ताज़ औ' सिरताज चले साथ-साथ-
दोनों की ढली उमर,
थोड़े-से पके बाल,
थोड़ी-सी झुकी कमर-
दोनों थे एकाकी,
डेरा था एक ही।
दोनों ने रँगे-चुँगी, चमकदार
वर्दी उतारकर खूँटी पर टाँग दी,
मैली-सी तहमत लगा ली,
बीड़ी सुलगा ली,
और चित लेट गए ढीली पड़ी खाटों पर।
लंबी-सी साँस ली सिरताज़ ने-
"हमारी तो कभी शादी न हुई,
न कभी बारात चढ़ी,
न कभी दूल्हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन में क्वाँरे ही रह गए।
दूसरों की खुशी में खुशियाँ मनाते रहे,
दूसरों की बारात में बस बाजा बजाते रहे!
हम तो इस जीवन में..."
ताज़ सुनता रहा,
फिर ज़रा खाँसकर
बैठ गया खाट पर,
और कहने लगा-
"दुनिया बड़ी ओछी है;
औरों को खुश देख
लोग कुढ़ा करते हैं,
मातम मनाते हैं, मरते हैं।
हमने तो औरों की खुशियों में
खुशियाँ मनाई है।
काहे का पछतावा?
कौन की बुराई है?
कौन की बुराई है?
लोग बड़े बेहाया हैं;
अपनी बारात का बाजा खुद बजाते हैं,
अपना गीत गाते हैं;
शत्रु है कि औरों के बारात का ही
बाजा हम बजा रहे,
दूल्हे मियाँ बनने से सदा शरमाते रहे;
मेहनत से कमाते रहे,
मेहनत का खाते रहे;
मालिक ने जो भी किया,
जो
भी दिया,
उसका गुन गाते रहे।
भिगाए जा, रे... - Harivansh Rai Bachchan
भीग चुकी अब जब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे
आँखों में तस्वीर कि सारी
सूखी-सूखी साफ़, अदागी,
पड़नी थी दो छींट छटटकर
मैं तेरी छाया से भागी!
बचती तो कड़ हठ, कुंठा की
अभिमानी गठरी बन जाती;
भाग रहा था तन, मन कहता
जाता था, पिछुआए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!
सब रंगों का मेल कि मेरी
उजली-उजली सारी काली
और नहीं गुन ज्ञात कि जिससे
काली को कर दूँ उजियाली;
डर के घर में लापरवाही,
निर्भयता का मोल बड़ा है;
अब जो तेरे मन को भाए
तू वह रंग चढ़ाए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!
कठिन कहाँ था गीला करना,
रँग देना इस बसन, बदन को,
मैं तो तब जानूँ रस-रंजित
कर दे जब को मेरे मन को,
तेरी पिचकारी में वह रंग,
वह गुलाल तेरी झोली में,
हो तो तू घर, आँगन, भीतर,
बाहर फाग मचाए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!
मेरे हाथ नहीं पिचकारी
और न मेरे काँधे झोरी,
और न मुझमें हैबल, साहस,
तेरे साथ करूँ बरजोरी,
क्या तेरी गलियों में होली
एक तरफ़ी खेली जाती है?
आकर मेरी आलिंगन में
मेरे रँग रंगाए जा, रे?
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!
मुक्ति के लिए विद्रोह - Harivansh Rai Bachchan
वही है सब जड़ रूढ़ि-रीति-नीति-नियम-निगड़ के समक्ष
मेरे हदय में ऊहापोह,
मेरे मस्तिष्क में उद्वेलन,
मेरे प्राणों में उज्ज्वलन,
मेरे चेतन का मुक्ति के लिए विद्रोह !
सार्त्र के नोबल-पुरस्कार ठुकरा देने पर - Harivansh Rai Bachchan
(हिन्दी के बुद्धिजीवियों की सेवा में)
सवयस्क,
समानवर्मा,
और मेरी धृष्टता यदि हो क्षमा,
कुछ अंश में
समदृष्टि तुमको और अपने को
हृदय से मानता मैं;
सुन इसे कुछ मित्र
औ’ शत्रु मेरे
आज चौंकेंगे,
कहाँ अस्तित्ववादी, कहाँ बच्चन !
कहाँ नास्तिक, बुद्धिवादी, अविश्वासी,
कहाँ आस्तिक और भावातिशयवादी
और कुछ अस्पष्ट, कुछ अज्ञात,
कुछ अव्यक्त का विश्वास-कर्ता !
भ्रांतियां हैं विविध दोनों के विषय में
रहें, तेरा और मेरा क्या बिगड़ता
बीज है अस्तित्व का व्यक्तित्व
जिसके गीत मैंने
कम नहीं गाये, सुनाये
व्यक्ति की अनुभूति के,
अधिकार के,
उन्मुक्ति के,
स्वातंत्र्य के,
दायित्व के भी,
व्यक्ति है यदि नहीं निर्जन का निवासी।
अनृत, मिथ्या, रूढ़ि, रीति, प्रथा, व्यवस्था
नीति, मृत आदर्श के प्रति अविश्वासी,
पूर्ण,
बन मैं भी चला था;
किंतु देखा इसे मैंने,
अविश्वासी को नहीं आधार अंतिम प्राप्त होता।
एक दिन मैं
अविश्वासों प्रति अविश्वासी बना था
वृत पूरा हो गया था,
छोर ने मुड़कर सिरे को छू लिया था,
जिस तरह से पूँछ ने फन,
इस तरह विश्वास की
अव्यक्त कुछ, अज्ञात कुछ,
अस्पष्ट कुछ, रहसिल शिराएं छू रहा हूँ
एक दिन देखा इसे भी,
अंततः जो हूँ
तथा जो सोचता हूँ,
बोलता हूँ, कर रहा हूँ,
प्रकृति अपनी वर्तता हूँ
भाव भव का भोगता हूँ
बुद्धि तो केवल दुहाई दे रही है,
सिद्ध करती इन सबों को
तथ्य-संगत, तर्क-संगत, न्याय-संगत !
और ये सब हैं अपेक्षाकृत असंगत।
फ़र्क तुझमें और मुझमें सिर्फ़ इतना।
व्यक्ति मेरे लिये भी अंतिम इकाई,
और उसके सामने संसार सारा,
धर्म, रूढ़ समाज, शासन-तंत्र सारा,
प्रकृति सारी, नियति सारी,
देश सारा, काल सारा,
और उसको
एक, बस अस्तित्व अपने, सहारा;
गो मुझे आभास होता है
कि अपने में
कहीं पर और का भी है पसारा;
किंतु, यदि हो भी न तो भी
व्यक्ति मेरा नहीं हरा !!
व्यक्ति मेरा नहीं हारा !!
कौन उससे जो न जा सकता प्रचारा?
(और उसमें सम्मिलित है ‘और’ ऊपर का हमारा)
औ’ उसी की शत्रु बन
उसको दमित, कुष्ठित, पराजित,
दलित करने की गरज से
शक्तियाँ जो पश्चिमी जग में उठी थीं,
क्रूर तानाशाहियत की
और दुर्दम, भेदपूर्ण समूहशाही,
बन्धु, उनके सामने डटकर अकेले
मोर्चा तूने लिया था,
शस्त्र सबसे सबल,
सबसे स्वल्प लेकर लेखनी का!
और तुझसे पा सुरक्षा-आश्वासन
पश्चिमी संसार का पूरब व पश्चिम
हुआ था तुझ पर निछावर,
विनत प्रतिभापूर्ण तेरे युग चरण पर।
और पेरिस-मास्को ने
तुझे गुलदस्ते दिये थे,
किंतु लेने से किया इंकार तूने,
क्योंकि निज-निज स्वार्थ का
आरोप दोनों,
सार्त्र, तुझ पर कर रहे थे।
बात यह थी-
व्यष्टि की लेकर इकाई
था उसे तूने बड़ा व्यापक बनाया,
किंतु उसकी एक सीमा भी बनाई,
जिस जगह पर पा समिष्ट
बने दहाई वह इकाई-
हो भले ही मूल्य शून्य
समष्टि का तेरी नज़र में-
गो मुझे आभास होता है
कि मेरा व्यष्टि केवल शून्य,
उसका मूल्य लगता है
उसे मिल जाये जब
अस्पष्ट की, अज्ञात की,
अव्यक्त सत्ता की दहाई !
(शून्य, जिससे मूल्य बढ़ता
कम नहीं उसकी महत्ता)
द्रविड़ प्राणायाम है यह
गणित अंकों का विनोदी,
वस्तुतः व्यवहार में हम
एक ही कुछ कर रहे हैं,
फार्मूलों में कभी बँधता न जीवन,
शब्द-संख्या फार्मूले ही नहीं तो और क्या हैं?
तथ्य केवल,
व्यष्टि करके मुख्यता भी प्राप्त
अपने आप में सब कुछ नहीं है !
पूर्व को स्वाधीनता है
व्याख्या अपनी उसे दे
और पश्चिम को यही स्वाधीनता है।
देख, लेकिन,
क्या हुआ परिणाम उसका
क्या उपयोग उसका युग-शिविर में?
पूर्व-पश्चिम
शून्य-कन्दुक-दशमलव का
व्यष्टि के—तेरी प्रतिष्ठित जो इकाई--
कभी आगे, कभी पीछे फैंकते हैं
और अचरज-चकित
उनको देखता तू
और तुझको देखते वे।
सिद्ध प्रतिभा तो वही है
सामने जिसके निखिल संसार
मुँह बाये खड़ा हो !
जब तुझे आकर्ष
औ’ सम्मान और स्नेह
जनता का मिला था,
क्या ज़रूरत थी तुझे, तू
विश्वविद्यालई
या कि अकादमीवी
या कि सरकारी
समादर, पुरस्कार, उपाधि की
परवाह करता।
वे रहे आते, लुभाते तुझे,
पर दुत्कातरता उनको रहा तू।
विश्वविद्यालय बँधे हैं
विगत मूल्य परम्परा में--
तू रहा जिनका विरोधी--
और अब तो बिक रहे वे,
राजनीति खरीदती है।
आज उनकी डिग्रियाँ-आनरिस-काजा-
योग्यता के लिये
प्रतिभावान को अर्पित न होती,
कूटनीतिक कारणों से
दी, दिलाई और पाई जा रही है।
औ’ अकादमियाँ
समय जर्जरित, जड़-हठ-हूश,
दकियानूस,
सिद्धांतों-विचारों के जठर अड्डे रही हैं,
और अब वे
स्वार्थ-साधक, चालबाज़, प्रचारकामी
क्षुद्रताओं की बड़ी दुर्भेद्य गढियाँ,
और उनके प्रति सदा
विद्रोह तू करता रहा है,
और उनकी भर्त्सना भी।
और सरकारें कभी होती नहीं
पाबन्द
सच की, न्याय, नैतिकता, उचित की;
उचित-अनुचित,
जो बनाये रहे उनकी अडिग सत्ता,
बे-हिचक, बे-झिझक है करणीय उनको।
शक्ति-साधन आज वे सम्पन्न इतनी,
कौन निर्णय है जिसे वे
निबल व्यष्टि, समष्टि सिर पर
लाद या लदवा न सकती?---
औ’ कहीं तो वे
उठाईगीर, चोरों औ’ उचक्कों के करों के
सूत की कठपुतलियाँ हैं,
जो कि अपने मौसियाउर भाइयों को,
या भतीजे, भानजों को,
चाहती जो भी दिलातीं,
चाहती जितना उठाती,
चाहती जिस पद सिंहासन पर बिठातीं;
डोरियाँ वे, किंतु प्रतिभा की कलम को
नाचया नचवा न पातीं।
ओसलो की
एक संस्था थी,
अगर निष्पक्षता की
आन वह अपनी निभाती,
मान कर तेरा स्वयं हो मान्य जाती;
किंतु अब वह
युग-विकृति-वश
पक्ष्धर शासन व्यवस्था की
शिकार बनी हुई है;
नाम पास्तरनाक का बरबस मुझे हो याद आया।
आज उसने मान देने का
तुझे निर्णय किया है,
और तूने मान वह ठुकरा दिया है,
और इस पर कुछ नहीं अचरज मुझे है।
सार्त्र,
उसके मान का यदि पात्र तू था,
आज से बारह बरस पहले
नहीं क्या बन चुका था?
उस समय
यूरोप में था मैं;
वहाँ के बुद्धिजीवी दिग्गजों में
नाम तेरा श्रृंग पर था।
आज मैं यह सोचता,
बारह बरस तक
ओसलो सोता रहा क्यों?
और इस सम्मान से
वंचित तुझे रखता रहा क्यों?
और यह सम्मान
तुझसे बहुत छोटों को
समर्पित- भूल तेरा नाम-
ग्यारह साल तक करता रहा क्यों?
देखता क्या वह नहीं था
निज प्रतिष्ठित इकाई के
किस तरफ़ तू,
शून्य-कन्दक-दशमलव रखने लगा है,
वाम या दक्षिण तरफ़
संवेदना तेरी झुकी है,
किंतु तू स्थितप्रज्ञ-सा
कूटस्थ सा बैठा रहा है,
पूर्व-पश्चिम के लिये
बनकर समस्या,
हल न जिसका !
और अपनी भूल
अपनी हार,
अब स्वीकार कर वह
विवश होकर
मान यह देने चला है।
किंतु लेने के लिये अब देर ज़्यादा हो चुकी है।
संस्थाऐं—हों भले ही विश्व-वन्दित-
यह नहीं अधिकार उनको-
क्योंकि उनके पास धन-बल--
जिस समय चाहें दिखायें मान-टुकड़ा,
और प्रतिभा दुम हिलाती
दौड़ उनके पाँव चाटे !
सार्त्र ने जिस व्यक्ति का ‘आदर’ बढ़ाया,
शान के अनुरूप उसके यह नहीं
वह बेच डाले स्वाभिमान
खरीदने को मान,
उसका मूल्य कितना ही बड़ा हो
क्यों न जग में।
समय से सम्मान उसका
न करना, अपमान करने के बराबर,
और अवमानित हुई प्रतिभा
नहीं आपात-वृत्तिक मान से संतुष्ट होती।
सार्त्र को सम्मान देकर
स्थान देने का समय अब जा चुका है-
मान, या अपमान, या उसकी उपेक्षा,
इस समय पर
इंच भर ऊपर उठा सकता न उसको,
इंच भर नीचे गिरा सकती न उसको।
साठ के नज़दीक अब तू, और मैं भी;
इस उमर में पहुँच
जीवन-मान सारे बदल जाते,
मान औ’ अपमान खोते अर्थ अपना,
कर चुका अभिव्यक्ति तब व्यक्तित्व
सब सामर्थ्य अपना !
कल्पना में कर रहा हूँ,
किसी पेरिस की सड़क पर
किसी कैफ़े में,
अकेले,
हाथ टेके मेज़ पर, बैठा हुआ तू,
और तेरी उंगलियों में
एक सिगरेट जल रही है,
देखता निरपेक्ष तू
बाज़ार की रंगरेलियों को !
ख़बर आई है कि तुझको
ओसलो का पुरस्कार दिया गया
साहित्य विषयक !
और अन्य मनस्कता से
झाड़कर सिगरेट
तूने सिर्फ़ इतना ही कहा है--
'वह नहीं स्वीकार मुझको’।
मित्र, लेखक बन्धु, प्रेस-रिपोर्टर,
तुझको मनाने में सफल हो नहीं पाये जो,
निराश चले गये हैं,
और लेकर कार तू
है दूर जाता भीड़ से, अज्ञात पथ पर,
गीत शायद एक मेरा गुनगुनाता,
शब्द हों कुछ दूसरे पर
भाव तो निश्चय यही हैं,
जिन चीज़ों की चाह मुझे थी,
”जिनकी कुछ परवाह मुझे थी,
दीं न समय से तूने, असमय क्या ले उन्हें करूँगा !
कुछ भी आज नहीं मैं लूँगा”
और अब
संसार में तेरी प्रतिष्ठा
पुरस्कारभिषेकितों से बढ़ गई है।
कलम की महनीयता
स्थापित हुई,
स्वाधीनता रक्षित हुई है
औ’ कलम को मिली ऊँचाई नई है।
आयरिश कवि की किखी यह पंक्ति
स्मृति में कौंध जाती--
’द किंग्स आर नेवर मोर रॉयल
दैन व्हेन एब्डिकेटिंग !’
राजसी लगता अधिकतम
जबकि राजा
राजसिंहासन स्वयं ही त्याग देता !
जन या सज्जन बिठायें
उर-सिंहासन पर जिसे
उसके लिये कंचन सिंहासन धूल-मिट्टी।
जन समर्पित शब्द-शिल्पी के लिये
आसन उचित केवल वही,
केवल वही,
केवल वही है।
इसी को कुछ अन्य शब्दों में
हमारे पूज्य बाबा कह गये हैं--
“बनै तो रघुपति से बनै
कै बिगड़े भरपूर,
तुलसी बनै जो आनतें
ता बनिबे पै धूर”
और ‘रघुपति’ कौन है?---
केवल वही है
जो कि है ‘व्यक्तित्व’ की तेरे,
इकाई,
जो दहाई, सैंकड़े
सौ सैंकड़ों के सामने
अपनी इकाई मात्र के बल
खड़े होते,
कड़े होते,
थापते रुचि—रक्ति अपनी
सबों को देते चुनौती,
आत्म सम्मान, आत्म रक्षा के लिये
करते सतत संघर्ष
लड़ते आत्मवानों की लड़ाई,
नभ-विचुम्भित हों भले ही,
हों भले ही धराशाई !
जयतु रघुराई, जयतु श्री राम रघुराई !!!!
धरती की सुगंध - Harivansh Rai Bachchan
आज मैं पतझार की
जिन गिरी, सूखी, मुड़ी, पीती पत्तियों पर
चर्र-चरमर चल रहा हूँ
वे पताकाएँ कभी मधुमास की थीं,
मृत्यु पर जीवन,
प्रलय पर सृष्टि का,
या नाश पर निर्माण का
जयघोष करती-हरी, चिकनी, नई
नीची डाल से धुर टुनगुनी तक लगी, छाई,
चांद-सूरज-किरणमाला की खेलाई,
पवन के झूले झुलाई,
मेघ नहलाई,
पिकी के कूक-स्वर से थरथराई,
सुमन-सौरभ से बसाई ।
नील नि:सीमित गगन का
नित्य दुलराया हुआ यह विभव,
यह श्रृंगार,
जब से सृष्टि बिरची गई
कितनी बार
धरती पर गिरा है,
और माटी में मिला है,
औ' उसी में भिन गया है!
जो विभूति-वसुंधरा,
मुझको ज़रा अचरज नहीं
इतनी विचित्र विमोहिनी तू
और इतनी उर्वरा है,
और कण प्रत्येक तेरा
शब्द-शर - Harivansh Rai Bachchan
लक्ष्य-भेदी
शब्द-शर बरसा,
मुझे निश्चय सुदृढ़,
यह समर जीवन का
न जीता जा सकेगा।
शब्द-संकुल उर्वरा सारी धरा है;
उखाड़ो, काटो, चलाओ-
किसी पर कुछ भी नहीं प्रतिबंध;
इतना कष्ट भी करना नहीं,
सबको खुला खलिहान का है कोष-
अतुल, अमाप और अनंत।
शत्रु जीवन के, जगत के,
दैत्य अचलाकार
अडिग खड़े हुए हैं;
कान इनके विवर इतने बड़े
अगणित शब्द-शर नित
पैठते है एक से औ'
दूसरे से निकल जाते।
रोम भी उनका न दुखता या कि झड़ता
और लाचारी, निराशा, क्लैव्य कुंठा का तमाशा
देखना ही नित्य पड़ता।
कब तलक,
औ' कब तलक,
यह लेखनी की जीभ की असमर्थ्यता
निज भाग्य पर रोती रहेगी?
कब तलक,
औ' कब तलक,
अपमान औ' उपहासकर
ऐसी उपेक्षा शब्द की होती रहेगी?
कब तलक,
जब तक न होगी
जीभ मुखिया
वज्रदंत, निशंक मुख की;
मुख न होगा
गगन-गर्विले,
समुन्नत-भाल
सर का;
सर न होगा
सिंधु की गहराइयें से
धड़कनेवाले हृदय से युक्त
धड़ का;
धड़ न होगा
उन भुजाओं का
कि जो है एक पर
संजीवनी का श्रृंग साधो,
एक में विध्वंस-व्यग्र
गदा संभाले,
उन पगों का-
अंगदी विश्वासवाले-
जो कि नीचे को पड़ें तो
भूमी काँपे
और ऊपर को उठें तो
देखते ही देखते
त्रैलोक्य नापें।
सह महा संग्राम
जीवन का, जगत का,
जीतना तो दूर है, लड़ना भी
कभी संभव नहीं है
शब्द के शर छोड़नेवाले
सतत लघिमा-उपासक मानवों से;
एक महिमा ही सकेगी
होड़ ले इन दानवों से।
नया-पुराना - Harivansh Rai Bachchan
प्याज का
पुराना, बाहरी, सूखा छिलका
उतरता है,
और भीतर से
नया, सरस रुप
उघरता है, निकलता है ।
कलाकार के नाते
जो प्रार्थना
मैं सबसे अघिक दुहराता हूँ
वह यह है:
जो आकांक्षा है,
जो प्यास है,
(वह आज का वरदान नहीं ?)
वह कल का वरदान नहीं,
वह बहुत-बहुत पुरानी
प्रवृत्ति-प्रकृति का वरदान है
जो मेरे जन्म से,
मेरे तन, मेरे मनस के
पूर्वजों के जन्म से,
हमारा सहज धर्म रहा है ।
प्याज का
जो सबसे पहला छिलका
उतरा था
वह उसका सबसे नया रुप था;
जो सबसे बाद को उतरेगा
वह उसका सबसे पुराना रूप होगा ।
उद्घाटन नए से पुराने का होता है,
सृजन पुराने से नए का होता है ।
'एहि क्रम कर अथ-इती कहुं नाहीं !'
दो चट्टानें - Harivansh Rai Bachchan
अथवा
सिसिफ़स बरक्स हनुमान
[कुछ शब्द इस कविता की प्रवेशिका के रूप में]
यह प्रतीकात्मक कविता है । प्रतीक दंतकथायों से लिए गए हैं । दंतकथाएं इतिहास
लेकर उभरना स्वाभाविक था । उसका उद्देश्य था काल्पनिक आश्वासन-आशा से विमुक्त, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक-हर प्रकार की व्यवस्था के पति विद्रोही, जीवन के भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक तथ्यों के प्रति पूर्ण सचेत, और तर्कसंयमित विचार तथा निर्बाध अनुभूतियों के अधिकार से समन्वित व्यष्टि की उस इकाई की प्रतिष्ठा जो अपने अतिरिक्त सब कुछ की तुलना में सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्त्व अपने को दे सके-आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् । ऐसे तयक्ताश, असंतुष्ट, विमुक्त, विद्रोही व्यष्टि को साकार करने के लिए योरोपीय, विशेषकर फ्रांसीसी और चेक कथा-साहित्य में बहुत-से पात्रों का निरूपण किया गया जो अपने अस्तित्व को जीने के लिए भीषण संघर्ष करते हैं । अलबेर कामू ने उसके संघर्ष की प्रतिकृति पुरानी दंतकथा में सिसिफ़स के संघर्ष में पाई और उसे युग-व्याप्त चौमुखी-निरर्थकता का नायक माना-'दि ऐबसर्ड हीरो ।
मैंने विद्यार्थी-जीवन के स्वाध्याय में सिसिफ़स से परिचय किया था, पर उस समय यह नहीं समझा था कि निकट भविष्य में यह मानव-मनस् का प्रतीक बनकर खड़ा होगा । आज से दस वर्ष पूर्व जब योरोप की दार्शनिक विचार-धारा में मैंने उसे अपने नए सन्दर्भ में देखा तो वह अपरिचित नहीं लगा । पन्द्रह वर्ष पूर्व अपनी व्यक्तिगत वेदना की जाग में मैं प्राय: उसी की सी अभिवृत्ति (मूड) में होकर निकल गया था- "व्यर्थ जीवन भी, मरन भी' - 'व्यर्थ' को हम 'ऐबसर्ड' का पर्याय मान लें तो अभिव्यक्ति में भी शायद ही कोई विशेष अन्तर दिखाई दे । और विचित्र है कि उस व्यर्थता से ऊपर उठने का भी वही आग्रह था जो पाश्चात्य विचारक में-'निश्चय था गिर मर जाएगा, चलता, किंतु, जीवन भर' और इन पंक्तियों में तो
चार कदम उठकर मरने पर मेरी लाश चलेगी'
'गरल पान करके तू बैठा,
फेर पुतलियां, कर-पग ऐंठा,
यह कोई कर सकता, मुर्दे, तुझको अब उठ गाना होगा ।'
वह आग्रह उससे कहीं अधिक तीव्रता से व्यक्त हुआ है जहाँ वह विचारक मनुष्य को सूने मरू के बीच में भी जीने और सृजन करने को प्रेरित करता है । मौलिक रूप में कामू के विचार भी १੯४० के लगभग व्यक्त हुए थे । क्या विचारों की एक प्रच्छन्न धारा चलती है जो पूर्व-पश्चिम सबको लगभग एक ही तरह भिगाती है ?
बीच की कहानी 'निशा निमंत्रण' से लेकर मेरे अब तक के संग्रहों में लिखी है
भ्रांति की, सन्देह की अनुमान की
बहु घाटियां
गहरी, कुहासे-भरी,
सँकरी और चौड़ी
दूर तक फैली हुई हैं ।
सत्य
बहुत बड़ा महत्त्वाकांक्षी हो,
सत्य की,
पर, एक मर्यादा बनी है,
तोड़ जिसको वह कभी पाया नहीं है,
तोड़ भी सकता नहीं है ।
एक ऐसा बिन्दु है
जिस तक पहुंचकर
सत्य के ये
समय-पक्व, सफेद-केशी, सर्द भूधर,
जान सीमा आ गई है,
शीश अपना झुका देते ।
कल्पना का तुंग,
पर, उन्मुक्त है,
उस बिन्दु के भी पार जाए,
तारकों से सिर सजाए,
भेद सप्तावरण डाले,
शक्ति हो तो,
भक्ति हो तो,
उस परम अज्ञात के;
अव्यक्त के भी चरण छू ले,
लीन उनमें,
एक उनसे हुआ,
निज अस्तित्व भूले ।
दूर ही वे
परम पुरुषोत्तम चरण हैं,
दूर ही दुर्भेद्य ये सप्तावरण हैं,
दूर ही वे
गगन के अगणित सितारे झिलमिलाते;
किन्तु, फिर भी,
कल्पना का तुंग जितना उठ सका है
उसी से वह आधिभौतिक,
ऐतिहासिक, वैज्ञानिक,
तथ्य-सम्मत, तर्क-सम्मत
अर्द्ध सत्यों के
अगिनत् पर्वतों को
बहुत पीछे, बहुत नीचे छोड़ आया ।
इस सतह पर
सत्य
अपना अतिक्रमण करके खड़ा है ।
इस जगह का सत्य
सारे अर्द्ध सत्यों और सत्यों से
बृहत्तर है, बड़ा है ।
इस सतह पर
भूत-भव्य-भविष्य
काल-विभाग का मतलब नहीं है ।
पाग-सा वह
शैल के सिर पर बँधा है ।
देश से दूरी-निकटता
ही नहीं गायब हुई है,
यहां उस पर कहीं सीमा भी न लगती।
एक वातावर्त का
पटका बना-सा
शैल की कटि में लपेटा ।
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