आकुल अंतर हरिवंशराय बच्चन Aakul Antar Harivansh Rai Bachchan

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हरिवंशराय बच्चन -आकुल अंतर
Harivansh Rai Bachchan -Aakul Antar

लहर सागर का नहीं श्रृंगार - Harivansh Rai Bachchan

लहर सागर का नहीं श्रृंगार,
उसकी विकलता है;
अनिल अम्बर का नहीं, खिलवार
उसकी विकलता है;
विविध रूपों में हुआ साकार,
रंगो में सुरंजित,
मृत्तिका का यह नहीं संसार,
उसकी विकलता है।
गन्ध कलिका का नहीं उद्गार,
उसकी विकलता है;
फूल मधुवन का नहीं गलहार,
उसकी विकलता है;
कोकिला का कौन-सा व्यवहार,
ऋतुपति को न भाया?
कूक कोयल की नहीं मनुहार,
उसकी विकलता है।
गान गायक का नहीं व्यापार,
उसकी विकलता है;
राग वीणा की नहीं झंकार,
उसकी विकलता है;
भावनाओं का मधुर आधार
सांसो से विनिर्मित,
गीत कवि-उर का नहीं उपहार,
उसकी विकलता है।

मेरे साथ अत्याचार - Harivansh Rai Bachchan

मेरे साथ अत्याचार।
प्यालियाँ अगणित रसों की
सामने रख राह रोकी,
पहुँचने दी अधर तक बस आँसुओं की धार।
मेरे साथ अत्याचार।
भावना अगणित हृदय में,
कामना अगणित हृदय में,
आह को ही बस निकलने का दिया अधिकार।
मेरे साथ अत्याचार।
हर नहीं तुमने लिया क्या,
तज नहीं मैंने दिया क्या,
हाय, मेरी विपुल निधि का गीत बस प्रतिकार।
मेरे साथ अत्याचार।

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बदला ले लो, सुख की घड़ियो - Harivansh Rai Bachchan

बदला ले लो, सुख की घड़ियो!
सौ-सौ तीखे काँटे आये
फिर-फिर चुभने तन में मेरे!
था ज्ञात मुझे यह होना है क्षण भंगुर स्वप्निल फुलझड़ियो!
बदला ले लो, सुख की घड़ियो!
उस दिन सपनों की झाँकी में
मैं क्षण भर को मुस्काया था,
मत टूटो अब तुम युग-युग तक, हे खारे आँसू की लड़ियो!
बदला ले लो, सुख की घड़ियो!
मैं कंचन की जंजीर पहन
क्षण भर सपने में नाचा था,
अधिकार, सदा को तुम जकड़ो मुझको लोहे की हथकड़ियो!
बदला ले लो, सुख की घड़ियो!

कैसे आँसू नयन सँभाले - Harivansh Rai Bachchan

कैसे आँसू नयन सँभाले।
मेरी हर आशा पर पानी,
रोना दुर्बलता, नादानी,
उमड़े दिल के आगे पलकें, कैसे बाँध बनाले।
कैसे आँसू नयन सँभाले।
समझा था जिसने मुझको सब,
समझाने को वह न रही अब,
समझाते मुझको हैं मुझको कुछ न समझने वाले।
कैसे आँसू नयन सँभाले।
मन में था जीवन में आते वे, जो दुर्बलता दुलराते,
मिले मुझे दुर्बलताओं से लाभ उठाने वाले।
कैसे आँसू नयन सँभाले।

आज आहत मान, आहत प्राण - Harivansh Rai Bachchan

आज आहत मान, आहत प्राण!
कल जिसे समझा कि मेरा
मुकुर-बिंबित रूप,
आज वह ऐसा, कभी की हो न ज्यों पहचान।
आज आहत मान, आहत प्राण!
'मैं तुझे देता रहा हूँ
प्यार का उपहार',
'मूर्ख मैं तुझको बनाती थी निपट नादान।'
आज आहत मान, आहत प्राण!
चोट दुनिया-दैव की सह
गर्व था, मैं वीर,
हाय, ओड़े थे न मैंने
शब्द-भेदी-बाण।
आज आहत मान, आहत प्राण!

जानकर अनजान बन जा - Harivansh Rai Bachchan

जानकर अनजान बन जा।
पूछ मत आराध्य कैसा,
जब कि पूजा-भाव उमड़ा;
मृत्तिका के पिंड से कह दे
कि तू भगवान बन जा।
जानकर अनजान बन जा।
आरती बनकर जला तू
पथ मिला, मिट्टी सिधारी,
कल्पना की वंचना से
सत्‍य से अज्ञान बन जा।
जानकर अनजान बन जा।
किंतु दिल की आग का
संसार में उपहास कब तक?
किंतु होना, हाय, अपने आप
हत विश्वास कब तक?
अग्नि को अंदर छिपाकर,
हे हृदय, पाषाण बन जा।
जानकर अनजान बन जा।

कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ - Harivansh Rai Bachchan

कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?
क्या तुम लाई हो चितवन में,
क्या तुम लाई हो चुंबन में,
अपने कर में क्या तुम लाई,
क्या तुम लाई अपने मन में,
क्या तुम नूतन लाई जो मैं
फिर से बंधन झेलूँ?
कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?
अश्रु पुराने, आह पुरानी,
युग बाहों की चाह पुरानी,
उथले मन की थाह पुरानी,
वही प्रणय की राह पुरानी,
अर्ध्य प्रणय का कैसे अपनी
अंतर्ज्वाला में लूँ?
कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?
खेल चुका मिट्टी के घर से,
खेल चुका मैं सिंधु लहर से,
नभ के सूनेपन से खेला,
खेला झंझा के झर-झर से;
तुम में आग नहीं है तब क्या,
संग तुम्हारे खेलूँ?
कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?

मैंने ऐसी दुनिया जानी - Harivansh Rai Bachchan

मैंने ऐसी दुनिया जानी।
इस जगती मे रंगमंच पर
आऊँ मैं कैसे, क्या बनकर,
जाऊँ मैं कैसे, क्या बनकर-
सोचा, यत्न किया भी जी भर,
किंतु कराती नियति नटी है मुझसे बस मनमानी।
मैंने ऐसी दुनिया जानी।
आज मिले दो यही प्रणय है,
दो देहों में एक हृदय है,
एक प्राण है, एक श्वास है,
भूल गया मैं यह अभिनय है;
सबसे बढ़कर मेरे जीवन की थी यह नादानी।
मैंने ऐसी दुनिया जानी।
यह लो मेरा क्रीड़ास्थल है,
यह लो मेरा रंग-महल है,
यह लो अंतरहित मरुथल है,
ज्ञात नहीं क्या अगले पल है,
निश्चित पटाक्षेप की घटिका भी तो है अनजानी।
मैंने ऐसी दुनिया जानी।

क्षीण कितना शब्द का आधार - Harivansh Rai Bachchan

क्षीण कितना शब्द का आधार!
मौन तुम थीं, मौन मैं था, मौन जग था,
तुम अलग थीं और मैं तुमसे अलग था,
जोड़-से हमको गये थे शब्द के कुछ तार।
क्षीण कितना शब्द का आधार!
शब्दमय तुम और मैं जग शब्द से भर पूर,
दूर तुम हो और मैं हूँ आज तुमसे दूर,
अब हमारे बीच में है शब्द की दीवार।
क्षीण कितना शब्द का आधार!
कौन आया और किसके पास कितना,
मैं करूँ अब शब्द पर विश्वास कितना,
कर रहे थे जो हमारे बीच छ्ल-व्यापार!
क्षीण कितना शब्द का आधार!

मैं अपने से पूछा करता - Harivansh Rai Bachchan

मैं अपने से पूछा करता।
निर्मल तन, निर्मल मनवाली,
सीधी-सादी, भोली-भाली,
वह एक अकेली मेरी थी, दुनियाँ क्यों अपनी लगती थी?
मैं अपने से पूछा करता।
तन था जगती का सत्य सघन,
मन था जगती का स्वप्न गहन,
सुख-दुख जगती का हास-रुदन;
मैंने था व्यक्ति जिसे समझा, क्या उसमें सारी जगती थी?
मैं अपने से पूछा करता।
वह चली गई, जग में क्या कम,
दुनिया रहती दुनिया हरदम,
मैं उसको धोखा देता था अथवा वह मुझको ठगती थी?
मैं अपने से पूछा करता।

अरे है वह अंतस्तल कहाँ - Harivansh Rai Bachchan

अरे है वह अंतस्तल कहाँ?
अपने जीवन का शुभ-सुन्दर
बाँटा करता हूँ मैं घर-घर,
एक जगह ऐसी भी होती,
निःसंकोच विकार विकृति निज सब रख सकता जहाँ।
अरे है वह अंतस्तल कहाँ?
करते कितने सर-सरि-निर्झर
मुखरित मेरे आँसू का स्वर,
एक उदधि ऐसा भी होता,
होता गिरकर लीन सदा को नयनों का जल जहाँ।
अरे है वह अंतस्तल कहाँ?
जगती के विस्तृत कानन में
कहाँ नहीं भय औ' किस क्षण में?
एक बिंदु ऐसा भी होता,
जहाँ पहुँचकर कह सकता मैं 'सदा सुरक्षित यहाँ'।
अरे है वह अंतस्तल कहाँ?

अरे है वह वक्षस्थल कहाँ - Harivansh Rai Bachchan

अरे है वह वक्षस्थल कहाँ?
ऊँची ग्रीवा कर आजीवन
चलने का लेकर के भी प्रण
मन मेरा खोजा करता है
क्षण भर को वह ठौर झुका दूँ अपनी गर्दन जहाँ।
अरे है वह वक्षस्थल कहाँ?
ऊँचा मस्तक रख आजीवन
चलने का लेकर के भी प्रण
मन मेरा खोजा करता है
क्षण भर को वह ठौर टिका दूँ अपना मत्था जहाँ।
अरे है वह वक्षस्थल कहाँ?
कभी करूँगा नहीं पलायन
जीवन से, लेकर के भी प्रण
मन मेरा खोजा करता है
क्षण भर को वह ठौर छिपा लूँ अपना शीश जहाँ।
अरे है वह वक्षस्थल कहाँ?

अरे है वह शरणस्थल कहाँ - Harivansh Rai Bachchan

अरे है वह शरणस्थल कहाँ?
जीवन एक समर है सचमुच,
पर इसके अतिरिक्त बहुत कुछ,
योद्धा भी खोजा करता है
कुछ पल को वह ठौर युद्ध की प्रतिध्वनि नहीं जहाँ।
अरे है वह शरणस्थल कहाँ?
जीवन एक सफ़र है सचमुच,
पर इसके अतिरिक्त बहुत कुछ,
यात्री भी खोजा करता है
कुछ पल को वह ठौर प्रगति यात्रा की नहीं जहाँ।
अरे है वह शरणस्थल कहाँ?
जीवन एक गीत है सचमुच,
पर इसके अतिरिक्त बहुत कुछ,
गायक भी खोजा करता है
कुछ पल को वह ठौर मूकता भंग न होती जहाँ।
अरे है वह शरणस्थल कहाँ?

क्या है मेरी बारी में - Harivansh Rai Bachchan

क्या है मेरी बारी में।
जिसे सींचना था मधुजल से
सींचा खारे पानी से,
नहीं उपजता कुछ भी ऐसी
विधि से जीवन-क्यारी में।
क्या है मेरी बारी में।
आंसू-जल से सींच-सींचकर
बेलि विवश हो बोता हूं,
स्रष्टा का क्या अर्थ छिपा है
मेरी इस लाचारी में।
क्या है मेरी बारी में।
टूट पडे मधुऋतु मधुवन में
कल ही तो क्या मेरा है,
जीवन बीत गया सब मेरा
जीने की तैयारी में।
क्या है मेरी बारी में।

मैं समय बर्बाद करता - Harivansh Rai Bachchan

मैं समय बर्बाद करता?
प्रायशः हित-मित्र मेरे
पास आ संध्या-सबेरे,
हो परम गंभीर कहते--मैं समय बर्बाद करता।
मैं समय बर्बाद करता?
बात कुछ विपरीत ही है,
सूझता उनको नहीं है,
जो कि कहते आँख रहते--मैं समय बर्बाद करता।
मैं समय बर्बाद करता?
काश मुझमें शक्ति होती
नष्ट कर सकता समय को,
औ'समय के बंधनों से
मुक्त कर सकता हृदय को;
भर गया दिल जुल्म सहते--मैं समय बर्बाद करता।
मैं समय बर्बाद करता?

आज ही आना तुम्हें था - Harivansh Rai Bachchan

आज ही आना तुम्हें था?
आज मैं पहले पहल कुछ
घूँट मधु पीने चला था,
पास मेरे आज ही क्यों विश्व आ जाना तुम्हें था।
आज ही आना तुम्हें था?
एक युग से पी रहा था
रक्त मैं अपने हृदय का,
किंतु मद्यप रूप में ही क्यों मुझे पाना तुम्हें था।
आज ही आना तुम्हें था?
तुम बड़े नाजुक समय में
मानवों को हो पकड़ते,
हे नियति के व्यंग, मैंने क्यों न पहचाना तुम्हें था।
आज ही आना तुम्हें था?

एकाकीपन भी तो न मिला - Harivansh Rai Bachchan

एकाकीपन भी तो न मिला।
मैंने समझा था संगरहित
जीवन के पथ पर जाता हूँ,
मेरे प्रति पद की गति-विधि को जग देख रहा था खोल नयन।
एकाकीपन भी तो न मिला।
मैं अपने कमरे के अंदर
कुछ अपने मन की करता था,
दर-दीवारें चुपके-चुपके देती थीं जग को आमंत्रण
एकाकीपन भी तो न मिला।
मैं अपने मानस के भीतर
था व्यस्त मनन में, चिंतन में,
साँसें जग से कह आती थीं मेरे अंतर का द्वन्द-दहन।
एकाकीपन भी तो न मिला।

नई यह कोई बात नहीं - Harivansh Rai Bachchan

नई यह कोई बात नहीं।
कल केवल मिट्टी की ढ़ेरी,
आज 'महत्ता' इतनी मेरी,
जगह-जगह मेरे जीवन की जाती बात कही।
नई यह कोई बात नहीं।
सत्य कहे जो झूठ बनाए,
भला-बुरा जो जी में आए,
सुनते हैं क्यों लोग--पहेली मेरे लिए रही।
नई यह कोई बात नहीं।
कवि था कविता से था नाता,
मुझको संग उसी का भाता,
किंतु भाग्य ही कुछ ऐसा है,
फेर नहीं मैं उसको पाता।
जहाँ कहीं मैं गया कहानी मेरे साथ रही।
नई यह कोई बात नहीं।

तिल में किसने ताड़ छिपाया - Harivansh Rai Bachchan

तिल में किसने ताड़ छिपाया?
छिपा हुआ था जो कोने में,
शंका थी जिसके होने में,
वह बादल का टुकड़ा फैला, फैल समग्र गगन में छाया।
तिल में किसने ताड़ छिपाया?
पलकों के सहसा गिरने पर
धीमे से जो बिन्दु गए झर,
मैंने कब समझा था उनके अंदर सारा सिंधु समाया।
तिल में किसने ताड़ छिपाया?
कर बैठा था जो अनजाने,
या कि करा दी थी सृष्टा ने,
उस ग़लती ने मेरे सारे जीवन का इतिहास बनाया।
तिल में किसने ताड़ छिपाया?

कवि तू जा व्यथा यह झेल - Harivansh Rai Bachchan

कवि तू जा व्यथा यह झेल।
वेदना आई शरण में
गीत ले गीले नयन में,
क्या इसे निज द्वार से तू आज देगा ठेल।
कवि तू जा व्यथा यह झेल।
पोंछ इसके अश्रुकण को,
अश्रुकण-सिंचित वदन को,
यह दुखी कब चाहती है कलित क्रीड़ा-केलि।
कवि तू जा व्यथा यह झेल।
है कहीं कोई न इसका,
यह पकड़ ले हाथ जिसका,
और तू भी आज किसका,
है किसी संयोग से ही हो गया यह मेल।
कवि तू जा व्यथा यह झेल।

मुझको भी संसार मिला है - Harivansh Rai Bachchan

मुझको भी संसार मिला है।
जिन्हें पुतलियाँ प्रतिपल सेतीं,
जिन पर पलकें पहरा देतीं,
ऐसी मोती की लड़ियों का मुझको भी उपहार मिला है।
मुझको भी संसार मिला है।
मेरे सूनेपन के अंदर
हैं कितने मुझ-से नारी-नर!
जिन्हें सुखों ने ठुकराया है मुझको उनका प्यार मिला है।
मुझको भी संसार मिला है।
इससे सुंदर तन है किसका?
इससे सुंदर मन है किसका?
मैं कवि हूँ मुझको वाणी के तन-मन पर अधिकार मिला है।
मुझको भी संसार मिला है।

वह नभ कंपनकारी समीर - Harivansh Rai Bachchan

वह नभ कंपनकारी समीर,
जिसने बादल की चादर को
दो झटके में कर तार-तार,
दृढ़ गिरि श्रृंगों की शिला हिला,
डाले अनगिन तरूवर उखाड़;
होता समाप्‍त अब वह समीर
कलि की मुसकानों पर मलीन!
वह नभ कंपनकारी समीर।
वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर,
जिसने क्षिति के वक्षस्‍थल को
निज तेज धार से दिया चीर,
कर दिए अनगिनत नगर-ग्राम-
घर बेनिशान कर मग्‍न-नीर,
होता समाप्‍त अब वह प्रवाह
तट-शिला-खंड पर क्षीण-क्षीण!
वह जल प्रवाह उद्धत-अधीर।
मेरे मानस की महा पीर,
जो चली विधाता के सिर पर
गिरने को बनकर वज्र शाप,
जो चली भस्‍म कर देने को
यह निखिल सृष्टि बन प्रलय ताप;
होती समाप्‍त अब वही पीर,
लघु-लघु गीतों में शक्तिहीन!
मेरे मानस की महा पीर।

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