Hindi Kavita
हिंदी कविता
चार खेमे चौंसठ खूंटे हरिवंशराय बच्चन
Chaar Kheme Chaunsath Khoonte Harivansh Rai Bachchan
चल बंजारे - Harivansh Rai Bachchan
चल बंजारे,तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
दूर गए मधुवन रंगराते,
तरू-छाया-फल से ललचाते,
भृंग-विहंगम उड़ते-गाते,
प्यारे, प्यारे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
छूट गई नदी की धारा,
जो चलती थी काट कगारा,
जो बहती थी फाँद किनारा,
मत पछता रे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
दूर गए गिरिवर गवींले,
धरती जकड़े, अम्बर कीले,
बीच बहाते निर्झर नीले,
फेन पुहारे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
पार हुए मरूतल के टीले,
सारे अंजर-पंजर ढीले,
बैठ न थककर कुंज-करीले,
धूल-धुआँरे!
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
चलते-चलते अंग पिराते,
मन गिर जाता पाँव उठाते,
अब तो केवल उम्र घटाते
साँझ-सकारे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
क्या फिर पट-परिवर्तन होगा?
क्या फिर तन कंचन होगा?
क्या फिर अमरों-सा मन होगा?
आस लगा रे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
जब तक तेरी साँस न थमती, थमे न तेरा
क़दम, न तेरा कंठ-गान!
चल बंजारे-
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
एक दिन भोली किरण की लालिमा ने
क्यों मुझे फुसला लिया था,
एक दिन घन-मुसकराती चंचला ने
क्यों मुझे बहका दिया था,
एक राका ने सितारों से इशारे
क्यों मुझे सौ-सौ किए थे,
एक दिन मैंने गगन की नीलिमा को
किसलिए जी भर पीया था?
आज डैनों की पकी रोमावली में
वे उड़ानें धुँधली याद-सी हैं;
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
याद आते हैं गरूड़-दिग्गज धनों को
चीरने वाले झपटकर,
और गौरव-गृद्ध सूरज से मिलाते
आँख जो धँसते निरंतर
गए अंबर में न जलकर पंख जब तक
हो गए बेकार उनके, क्षार उनके,
हंस, जो चुगने गए नभ-मोतियों को
और न लौटे न भू पर,
चातकी, जो प्यास की सीमा बताना,
जल न पीना, चाहती थी,
उस लगन, आदर्श, जीवट, आन के
साथी मुझे क्या फिर मिलेंगे।
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
और मेरे देखते ही देखते अब
वक्त ऐसा आ गया है,
शब्द की धरती हुई जंतु-संकुल,
जो यहाँ है, सब नया है,
जो यहाँ रेंगा उसी ने लीक अपनी
डाल दी, सीमा लगा दी,
और पिछलगुआ बने, अगुआ न बनकर,
कौन ऐसा बेहाया है;
गगन की उन्मुक्तता में राह अंतर
की हुमासे औ' उठानें हैं बनातीं,
धरणि की संकीर्णता में रूढि़ के,
आवर्त ही अक्सर मिलेंगे।
आज भी सीमा-रहित आकाश
आकर्षण-निमंत्रण से भरा है,
आज पहले के युगों से सौ गुनी
मानव-मनीषा उर्वरा है,
आज अद्भुत स्वप्न के अभिनव क्षितिज
हर प्रात खुलते जा रहे हैं,
मानदंड भविष्य का सितारों
की हथेली पर धारा है;
कल्पना के पुत्र अगुआई सदा करते
रहे हैं, और आगे भी करेंगे,
है मुझे विश्वास मेरे वंशजों के
पंख फिर पड़कें-हिलेंगे,
फिर गगन-कंथन करेंगे!
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
चाक चले चाक!
अंबर दो फाँक-
आधे में हंस उड़े, आधे में काक!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
धरती दो फाँक-
आधी में नीम फले, आधी में दाख!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
दुनिया दो फाँक-
आधी में चाँदी है, आधी में राख!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
जीवन दो फाँक-
आधे में रोदन है, आधे में राग!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
बाज़ी दो फाँक,
ख़ूब सँभल आँक-
जुस है किस मुट्ठी, ताक?
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
कि जामुन चूती है।
सावन में बदली
अंबर में मचली,
भीगी-भीगी होती भोर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
मधु की पिटारी
भौंरे सी कारी,
बागों में पैठें न चोर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
झुक-झुक बिने जा,
सौ-सौ गिने जा,
क्या है कमर में न ज़ोर
कि जामुन चूती है?
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
डालों पे चढ़कर,
हिम्मत से बढ़कर,
मेरे बीरन, झकझोर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
रस के कटोरे
दुनिया के बटोरे,
रस बरसे सब ओर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
जल नील-नवल,
शीतल, निर्मल,
जल-तल पर सोन चिरैया रै,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
सित-रक्त कमल
झलमल-झलमल
दल पर मोती चमकैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
दर्पण इनमें,
बिंबित जिनमें
रवि-शि-कर गगन-तरैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
जल में हलचर,
कलकल, छलछल
झंकृत कंगन
झंकृत पायल,
पहुँचे जल-खेल-खेलैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
साँवर, मुझको
भी जाने दे
पोखर में कूद
नहाने दे;
लूँ तेरी सात बलैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
मत जाना, लछिमा; मत नहाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
छितवन के तरुवर बहुतेरे
उसको चार तरु से घेरे,
उनकी डालों के भुलावे में मत आना लछिमा!
उनके पातों की पुकारों, उनकी फुनगी की इशारों,
उनकी डालों की बुलावे पर न जाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
उनके बीच गई सुकुमारी,
अपनी सारी सुध-बुध हारी;
उनकी छाया-छलना से न छलाना, लछिमा!
न छलाना, लछिमा; न भरमाना, लछिमा!
न छलाना, लछिमा; न भरमाना, लछिमा!
उनकी छाया-छलना से न छलाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
जो सुकुमारी ताल नहाती,
वह फिर लौट नहीं घर आती,
हिम-सी गलती; यह जोखिम न उठाना, लछिमा!
न उठाना, लछिमा; न उठाना लछिमा!
जल में गलने का जोखिम न उठाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
गारे गंधर्वों का मेला!
जल में करता है जल-खेला,
उनके फेरे, उनके घेरे में न जाना, लछिमा!
उनके घेरे में न जाना, उनके फेड़े में न पड़ना!
उनके फेरे, उनके घेरे में न जाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
उनके घेरे में जो आता,
वह बस उसका ही हो जाता,
जाता उनको ही पिछुआता हो दिवाता, लछिमा!
हो दिवाना, लछिमा, हो दिवाना, लछिमा!
जाता उनको ही पिछुआता हो दिवाना लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
जिसके मुख से 'कृष्ण' निकलता,
उसपर ज़ोर न उनका चलता,
उनके बीच अगर पड़ जाना,
अपने साँवर बावरे को न भुलाना, लछिमा!
न भुलाना, लछिमा; न बिसराना, लछिमा!
अपने साँवर बापरे को न भुलाना लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
मत जाना, लछिमा; मत नहाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
बाहर-बाहर बालू-बालू,
भीतर-भीतर बाग है,
बाग-बाग में हर-हर बिरवे
धन्य हमारा भाग है;
फूल-फूल पर भौंरा,
डाली-डाली कोयल टेरती।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
धवलपुरी का पक्का धागा,
सूजी जैसलमेर की,
झीनी-बीनी रंग-बिरंगी,
डलिया है अजमेर की;
कलियाँ डूंगरपुर,बूंदी की,
अलवर की,अम्बेर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
ओढ़नी आधा अंबर ढक ले
ऐसी है चित्तौर की,
चोटी है नागौर नगर की,
चोली रणथम्भौर की;
घघरी आधी धरती ढंकती है
मेवाड़ी घेर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
ऐसी लम्बी माल कि प्रीतम-
प्यारी पहनें साथ में,
ऐसी छोटी माल कि कंगन
बांधे दोनों हाथ में,
पल भर में कलियाँ कुम्हलाती
द्वार खड़ी है देर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
एक टका धागे की कीमत,
पांच टके हैं फूल की,
तुमने मेरी कीमत पूछी?--
भोले, तुमने भूल की।
लाख टके की बोली मेरी!--
दुनिया है अंधेर की!
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
रोटी न मँहगी है,
लहँगा न मँहगा,
मँहगा है,सैंया,रुपैया।
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
बेटी न प्यारी है,
बेटा न प्यारा,
प्यारा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
नाता न साथी है,
रिश्ता न साथी
साथी है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
गाना न मीठा,
बजाना न मीठा,
मीठा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया.
गाँधी न नेता,
जवाहर न नेता,
नेता है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
दुनियाँ न सच्ची,
दीन न सच्चा,
सच्चा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया.
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
गोरा बादल!
स्त्री:
गोरा बादल!
दोनों:
गोरा बादल!
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
क्या काला बादल भी ब-बरसे जाएगा?
पुरुष:
बहुत दिनों से अंबर प्यासा!
स्त्री:
बहुत दिनों से धरती प्यासी!
दोनों:
बहुत दिनों से घिरी उदासी!
गोरा बादल तो तरसाकर चला गया;
क्या काला बादल ही जग को तरसेगा?
पुरुष:
गोरा बादल!
स्त्री:
काला बादल!
दोनों:
गोरा बादल!
काला बादल!
पुरुष:
गोरा बादल उठ पच्छिम से आया था--
गरज-गरज कर फिर पच्छिम को चला गया।
स्त्री:
काला बादल उठ पूरब से आया है--
कड़क रहा है,चमक रहा है,छाया है।
पुरुष:
आँखों को धोखा होता है!
स्त्री:
जग रहा है या सोता है?
पुरुष:
गोरा बादल गया नहीं था पच्छिम को,
रंग बदलकर अब भी ऊपर छाया है!
स्त्री:
गोरा बादल चला गया हो तो भी क्या,
काले बादल का सब ढंग उसी का और पराया है।
पुरुष:
इससे जल की आशा धोखा!
स्त्री:
उल्टा इसने जल को सोखा!
दोनों:
कैसा अचरज!
कैसा धोखा!
छूंछी धरती!
भरा हुआ बादल का कोखा!
पुरुष:
गोरा बादल!
स्त्री:
गोरा बादल!
पुरुष:
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
क्या काला बादल भी बे-बरसे जाएगा?
स्त्री:
गोरा बादल तो तरसाकर चला गया;
क्या काला बादल ही जग को तरसेगा?
दोनों:
पूरब का पच्छिम का बादल,
उत्तर का दक्खिन का बादल--
कोई बादल नहीं बरसता ।
वसुंधरा के
कंठ-ह्रदय की प्यास न हरता।
वसुधा तल का
जन-मन-संकट-त्रास न हर्ता।
व्यर्थ प्रतीक्षा!धिक् प्रत्याशा!धिक् परवशता!
उसे कहें क्या कड़क-चमक जो नहीं बरसता!
पुरुष:
गोरा बादल प्यासा रखता!
स्त्री:
काला बादल प्यासा रखता
दोनों:
जीवित आँखों की,कानों में आशा रखता,
प्यासा रखता!प्यासा रखता!प्यासा रखता!
हे महारथ,
हे महा सम्राट!
हो अपराध मेरा क्षम्य,
मैं तेरे महाप्रस्थान की कर याद,
या प्रति दिवस तेरा
मर्मभेदी,दिल कुरेदी,पीर-टिकट
अभाव अनुभव कर नहीं
तेरे समक्ष खड़ा हुआ हूँ।
धार कर तन --
राम को क्या, कृष्ण को क्या--
मृत्तिका ऋण सबही को
एक दिन होता चुकाना;
मृत्यु का कारण,बहाना .
और मानव धर्म है
अनिवार्य को सहना-सहाना।
औ'न मैं इसलिए आया हूँ
कि तेरे त्याग,तप,निःस्वार्थ सेवा,
सल्तनत को पलटनेवाले पराक्रम,
दंभ-दर्प विचूर्णकारी शूरता औ'
शहनशाही दिल,तबियत,ठाठ के पश्चात
अब युग भुक्खरों,बौनों,नकलची बानरों का
आ गया है;
शत्रु चारों ओर से ललकारते हैं,
बीच,अपने भाग-टुकड़ों को
मुसलसल उछल-कूद मची हुई है;
त्याग-तप कि हुंडियां भुनकर समाप्तप्राय
भ्रष्टाचार,हथकंडे,खुशामद,बंदरभपकी
की कमाई खा रही है।
अस्त जब मार्तण्ड होता,
अंधकार पसरता है पाँव अपने,
टिमटिमाते कुटिल,खल-खद्योत दल,
आत्मप्रचारक गाल-गाल श्रृगाल
कहते घूमते है यह हुआ,वह हुआ,
ऐसा हुआ,वैसा हुआ,कैसा हुआ!
शत-शत,इसी ढब की,कालिमा की
छद्म छायाएँ चतुर्दिक विचरती हैं.
आज चौदह साल से आज़ाद हो तुम।
कुछ समय की माप का आभास तुमको?
नहीं; तो तुम इस तरह समझो
कि जिस दिन तुम हुए स्वाधीन उस दिन
राम यदि मुनि-वेष कर, शर-चाप धर
वन गए होते,
साथ श्री, वैभव, विजय, ध्रुव नीति लेकर
आज उनके लौटने का दिवस होता!
मर चुके होते विराध, कबंध,
खरदूषण, त्रिशिर, मारीच खल,
दुर्बन्धु बानर बालि,
और सवंश दानवराज रावण;
मिट चुकी होती निशानी निशिचरों की,
कट चुका होता निराशा का अँधेरा,
छट चुका होता अनिश्चय का कुहासा,
धुल चुका होता धरा का पाप संकुल,
मुक्त हो चुकता समय
भय की,अनय की श्रृंखला से,
राम-राज्य प्रभात होता!
पर पिता-आदेश की अवहेलना कर
(या भरत की प्रार्थना सुन)
राम यदि गद्दी संभाल अवधपुरी में बैठ जाते,
राम ही थे,
अवध को वे व्यवस्थित, सज्जित, समृद्ध अवश्य करते,
किंतु सारे देश का क्या हाल होता।
वह विराध विरोध के विष दंत बोता,
दैत्य जिनसे फूट लोगों को लड़ाकर,
शक्ति उनकी क्षीण करते।
वह कबंध कि आँख जिसकी पेट पर है,
देश का जन-धन हड़पकर नित्य बढता,
बालि भ्रष्टाचारियों का प्रमुख बनता,
और वह रावण कि जिसके पाप की मिति नहीं
अपने अनुचरों के, वंशजों के सँग
खुल कर खेलता, भोले-भलों का रक्त पीता,
अस्थियाँ उनकी पड़ी चीत्कारतीं
कोई न लेकिन कान धरता ।
देश के अनपढ़, गँवार, गरीब लोगो!
आज चौदह साल से आज़ाद हो तुम
देश के चौदह बरस कम नहीं होते;
और इतना सोचने की तो तुम्हें स्वाधीनता है ही
कि अपने राम ने उस दिन किया क्या?
देश में चारों तरफ़ देखी, बताओ ।
यह तुमुल कोलाहल,
करुण चीत्कार, हाय पुकार,
कर्कश-क्रुद्ध-स्वर आरोप
बूढ़े नाविकों पर,
श्वेतकेशी कर्णधारों पर,
कि अपनी अबलता से, ग़लतियों से,
या कि गुप्त स्वार्थ प्रेरित,
तीर्थयात्रा पर चला यह पोत
लाकर के उन्हें इस विकट चट्टान से
टकरा दिया है ।
यान अब है खंड-खंड विभक्त, करवट,
सूत्र सब टूटे हुए,
हर जोड़ झूठा, चूल ढीली,
नभमुखी मस्तूल नतमुख, भूमि-लुंठित।
उलटकर सब ठाठ-काठ-कबार-सम्पद-भार
कुछ जलमग्न, कुछ जलतरित, कुछ तट पर
विश्रृंखल, विकृत, बिखरा, बिछा, पटका-सा, फिका-सा
मरे, घायल,चोट खाए, दबे-कुचले औए डूबों की न संख्या।
बचे, अस्त-व्यस्त, घबराए हुओं का।
दिक्-ध्वनित, क्रंदन!
इसी के बीच लोलुप स्वार्थपरता
दया, मरजादा, हया पर डाल परदा
धिक्, लगी है लूट नोच, खसोट में भी ।
इस निरात्म प्रवृत्ति की करनी उपेक्षा ही उचित है।
पूर्णता किसमें निहित है?
स्वल्प ये कृमि-कीट कितना काट खाएँगे-पचाएंगे!
कभी क्या छू सकेंगे,
आत्मवानो,व ह अमर स्पंद कि जिससे
यह वृहद जलयान होकर पुनर्निर्मित, नव सुसज्जित
नव तरंगों पर नए विश्वास से गतिमान होगा ।
किंतु पहले
बंद होना चाहिए,
यह तुमुल कोलाहल,
करुण आह्वान, कर्कश-क्रुद्ध क्रंदन।
पूछता हूँ,
आदिहीन अतीत के ओ यात्रियो,
क्या आज पहली बार ऐसी ध्वंसकारी,
मर्मभेदी, दुर्द्धरा घटना घटी है?
वीथियाँ इतिहास की ऐसी कथाओं से पटी हैं,
जो बताती हैं कि लहरों का निमंत्रण या चुनौती
तुम सदा स्वीकारते, ललकारते बढ़ते रहे हो।
सिर्फ चट्टाने नहीं,
दिक्काल तुमसे टक्करें लेकर हटे हैं,
और कितनी बार ?-वे जानें, बताएँ।
टूटकर फिर बने,
फिर-फिर डूबकर तुम तरे,
विष को घूँटकर अमरे रहे हो।
तिस पर दफ्तरी जीवन-
कि बंधन करामाती-
जो कि हर दिन
(छोड़कर इतवार को,
सौ शुक्र है अल्लामियाँ का,
आज को आराम वे फ़रमा गए थे)
सुबह को मुर्गा बनाकर है उठाता,
एक ही रफ़्तार-ढर्रे पर घुमाता,
शाम को उल्लू बनाकर छोड़ देता,
कब मुझे अवकाश देता,
कि बौरे आम में छिपकर कुहुकती
कोकिला से धडकनें दिल की मिलाऊँ,
टार की काली सड़क पर दौड़ती
मोटर, बसों से, लारियों से,
मानवों को तुच्छ-बौना सिद्ध करती
दीर्घ-द्वार इमारतों से, दूर
पगडंडी पकड़ कर निकल जाऊँ,
क्षितिज तक फैली दिशाएँ पिऊँ,
फागुन के संदेसे कि हवाएँ सुनूँ,
पागल बनूँ, बैठूँ कुंज में,
वासंतिका का पल्लवी घूँघट उठाऊँ,
आँख डालूँ आँख में,
फिर कुछ पुरानी याद ताज़ी करूँ,
उसके साथ नाचूँ,
कुछ पुराने, कुछ नए भी गीत गाऊँ,
हाथ में ले हाथ बैठूँ,
और कुछ निःशब्द भावों की
भँवर में डूब जाऊँ--
किंतु फागुन के संदेसे की हवाएँ
है नहीं इतनी अबल, असहाय
शहर-पनाह से,
ऊँचे मकानों से, दुकानों से,
ठिठकर बैठ जाएँ,
या कि टकराकर लौट जाएँ।
मंत्रियों की गद्दियों से,
फाइलों की गड्डियों से,
दफ्तरों से, अफ़सरों से,
वे न दबतीं;
पासपोर्ट चाहिए न उनको, न वीज़ा।
वे नहीं अभिसारिकाएँ
जो कि बिजली की
चकाचौंधी चमक से
हिचकिचाएँ।
वे चली आती अदेखी,
बिना नील निचोल पहने,
सनसनाती,
और जीवन जिस जगह पर गुनगुनातीं,
सहज, स्वाभाविक, अनारोपित,
वहाँ पर गुनगुनाती,
रहस प्रतिध्वनियां जगातीं,
गुदगुदातीं,
समय-मीठे दर्द की लहरें उठातीं;
(और क्या ये पंक्तियाँ हैं?)
क्लर्कों के व्यस्त दरबों,
उल्लुओं के रात के अड्डों,
रूप-वाक्पटुता-प्रदर्शक पार्टियों से,
होटलों से, रेस्त्रांओं से,
मगर उनको घृणा है।
आज छुट्टी;
आज मुख पर क्लार्की चेहरा लगाकर
असलियत अपनी छिपानी नहीं मुझको,
आज फिर-फिर फ़ोन कि आवाज
अत्याचार मेरे कान पर कर नहीं सकती,
आज टंकनकारियों के
आलसी फ़ाइल, नोटिसें पुर्जियां,
मेरी जी नहीं मिचला सकेंगी।
आज मेरी आँख अपनी,कान अपनी,नाक अपनी।
इसीलिए आज
फागुन के संदेसे की हवाओं की
मुझे आहट मिली है
पत्र-पुस्तकें चित्र-प्रतिमा-फूलदा
सजीव इस कवि कक्ष में
जिसकी खुली है एक खिड़की
लॉन से उठती हुई हरियालियों पर,
फूल-चिड़ियों को झुलाती डालियों पर,
और जिसका एक वातायन
गगन से उतरती नव नीलिमाओं पर
खुला है।
बाहरी दीवार का लेकर सहारा
लोम-लतिका
भेद खिड़की पर मढ़ी जाली अचानक
आज भीतर आ गई है
कुछ सहमती,सकपकाती भी कि जैसे
गाँव की गोरी अकेली खड़ी ड्राइंगरूम में हो।
एक नर-छिपकली
मादा-छिपकली के लिए आतुर
प्रि...प्रि...करती
आलमारी-आलमारी फिर रही है।
एक चिड़िया के लिए
दो चिड़े लड़ते,चुहचुहाते,फुरफुराते
आ गए हैं--
उड़ गए हैं--
आ गए फिर--
उड़ गए फिर--
एक जोड़ा नया आता!..।
किस क़दर बे-अख्तियारी,बेक़रारी!--
'नटखटों,यह चित्र तुलसीदास का है,
मूर्ति रमन महर्षि की है.'
किंतु इनके ही परों के साथ आई
फूल झरते नीबुओं की गंध को
कैसे उड़ा दूँ?--
हाथ-कंगन, वक्ष, वेणी, सेज के
शत पुष्प कैसे नीबुओं में बस गए हैं!--
दृष्टि सहसा
वात्स्यायन-कामसूत्र,कुमार-संभव
की पुरानी जिल्द के ऊपर गई है
कीट-चित्रित गीत श्री जयदेव का वह,
वहाँ विद्यापति-पदावली,
वह बिहारी-सतसई है,
और यह 'सतरंगिनी';
ये गीत मेरे ही लिखे क्या!
जिए क्षण को
जिया जा सकता नहीं फिर--
याद में ही--
क्योंकि वह परिपूर्णता में थम गया है।
और मीठा दर्द भी
सुधि में घुलाते
तिक्त और असह्य होता।
और यह भी कम नहीं वरदान
ऐसे दिवस
मेरे लिए कम हैं,
और युग से देस-दुनिया
और अपने से शिकायत
एक भ्रम है;
क्योंकि जो अवकाश हा क्षण
सरस करता
नित्य-नीरस-मर्त्य श्रम है,
किंतु हर अवकाश पल को
पूर्ण जीना,
अमर करना क्या सुगम है?
पंचमहले पर
कलश था,
और
चौमहले,
तिमहले,
दुमहले से
खिसकता अब
हो गया हूँ नींव का पत्थर!
काल ने धोखा दिया,
या फिर दिशा ने,
या कि दोनों में विपर्यय;
एक ने ऊपर चढ़ाया,
दूसरे ने खींच
नीचे को गिराया,
अवस्था तो बढ़ी
लेकिन व्यवस्थित हूँ
कहाँ घटकर!
आज के साथी सभी मेरे
कलश थे,
आज के सब कलश
कल साथी बनेंगे।
हम इमारत,
जो कि ऊपर से
उठा करती बराबर
और नीचे को
धँसी जाती निरंतर।
("यहाँ कलश किसी भवन के ऊँचे भाग का प्रतीक है-
हालाँकि आधुनिक भवन निर्माण कला में कलश
नहीं रक्खा जाता")
जबकि चाहा है
कि पानी एक चुल्लू पिऊँ,
मुझको खोदना कूआँ पड़ा है।
एक कलिका जो उँगलियों में
पकड़ने को
मुझे वन एक पूरा कंटकों का
काटकर के पार करना पड़ा है
औ'मधुर मधु के स्वल्प कण का
स्वाद लेने के लिए मैं
तरबतर आँसू,पसीने,खून से
हो गया हूँ;
उपलब्धियाँ जो कीं,
चुकाया मूल्य जो उनका;
नहीं अनुपात उनमें कुछ;
मगर सौभाग्य इसमें भी बड़ा है।
जहाँ मुझमें स्वप्नदर्शी देवता था
वहीं एक अदम्य कर्मठ दैत्य भी था
जो कि उसके स्वप्न को
साकार करने के लिए
तन-प्राण की बाज़ी लगाता रहा,
चाहे प्राप्ति खंडित रेख हो,
या शून्य ही हो।
और मैं यह कभी दावा नहीं करता
सर्वदा शुभ,शुभ्र,निर्मल
दृष्टि में रखता रहा हूँ--
देवता भी साल में छ: मास सोते--
अशुभ,कलुषित,पतित,कुत्सित की
तरफ़ कम नहीं आकर्षित हुआ हूँ--
प्राप्ति में सम-क्लिष्ट--
किंतु मेरे दैत्य की
विराट श्रम की साधना ने,
लक्ष्य कुछ हो,कहीं पर,
हर पंथ मेरा
तीर्थ-यात्रा-सा किया है--
रक्त-रंजित,स्वेद-सिंचित,
अश्रु-धारा-धौत।
मंज़िल जानती है,
न तो नीचे ग्लानि से मेरे नयन हैं,
न ही फूला हर्ष से मेरा हिया है.
आकाश का आधार लेकर
एक पत्रविहीन तरु
कंकाल-सा आगे खड़ा है।
टुनगुनी पर नीड़ शायद चील का,
खासा बड़ा है।
एक मोटी डाल पर है
एक भारी चील बैठी
एक छोटी चिड़ी पंजों से दबाए
जो कि रह-रह पंख
घबराहट भरी असमर्थता से
फड़फड़ाती,
छुट न पाती,
चील कटिया सी नुकीली चोंच से
है बार-बार प्रहार करती,
नोचकर पर डाल से नीचे गिराती,
माँस खाती,
मोड़ गर्दन
इस तरफ़ को उस तरफ़ को
देख लेती;
चार कायर काग चारों ओर
मंडलाते हुए हैं शोर करते।
दूर पर कुछ मैं खड़ा हूँ।
किंतु लगता डाल पर मैं ही पड़ा हूँ;
एक भीषण गरुड़ पक्षी
मांस मेरे वक्ष का चुन-चुन
निगलता जा रहा है;
और कोई कुछ नहीं कर पा रहा है।
अर्थ इसका,मर्म इसका
जब न कुछ भी समझ पड़ता
बुद्ध को ला खड़ा करता--
दृश्य ऐसा देखते होते अगर वे
सोचते क्या,
कल्पना करते? न करते?
चील-चिडियाँ के लिए,
मेरे लिए भी किस तरह के
भाव उनके हिये उठते?
शुद्ध,
सुस्थिरप्रग्य,बुद्ध प्रबुद्ध ने
दिन-भर विभुक्षित चील को
सम्वेदना दी,
तृप्ति पर संतोष,
उनके नेत्र से झलका,
उसी के साथ
चिड़िया के लिए संवेदना के
अश्रु ढलके,
आ खड़े मेरे बगल में हुए चल के,
प्राण-तन-मन हुए हल्के,
हाथ कंधे पे धरा,
ले गए तरु के तले,
जैसे बे चले ही पाँव मेरे चले?
नीचे तर्जनी की,
बहुत से छोटे-बड़े,रंगीन,
कोमल-करूण-बिखरे-से
परों से,
धरनि की धड़कन रुकी-सी ह्रत्पटी पर,
प्रकृति की अनपढ़ी लिपि में,
एक कविता सी लिखी थी!
आदमी:-
जा चुका है,
मर चुका है,
मोतियों का वह सुभग पानी
कि जिसकी मरजियों से सुन कहानी,
उल्लसित-मन,
उर्ज्वसित-भुज,
सिंधु कि विक्षुब्ध लहरे चीर
जल गंभीर में
सर-सर उतरता निडर
पहुँचा था अतल तक;
सीपियों को फाड़,
मुक्ता-परस-पुलकित,
भाग्य-धन को मुठ्ठियों में बांध,
पूरित-साध,
ऊपर को उठा था;
औ'हथेली पर उजाला पा
चमत्कृत दृग हुआ था।
दैत्य-सी दुःसाहसी होती जवानी!
आज इनको
उँगलियों में फेर फिर-फिर
डूब जाता हूँ
विचारों की अगम गहराईयों में,
और उतरा
और अपने-आप पर ही मुस्कुरा कर
पूछता हूँ,
क्या थी वे थे
जिनके लिए
मदिरा-सी पी
वाड़व विलोरित,क्षुधित पारावार में मैं धँस गया था ।
कौन सा शैतान
मेरे प्राण में,
मोती:--
मंद से हो
मन्दतर-तम
बंद-सी वे धड़कने अब हो गई हैं
आगवाली,रागवाली,
गीतवाली,मंत्रवाली,
मुग्ध सुनने को जिन्हें
छाती बिंधा डाली कभी थी,
और हो चिर-मुक्त
बंधन-माल अंगीकार की थी;
साँस की भी गंध-गति गायब हुई-सी;
क्या भुजाएँ थी यही
दृढ-निश्चयी,विजयी जिन्होंने
युग-युगांत नितांत शिथिल जड़त्व को
था हुआ,छेड़ा गुदगुदाया---
आः जीने के प्रथम सुस्पर्श-
हर्षोत्कर्ष को कैसे बताया जाए--
क्या थीं मुठ्ठियाँ ये वही
जिनकी जकड़ में आ
मुक्ति ने था पूर्व का प्रारब्ध कोसा!
फटी सीपी थी नहीं
कारा कटी थी
निशा तिमरावृत छटी थी
और अंजलिपुटी का
पहला सुहाता मनुज-काया ताप
भाया था, समय था नसों में,नाड़ियों में।
खुली मुट्ठी थी
कि दृग में विश्व प्रतिबिम्बित हुआ था;
और अब वह लुप्त सहसा;
मुट्ठियाँ ढीली,उँगलियाँ शुष्क,ठंढी-सी,
विनष्टस्फूर्ति,मुर्दा।
क्या यही वे थीं कि जिनके लिए
अन्तर्द्वन्द्व,हलचल बाहरी सारी सहारी!
कातर ह्रदय से,
करूण स्वर से,
और उससे भी अधिक
डब-डब दृगों से,
था कहा मैंने
कि मेरा हाथ पकड़ो
क्योंकि जीवन पंथ के अब कष्ट
एकाकी नहीं जाते सहे।
और तुम भी तो किसी से
यही कहना चाहती थी;
पंथ एकाकी
तुम्हें भी था अखरता;
एक साथी हाथ
तुमको भी किसी का
चाहिए था,
पर न मेरी तरह तुमने
वचन कातर कहे।
खैर,जीवन के
उतार-चढाव हमने
पार कर डाले बहुत-से;
अंधकार, प्रकाश
आंधी, बाढ़, वर्षा
साथ झेली;
काल के बीहड़ सफर में
एक दूजे को
सहारा और ढारस रहे।
लेकिन,
शिथिल चरणे,
अब हमें संकोच क्यों हो
मानने में,
अब शिखर ऐसा
कि हम-तुम
एक-दूजे को नहीं पर्याप्त,
कोई तीसरा ही
हाथ मेरा औ' तुम्हारा गहे।
चलूँ मैं भी,
यह कि तुम जो राह थामो
रहूँ थामे हुए मैं भी,
यह कि कदमों से तुम्हारे
कदम अपना मैं मिलाए रहूँs..।
यह कि तुम खींचो जिधर को
खिंचूं,
जिससे तुम मुझे चाहो बचाना
बचूँ:
यानी कुछ न देखूँ,कुछ न सोचूँ
कुछ न अपने से करूँ--
मुझसे न होगा:
छूटने को विलग जाने,
ठोकरे खाने: लुढ़कने, गरज,
अपने आप करने के लिए कुछ
विकल चंचल आज मेरी चाह।
-यह कि अपना लक्ष्य निश्चित मैं न करता,
यह कि अपनी राह मैं चुनता नहीं हूँ,
यह कि अपनी चाल मैंने नहीं साधी,
यह कि खाई-खन्दकों को
आँख मेरी देखने से चूक जाती,
यह कि मैं खतरा उठाने से
हिचकता-झिझकता हूँ,
यह कि मैं दायित्व अपना
ओढ़ते घबरा रहा हूँ--
कुछ नहीं ऐसा।
शुरू में भी कहीं पर चेतना थी,
भूल कोई बड़ी होगी,
तुम सम्भाल तुरंत लोगे;
अन्त में भी आश्वासन चाहता हूँ
अनगही नहीं है मेरी बाँह।
मरा
मैंने गरुड़ देखा,
गगन का अभिमान,
धराशायी, धूलि धूसर, म्लान!
मरा
मैंने सिंह देखा,
दिग्दिगंत दहाड़ जिसकी गूँजती थी,
एक झाड़ी में पड़ा चिर-मूक,
दाढ़ी-दाढ़ चिपका थूक।
मरा
मैंने सर्प देखा,
स्फूर्ति का प्रतिरूप लहरिल,
पड़ा भू पर बना सीधी और निश्चल रेख।
मरे मानव सा कभी मैं
दीन, हीन, मलीन, अस्तंगमितमहिमा,
कहीं, कुछ भी नहीं पाया देख।
क्या नहीं है मरण
जीवन पर अवार प्रहार?--
कुछ नहीं प्रतिकार।
क्या नहीं है मरण
जीवन का महा अपमान?--
सहन में ही त्राण।
क्या नहीं है मरण ऐसा शत्रु
जिसके साथ,कितना ही सम कर,
निबल निज को मान,
सबको,सदा,
करनी पड़ी उसकी शरण अंगीकार?--
क्या इसी के लिए मैंने
नित्य गाए गीत,
अंतर में संजोए प्रीति के अंगार,
दी दुर्नीति को डंटकर चुनौती,
गलत जीती बाजियों से
मैं बराबर
हार ही करता गया स्वीकार,--
एक श्रद्धा के भरोसे
न्याय,करुणा,प्रेम-सबके लिए
निर्भर एक ही अज्ञात पर मैं रहा
सहता बुद्धि व्यंग्य प्रहार?
इस तरह रह
अगर जीवन का जिया कुछ अर्थ,
मरण में मैं मत लगूँ असमर्थ!
भृंग-विहंगम उड़ते-गाते,
प्यारे, प्यारे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
छूट गई नदी की धारा,
जो चलती थी काट कगारा,
जो बहती थी फाँद किनारा,
मत पछता रे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
दूर गए गिरिवर गवींले,
धरती जकड़े, अम्बर कीले,
बीच बहाते निर्झर नीले,
फेन पुहारे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
पार हुए मरूतल के टीले,
सारे अंजर-पंजर ढीले,
बैठ न थककर कुंज-करीले,
धूल-धुआँरे!
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
चलते-चलते अंग पिराते,
मन गिर जाता पाँव उठाते,
अब तो केवल उम्र घटाते
साँझ-सकारे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
क्या फिर पट-परिवर्तन होगा?
क्या फिर तन कंचन होगा?
क्या फिर अमरों-सा मन होगा?
आस लगा रे।
चल बंजारे,
तुझे निमंत्रित करती धरती नई,
नया ही आसमान!
चल बंजारे-
जब तक तेरी साँस न थमती, थमे न तेरा
क़दम, न तेरा कंठ-गान!
चल बंजारे-
नभ का निर्माण - Harivansh Rai Bachchan
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
एक दिन भोली किरण की लालिमा ने
क्यों मुझे फुसला लिया था,
एक दिन घन-मुसकराती चंचला ने
क्यों मुझे बहका दिया था,
एक राका ने सितारों से इशारे
क्यों मुझे सौ-सौ किए थे,
एक दिन मैंने गगन की नीलिमा को
किसलिए जी भर पीया था?
आज डैनों की पकी रोमावली में
वे उड़ानें धुँधली याद-सी हैं;
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
याद आते हैं गरूड़-दिग्गज धनों को
चीरने वाले झपटकर,
और गौरव-गृद्ध सूरज से मिलाते
आँख जो धँसते निरंतर
गए अंबर में न जलकर पंख जब तक
हो गए बेकार उनके, क्षार उनके,
हंस, जो चुगने गए नभ-मोतियों को
और न लौटे न भू पर,
चातकी, जो प्यास की सीमा बताना,
जल न पीना, चाहती थी,
उस लगन, आदर्श, जीवट, आन के
साथी मुझे क्या फिर मिलेंगे।
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
और मेरे देखते ही देखते अब
वक्त ऐसा आ गया है,
शब्द की धरती हुई जंतु-संकुल,
जो यहाँ है, सब नया है,
जो यहाँ रेंगा उसी ने लीक अपनी
डाल दी, सीमा लगा दी,
और पिछलगुआ बने, अगुआ न बनकर,
कौन ऐसा बेहाया है;
गगन की उन्मुक्तता में राह अंतर
की हुमासे औ' उठानें हैं बनातीं,
धरणि की संकीर्णता में रूढि़ के,
आवर्त ही अक्सर मिलेंगे।
आज भी सीमा-रहित आकाश
आकर्षण-निमंत्रण से भरा है,
आज पहले के युगों से सौ गुनी
मानव-मनीषा उर्वरा है,
आज अद्भुत स्वप्न के अभिनव क्षितिज
हर प्रात खुलते जा रहे हैं,
मानदंड भविष्य का सितारों
की हथेली पर धारा है;
कल्पना के पुत्र अगुआई सदा करते
रहे हैं, और आगे भी करेंगे,
है मुझे विश्वास मेरे वंशजों के
पंख फिर पड़कें-हिलेंगे,
फिर गगन-कंथन करेंगे!
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
कुम्हार का गीत - Harivansh Rai Bachchan
चाक चले चाक!चाक चले चाक!
अंबर दो फाँक-
आधे में हंस उड़े, आधे में काक!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
धरती दो फाँक-
आधी में नीम फले, आधी में दाख!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
दुनिया दो फाँक-
आधी में चाँदी है, आधी में राख!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
जीवन दो फाँक-
आधे में रोदन है, आधे में राग!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
बाज़ी दो फाँक,
ख़ूब सँभल आँक-
जुस है किस मुट्ठी, ताक?
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
चाक चले चाक!
जामुन चूती है - Harivansh Rai Bachchan
अब गाँवों में घर-घर शोरकि जामुन चूती है।
सावन में बदली
अंबर में मचली,
भीगी-भीगी होती भोर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
मधु की पिटारी
भौंरे सी कारी,
बागों में पैठें न चोर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
झुक-झुक बिने जा,
सौ-सौ गिने जा,
क्या है कमर में न ज़ोर
कि जामुन चूती है?
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
डालों पे चढ़कर,
हिम्मत से बढ़कर,
मेरे बीरन, झकझोर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
रस के कटोरे
दुनिया के बटोरे,
रस बरसे सब ओर
कि जामुन चूती है।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
गंधर्व-ताल - Harivansh Rai Bachchan
लछिमा का गीतछितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
जल नील-नवल,
शीतल, निर्मल,
जल-तल पर सोन चिरैया रै,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
सित-रक्त कमल
झलमल-झलमल
दल पर मोती चमकैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
दर्पण इनमें,
बिंबित जिनमें
रवि-शि-कर गगन-तरैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
जल में हलचर,
कलकल, छलछल
झंकृत कंगन
झंकृत पायल,
पहुँचे जल-खेल-खेलैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
साँवर, मुझको
भी जाने दे
पोखर में कूद
नहाने दे;
लूँ तेरी सात बलैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
आगाही - Harivansh Rai Bachchan
साँवर का गीतपच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
मत जाना, लछिमा; मत नहाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
छितवन के तरुवर बहुतेरे
उसको चार तरु से घेरे,
उनकी डालों के भुलावे में मत आना लछिमा!
उनके पातों की पुकारों, उनकी फुनगी की इशारों,
उनकी डालों की बुलावे पर न जाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
उनके बीच गई सुकुमारी,
अपनी सारी सुध-बुध हारी;
उनकी छाया-छलना से न छलाना, लछिमा!
न छलाना, लछिमा; न भरमाना, लछिमा!
न छलाना, लछिमा; न भरमाना, लछिमा!
उनकी छाया-छलना से न छलाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
जो सुकुमारी ताल नहाती,
वह फिर लौट नहीं घर आती,
हिम-सी गलती; यह जोखिम न उठाना, लछिमा!
न उठाना, लछिमा; न उठाना लछिमा!
जल में गलने का जोखिम न उठाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
गारे गंधर्वों का मेला!
जल में करता है जल-खेला,
उनके फेरे, उनके घेरे में न जाना, लछिमा!
उनके घेरे में न जाना, उनके फेड़े में न पड़ना!
उनके फेरे, उनके घेरे में न जाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
उनके घेरे में जो आता,
वह बस उसका ही हो जाता,
जाता उनको ही पिछुआता हो दिवाता, लछिमा!
हो दिवाना, लछिमा, हो दिवाना, लछिमा!
जाता उनको ही पिछुआता हो दिवाना लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
जिसके मुख से 'कृष्ण' निकलता,
उसपर ज़ोर न उनका चलता,
उनके बीच अगर पड़ जाना,
अपने साँवर बावरे को न भुलाना, लछिमा!
न भुलाना, लछिमा; न बिसराना, लछिमा!
अपने साँवर बापरे को न भुलाना लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
मत जाना, लछिमा; मत नहाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
मालिन बिकानेर की - Harivansh Rai Bachchan
(बीकानेरी मजदूरिनियों से सुनी लोकधुन पर आधारित)फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
बाहर-बाहर बालू-बालू,
भीतर-भीतर बाग है,
बाग-बाग में हर-हर बिरवे
धन्य हमारा भाग है;
फूल-फूल पर भौंरा,
डाली-डाली कोयल टेरती।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
धवलपुरी का पक्का धागा,
सूजी जैसलमेर की,
झीनी-बीनी रंग-बिरंगी,
डलिया है अजमेर की;
कलियाँ डूंगरपुर,बूंदी की,
अलवर की,अम्बेर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
ओढ़नी आधा अंबर ढक ले
ऐसी है चित्तौर की,
चोटी है नागौर नगर की,
चोली रणथम्भौर की;
घघरी आधी धरती ढंकती है
मेवाड़ी घेर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
ऐसी लम्बी माल कि प्रीतम-
प्यारी पहनें साथ में,
ऐसी छोटी माल कि कंगन
बांधे दोनों हाथ में,
पल भर में कलियाँ कुम्हलाती
द्वार खड़ी है देर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
एक टका धागे की कीमत,
पांच टके हैं फूल की,
तुमने मेरी कीमत पूछी?--
भोले, तुमने भूल की।
लाख टके की बोली मेरी!--
दुनिया है अंधेर की!
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
रूपैया - Harivansh Rai Bachchan
(उत्तरप्रदेश के लोकधुन पर आधारित)आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
रोटी न मँहगी है,
लहँगा न मँहगा,
मँहगा है,सैंया,रुपैया।
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
बेटी न प्यारी है,
बेटा न प्यारा,
प्यारा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
नाता न साथी है,
रिश्ता न साथी
साथी है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
गाना न मीठा,
बजाना न मीठा,
मीठा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया.
गाँधी न नेता,
जवाहर न नेता,
नेता है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
दुनियाँ न सच्ची,
दीन न सच्चा,
सच्चा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया.
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
वर्षा मंगल - Harivansh Rai Bachchan
पुरुष:गोरा बादल!
स्त्री:
गोरा बादल!
दोनों:
गोरा बादल!
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
क्या काला बादल भी ब-बरसे जाएगा?
पुरुष:
बहुत दिनों से अंबर प्यासा!
स्त्री:
बहुत दिनों से धरती प्यासी!
दोनों:
बहुत दिनों से घिरी उदासी!
गोरा बादल तो तरसाकर चला गया;
क्या काला बादल ही जग को तरसेगा?
पुरुष:
गोरा बादल!
स्त्री:
काला बादल!
दोनों:
गोरा बादल!
काला बादल!
पुरुष:
गोरा बादल उठ पच्छिम से आया था--
गरज-गरज कर फिर पच्छिम को चला गया।
स्त्री:
काला बादल उठ पूरब से आया है--
कड़क रहा है,चमक रहा है,छाया है।
पुरुष:
आँखों को धोखा होता है!
स्त्री:
जग रहा है या सोता है?
पुरुष:
गोरा बादल गया नहीं था पच्छिम को,
रंग बदलकर अब भी ऊपर छाया है!
स्त्री:
गोरा बादल चला गया हो तो भी क्या,
काले बादल का सब ढंग उसी का और पराया है।
पुरुष:
इससे जल की आशा धोखा!
स्त्री:
उल्टा इसने जल को सोखा!
दोनों:
कैसा अचरज!
कैसा धोखा!
छूंछी धरती!
भरा हुआ बादल का कोखा!
पुरुष:
गोरा बादल!
स्त्री:
गोरा बादल!
पुरुष:
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
क्या काला बादल भी बे-बरसे जाएगा?
स्त्री:
गोरा बादल तो तरसाकर चला गया;
क्या काला बादल ही जग को तरसेगा?
दोनों:
पूरब का पच्छिम का बादल,
उत्तर का दक्खिन का बादल--
कोई बादल नहीं बरसता ।
वसुंधरा के
कंठ-ह्रदय की प्यास न हरता।
वसुधा तल का
जन-मन-संकट-त्रास न हर्ता।
व्यर्थ प्रतीक्षा!धिक् प्रत्याशा!धिक् परवशता!
उसे कहें क्या कड़क-चमक जो नहीं बरसता!
पुरुष:
गोरा बादल प्यासा रखता!
स्त्री:
काला बादल प्यासा रखता
दोनों:
जीवित आँखों की,कानों में आशा रखता,
प्यासा रखता!प्यासा रखता!प्यासा रखता!
राष्ट्र-पिता के समक्ष - Harivansh Rai Bachchan
हे महात्मन,हे महारथ,
हे महा सम्राट!
हो अपराध मेरा क्षम्य,
मैं तेरे महाप्रस्थान की कर याद,
या प्रति दिवस तेरा
मर्मभेदी,दिल कुरेदी,पीर-टिकट
अभाव अनुभव कर नहीं
तेरे समक्ष खड़ा हुआ हूँ।
धार कर तन --
राम को क्या, कृष्ण को क्या--
मृत्तिका ऋण सबही को
एक दिन होता चुकाना;
मृत्यु का कारण,बहाना .
और मानव धर्म है
अनिवार्य को सहना-सहाना।
औ'न मैं इसलिए आया हूँ
कि तेरे त्याग,तप,निःस्वार्थ सेवा,
सल्तनत को पलटनेवाले पराक्रम,
दंभ-दर्प विचूर्णकारी शूरता औ'
शहनशाही दिल,तबियत,ठाठ के पश्चात
अब युग भुक्खरों,बौनों,नकलची बानरों का
आ गया है;
शत्रु चारों ओर से ललकारते हैं,
बीच,अपने भाग-टुकड़ों को
मुसलसल उछल-कूद मची हुई है;
त्याग-तप कि हुंडियां भुनकर समाप्तप्राय
भ्रष्टाचार,हथकंडे,खुशामद,बंदरभपकी
की कमाई खा रही है।
अस्त जब मार्तण्ड होता,
अंधकार पसरता है पाँव अपने,
टिमटिमाते कुटिल,खल-खद्योत दल,
आत्मप्रचारक गाल-गाल श्रृगाल
कहते घूमते है यह हुआ,वह हुआ,
ऐसा हुआ,वैसा हुआ,कैसा हुआ!
शत-शत,इसी ढब की,कालिमा की
छद्म छायाएँ चतुर्दिक विचरती हैं.
आज़ादी के चौदह वर्ष - Harivansh Rai Bachchan
देश के बेपड़े, भोले, दीन लोगो!आज चौदह साल से आज़ाद हो तुम।
कुछ समय की माप का आभास तुमको?
नहीं; तो तुम इस तरह समझो
कि जिस दिन तुम हुए स्वाधीन उस दिन
राम यदि मुनि-वेष कर, शर-चाप धर
वन गए होते,
साथ श्री, वैभव, विजय, ध्रुव नीति लेकर
आज उनके लौटने का दिवस होता!
मर चुके होते विराध, कबंध,
खरदूषण, त्रिशिर, मारीच खल,
दुर्बन्धु बानर बालि,
और सवंश दानवराज रावण;
मिट चुकी होती निशानी निशिचरों की,
कट चुका होता निराशा का अँधेरा,
छट चुका होता अनिश्चय का कुहासा,
धुल चुका होता धरा का पाप संकुल,
मुक्त हो चुकता समय
भय की,अनय की श्रृंखला से,
राम-राज्य प्रभात होता!
पर पिता-आदेश की अवहेलना कर
(या भरत की प्रार्थना सुन)
राम यदि गद्दी संभाल अवधपुरी में बैठ जाते,
राम ही थे,
अवध को वे व्यवस्थित, सज्जित, समृद्ध अवश्य करते,
किंतु सारे देश का क्या हाल होता।
वह विराध विरोध के विष दंत बोता,
दैत्य जिनसे फूट लोगों को लड़ाकर,
शक्ति उनकी क्षीण करते।
वह कबंध कि आँख जिसकी पेट पर है,
देश का जन-धन हड़पकर नित्य बढता,
बालि भ्रष्टाचारियों का प्रमुख बनता,
और वह रावण कि जिसके पाप की मिति नहीं
अपने अनुचरों के, वंशजों के सँग
खुल कर खेलता, भोले-भलों का रक्त पीता,
अस्थियाँ उनकी पड़ी चीत्कारतीं
कोई न लेकिन कान धरता ।
देश के अनपढ़, गँवार, गरीब लोगो!
आज चौदह साल से आज़ाद हो तुम
देश के चौदह बरस कम नहीं होते;
और इतना सोचने की तो तुम्हें स्वाधीनता है ही
कि अपने राम ने उस दिन किया क्या?
देश में चारों तरफ़ देखी, बताओ ।
ध्वस्त पोत - Harivansh Rai Bachchan
बंद होना चाहिए,यह तुमुल कोलाहल,
करुण चीत्कार, हाय पुकार,
कर्कश-क्रुद्ध-स्वर आरोप
बूढ़े नाविकों पर,
श्वेतकेशी कर्णधारों पर,
कि अपनी अबलता से, ग़लतियों से,
या कि गुप्त स्वार्थ प्रेरित,
तीर्थयात्रा पर चला यह पोत
लाकर के उन्हें इस विकट चट्टान से
टकरा दिया है ।
यान अब है खंड-खंड विभक्त, करवट,
सूत्र सब टूटे हुए,
हर जोड़ झूठा, चूल ढीली,
नभमुखी मस्तूल नतमुख, भूमि-लुंठित।
उलटकर सब ठाठ-काठ-कबार-सम्पद-भार
कुछ जलमग्न, कुछ जलतरित, कुछ तट पर
विश्रृंखल, विकृत, बिखरा, बिछा, पटका-सा, फिका-सा
मरे, घायल,चोट खाए, दबे-कुचले औए डूबों की न संख्या।
बचे, अस्त-व्यस्त, घबराए हुओं का।
दिक्-ध्वनित, क्रंदन!
इसी के बीच लोलुप स्वार्थपरता
दया, मरजादा, हया पर डाल परदा
धिक्, लगी है लूट नोच, खसोट में भी ।
इस निरात्म प्रवृत्ति की करनी उपेक्षा ही उचित है।
पूर्णता किसमें निहित है?
स्वल्प ये कृमि-कीट कितना काट खाएँगे-पचाएंगे!
कभी क्या छू सकेंगे,
आत्मवानो,व ह अमर स्पंद कि जिससे
यह वृहद जलयान होकर पुनर्निर्मित, नव सुसज्जित
नव तरंगों पर नए विश्वास से गतिमान होगा ।
किंतु पहले
बंद होना चाहिए,
यह तुमुल कोलाहल,
करुण आह्वान, कर्कश-क्रुद्ध क्रंदन।
पूछता हूँ,
आदिहीन अतीत के ओ यात्रियो,
क्या आज पहली बार ऐसी ध्वंसकारी,
मर्मभेदी, दुर्द्धरा घटना घटी है?
वीथियाँ इतिहास की ऐसी कथाओं से पटी हैं,
जो बताती हैं कि लहरों का निमंत्रण या चुनौती
तुम सदा स्वीकारते, ललकारते बढ़ते रहे हो।
सिर्फ चट्टाने नहीं,
दिक्काल तुमसे टक्करें लेकर हटे हैं,
और कितनी बार ?-वे जानें, बताएँ।
टूटकर फिर बने,
फिर-फिर डूबकर तुम तरे,
विष को घूँटकर अमरे रहे हो।
स्वाध्याय कक्ष में वसंत - Harivansh Rai Bachchan
शहर का, फिर बड़े,तिस पर दफ्तरी जीवन-
कि बंधन करामाती-
जो कि हर दिन
(छोड़कर इतवार को,
सौ शुक्र है अल्लामियाँ का,
आज को आराम वे फ़रमा गए थे)
सुबह को मुर्गा बनाकर है उठाता,
एक ही रफ़्तार-ढर्रे पर घुमाता,
शाम को उल्लू बनाकर छोड़ देता,
कब मुझे अवकाश देता,
कि बौरे आम में छिपकर कुहुकती
कोकिला से धडकनें दिल की मिलाऊँ,
टार की काली सड़क पर दौड़ती
मोटर, बसों से, लारियों से,
मानवों को तुच्छ-बौना सिद्ध करती
दीर्घ-द्वार इमारतों से, दूर
पगडंडी पकड़ कर निकल जाऊँ,
क्षितिज तक फैली दिशाएँ पिऊँ,
फागुन के संदेसे कि हवाएँ सुनूँ,
पागल बनूँ, बैठूँ कुंज में,
वासंतिका का पल्लवी घूँघट उठाऊँ,
आँख डालूँ आँख में,
फिर कुछ पुरानी याद ताज़ी करूँ,
उसके साथ नाचूँ,
कुछ पुराने, कुछ नए भी गीत गाऊँ,
हाथ में ले हाथ बैठूँ,
और कुछ निःशब्द भावों की
भँवर में डूब जाऊँ--
किंतु फागुन के संदेसे की हवाएँ
है नहीं इतनी अबल, असहाय
शहर-पनाह से,
ऊँचे मकानों से, दुकानों से,
ठिठकर बैठ जाएँ,
या कि टकराकर लौट जाएँ।
मंत्रियों की गद्दियों से,
फाइलों की गड्डियों से,
दफ्तरों से, अफ़सरों से,
वे न दबतीं;
पासपोर्ट चाहिए न उनको, न वीज़ा।
वे नहीं अभिसारिकाएँ
जो कि बिजली की
चकाचौंधी चमक से
हिचकिचाएँ।
वे चली आती अदेखी,
बिना नील निचोल पहने,
सनसनाती,
और जीवन जिस जगह पर गुनगुनातीं,
सहज, स्वाभाविक, अनारोपित,
वहाँ पर गुनगुनाती,
रहस प्रतिध्वनियां जगातीं,
गुदगुदातीं,
समय-मीठे दर्द की लहरें उठातीं;
(और क्या ये पंक्तियाँ हैं?)
क्लर्कों के व्यस्त दरबों,
उल्लुओं के रात के अड्डों,
रूप-वाक्पटुता-प्रदर्शक पार्टियों से,
होटलों से, रेस्त्रांओं से,
मगर उनको घृणा है।
आज छुट्टी;
आज मुख पर क्लार्की चेहरा लगाकर
असलियत अपनी छिपानी नहीं मुझको,
आज फिर-फिर फ़ोन कि आवाज
अत्याचार मेरे कान पर कर नहीं सकती,
आज टंकनकारियों के
आलसी फ़ाइल, नोटिसें पुर्जियां,
मेरी जी नहीं मिचला सकेंगी।
आज मेरी आँख अपनी,कान अपनी,नाक अपनी।
इसीलिए आज
फागुन के संदेसे की हवाओं की
मुझे आहट मिली है
पत्र-पुस्तकें चित्र-प्रतिमा-फूलदा
सजीव इस कवि कक्ष में
जिसकी खुली है एक खिड़की
लॉन से उठती हुई हरियालियों पर,
फूल-चिड़ियों को झुलाती डालियों पर,
और जिसका एक वातायन
गगन से उतरती नव नीलिमाओं पर
खुला है।
बाहरी दीवार का लेकर सहारा
लोम-लतिका
भेद खिड़की पर मढ़ी जाली अचानक
आज भीतर आ गई है
कुछ सहमती,सकपकाती भी कि जैसे
गाँव की गोरी अकेली खड़ी ड्राइंगरूम में हो।
एक नर-छिपकली
मादा-छिपकली के लिए आतुर
प्रि...प्रि...करती
आलमारी-आलमारी फिर रही है।
एक चिड़िया के लिए
दो चिड़े लड़ते,चुहचुहाते,फुरफुराते
आ गए हैं--
उड़ गए हैं--
आ गए फिर--
उड़ गए फिर--
एक जोड़ा नया आता!..।
किस क़दर बे-अख्तियारी,बेक़रारी!--
'नटखटों,यह चित्र तुलसीदास का है,
मूर्ति रमन महर्षि की है.'
किंतु इनके ही परों के साथ आई
फूल झरते नीबुओं की गंध को
कैसे उड़ा दूँ?--
हाथ-कंगन, वक्ष, वेणी, सेज के
शत पुष्प कैसे नीबुओं में बस गए हैं!--
दृष्टि सहसा
वात्स्यायन-कामसूत्र,कुमार-संभव
की पुरानी जिल्द के ऊपर गई है
कीट-चित्रित गीत श्री जयदेव का वह,
वहाँ विद्यापति-पदावली,
वह बिहारी-सतसई है,
और यह 'सतरंगिनी';
ये गीत मेरे ही लिखे क्या!
जिए क्षण को
जिया जा सकता नहीं फिर--
याद में ही--
क्योंकि वह परिपूर्णता में थम गया है।
और मीठा दर्द भी
सुधि में घुलाते
तिक्त और असह्य होता।
और यह भी कम नहीं वरदान
ऐसे दिवस
मेरे लिए कम हैं,
और युग से देस-दुनिया
और अपने से शिकायत
एक भ्रम है;
क्योंकि जो अवकाश हा क्षण
सरस करता
नित्य-नीरस-मर्त्य श्रम है,
किंतु हर अवकाश पल को
पूर्ण जीना,
अमर करना क्या सुगम है?
कलश और नींव का पत्थर - Harivansh Rai Bachchan
अभी कल हीपंचमहले पर
कलश था,
और
चौमहले,
तिमहले,
दुमहले से
खिसकता अब
हो गया हूँ नींव का पत्थर!
काल ने धोखा दिया,
या फिर दिशा ने,
या कि दोनों में विपर्यय;
एक ने ऊपर चढ़ाया,
दूसरे ने खींच
नीचे को गिराया,
अवस्था तो बढ़ी
लेकिन व्यवस्थित हूँ
कहाँ घटकर!
आज के साथी सभी मेरे
कलश थे,
आज के सब कलश
कल साथी बनेंगे।
हम इमारत,
जो कि ऊपर से
उठा करती बराबर
और नीचे को
धँसी जाती निरंतर।
("यहाँ कलश किसी भवन के ऊँचे भाग का प्रतीक है-
हालाँकि आधुनिक भवन निर्माण कला में कलश
नहीं रक्खा जाता")
दैत्य की देन - Harivansh Rai Bachchan
सरलता से कुछ नहीं मुझको मिला है,जबकि चाहा है
कि पानी एक चुल्लू पिऊँ,
मुझको खोदना कूआँ पड़ा है।
एक कलिका जो उँगलियों में
पकड़ने को
मुझे वन एक पूरा कंटकों का
काटकर के पार करना पड़ा है
औ'मधुर मधु के स्वल्प कण का
स्वाद लेने के लिए मैं
तरबतर आँसू,पसीने,खून से
हो गया हूँ;
उपलब्धियाँ जो कीं,
चुकाया मूल्य जो उनका;
नहीं अनुपात उनमें कुछ;
मगर सौभाग्य इसमें भी बड़ा है।
जहाँ मुझमें स्वप्नदर्शी देवता था
वहीं एक अदम्य कर्मठ दैत्य भी था
जो कि उसके स्वप्न को
साकार करने के लिए
तन-प्राण की बाज़ी लगाता रहा,
चाहे प्राप्ति खंडित रेख हो,
या शून्य ही हो।
और मैं यह कभी दावा नहीं करता
सर्वदा शुभ,शुभ्र,निर्मल
दृष्टि में रखता रहा हूँ--
देवता भी साल में छ: मास सोते--
अशुभ,कलुषित,पतित,कुत्सित की
तरफ़ कम नहीं आकर्षित हुआ हूँ--
प्राप्ति में सम-क्लिष्ट--
किंतु मेरे दैत्य की
विराट श्रम की साधना ने,
लक्ष्य कुछ हो,कहीं पर,
हर पंथ मेरा
तीर्थ-यात्रा-सा किया है--
रक्त-रंजित,स्वेद-सिंचित,
अश्रु-धारा-धौत।
मंज़िल जानती है,
न तो नीचे ग्लानि से मेरे नयन हैं,
न ही फूला हर्ष से मेरा हिया है.
बुद्ध के साथ एक शाम - Harivansh Rai Bachchan
रक्तरंजित साँझ केआकाश का आधार लेकर
एक पत्रविहीन तरु
कंकाल-सा आगे खड़ा है।
टुनगुनी पर नीड़ शायद चील का,
खासा बड़ा है।
एक मोटी डाल पर है
एक भारी चील बैठी
एक छोटी चिड़ी पंजों से दबाए
जो कि रह-रह पंख
घबराहट भरी असमर्थता से
फड़फड़ाती,
छुट न पाती,
चील कटिया सी नुकीली चोंच से
है बार-बार प्रहार करती,
नोचकर पर डाल से नीचे गिराती,
माँस खाती,
मोड़ गर्दन
इस तरफ़ को उस तरफ़ को
देख लेती;
चार कायर काग चारों ओर
मंडलाते हुए हैं शोर करते।
दूर पर कुछ मैं खड़ा हूँ।
किंतु लगता डाल पर मैं ही पड़ा हूँ;
एक भीषण गरुड़ पक्षी
मांस मेरे वक्ष का चुन-चुन
निगलता जा रहा है;
और कोई कुछ नहीं कर पा रहा है।
अर्थ इसका,मर्म इसका
जब न कुछ भी समझ पड़ता
बुद्ध को ला खड़ा करता--
दृश्य ऐसा देखते होते अगर वे
सोचते क्या,
कल्पना करते? न करते?
चील-चिडियाँ के लिए,
मेरे लिए भी किस तरह के
भाव उनके हिये उठते?
शुद्ध,
सुस्थिरप्रग्य,बुद्ध प्रबुद्ध ने
दिन-भर विभुक्षित चील को
सम्वेदना दी,
तृप्ति पर संतोष,
उनके नेत्र से झलका,
उसी के साथ
चिड़िया के लिए संवेदना के
अश्रु ढलके,
आ खड़े मेरे बगल में हुए चल के,
प्राण-तन-मन हुए हल्के,
हाथ कंधे पे धरा,
ले गए तरु के तले,
जैसे बे चले ही पाँव मेरे चले?
नीचे तर्जनी की,
बहुत से छोटे-बड़े,रंगीन,
कोमल-करूण-बिखरे-से
परों से,
धरनि की धड़कन रुकी-सी ह्रत्पटी पर,
प्रकृति की अनपढ़ी लिपि में,
एक कविता सी लिखी थी!
पानी मारा एक मोती - Harivansh Rai Bachchan
आग मरा आदमीआदमी:-
जा चुका है,
मर चुका है,
मोतियों का वह सुभग पानी
कि जिसकी मरजियों से सुन कहानी,
उल्लसित-मन,
उर्ज्वसित-भुज,
सिंधु कि विक्षुब्ध लहरे चीर
जल गंभीर में
सर-सर उतरता निडर
पहुँचा था अतल तक;
सीपियों को फाड़,
मुक्ता-परस-पुलकित,
भाग्य-धन को मुठ्ठियों में बांध,
पूरित-साध,
ऊपर को उठा था;
औ'हथेली पर उजाला पा
चमत्कृत दृग हुआ था।
दैत्य-सी दुःसाहसी होती जवानी!
आज इनको
उँगलियों में फेर फिर-फिर
डूब जाता हूँ
विचारों की अगम गहराईयों में,
और उतरा
और अपने-आप पर ही मुस्कुरा कर
पूछता हूँ,
क्या थी वे थे
जिनके लिए
मदिरा-सी पी
वाड़व विलोरित,क्षुधित पारावार में मैं धँस गया था ।
कौन सा शैतान
मेरे प्राण में,
मोती:--
मंद से हो
मन्दतर-तम
बंद-सी वे धड़कने अब हो गई हैं
आगवाली,रागवाली,
गीतवाली,मंत्रवाली,
मुग्ध सुनने को जिन्हें
छाती बिंधा डाली कभी थी,
और हो चिर-मुक्त
बंधन-माल अंगीकार की थी;
साँस की भी गंध-गति गायब हुई-सी;
क्या भुजाएँ थी यही
दृढ-निश्चयी,विजयी जिन्होंने
युग-युगांत नितांत शिथिल जड़त्व को
था हुआ,छेड़ा गुदगुदाया---
आः जीने के प्रथम सुस्पर्श-
हर्षोत्कर्ष को कैसे बताया जाए--
क्या थीं मुठ्ठियाँ ये वही
जिनकी जकड़ में आ
मुक्ति ने था पूर्व का प्रारब्ध कोसा!
फटी सीपी थी नहीं
कारा कटी थी
निशा तिमरावृत छटी थी
और अंजलिपुटी का
पहला सुहाता मनुज-काया ताप
भाया था, समय था नसों में,नाड़ियों में।
खुली मुट्ठी थी
कि दृग में विश्व प्रतिबिम्बित हुआ था;
और अब वह लुप्त सहसा;
मुट्ठियाँ ढीली,उँगलियाँ शुष्क,ठंढी-सी,
विनष्टस्फूर्ति,मुर्दा।
क्या यही वे थीं कि जिनके लिए
अन्तर्द्वन्द्व,हलचल बाहरी सारी सहारी!
तीसरा हाथ - Harivansh Rai Bachchan
एक दिनकातर ह्रदय से,
करूण स्वर से,
और उससे भी अधिक
डब-डब दृगों से,
था कहा मैंने
कि मेरा हाथ पकड़ो
क्योंकि जीवन पंथ के अब कष्ट
एकाकी नहीं जाते सहे।
और तुम भी तो किसी से
यही कहना चाहती थी;
पंथ एकाकी
तुम्हें भी था अखरता;
एक साथी हाथ
तुमको भी किसी का
चाहिए था,
पर न मेरी तरह तुमने
वचन कातर कहे।
खैर,जीवन के
उतार-चढाव हमने
पार कर डाले बहुत-से;
अंधकार, प्रकाश
आंधी, बाढ़, वर्षा
साथ झेली;
काल के बीहड़ सफर में
एक दूजे को
सहारा और ढारस रहे।
लेकिन,
शिथिल चरणे,
अब हमें संकोच क्यों हो
मानने में,
अब शिखर ऐसा
कि हम-तुम
एक-दूजे को नहीं पर्याप्त,
कोई तीसरा ही
हाथ मेरा औ' तुम्हारा गहे।
दो चित्र - Harivansh Rai Bachchan
यह कि तुम जिस ओर जाओचलूँ मैं भी,
यह कि तुम जो राह थामो
रहूँ थामे हुए मैं भी,
यह कि कदमों से तुम्हारे
कदम अपना मैं मिलाए रहूँs..।
यह कि तुम खींचो जिधर को
खिंचूं,
जिससे तुम मुझे चाहो बचाना
बचूँ:
यानी कुछ न देखूँ,कुछ न सोचूँ
कुछ न अपने से करूँ--
मुझसे न होगा:
छूटने को विलग जाने,
ठोकरे खाने: लुढ़कने, गरज,
अपने आप करने के लिए कुछ
विकल चंचल आज मेरी चाह।
-यह कि अपना लक्ष्य निश्चित मैं न करता,
यह कि अपनी राह मैं चुनता नहीं हूँ,
यह कि अपनी चाल मैंने नहीं साधी,
यह कि खाई-खन्दकों को
आँख मेरी देखने से चूक जाती,
यह कि मैं खतरा उठाने से
हिचकता-झिझकता हूँ,
यह कि मैं दायित्व अपना
ओढ़ते घबरा रहा हूँ--
कुछ नहीं ऐसा।
शुरू में भी कहीं पर चेतना थी,
भूल कोई बड़ी होगी,
तुम सम्भाल तुरंत लोगे;
अन्त में भी आश्वासन चाहता हूँ
अनगही नहीं है मेरी बाँह।
मरण काले - Harivansh Rai Bachchan
(निराला के मृत शरीर का चित्र देखने पर)मरा
मैंने गरुड़ देखा,
गगन का अभिमान,
धराशायी, धूलि धूसर, म्लान!
मरा
मैंने सिंह देखा,
दिग्दिगंत दहाड़ जिसकी गूँजती थी,
एक झाड़ी में पड़ा चिर-मूक,
दाढ़ी-दाढ़ चिपका थूक।
मरा
मैंने सर्प देखा,
स्फूर्ति का प्रतिरूप लहरिल,
पड़ा भू पर बना सीधी और निश्चल रेख।
मरे मानव सा कभी मैं
दीन, हीन, मलीन, अस्तंगमितमहिमा,
कहीं, कुछ भी नहीं पाया देख।
क्या नहीं है मरण
जीवन पर अवार प्रहार?--
कुछ नहीं प्रतिकार।
क्या नहीं है मरण
जीवन का महा अपमान?--
सहन में ही त्राण।
क्या नहीं है मरण ऐसा शत्रु
जिसके साथ,कितना ही सम कर,
निबल निज को मान,
सबको,सदा,
करनी पड़ी उसकी शरण अंगीकार?--
क्या इसी के लिए मैंने
नित्य गाए गीत,
अंतर में संजोए प्रीति के अंगार,
दी दुर्नीति को डंटकर चुनौती,
गलत जीती बाजियों से
मैं बराबर
हार ही करता गया स्वीकार,--
एक श्रद्धा के भरोसे
न्याय,करुणा,प्रेम-सबके लिए
निर्भर एक ही अज्ञात पर मैं रहा
सहता बुद्धि व्यंग्य प्रहार?
इस तरह रह
अगर जीवन का जिया कुछ अर्थ,
मरण में मैं मत लगूँ असमर्थ!
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