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हिंदी कविता
हरिवंशराय बच्चन-सतरंगिनी
Harivansh Rai Bachchan-Satrangini
पहला रंग - Harivansh Rai Bachchan
सतरंगिनी - Harivansh Rai Bachchan
सतरंगिनी, सतरंगिनी !काले घनों के बीच में,
काले क्षणों के बीच में
उठने गगन में, लो, लगी
यह रंग-बिरंग विहँगिनी!
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
जग में बता वह कौन है,
कहता कि जो तू मौन है,
देखी नहीं मैंने कभी
तुझसे बड़ी मधु भाषिणी!
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
जैसा मनोहर वेश है
वैसा मधुर सन्देश है,
दीपित दिशाएँ कर रहीं
तेरी हँसी मृदु हासिनी!
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
भू के हृदय की हलचली,
नभ के हृदय की खलबली
ले सप्त रागों में चली
यह सप्त रंग तरंगिनी!
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
अति क्रुद्ध मेघों की कड़क,
अति क्षुब्ध विद्युत् की तड़क
पर पा गई सहसा विजय
तेरी रंगीली रागिनी !
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
तूफान, वर्षा, बाढ़ जब,
आगे खुला यम दाढ़ जब,
मुसकान तेरी बन गई
विश्वास, आशा दायिनी !
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
मेरे दृगों के अश्रुकण-
को, पार करती किस नयन-
की, तेजमय तीखी किरण,
जो हो रही चित्रित हृदय
पर एक तेरी संगिनी !
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
वर्षा-धुले आकाश से,
या चन्द्रमा के पास से,
या बादलों की साँस से;
मघुसिक्त, मदमाती हवा,
बरसात की आती हवा।
यह खेलती है ढाल से,
ऊँचे शिखर के भाल से,
अस्काश से, पाताल से,
झकझोर-लहराती हवा;
बरसात की आती हवा।
यह खेलती है सर-वारि से,
नद-निर्झरों की धार से,
इस पार से, उस पार से,
झुक-झूम बल खाती हवा;
बरसात की आती हवा।
यह खेलती तरुमाल से,
यह खेलती हर डाल से,
लोनी लता के जाल से,
अठखेल-इठलाती हवा;
बरसात की आती हवा।
इसकी सहेली है पिकी,
इसकी सहेली चातकी,
संगिन शिखिन, संगी शिखी,
यह नाचती-गाती हवा;
बरसात की आती हवा।
रंगती कभी यह इन्द्रधनु,
रंगती कभी यह चन्द्रधनु,
अब पीत घन, अब रक्त घन,
रंगरेल-रंगराती हवा;
बरसात की आती हवा।
यह गुदगुदाती देह को,
शीतल बनाती गेह को,
फिर से जगाती नेह को;
उल्लास बरसाती हवा;
बरसात की आती हवा।
यह शून्य से होकर प्रकट
नव हर्ष से आगे झपट;
हर अंग से जाती लिपट,
आनन्द सरसाती हवा;
बरसात की आती हवा।
जब ग्रीष्म में यह जल चुकी
जब खा अँगार-अनल चुकी,
जब आग में यह पल चुकी,
वरदान यह पाती हवा;
बरसात की आती हवा।
तू भी विरह में दह चुका,
तू भी दुखों को सह चुका,
दुख की कहानी कह चुका,
मुझसे बता जाती हवा;
बरसात की आती हवा।
युग-कल्प हैं सुनते रहे,
युग-कल्प सुनते जाएँगे,
प्यासे पपीहे के वचन
लेकिन कहाँ रुक पाएँगे,
सुनती रहेगी सरज़मीं,
सुनता रहेगा आसमाँ;
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
विस्तृत गगन में घन घिरे,
पानी गिरा, पत्थर गिरे,
विस्तृत मही पर सर भरे,
उमही नदी, निर्झर झरे,
पर माँगती ही रह गई
दो बूँद जल इसकी ज़बाँ;
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
दो बूँद जल से ही अगर
तृष्णा बुझाना चाहता,
दो बूँद जल से ही अगर
यह शान्ति पाना चाहता,
तो भूमि के भी बीच में
इसकी कमी होती कहाँ;
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
यह बूँद ही कुछ और है,
यह खोज ही कुछ और है,
यह प्यास ही कुछ और है,
यह सोज़ ही कुछ और है,
जिसके लिए, जिसको लिए
जल-थल-गगन में यह भ्रमा;
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
लघुतम विहंगम यह नहीं,
यह प्यास की आवाज़ है,
इसमें छिपा ज़िंदादिलों-
की, ज़िन्दगी का राज़ है,
यह जिस जगह उठती नहीं
है मौत का साया वहाँ;
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
धड़कन गगन की-सी बनी
उठती जहाँ यह रात में,
मेरा हृदय कुछ ढूँढने
लगता इसी के साथ में,
यह सिद्ध करता है कि मैं
जीवित अभी, मुर्दा नहीं,
है शेष आकर्षण अभी
मेरे लिए अज्ञात में;
थमता न मैं उस ठौर भी
यह गूँजकर मिटती जहाँ!
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
जलाए कौन बैठा है?
उठी ऐसी घटा नभ में
छिपे सब चांद औ' तारे,
उठा तूफान वह नभ में
गए बुझ दीप भी सारे,
मगर इस रात में भी लौ
लगाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
गगन में गर्व से उठउठ,
गगन में गर्व से घिरघिर,
गरज कहती घटाएँ हैं,
नहीं होगा उजाला फिर,
मगर चिर ज्योति में निष्ठा
जमाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
तिमिर के राज का ऐसा
कठिन आतंक छाया है,
उठा जो शीश सकते थे
उन्होनें सिर झुकाया है,
मगर विद्रोह की ज्वाला
जलाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
प्रलय का सब समां बांधे
प्रलय की रात है छाई,
विनाशक शक्तियों की इस
तिमिर के बीच बन आई,
मगर निर्माण में आशा
दृढ़ाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
प्रभंजन, मेघ दामिनी ने
न क्या तोड़ा, न क्या फोड़ा,
धरा के और नभ के बीच
कुछ साबित नहीं छोड़ा,
मगर विश्वास को अपने
बचाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
प्रलय की रात में सोचे
प्रणय की बात क्या कोई,
मगर पड़ प्रेम बंधन में
समझ किसने नहीं खोई,
किसी के पंथ में पलकें
बिछाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
मेरे जीवन के आँगन में!
तू प्रलय काल के मेघों का
कज्जल-सा कालापन लेकर,
तू नवल सृष्टि की ऊषा की
नव द्युति अपने अंगों में भर,
बड़वाग्नि-विलोडि़त अंबुधि की
उत्तुंग तरंगों से गति ले,
रथ युत रवि-शशि को बंदी कर
दृग-कोयों का रच बंदीघर,
कौंधती तड़ित को जिह्वा-सी
विष-मधुमय दाँतों में दाबे,
तू प्रकट हुई सहसा कैसे
मेरी जगती में, जीवन में?
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तू मनमोहिनी रंभा-सी,
तू रुपवती रति रानी-सी,
तू मोहमयी उर्वशी सदृश,
तू मनमयी इंद्राणी-सी,
तू दयामयी जगदंबा-सी
तू मृत्यु सदृश कटु, क्रुर, निठुर,
तू लयंकारी कलिका सदृश,
तू भयंकारी रूद्राणी-सी,
तू प्रीति, भीति, आसक्ति, घृणा
की एक विषम संज्ञा बनकर,
परिवर्तित होने को आई
मेरे आगे क्षण-प्रतिक्षण में।
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
प्रलयंकर शंकर के सिर पर
जो धूलि-धूसरित जटाजूट,
उसमें कल्पों से सोई थी
पी कालकूट का एक घूँट,
सहसा समाधि का भंग शंभु,
जब तांडव में तल्लीन हुए,
निद्रालसमय, तंद्रानिमग्न
तू धूमकेतु-सी पड़ी छूट;
अब घूम जलस्थल-अंबर में,
अब घूम लोक-लोकांतर में
तू किसको खोजा करती है,
तू है किसके अन्वीक्षण में?
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तू नागयोनि नागिनी नहीं,
तू विश्व विमोहक वह माया,
जिसके इंगित पर युग-युग से
यह निखिल विश्व नचता आया,
अपने तप के तेजोबल से
दे तुझको व्याली की काया,
धूर्जटि ने अपने जटिल जूट-
व्यूहों में तुझको भरमाया,
पर मदन-कदन कर महायतन
भी तुझे न सब दिन बाँध सके,
तू फिर स्वतंत्र बन फिरती है
सबके लोचन में, तन-मन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तू फिरती चंचल फिरकी-सी
अपने फन में फुफकार लिए,
दिग्गज भी जिससे काँप उठे
ऐसा भीषण हुँकार लिए,
पर पल में तेरा स्वर बदला,
पल में तेरी मुद्रा बदली,
तेरा रुठा है कौन कि तू
अधरों पर मृदु मनुहार लिए,
अभिनंदन करती है उसका,
अभिपादन करती है उसका,
लगती है कुछ भी देर नहीं
तेरे मन के परिवर्तन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
प्रेयसि का जग के तापों से
रक्षा करने वाला अंचल,
चंचल यौवन कल पाता है
पाकर जिसकी छाया शीतल,
जीवन का अंतिम वस्त्र कफ़न
जिसको नख से शीख तक तनकर
वह सोता ऐसी निद्रा में
है होता जिसके हेतु न कल,
जिसको तन तरसा करता है,
जिससे डरपा करता है,
दोनों की झलक मुझे मिलती
तेरे फन के अवगुंठन में!
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
जाग्रत जीवन का कंपन है
तेरे अंगों के कंपन में,
पागल प्राणें का स्पंदन है
तेरे अंगों के स्पंदन में,
तेरे द्रुत दोलित काया में
मतवाली घड़ियों की धड़कन,
उन्मद साँसों की सिहरन है,
तेरी काया के सिहरन में
अल्हड़ यौवन करवट लेता
जब तू भू पर लुंठित होती,
अलमस्त जवानी अँगराती
तेरे अंगों की ऐंठन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तू उच्च महत्वाकांक्षा-सी
नीचे से उठती ऊपर को,
निज मुकुट बना लेगी जैसे
तारावलि- मंडल अंबर को,
तू विनत प्रार्थना-सी झुककर
ऊपर से नीचे को आती,
जैसे कि किसी की पद-से
ढँकने को है अपने सिर को,
तू आसा-सी आगे बढ़ती,
तू लज्जा-सी पीछे हटती,
जब एक जगह टिकती, लगती
दृढ़ निश्चय-सी निश्चल मन में।
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
मलयाचल में मलयानिल-सी
पल भर खाती, पल इतराती
तू जब आती, युग-युग दहाती
शीतल हो जाती है छाती,
पर जब चलती उद्वेग भरी
उत्तप्त मरूस्थल की लू-सी
चिर संचित, सिंचित अंतर के
नंदन में आग लग जाती;
शत हिमशिखरों की शीतलता,
श्त ज्वालामुखियों की दहकन,
दोनों आभासित होती है
मुझको तेरे आलिंगन में!
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
इस पुतली के अंदर चित्रित
जग के अतीत की करूण कथा,
गज के यौवन का संघर्षन,
जग के जीवन की दुसह व्यथा;
है झूम रही उस पुतली में
ऐसे सुख-सपनों की झाँकी,
जो निकली है जब आशा ने
दुर्गम भविष्य का गर्भ मथा;
हो क्षुब्ध-मुग्ध पल-पल क्रम से
लंगर-सा हिल-हिल वर्तमान
मुख अपना देखा करता है
तेरे नयनों के दर्पण में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तेरे आनन का एक नयन
दिनमणि-सा दिपता उस पथ पर,
जो स्वर्ग लोक को जाता है,
जो अति संकटमय, अति दुस्तर;
तेरे आनन का एक नेत्र
दीपक-सा उस मग पर जगता,
जो नरक लोक को जाता है,
जो अति सुखमायमय, अति सुखकर;
दोनों के अंदर आमंत्रण,
दोनों के अंदर आकर्षण,
खुलते-मुंदते हैं सर्व्ग-नरक
के देर तेरी हर चितवन में!
सहसा यह तेरी भृकुटि झुकी,
नभ से करूणा की वृष्टि हुई,
मृत-मूर्च्छित पृथ्वी के ऊपर
फिर से जीवन की सृष्टि हुई,
जग के आँगन में लपट उठी,
स्वप्नों की दुनिया नष्ट हुई;
स्वेच्छाचारिणी, है निष्कारण
सब तेरे मन का क्रोध, कृपा,
जग मिटता-बनता रहता है
तेरे भ्रू के संचालन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
अपने प्रतिकूल गुणों की सब
माया तू संग दिखाती है,
भ्रम, भय, संशय, संदेहों से
काया विजडि़त हो जाती है,
फिर एक लहर-सीआती है,
फिर होश अचानक होता है,
विश्वासी आशा, निष्ठा,
श्रद्धा पलकों पर छाती है;
तू मार अमृत से सकती है,
अमरत्व गरल से दे सकती,
मेरी मति सब सुध-बुध भूली
तेरे छलनामय लक्षण में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
विपरीत क्रियाएँ मेरी भी
अब होती हैं तेरे आगे,
पग तेरे पास चले आए
जब वे तेरे भय से भागे,
मायाविनि क्या कर देती है
सीधा उलटा हो जाता है,
जब मुक्ति चाहता था अपनी
तुझसे मैंने बंधन माँगे,
अब शांति दुसह-सी लगती है,
अब मन अशांति में रमता है,
अब जलन सुहाती है उर को,
अब सुख मिलता उत्पीड़न में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तूने आँखों में आँख डाल
है बाँध लिया मेरे मन को,
मैं तुझको कीलने चला मगर
कीला तूने तन को,
तेरी परछाईं-सा बन मैं
तेरे संग हिलता-डुलता हूँ,
मैं नहीं समझता अलग-अलग
अब तेरे-अपने जीवन को,
मैं तन-मन का दुर्बल प्राणी,
ज्ञानी, ध्यानी भी बड़े-बड़े
हो दास चुके तेरे, मुझको
क्या लज्जा आत्म-समर्पण में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तुझपर न सका चल कोई भी
मेरा प्रयोग मारण-मोहन,
तेरा न फिरा मन और कहीं
फेंका भी मैंने उच्चाटन,
सब मंत्र, तंत्र, अभिचारों पर
तू हुई विजयिनी निष्प्रयत्न,
उलटा तेरे वश में आया
मेरा परिचालित वशीकरण;
कर यत्न थका, तू सध न सकी
मेरे गीतों से, गायन से
कर यत्न थका, तू बंध न सकी
मेरे छंदों के बंधन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
सब साम-दाम औ' दंड-भेद
तेरे आगे बेकार हुआ,
जप, तप, व्रत, संयम, साधन का
असफल सारा व्यापार हुआ,
तू दूर न मुझसे भाग सकी,
मैं दूर न तुझसे भाग सका,
अनिवारिणि, करने को अंतिम
निश्चय, ले मैं तैयार हुआ-
अब शांति, अशांति, मरण, जीवन
या इनसे भी कुछ भिन्न अगर,
सब तेरे विषमय चुंबन में,
सब तेरे मधुमय दंशन में!
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
नाच, मगन-मन नाच!
गगन में सावन घन छाए,
न क्यों सुधि साजन की आए;
मयूरी, आँगन-आँगन नाच!
मयूरी,
नाच, मगन-मन नाच!
धरणी पर छाई हरियाली,
सजी कलि-कुसुमों से डाली;
मयूरी, मधुवन-मधुवन नाच!
मयूरी,
नाच, मगन-मन नाच!
समीरण सौरभ सरसाता,
घुमड़ घन मधुकण बरसाता;
मयूरी, नाच मदिर-मन नाच!
मयूरी,
नाच, मगन-मन नाच!
निछावर इंद्रधनुष तुझ पर,
निछावर, प्रकृति-पुरुष तुझ पर,
मयूरी, उन्मन-उन्मन नाच!
मयूरी, छूम-छनाछन नाच!
मयूरी, नाच, मगन-मन नाच!
पीर जागी जा रही है!
हास लहरों का सतह को
छोड़ तह में सो गया है,
गान विहगों का उतर तरु-
पल्लवों में खो गया है,
छिप गई है जा क्षितिज पर
वायु चिर चंचल दिवस की,
बन्द घर-घर में शहर का
शोर सारा हो गया है,
पहूँच नीड़ों में गए
पिछड़े हुए दिग्भ्रान्त खग भी,
किन्तु ध्वनि किसकी गगन में
अब तलक मण्डरा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
चीर किसके कण्ठ को यह
उठ रही आवाज़ ऊपर,
दर न दीवारें जिसे हैं
रोक सकतीं, छत न छप्पर,
जो बिलमती है नहीं नभ-
चुम्बिनी अट्टालिका में,
हैं लुभा सकते न जिसको
व्योम के गुम्बद मनोहर,
जो अटकती है नहीं
आकाश-भेदी घनहरों में,
लौट बस जिसकी प्रतिध्वनि
तारकों से आ रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
बोल, ऐ आवाज़, तू किस
ओर जाना चाहती है,
दर्द तू अपना बता
किसको जताना चाहती है,
कौन तेरा खो गया है
इस अंधेरी यामिनी में,
तू जिसे फिर से निकट
अपने बुलाना चाहती है,
खोजती फिरती किसे तू
इस तरह पागल, विकल हो,
चाह किसकी है तुझे जो
इस तरह तड़पा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
बोल, क्या तू थक गई है
विश्व को विनती सुनाते,
बोल, क्या तू थक गई है
विश्व से आशा लगाते,
क्या सही अपनी उपेक्षा
अब नहीं जाती जगत से,
बोल क्या ऊबी परीक्षा
धैर्य की अपनी कराते,
जो कि खो विश्वास पूरा
विश्व की संवेदना में,
स्वर्ग को अपनी व्यथाएँ
आज तू बतला रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
अनसुनी आबाज़ जो
संसार में होती रही है,
स्वर्ग में भी साख अपना
वह सदा खोती रही है,
स्वर्ग तो कुछ भी नहीं है
छोड़कर छाया जगत की,
स्वर्ग सपने देखती दुनिया
सदा सोती रही है,
पर किसी असहाय मन के
बीच बाकी एक आशा
एक बाकी आसरे का
गीत गाती जा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
पर अभावों की अरी जो
रागिनी, तू कब अकेली,
तान मेरे भी हृदय की,
ले, बनी तेरी सहेली,
हो रहे, होंगे ध्वनित
कितने हदय यों साथ तेरे,
तू बुझाती, बुझती जाती
युगों से यह पहेली-
"एक ऐसा गीत गाया
जो सदा जाता अकेले,
एक ऐसा गीत जिसको
सृष्टि सारी गा रही है;"
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
दीवा जलाना कब मना है?
कल्पना के हाथ से कम-
नीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमें
वितानो को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से
था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों
से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर
ईंट, पत्थर, कंकडों को,
एक अपनी शांति की
कुटिया बनाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
बादलों के अश्रु से धोया
गया नभ-नील नीलम,
का बनाया था गया
मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम ऊषा की नवेली
लालिमा-सी लाल मदिरा,
थी उसी में चमचमाती
नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा हथेली
हाथ की दोनों मिला कर,
एक निर्मल स्रोत से
तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
क्या घड़ी थी एक भी
चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी
पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती,
बात से मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन
बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई
उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता की समय पर
मुस्कुराना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
हाय, वे उन्माद के झोंके
कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें
गान का वरदान मांगा
एक अंतर से ध्वनित हों
दूसरे में जो निरन्तर,
भर दिया अंबर अवनि को
मत्तता के गीत गा-गा,
अंत उनका हो गया तो
मन बहलाने के लिये ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई
गुनगुनाना कब मना है?
है अन्धेरी रात, पर
दीवा जलाना कब मना है?
हाय, वे साथी की चुम्बक-
लौह-से जो पास आए,
पास क्या आए, कि हृदय के
बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई
तार वीणा के मिलाकर,
एक मीठा और प्यारा
ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोच कर ये
लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई
लौ लगाना कब मना है?
है अन्धेरी रात, पर
दीवा जलाना कब मना है?
क्या हवाएँ थी कि उजड़ा
प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा
शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के
साथ चलता ज़ोर किसका?
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि,
तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं
प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को
फिर बसाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता,
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता,
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता,
शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है;
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर!
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था,
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था,
घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा,
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था,
पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते,
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते,
शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए,
किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते,
और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना,
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना,
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना,
एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है;
यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई,
साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है
सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है,
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
जग में बता वह कौन है,
कहता कि जो तू मौन है,
देखी नहीं मैंने कभी
तुझसे बड़ी मधु भाषिणी!
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
जैसा मनोहर वेश है
वैसा मधुर सन्देश है,
दीपित दिशाएँ कर रहीं
तेरी हँसी मृदु हासिनी!
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
भू के हृदय की हलचली,
नभ के हृदय की खलबली
ले सप्त रागों में चली
यह सप्त रंग तरंगिनी!
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
अति क्रुद्ध मेघों की कड़क,
अति क्षुब्ध विद्युत् की तड़क
पर पा गई सहसा विजय
तेरी रंगीली रागिनी !
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
तूफान, वर्षा, बाढ़ जब,
आगे खुला यम दाढ़ जब,
मुसकान तेरी बन गई
विश्वास, आशा दायिनी !
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
मेरे दृगों के अश्रुकण-
को, पार करती किस नयन-
की, तेजमय तीखी किरण,
जो हो रही चित्रित हृदय
पर एक तेरी संगिनी !
सतरंगिनी, सतरंगिनी!
वर्षा समीर - Harivansh Rai Bachchan
बरसात की आती हवा।वर्षा-धुले आकाश से,
या चन्द्रमा के पास से,
या बादलों की साँस से;
मघुसिक्त, मदमाती हवा,
बरसात की आती हवा।
यह खेलती है ढाल से,
ऊँचे शिखर के भाल से,
अस्काश से, पाताल से,
झकझोर-लहराती हवा;
बरसात की आती हवा।
यह खेलती है सर-वारि से,
नद-निर्झरों की धार से,
इस पार से, उस पार से,
झुक-झूम बल खाती हवा;
बरसात की आती हवा।
यह खेलती तरुमाल से,
यह खेलती हर डाल से,
लोनी लता के जाल से,
अठखेल-इठलाती हवा;
बरसात की आती हवा।
इसकी सहेली है पिकी,
इसकी सहेली चातकी,
संगिन शिखिन, संगी शिखी,
यह नाचती-गाती हवा;
बरसात की आती हवा।
रंगती कभी यह इन्द्रधनु,
रंगती कभी यह चन्द्रधनु,
अब पीत घन, अब रक्त घन,
रंगरेल-रंगराती हवा;
बरसात की आती हवा।
यह गुदगुदाती देह को,
शीतल बनाती गेह को,
फिर से जगाती नेह को;
उल्लास बरसाती हवा;
बरसात की आती हवा।
यह शून्य से होकर प्रकट
नव हर्ष से आगे झपट;
हर अंग से जाती लिपट,
आनन्द सरसाती हवा;
बरसात की आती हवा।
जब ग्रीष्म में यह जल चुकी
जब खा अँगार-अनल चुकी,
जब आग में यह पल चुकी,
वरदान यह पाती हवा;
बरसात की आती हवा।
तू भी विरह में दह चुका,
तू भी दुखों को सह चुका,
दुख की कहानी कह चुका,
मुझसे बता जाती हवा;
बरसात की आती हवा।
पपीहा - Harivansh Rai Bachchan
कहता पपीहा, पी कहाँ?'युग-कल्प हैं सुनते रहे,
युग-कल्प सुनते जाएँगे,
प्यासे पपीहे के वचन
लेकिन कहाँ रुक पाएँगे,
सुनती रहेगी सरज़मीं,
सुनता रहेगा आसमाँ;
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
विस्तृत गगन में घन घिरे,
पानी गिरा, पत्थर गिरे,
विस्तृत मही पर सर भरे,
उमही नदी, निर्झर झरे,
पर माँगती ही रह गई
दो बूँद जल इसकी ज़बाँ;
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
दो बूँद जल से ही अगर
तृष्णा बुझाना चाहता,
दो बूँद जल से ही अगर
यह शान्ति पाना चाहता,
तो भूमि के भी बीच में
इसकी कमी होती कहाँ;
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
यह बूँद ही कुछ और है,
यह खोज ही कुछ और है,
यह प्यास ही कुछ और है,
यह सोज़ ही कुछ और है,
जिसके लिए, जिसको लिए
जल-थल-गगन में यह भ्रमा;
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
लघुतम विहंगम यह नहीं,
यह प्यास की आवाज़ है,
इसमें छिपा ज़िंदादिलों-
की, ज़िन्दगी का राज़ है,
यह जिस जगह उठती नहीं
है मौत का साया वहाँ;
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
धड़कन गगन की-सी बनी
उठती जहाँ यह रात में,
मेरा हृदय कुछ ढूँढने
लगता इसी के साथ में,
यह सिद्ध करता है कि मैं
जीवित अभी, मुर्दा नहीं,
है शेष आकर्षण अभी
मेरे लिए अज्ञात में;
थमता न मैं उस ठौर भी
यह गूँजकर मिटती जहाँ!
कहता पपीहा, पी कहाँ?'
जुगनू - Harivansh Rai Bachchan
अँधेरी रात में दीपकजलाए कौन बैठा है?
उठी ऐसी घटा नभ में
छिपे सब चांद औ' तारे,
उठा तूफान वह नभ में
गए बुझ दीप भी सारे,
मगर इस रात में भी लौ
लगाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
गगन में गर्व से उठउठ,
गगन में गर्व से घिरघिर,
गरज कहती घटाएँ हैं,
नहीं होगा उजाला फिर,
मगर चिर ज्योति में निष्ठा
जमाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
तिमिर के राज का ऐसा
कठिन आतंक छाया है,
उठा जो शीश सकते थे
उन्होनें सिर झुकाया है,
मगर विद्रोह की ज्वाला
जलाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
प्रलय का सब समां बांधे
प्रलय की रात है छाई,
विनाशक शक्तियों की इस
तिमिर के बीच बन आई,
मगर निर्माण में आशा
दृढ़ाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
प्रभंजन, मेघ दामिनी ने
न क्या तोड़ा, न क्या फोड़ा,
धरा के और नभ के बीच
कुछ साबित नहीं छोड़ा,
मगर विश्वास को अपने
बचाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
प्रलय की रात में सोचे
प्रणय की बात क्या कोई,
मगर पड़ प्रेम बंधन में
समझ किसने नहीं खोई,
किसी के पंथ में पलकें
बिछाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक
जलाए कौन बैठा है?
नागिन - Harivansh Rai Bachchan
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,मेरे जीवन के आँगन में!
तू प्रलय काल के मेघों का
कज्जल-सा कालापन लेकर,
तू नवल सृष्टि की ऊषा की
नव द्युति अपने अंगों में भर,
बड़वाग्नि-विलोडि़त अंबुधि की
उत्तुंग तरंगों से गति ले,
रथ युत रवि-शशि को बंदी कर
दृग-कोयों का रच बंदीघर,
कौंधती तड़ित को जिह्वा-सी
विष-मधुमय दाँतों में दाबे,
तू प्रकट हुई सहसा कैसे
मेरी जगती में, जीवन में?
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तू मनमोहिनी रंभा-सी,
तू रुपवती रति रानी-सी,
तू मोहमयी उर्वशी सदृश,
तू मनमयी इंद्राणी-सी,
तू दयामयी जगदंबा-सी
तू मृत्यु सदृश कटु, क्रुर, निठुर,
तू लयंकारी कलिका सदृश,
तू भयंकारी रूद्राणी-सी,
तू प्रीति, भीति, आसक्ति, घृणा
की एक विषम संज्ञा बनकर,
परिवर्तित होने को आई
मेरे आगे क्षण-प्रतिक्षण में।
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
प्रलयंकर शंकर के सिर पर
जो धूलि-धूसरित जटाजूट,
उसमें कल्पों से सोई थी
पी कालकूट का एक घूँट,
सहसा समाधि का भंग शंभु,
जब तांडव में तल्लीन हुए,
निद्रालसमय, तंद्रानिमग्न
तू धूमकेतु-सी पड़ी छूट;
अब घूम जलस्थल-अंबर में,
अब घूम लोक-लोकांतर में
तू किसको खोजा करती है,
तू है किसके अन्वीक्षण में?
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तू नागयोनि नागिनी नहीं,
तू विश्व विमोहक वह माया,
जिसके इंगित पर युग-युग से
यह निखिल विश्व नचता आया,
अपने तप के तेजोबल से
दे तुझको व्याली की काया,
धूर्जटि ने अपने जटिल जूट-
व्यूहों में तुझको भरमाया,
पर मदन-कदन कर महायतन
भी तुझे न सब दिन बाँध सके,
तू फिर स्वतंत्र बन फिरती है
सबके लोचन में, तन-मन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तू फिरती चंचल फिरकी-सी
अपने फन में फुफकार लिए,
दिग्गज भी जिससे काँप उठे
ऐसा भीषण हुँकार लिए,
पर पल में तेरा स्वर बदला,
पल में तेरी मुद्रा बदली,
तेरा रुठा है कौन कि तू
अधरों पर मृदु मनुहार लिए,
अभिनंदन करती है उसका,
अभिपादन करती है उसका,
लगती है कुछ भी देर नहीं
तेरे मन के परिवर्तन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
प्रेयसि का जग के तापों से
रक्षा करने वाला अंचल,
चंचल यौवन कल पाता है
पाकर जिसकी छाया शीतल,
जीवन का अंतिम वस्त्र कफ़न
जिसको नख से शीख तक तनकर
वह सोता ऐसी निद्रा में
है होता जिसके हेतु न कल,
जिसको तन तरसा करता है,
जिससे डरपा करता है,
दोनों की झलक मुझे मिलती
तेरे फन के अवगुंठन में!
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
जाग्रत जीवन का कंपन है
तेरे अंगों के कंपन में,
पागल प्राणें का स्पंदन है
तेरे अंगों के स्पंदन में,
तेरे द्रुत दोलित काया में
मतवाली घड़ियों की धड़कन,
उन्मद साँसों की सिहरन है,
तेरी काया के सिहरन में
अल्हड़ यौवन करवट लेता
जब तू भू पर लुंठित होती,
अलमस्त जवानी अँगराती
तेरे अंगों की ऐंठन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तू उच्च महत्वाकांक्षा-सी
नीचे से उठती ऊपर को,
निज मुकुट बना लेगी जैसे
तारावलि- मंडल अंबर को,
तू विनत प्रार्थना-सी झुककर
ऊपर से नीचे को आती,
जैसे कि किसी की पद-से
ढँकने को है अपने सिर को,
तू आसा-सी आगे बढ़ती,
तू लज्जा-सी पीछे हटती,
जब एक जगह टिकती, लगती
दृढ़ निश्चय-सी निश्चल मन में।
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
मलयाचल में मलयानिल-सी
पल भर खाती, पल इतराती
तू जब आती, युग-युग दहाती
शीतल हो जाती है छाती,
पर जब चलती उद्वेग भरी
उत्तप्त मरूस्थल की लू-सी
चिर संचित, सिंचित अंतर के
नंदन में आग लग जाती;
शत हिमशिखरों की शीतलता,
श्त ज्वालामुखियों की दहकन,
दोनों आभासित होती है
मुझको तेरे आलिंगन में!
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
इस पुतली के अंदर चित्रित
जग के अतीत की करूण कथा,
गज के यौवन का संघर्षन,
जग के जीवन की दुसह व्यथा;
है झूम रही उस पुतली में
ऐसे सुख-सपनों की झाँकी,
जो निकली है जब आशा ने
दुर्गम भविष्य का गर्भ मथा;
हो क्षुब्ध-मुग्ध पल-पल क्रम से
लंगर-सा हिल-हिल वर्तमान
मुख अपना देखा करता है
तेरे नयनों के दर्पण में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तेरे आनन का एक नयन
दिनमणि-सा दिपता उस पथ पर,
जो स्वर्ग लोक को जाता है,
जो अति संकटमय, अति दुस्तर;
तेरे आनन का एक नेत्र
दीपक-सा उस मग पर जगता,
जो नरक लोक को जाता है,
जो अति सुखमायमय, अति सुखकर;
दोनों के अंदर आमंत्रण,
दोनों के अंदर आकर्षण,
खुलते-मुंदते हैं सर्व्ग-नरक
के देर तेरी हर चितवन में!
सहसा यह तेरी भृकुटि झुकी,
नभ से करूणा की वृष्टि हुई,
मृत-मूर्च्छित पृथ्वी के ऊपर
फिर से जीवन की सृष्टि हुई,
जग के आँगन में लपट उठी,
स्वप्नों की दुनिया नष्ट हुई;
स्वेच्छाचारिणी, है निष्कारण
सब तेरे मन का क्रोध, कृपा,
जग मिटता-बनता रहता है
तेरे भ्रू के संचालन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
अपने प्रतिकूल गुणों की सब
माया तू संग दिखाती है,
भ्रम, भय, संशय, संदेहों से
काया विजडि़त हो जाती है,
फिर एक लहर-सीआती है,
फिर होश अचानक होता है,
विश्वासी आशा, निष्ठा,
श्रद्धा पलकों पर छाती है;
तू मार अमृत से सकती है,
अमरत्व गरल से दे सकती,
मेरी मति सब सुध-बुध भूली
तेरे छलनामय लक्षण में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
विपरीत क्रियाएँ मेरी भी
अब होती हैं तेरे आगे,
पग तेरे पास चले आए
जब वे तेरे भय से भागे,
मायाविनि क्या कर देती है
सीधा उलटा हो जाता है,
जब मुक्ति चाहता था अपनी
तुझसे मैंने बंधन माँगे,
अब शांति दुसह-सी लगती है,
अब मन अशांति में रमता है,
अब जलन सुहाती है उर को,
अब सुख मिलता उत्पीड़न में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तूने आँखों में आँख डाल
है बाँध लिया मेरे मन को,
मैं तुझको कीलने चला मगर
कीला तूने तन को,
तेरी परछाईं-सा बन मैं
तेरे संग हिलता-डुलता हूँ,
मैं नहीं समझता अलग-अलग
अब तेरे-अपने जीवन को,
मैं तन-मन का दुर्बल प्राणी,
ज्ञानी, ध्यानी भी बड़े-बड़े
हो दास चुके तेरे, मुझको
क्या लज्जा आत्म-समर्पण में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
तुझपर न सका चल कोई भी
मेरा प्रयोग मारण-मोहन,
तेरा न फिरा मन और कहीं
फेंका भी मैंने उच्चाटन,
सब मंत्र, तंत्र, अभिचारों पर
तू हुई विजयिनी निष्प्रयत्न,
उलटा तेरे वश में आया
मेरा परिचालित वशीकरण;
कर यत्न थका, तू सध न सकी
मेरे गीतों से, गायन से
कर यत्न थका, तू बंध न सकी
मेरे छंदों के बंधन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
सब साम-दाम औ' दंड-भेद
तेरे आगे बेकार हुआ,
जप, तप, व्रत, संयम, साधन का
असफल सारा व्यापार हुआ,
तू दूर न मुझसे भाग सकी,
मैं दूर न तुझसे भाग सका,
अनिवारिणि, करने को अंतिम
निश्चय, ले मैं तैयार हुआ-
अब शांति, अशांति, मरण, जीवन
या इनसे भी कुछ भिन्न अगर,
सब तेरे विषमय चुंबन में,
सब तेरे मधुमय दंशन में!
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!
मयूरी - Harivansh Rai Bachchan
मयूरी,नाच, मगन-मन नाच!
गगन में सावन घन छाए,
न क्यों सुधि साजन की आए;
मयूरी, आँगन-आँगन नाच!
मयूरी,
नाच, मगन-मन नाच!
धरणी पर छाई हरियाली,
सजी कलि-कुसुमों से डाली;
मयूरी, मधुवन-मधुवन नाच!
मयूरी,
नाच, मगन-मन नाच!
समीरण सौरभ सरसाता,
घुमड़ घन मधुकण बरसाता;
मयूरी, नाच मदिर-मन नाच!
मयूरी,
नाच, मगन-मन नाच!
निछावर इंद्रधनुष तुझ पर,
निछावर, प्रकृति-पुरुष तुझ पर,
मयूरी, उन्मन-उन्मन नाच!
मयूरी, छूम-छनाछन नाच!
मयूरी, नाच, मगन-मन नाच!
दूसरा रंग - Harivansh Rai Bachchan
अभावों की रागिनी - Harivansh Rai Bachchan
कौन गाता है कि सोईपीर जागी जा रही है!
हास लहरों का सतह को
छोड़ तह में सो गया है,
गान विहगों का उतर तरु-
पल्लवों में खो गया है,
छिप गई है जा क्षितिज पर
वायु चिर चंचल दिवस की,
बन्द घर-घर में शहर का
शोर सारा हो गया है,
पहूँच नीड़ों में गए
पिछड़े हुए दिग्भ्रान्त खग भी,
किन्तु ध्वनि किसकी गगन में
अब तलक मण्डरा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
चीर किसके कण्ठ को यह
उठ रही आवाज़ ऊपर,
दर न दीवारें जिसे हैं
रोक सकतीं, छत न छप्पर,
जो बिलमती है नहीं नभ-
चुम्बिनी अट्टालिका में,
हैं लुभा सकते न जिसको
व्योम के गुम्बद मनोहर,
जो अटकती है नहीं
आकाश-भेदी घनहरों में,
लौट बस जिसकी प्रतिध्वनि
तारकों से आ रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
बोल, ऐ आवाज़, तू किस
ओर जाना चाहती है,
दर्द तू अपना बता
किसको जताना चाहती है,
कौन तेरा खो गया है
इस अंधेरी यामिनी में,
तू जिसे फिर से निकट
अपने बुलाना चाहती है,
खोजती फिरती किसे तू
इस तरह पागल, विकल हो,
चाह किसकी है तुझे जो
इस तरह तड़पा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
बोल, क्या तू थक गई है
विश्व को विनती सुनाते,
बोल, क्या तू थक गई है
विश्व से आशा लगाते,
क्या सही अपनी उपेक्षा
अब नहीं जाती जगत से,
बोल क्या ऊबी परीक्षा
धैर्य की अपनी कराते,
जो कि खो विश्वास पूरा
विश्व की संवेदना में,
स्वर्ग को अपनी व्यथाएँ
आज तू बतला रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
अनसुनी आबाज़ जो
संसार में होती रही है,
स्वर्ग में भी साख अपना
वह सदा खोती रही है,
स्वर्ग तो कुछ भी नहीं है
छोड़कर छाया जगत की,
स्वर्ग सपने देखती दुनिया
सदा सोती रही है,
पर किसी असहाय मन के
बीच बाकी एक आशा
एक बाकी आसरे का
गीत गाती जा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
पर अभावों की अरी जो
रागिनी, तू कब अकेली,
तान मेरे भी हृदय की,
ले, बनी तेरी सहेली,
हो रहे, होंगे ध्वनित
कितने हदय यों साथ तेरे,
तू बुझाती, बुझती जाती
युगों से यह पहेली-
"एक ऐसा गीत गाया
जो सदा जाता अकेले,
एक ऐसा गीत जिसको
सृष्टि सारी गा रही है;"
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
अन्धेरे का दीपक - Harivansh Rai Bachchan
है अन्धेरी रात परदीवा जलाना कब मना है?
कल्पना के हाथ से कम-
नीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमें
वितानो को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से
था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों
से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर
ईंट, पत्थर, कंकडों को,
एक अपनी शांति की
कुटिया बनाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
बादलों के अश्रु से धोया
गया नभ-नील नीलम,
का बनाया था गया
मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम ऊषा की नवेली
लालिमा-सी लाल मदिरा,
थी उसी में चमचमाती
नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा हथेली
हाथ की दोनों मिला कर,
एक निर्मल स्रोत से
तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
क्या घड़ी थी एक भी
चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी
पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती,
बात से मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन
बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई
उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता की समय पर
मुस्कुराना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
हाय, वे उन्माद के झोंके
कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें
गान का वरदान मांगा
एक अंतर से ध्वनित हों
दूसरे में जो निरन्तर,
भर दिया अंबर अवनि को
मत्तता के गीत गा-गा,
अंत उनका हो गया तो
मन बहलाने के लिये ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई
गुनगुनाना कब मना है?
है अन्धेरी रात, पर
दीवा जलाना कब मना है?
हाय, वे साथी की चुम्बक-
लौह-से जो पास आए,
पास क्या आए, कि हृदय के
बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई
तार वीणा के मिलाकर,
एक मीठा और प्यारा
ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोच कर ये
लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई
लौ लगाना कब मना है?
है अन्धेरी रात, पर
दीवा जलाना कब मना है?
क्या हवाएँ थी कि उजड़ा
प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा
शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के
साथ चलता ज़ोर किसका?
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि,
तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं
प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को
फिर बसाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है?
यात्रा और यात्री - Harivansh Rai Bachchan
साँस चलती है तुझेचलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता,
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता,
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता,
शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है;
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर!
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था,
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था,
घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा,
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था,
पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते,
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते,
शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए,
किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते,
और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना,
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना,
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना,
एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है;
यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई,
साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है
सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है,
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Harivansh Rai Bachchan) #icon=(link) #color=(#2339bd)