प्रणय पत्रिका हरिवंशराय बच्चन Pranay Patrika Harivansh Rai Bachchan

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हिंदी कविता

प्रणय पत्रिका हरिवंशराय बच्चन
Pranay Patrika Harivansh Rai Bachchan

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क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ - Harivansh Rai Bachchan

क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।

प्राची के वातायन पर चढ़

प्रात किरन ने गाया,

लहर-लहर ने ली अँगड़ाई

बंद कमल खिल आया,

मेरी मुस्कानों से मेरा

मुख न हुआ उजियाला,

आशा के मैं क्या तुमको राग सुनाऊँ।

क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।

(२)

पकी बाल, बिकसे सुमनों से

लिपटी शबनम सोती,

धरती का यह गीत, निछावर

जिसपर हीरा-मोती,

सरस बनाना था जिनको वे;

हाय, गए कर गीले,

कैसे आँसू से भीगे साज बजाऊँ ।

क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।

(३)

सौरभ के बोझे से अपनी

चाल समीरण साधे,

कुछ न कहो इस वक्त उसे,वह

स्वर्ग उठाए काँधे,

बँधी हुई मेरी कुछ साँसों

से भी मीठी सुधियाँ,

जो बीत चुकी क्या उसकी याद दिलाऊँ ।

क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।

(४)

भरा-पुरा जो रहा जगत में

उसने ही मुंह खोला,

एक अभावों की घड़ियों में

भाव-भरा मैं बोला,

इसीलिए जब गाता हूँ में

मौन प्रकृति हो जाती,

लौकिक सुख चाहे दैवी पीर जगाऊँ ।

क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।

भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी - Harivansh Rai Bachchan

(१)

भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी।

बोल उठी है मेरे स्वर में

तेरी कौन कहानी,

कौन जगी मेरी ध्वनियों में

तेरी पीर पुरानी,

अंगों में रोमांच हुआ, क्यों

कोर नयन के भीगे,

भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी।

(२)

मैंने अपना आधा जीवन

गाकर गीत गँवाया,

शब्दों का उत्साह पदों ने

मेरे बहुत कमाया,

मोती की लड़ियाँ तो केवल

तूने इनपर वारीं,

निर्धन की झोली आज गई भर पूरी।

भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी।

(३)

क्षणभंगुर होता है जग में

यह रागों का नाता,

सुखी वही है जो बीती को

चलता है बिसराता,

और दुखी है पूर्ति ढूंढता

जो अपनी साधों की,

रह जाती हैं जो उर के बीच अधूरी।

भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी।

(४)

गूँजेगा तेरे कानों में

मेरा गीत नशीला,

झूलेगा मेरी आँखों में

तेरा रूप रसीला,

मन सुधियों के स्वप्न बुनेंगे

लेकिन सच तो यह है,

दोनों में होगी सौ दुनिया की दूरी।

भावाकुल मन की कौन कहे मजबूरी।

तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती - Harivansh Rai Bachchan

(१)

तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।

बंद किवाड़े कर-कर सोए

सब नगरी के बासी,

वक्त तुम्हारे आने का यह

मेरे राग विलासी,

आहट भी प्रतिध्वनित तुम्हारी

इस पर होती आई,

तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।

(२)

इसके गुण-अवगुण बतलाऊँ?

क्या तुमसे अनजाना?

मिला मुझे है इसके कारण

गली-गली का ताना,

लेकिन बुरी-भली, जैसी भी,

है यह देन तुम्हारी,

मैंने तो सेई एक तुम्हारी थाती।

तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।

(३)

तुम पैरों से ठुकरा देते

यह बलि-बलि हो जाती,

कहाँ तुम्हारी छाती की भी

धड़कन यह सुन पाती,

और चुकी है चूम उँगलियाँ

मधु बरसानेवाली, अचरज क्या इतनी आज बनी मदमाती ।

तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।

(४)

मेरी उर-वीणा पर चाहो

जो तुम तान सँवारो,

उसके जिन भावीं-भेदों को

तुम चाहो उद्गारो,

जिस परदे को चाहो खोलो,

जिसको चाहो मूँदो,

यह आज नहीं है दुनिया से शरमाती।

तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।

सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना - Harivansh Rai Bachchan

(१)

सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।

मैंने तो हर तार तुम्हारे

हाथों में, प्रिय, सौंप दिया है

काल बताएगा यह मैंने

ग़लत किया या ठीक किया है

मेरा भाग समाप्त मगर

आरंभ तुम्हारा अब होता है,

सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।

(२)

जगती के जय-जयकारों की

किस दिन मुझको चाह रही है,

दुनिया के हँसने की मुझको

रत्ती भर परवाह नहीं है,

लेकिन हर संकेत तुम्हारा

मुझे मरण, जीवन, कुछ दोनों

से भी ऊपर, तुम तो मेरी त्रुटियों पर इस भाँति हँसो ना।

सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।

(३)

मैं हूँ कौन कि धरती मेरी

भूलों का इतिहास बनाए,

पर मुझको तो याद कि मेरी

किन-किन कमियों को बिसराए

वह बैठी है, और इसीसे

सोते और जागते बख्शा

कभी नहीं मैने अपने को, आज मुझे तुम भी बख्शो ना ।

सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।

(४)

तुमपर भी आरोप कि मेरी

झंकारों में आग नहीं है,

जिसको छू जग चमक न उठता

वह कुछ हो, अनुराग नहीं है,

तुमने मुझे छुआ, छेड़ा भी

और दूर के दूर रहे भी,

उर के बीच बसे हो मेरे सुर के भी तो बीच बसो ना ।

सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।

राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है - Harivansh Rai Bachchan

(१)

राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|

बीत गया युग एक तुम्हारे

मंदिर की डयोढ़ी पर गाते,

पर अंतर के तार बहुत-से,

शब्द नहीं झंकृत कर पाते,

एक गीत का अंत दूसरे

का आरंभ हुआ करता है,

राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|

(२)

अपने मन को ज़ाहिर करने

का दुनिया में बहुत बहाना,

किंतु किसी में माहिर होना,

हाय, न मैंने अब तक जाना,

जब-जब मेरे उर में, सुर में

द्वंद हुआ है, मैंने देखा,

उर विजयी होता, सुर के सिर हार मढ़ी ही रह जाती है।

राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|

(३)

भाषा के उपरकण करेंगे

व्यक्त न मेरी आश-निराशा,

सोच बहुत दिन तक मैं बैठा

मन को मारे, मौन बनाम,

लेकिन तब थी मेरी हालत

उस पगलाई-सी बदली की,

बिन बरसे-बरसाए नभ में जो उमड़ी ही रह जाती है ।

राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|

(४)

चुप न हुआ जाता है मुझसे

और न मुझसे गाया जाता,

धोखे में रखकर अपने को

और नहीं बहलाया जाता,

शूल निकलने-सा सुख होता

गान उठाता जब अंबर में,

लेकिन दिल के अंदर कोई फाँस गड़ी ही रह जाती है ।

राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढी ही रह जाती है ।

बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है - Harivansh Rai Bachchan

(१)

बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है|

लग रहा जैसे कि मुझसे

है सकल संसार रूठा,

लग रहा जैसे कि सबकी

प्रीति झूठी, प्यार झूठा,

और मुझ-सा दीन, मुझ-सा

हीन कोई भी नहीं है,

बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है|

(२)

दोष, दूषण, दाग़ अपने

देखने जब से लगा हूँ,

जानता हूँ मैं किसी का

हो नहीं सकता सगा हूँ,

और कोई क्यों बने मेरा,

करे परवाह मेरी,

तू मुझे क्या सोच अपनाती रही, अपना रही है?

बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है|

(३)

हो अगर कोई न सुनने

को; न अपने आप गाऊँ?

पुण्य की मुझमें कमी है,

तो न अपने पाप गाऊँ ?

और गाया पाप ही तो

पुण्य का पहला चरण है,

मौन जगती किन कलंकों को छिपाती आ रही है|

बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है|

(४)

था मुझे छूना कि तूने

भर दिया झंकार से घर,

और मेरी सांस को भी

साथ स्वर के लग चले पर,

अब अवनि छू लूँ, गगन छू लूँ,

कि सातों स्वर्ग छू लूँ,

सन सरल मुझको कि मेरे साथ जो तू गा रहीं है ।

बीन, आ छेडूँ तुझे, मन में उदासी छा रही है|

आज गीत मैं अंक लगाए, भू मुझको, पर्यंक मुझे क्या - Harivansh Rai Bachchan

(१)

आज गीत मैं अंक लगाए, भू मुझको, पर्यंक मुझे क्या?

खंडित-सा मैं घूम रहा था

जग-पंथों पर भूला-भूला,

तुमको पाकर पूर्ण हुआ मैं

आज हृदय-मन फूला-फूला,

फूलों की वह सेज कि जिसपर

हम-तुम देखें स्वप्न सुनहले,

आज गीत मैं अंक लगाए, भू मुझको, पर्यंक मुझे क्या?

(२)

धन्य हुए वे तृण, कुश, कांटे

जिनपर हमने प्यार बखेरे,

यहाँ बिछा जाएँगे मोती

प्रेयसि औ’ प्रियतम बहुतेरे,

और गिरा जाएँगे आँसू

विरही आकर चुपके-चुपके,

मैं अंदर जाँचा करता हूँ, बाहर नरपति-रंक मुझे क्या।

आज गीत मैं अंक लगाए, भू मुझको, पर्यंक मुझे क्या?

(३)

वे अपना ही रूप बिसारें

जो हैं हमपर हँसनेवाले,

मैं उनको पहचान रहा हूँ-

एक नगर के बसनेवाले,

हम प्रतिध्वनि बनकर निकलेंगे

कभी इन्हीं के वक्षस्थल से,

मैं जीवन की गति-रति अथकित-अविजित, कीर्ति-कलंक मुझे क्या ।

आज गीत मैं अंक लगाए, भू मुझको, पर्यंक मुझे क्या?

(४)

कवि के उर के अंत:पुर में

वृध्द अतीत बसा करता है,

कवि की दृग-कोरों के नीचे

बाल भविष्य हँसा करता है,

वर्तमान के प्रौढ़ स्वरों से

होता कवि का कंठ निनादित,

तीन काल पद-मापित मेरे,क्रूर समय का ङंक मुझे क्या ।

आज गीत मैं अंक लगाए, भू मुझको, पर्यंक मुझे क्या?

सो न सकूँगा और न तुझको सोने दूँगा, हे मन-बीने - Harivansh Rai Bachchan

(१)

सो न सकूँगा और न तुझको सोने दूँगा, हे मन-बीने।

इसीलिए क्या मैंने तुझसे

साँसों के संबंध बनाए,

मैं रह-रहकर करवट लूँ तू

मुख पर डाल केश सो जाए,

रैन अँधेरी, जग जा गोरी,

माफ़ आज की हो बरजोरी

सो न सकूँगा और न तुझको सोने दूँगा, हे मन-बीने।

(२)

सेज सजा सब दुनिया सोई

यह तो कोई तर्क नहीं है,

क्या मुझमें-तुझमें, दुनिया में

सच कह दे, कुछ फ़र्क़ नहीं है,

स्वार्थ-प्रपंचों के दुःस्वप्नों

में वह खोई, लेकिन मैं तो

खो न सकूँगा और न तुझको खोने दूँगा, हे मन-बीने।

सो न सकूँगा और न तुझको सोने दूँगा, हे मन-बीने।

(३)

जाग छेड़ दे एक तराना

दूर अभी है भोर, सहेली,

जगहर सुनकर के भी अक्सर

भग जाते हैं चोर, सहेली,

सधी-बदी-सी चुप्पी मारे

जग लेटा लेकिन चुप मैं तो

हो न सकूँगा और न तुझको होने दूँगा, हे मन-बीने।

सो न सकूँगा और न तुझको सोने दूँगा, हे मन-बीने।

(४)

गीत चेतना के सिर कलंगी,

गीत खुशी के मुख पर सेहरा,

गीतविजय की कीर्ति पताका,

गीत नींद गफ़लत पर पहरा,

पीड़ा का स्वर आँसू लेकिन

पीड़ा की सीमा पर मैं तो

रो न सकूँगा और न तुझको रोने दूँगा, हे मन-बीने।

सो न सकूँगा और न तुझको सोने दूँगा, हे मन-बीने।

एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ - Harivansh Rai Bachchan

(१)

एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ ।

जड़ जग के उपहार सभी हैं,

धार आँसुओं की बिन वाणी,

शब्द नहीं कह पाते तुमसे

मेरे मन की मर्म कहानी,

उर की आग, राग ही केवल

कंठस्थल में लेकर चलता,

एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ ।

(२)

जान-समझ मैं तुमको लूँगा--

यह मेरा अभिमान कभी था,

अब अनुभव यह बतलाता है--

मैं कितना नादान कभी था;

योग्य कभी स्वर मेरा होगा,

विवश उसे तुम दुहराओगे?

बहुत यही है अगर तुम्हारे अधरों से परिचित हो जाऊँ।

एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ ।

(३)

कितने सपने, कितनी आशा,

कितनें आयोजन, आकर्षण,

बिखर गया है सब के ऊपर

टुकड़े-टुकड़े होकर जीवन,

सिर पर सफ़र खडा है लंबा,

फैला सब सामान पड़ा है,

अंतर्ध्वनि का तार मिले तो एक जगह संचित हो जाऊँ ।

एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ ।

(४)

नीरवता का सागर तर कर

मैं था जगती-तट पर आया,

और यहाँ से कूच करुँगा

उसने फिर जिस रोज़ बुलाया,

हल्के होकर चलते जिनके

भाव तराने बन जाते हैं;

मैं अपने सब सुख-दुख लेकर एक बार मुखरित हो जाऊँ ।

एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ ।

अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा - Harivansh Rai Bachchan

(१)

अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा|

पंख उगे थे मेरे जिस दिन

तुमने कंधे सहलाए थे,

जिस-जिस दिशि-पथ पर मैं विहरा

एक तुम्हारे बतलाए थे,

विचरण को सौ ठौर, बसेरे

को केवल गलबाँह तुम्हारी,

अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा|

(२)

ऊँचे-ऊँचे लक्ष्य बनाकर

जब जब उनको छूकर आता,

हर्ष तुम्हारे मन का मेरे

मन का प्रतिद्वंदी बन जाता,

और जहाँ मेरी असफलता

मेरी विह्वलता बन जाती,

वहाँ तुम्हारा ही दिल बनता मेरे दिल का एक दिलासा

अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा|

(३)

नाम तुम्हारा ले लूँ, मेरे

स्वप्नों की नामावलि पूरी,

तुम जिससे संबद्ध नहीं वह

काम अधूरा, बात अधूरी,

तुम जिसमें डोले वह जीवन,

तुम जिसमें बोले वह वाणी,

मुर्दा-मूक नहीं तो मेरे सब अरमान, सभी अभिलाषा ।

अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा|

(४)

तुमसे क्या पाने को तरसा

करता हूँ कैसे बतलाऊँ,

तुमको क्या देने को आकुल

रहता हूँ कैसे जतलाऊँ,

यह चमड़े की जीभ पकड़ कब

पाती है मेरे भावों को,

इन गीतों में पंगु स्वर्ग में नर्तन करनेवाली भाषा ।

अर्पित तुमको मेरी आशा, और निराशा, और पिपासा

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