आरती और अंगारे - हरिवंशराय बच्चन Aarti Aur Angaare -Harivansh Rai Bachchan

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हरिवंशराय बच्चन आरती और अंगारे
Harivansh Rai Bachchan Aarti Aur Angaare 

ओ, उज्‍जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन - Harivansh Rai Bachchan

ओ, उज्‍जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन !
तुम विक्रम नवरत्‍नों में थे,
यह इतिहास पुराना,
पर अपने सच्‍चे राजा को
अब जग ने पहचाना,
तुम थे वह आदित्‍य, नवग्रह
जिसके देते थे फेरे,
तुमसे लज्जित शत विक्रम के सिंहासन ।
ओ, उज्‍जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन !

तुम किस जादू के बिरवे
से वह लड़की काटी,
छूकर जिको गुण-स्‍वभाव तज
काल, नियम, परिपाटी,

बोली प्रकृति, जगे मृत-मूर्च्छित
रघु-पुरु वंश पुरातन,
गंधर्व, अप्‍सरा, यक्ष, यक्षिणी, सुरगण ।
ओ, उज्‍जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन !

सूत्रधार, हे चिर उदार,
दे सबके मुख में भाषा,
तुमने कहा, कहो जब अपने
सुख, दुख,संशय, आशा;

पर अवनी से, अंतरिक्ष से,
अम्‍बर, अमरपुरी से
सब लगे तुम्‍हारा ही करने अभिनंदन ।
ओ, उज्‍जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन !

बहु वरदामयी वाणी के
कृपस-पात्र बहुतेरे,
देख तुम्‍हें ही, पर, वह बोली,
'कालीदास तुम मेरे';

दिया किसी को ध्‍यान, धैर्य,
करुणा, ममता, आश्‍वासन;
किया तुम्‍ही को उसने अपना
यौवन पूर्ण समर्पण;

तुम कवियों की ईर्ष्‍या के विषय चिरंतन ।
ओ, उज्‍जयिनी के वाक्-जयी जगवंदन !
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खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्‍हारा - Harivansh Rai Bachchan

खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्‍हारा ।
पर्वत पर पद रखने वाला
मैं अपने क़द का अभिमानी,
मगर तुम्‍हारी कृति के आगे
मैं ठिगना, बौना, बे-बानी

बुत बनकर निस्‍तेज खड़ा हूँ ।
अनुगुंजिन हर एक दिशा से,
खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्‍हारा ।

धधक रही थी कौन तुम्‍हारी
चौड़ी छाती में वह ज्‍वाला,
जिससे ठोस-कड़े पत्‍थर को
मोम गला तुमने कर डाला,

और दिए कर आकार, किया श्रृंगार,
नीति जिनपर चुप साधे,
किंतु बोलता खुलकर जिनसे शक्‍त‍ि-सुरुचमय प्राण तुम्‍हारा ।
खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्‍हारा ।

एक लपट उस ज्‍वाला की जो
मेरे अंतर में उठ पाती,
तो मेरे भी दग्‍ध गिरा कुछ
अंगारों के गीत सुनाती,

जिनसे ठंडे हो बैठे हो दिल
गर्माते, गलते, अपने को
कब कर पाऊँगा अधिकरी, पाने का, वरदान तुम्‍हारा ।
खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्‍हारा ।

मैं जीवित हूँ मेरे अंदर
जीवन की उद्दम पिपासा,
जड़ मुर्दों के हेतु नहीं है
मेरे मन में मोह जरा-सा,

पर उस युग में होता जिसमें
ली तुमने छेनी-टाँकी तो
एक माँगता वर विधि से, कर दे मुझको पाषाण तुम्‍हारा ।
खजुराहो के निडर कलाधर, अमर शिला में गान तुम्‍हारा ।

याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी - Harivansh Rai Bachchan

याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!
तुम भजन गाते, अँधेरे को भागाते
रासते से थे गुज़रते,
औ' तुम्‍हारे एकतारे या संरंगी
के मधुर सुर थे उतरते
कान में, फिर प्राण में, फिर व्‍यापते थे
देह की अनगिन शिरा में;
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!

औ' सरंगी-साधु से मैं पूछता था,
क्‍या इसे तुम हो खिलाते?
'ई हमार करेज खाथै, मोर बचवा,'
खाँसकर वे बताते,
और मैं मारे हँसी के लोटता था,
सोचकर उठता सिहर अब,
तब न थी संगीत-कविता से, कला से, प्रीति से मेरी चिन्‍हारी।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!

बैठ जाते औ' सुनाते गीत गोपी-
चंद, राजा भरथरी का,
राम का वनवास, ब्रज का रास लीला,
व्‍याह शंकर-शंकरी का,
औ' तुम्‍हारी धुन पकड़कर कल्‍पना के
लोक में मैं घूमता था,
सोचता था, मैं बड़ा होकर बनूँगा बस इसी पथ का पुजारी।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!

खोल झोली एक चुटकी दाल-आटा
दान में तुमने लिया था,
क्‍या तुम्‍हें मालूम जो वरदान
गान का मुझको दिया था;
लय तुम्‍हारी, स्‍वर तुम्‍हारे, शब्‍द मेरी
पंक्‍त‍ि में गूँजा किया हैं,
और खाली हो चुकीं, सड़-गल चुकीं वे झोलियाँ कब तुम्‍हारी।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!

श्‍यामा रानी थी पड़ी रोग की शय्या पर - Harivansh Rai Bachchan

श्‍यामा रानी थी पड़ी रोग की शय्या पर,
दो सौ सोलह दिन कठिन कष्‍ट में थे बीते,
संघर्ष मौत से बचने और बचाने का
था छिड़ा हुआ, या हम जीतें या वह जीते।

सहसा मुझको यह लगा, हार उसने मानी,
तन डाल दिया ढीला, आँखों से अश्रु बहे,
बोली, 'मुझपर कोई ऐसी रचना करना,
जिससे दुनिया के अंदर मेरी याद रहे।'

मैं चौक पड़ा, ये शब्‍द इस तरह के थे जो
बैठते न थे उसके चरित्र के ढाँचे में,
वह बनी हुई थी और तरह की मिट्टी से,
वह ढली हुई थी और तरह की साँचे में,

जिसमें दुनिया के प्रति अनंत आकर्षण था,
जिसमें जीवन के प्रति असीम पिपासा थी,
जिसमें अपनी लघुता की वह व्‍यापकता थी,
यश, नाम, याद की रंच नहीं अभिलाषा थी।

क्‍या निकट मृत्‍यु के आ मनुष्‍य बदला करता
चट मैंने उनकी आँखों में आँखें डालीं,
वे झुठ नहीं पल भर पलकों में छिपा सकीं,
वे बोल उठी सच, थीं इतनी भोली-भाली।

'जब मैं न रहूँगी तब घड़ि‍यों का सूनापन,
खालीपन तुम्‍हें डराएगा, खा जाएगा,
मेरा कहना करने में तुम लग जाओगे,
तो वह विधुरा घड़ि‍यों का मन बहलाएगा।'

मैं बहुत दिनों से ऐसा सुनता आता हूँ,
जो ताज आगरा के जमुना के तट पर है,
मुमताज़महल के तन-मन के मोहकता के
प्रति शाहजहाँका प्रीति-प्रतीक मनोहर है।

मुमताज़ आख़ि‍री साँसों से यह बोली थी,
'मेरी समाधी पर ऐसी रौज़ा बनवाना,
जैसा न कहीं दुनिया में हो, जैसा न कभी
संभव हो पाए फिर दुनिया में बन पाना।'

मुमताज़महल जब चली गई तब शाहजहाँ
की सूनी, खाली, काली, कतार घड़ियों को,
यह ताजमहल ही बहलाता था, सहलाता था,
जोड़ा करता था सुधि की टूटी लड़ियों को।

मुमताज़महल भी नहीं नाम की भूखी थी,
आख़‍िरी नज़र से शाहजहाँ की ओर देख,
वह समझ गई थी जो रहस्‍य संकेतों से
बतलाती थी उसके माथे पर पड़ी रेख।

वह काँप उठी, अपनी अंतिम इच्‍छा कहकर
वह विदा हुई औ' शाहजहाँ का ध्‍यान लगा,
उन अशुभ इरादों से हटकर उन सपनों में
जो अपने अस्‍फुठ शब्‍दों से वह गई जगा।

यह ताज शाह का प्रेम-प्रतीक नहीं इतना
जितना मुमताजमहल के कोमल भावों का,
जो जीकर शीतल सीकर बनता तपों पर,
जो मरकर सुखकर मरहम बनता घावों का!

अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से - Harivansh Rai Bachchan

अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
पाप हो या पुण्‍य हो, मैंने किया है
आज तक कुछ भी नहींआधे हृदय से,
औ' न आधी हार से मानी पराजय
औ' न की तसकीन ही आधी विजय से;
आज मैं संपूर्ण अपने को उठाकर
अवतरित ध्‍वनि-शब्‍द में करने चला हूँ,
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।

और है क्‍या खास मुझमें जो कि अपने
आपको साकार करना चाहता हूँ,
ख़ास यह है, सब तरह की ख़ासियत से
आज मैं इन्‍कार करना चाहता हूँ;
हूँ न सोना, हूँ न चाँदी, हूँ न मूँगा,
हूँ न माणिक, हूँ न मोती, हूँ न हीरा,
किंतु मैं आह्वान करने जा रहा हूँ देवता का एक मिट्टी के डले से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।

और मेरे देवता भी वे नहीं हैं
जो कि ऊँचे स्‍वर्ग में हैं वास करते,
और जो अपने महत्‍ता छोड़, सत्‍ता
में किसी का भी नहीं विश्‍वास करते;
देवता मेरे वही हैं जो कि जीवन
में पड़े संघर्ष करते, गीत गाते,
मुसकराते और जो छाती बढ़ाते एक होने के लिए हर दिलजले से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।

छप चुके मेरी किताबें पूरबी औ'
पच्छिमी-दोनों तरह के अक्षरों में,
औ' सुने भी जा चुके हैं भाव मेरे
देश औ' परदेश-दोनों के स्‍वरों में,
पर खुशी से नाचने का पाँव मेरे
उस समय तक हैं नहीं तैयार जबतक,
गीत अपना मैं नहीं सुनता किसी गंगोजमन के तीर फिरते बावलों से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।

गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है - Harivansh Rai Bachchan

गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है।
सख्‍़त पंजा, नस-कसी चौड़ी कलाई
और बल्‍लेदार बाहें,
और आँखें लाल चिनगारी सरीख़ी,
चुस्‍त औ' सीखी निगाहें,
हाथ में घन और दो लोहे निहाई
पर धरे तो, देखता क्‍या;
गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है।

भीग उठता है, पसीने से नहाता
एक से जो जूझता है,
ज़ोम में तुझको जवानी के न जाने
ख़ब्‍त क्‍या-क्‍या सूझता है,
या किसी नभ-देवता ने ध्‍येय से कुछ
फेर दी यों बु‍द्धि तेरी,
कुछ बड़ा तुझको बनना है कि तेरा इम्‍तहाँ होता कड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है।

एक गज़ छाती मगर सौ गज़ बराबर
हौसला उसमें, सही है;
कान करनी चाहिए जो कुछ तजुर्बे-
कार लोगों ने कही है;
स्‍वप्‍न से लड़स्‍वप्‍न की ही शक्‍ल में हैं
लौह के टुकड़े बदलते,
लौह-सा सा वह ठोस बनकर है निकलता जो कि लोहे से लड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है।

धन-हथौड़े और तौले हाथ की दे
चोट अब तलवार गढ़ तू,
और है किस चीज़ की तुझसे भविष्‍यत
माँग करता, आज पढ़ तू,
औ' अमित संतानको अपनी थमा जा
धारवाली यह धरोहर,
वह अजित संसार में है श्‍ब्‍द का खर खड्ग लेकर जो खड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा लोहा पीटने को वक्‍त बहुतेरा पड़ा है।

पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ - Harivansh Rai Bachchan

पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?

जब मुझे इंसान का चोला मिला है,
भार को स्‍वीकार करनर शान मेरी,
रीढ़ मेरी आज भी सीधी तनी है,
सख्‍़त पिंडी औ' कसी है रान मेरी,
किंतु दिल कोमल मिला है, क्‍या करूँ मैं,
देख छाया कशमकश में पड़ गया हूँ, सोचता हूँ,
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?

कौन-सी ज्‍वाला हृदय में जल रही है
जो हरी पूर्वा-दरी मन मोहती है,
किस उपेक्षा को भुलने के लिए हर
फून-कलिका बाट मेरी जोहती है,
किसलयों पर सोहती हैं किसलिए बूँदें
कि अपने आँसुओं को देखकर मैं मुसकराऊँ,
क्‍या लताएँ इसलिए ही झुक गई हैं,
हाथ इनका थमकर मैं बैठ जाऊँ?
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?

किंतु कैसे भूल जाऊँ सामने यह
भार बन साकार देती है चुनौती,
जिस तरह का और जिस तादाद में है,
मैं समझता हूँ इसे अपनी बपौती।
फ़र्ज मेरा, ले इसे चलना, जहाँ दम
टूट जाए, छोड़ना मज़बूत कंधों, पंजरों पर;
जो मुझे पुरु़षत्‍व पुरखों से मिला है,
सौ मुझे धिक्‍कार, जो उसको लजाऊँ।
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?

वे मुझे बीमार लगते हैं निकुंजों
जो पड़े राग अपना मिनमिनाते,
गीत गाने के लिए जो जी रहे हैं-
काश जीने के लिए वे गीत गाते-
और वे पशु, जो कि परबस मौन रहकर
बोझ ढोते, नित्‍य मेरे कंठ में स्‍वर, भार सिरपर
हो कि जिससे गीत में मैं भार-हल्‍का,
भार से संगीत को भारी बनाऊँ।
पीठ पर धर बोझ, अपनी राह नापूँ,
या किसी कालि-कुंज में रम गीत गाऊँ?

इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी - Harivansh Rai Bachchan

इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
पूर्णिमा का चाँद अंबर पर चढ़ा है,
तारकावली खो गई है,
चाँदनी में वह सफ़ेदी है कि जैसे
धूप ठंडी हो गई है;
नेत्र-निद्रा में मिलन की वीथियों में
चाहिए कुछ-कुछ अँधेरा;
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।

नीड़ अपने छोड़ बैठे डाल पर कुछ
और मँडलाते हुए कुछ,
पंख फड़काते हुए कुछ, चहचहाते,
बोल दुहराते हुए कुछ,
'चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में,
गीत किसका है? सुनाओ!
मौन इस मधुयामिनी में हो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।

इस तरह की रात अंबर कि अजिर में
रोज़ तो आती नहीं है,
चाँद के ऊपर जवानी इस तरह की
रोज़ तो छाती नहीं है,
हम कभी होंगे अलग औ' साथ होर
भी कभी, होगी तबीयत,
यह विरल अवसर विसुधि में खो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।

ये बिचारे तो समझते हैं कि जैसे
यह सवेरा हो गया है,
प्रकृति के नियमावली में क्‍या अचानक
हेर-फेरा हो गया है;
और जो हम सब समझते हैं कहाँ इस
ज्‍योति का जादू समझते,
मुक्‍त जिसके बंधनों से हो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।

आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने - Harivansh Rai Bachchan

आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
डाल प्रलोभन में अपना मन
सहल फिसल नीचे को जाना,
कुछ हिम्‍मत का काम समझते
पाँव पतन की ओर बढ़ाना;
झुके वहीं जिस थल झुकने में
ऊपर को उठना पड़ता है;
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।

काँटों से जो डरने वाले
मत कलियों से जो नेह लगाएँ,
घाव नहीं है जिन हाथों में,
उनमें किस दिन फूल सुहाए,
नंगी तलवारों की छाया
में सुंदरता विहरण करती,
और किसी ने पाई हो पर कभी पाई नहीं है भय ने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।

बिजली से अनुराग जिसे हो
उठकर आसमान को नापे,
आग चले आलिंगन करने,
तब क्‍या भाप-धुएँ से काँपे,
साफ़, उजाले वाले, रक्षित
पंथ मरों के कंदर के हैं;
जिन पर ख़तरे-जान नहीं था, छोड़ कभी दीं राहें मैंने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।

बूँद पड़ी वर्षा की चूहे
और छछूँदर बिल में भागे,
देख नहीं पाते वे कुछ भी
जड़-पामर प्राणों के आगे;
घन से होर लगाने को तन-
मोह छोड़ निर्मम अंबर में
वज्र-प्रहार सहन करते हैं वैनतेय के पैने डैने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।

साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि - Harivansh Rai Bachchan

साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,
क्‍या हमारे प्‍यार का परिणाम होता!

जब कहा है कि मैंने यह शुक्र जो
वेला विदा की पास आई,
कुछ तअज्‍जुब, कुछ उदासी, कुछ शरारत
से भरी तुम मुसकराई,
वक्‍त के डैने चले, तुम हो वहाँ, मैं
हूँ यहाँ, पर देखता हूँ,
साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,
क्‍या हमारे प्‍यार का निर्माण होता!

स्‍वप्‍न का वातावरण हर चीज़ के
चारों तरु़ मानव बनाता,
लाख कविता से, कला से पुष्‍ट करता,
अंत में वह टूट जाता,
सत्‍य की हर शक्‍ल खुलकर आँख के
अंदर निराशा झोंकती है,
और वह धुलती नहीं है ज्ञान-जल से,
दर्शनों से, मरमिटे इंसान धोता।
साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,
क्‍या हमारे प्‍यार का परिणाम होता!

शीर्ष आसान से रुधीर की चाल रोकी,
पर समय की गति न थमती।
औ' ख़‍िज़ाबोरंग-रोग़न पर जवानी
है न ज्‍यादा दिन बिलमती,
सिद्ध यह करते हुए हुए अगिनती
द्वार खोलो और देखो,
और इस दयनीय-मुख के काफ़ले में
जो न होता सुबह को, वह शाम होता।
साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,
क्‍या हमारे प्‍यार का परिणाम होता!

एक दिन है, जब तुम्‍हारे कुंतलों से
नागिनें लहरा रही हैं,
और मेरे तनतनाई बीन से ध्‍वनि-
राग की धारा बही है,
और तुम जो बोलती हो, बोलता मैं,
गीत उसपर शीश धुनता,
और इस संगीत-प्रीति समुद्र-जल में
काल जैसा छिप गया है मार गोता।
साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,
क्‍या हमारे प्‍यार का परिणाम होता!

और यह तस्‍वीर कैसी,नागिने सब
केंचुलें का रूप धरतीं,
औ' हमें जब घेरता है मौन उसको
सिर्फ खाँसी भंग करती,
औ' घरेलू कर्ण-कटु झगड़े-बखेड़ों
को पड़ोसी सुन रहे हैं,
और बेटों ने नहीं है खर्च भेजा,
और हमको मुँह चिढ़ाता ढभ्‍ठ पोता।
साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,
क्‍या हमारे प्‍यार का परिणाम होता!

बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई - Harivansh Rai Bachchan

बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा
फैला-फैला नीला-नीला,
बर्फ़ जली-सी, पीली-पीली दूब हरी फिर,
जिपर खिलता फूल फबीला
तरु की निवारण डालों पर मूँगा, पन्‍ना
औ' दखिनहटे का झकझोरा,
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

माना, गाना गानेवाली चि‍ड़ियाँ आईं,
सुन पड़ती कोकिल की बोली,
चली गई थी गर्म प्रदेशों में कुछ दिन को
जो, लौटी हंसों की टोली,
सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
किंतु न दुल्‍हे के सिर जब तक
मंजरियों का मौर-मुकुट कोई पहनाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

डार-पात सब पीत पुष्‍पमय कर लेता
अमलतास को कौन छिपाए,
सेमल और पलाशों ने सिंदूर-पताके
नहीं गगन में क्‍यों फहराए?
छोड़ नगर की सँकड़ी गलियाँ, घर-दर, बाहर
आया, पर फूली सरसों से
मीलों लंबे खेत नहीं दिखते पयराए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

प्रात: से संध्‍या तक पशुवत् मेहनत करके
चूर-चूर हो जाने पर भी,
एक बार भी तीन सैकड़े पैंसठ दिन में
पूरा पेट न खाने पर भी
मौसम की मदमस्‍त हवा पी जो हो उठते
हैं मतवाले, पागल, उनके
फाग-राग ने रातों रक्‍खा नहीं जगाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं - Harivansh Rai Bachchan

अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव मुझपर गहरा,
है नियति-प्रकृति की ऋतुयों में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

तूफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,
झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लिए आया-
ऐसी निकली हो धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,
मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,
औ' फिर जीवन की साँसें ले
उसकी म्रियामाण-जली काया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

रोमांच हुआ अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू के लकड़ी से
कोई दोनों को संग छुए,
सिंचित-सा कंठ पपिहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्‍वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।

मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है - Harivansh Rai Bachchan

मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
जिसने अलियों के अधरों में
रस रक्‍खा पहले शरमाए,
जिसने अलियों के पंखों में
प्‍यास भरी वह सिर लटकाए,
आँख करे वह नीची जिसने
यौवन का उन्‍माद उभारा,
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।

मन में सावन-भादो बरसे,
जीभ करे, पर, पानी-पानी!
चलती फिरती है दुनिया में
बहुधा ऐसी बेईमानी,
पूर्वज मेरे, किंतु, हृदय की
सच्‍चाई पर मिटने आए,
मधुवन भोगे, मरु उपदेशे मेरे वंश रिवाज नहीं है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।

चला सफर पर जब तब मैंने
पथ पूछा अपने अनुभव से
अपनी एक भूल से सीखा
ज्‍यादा, औरों के सच सौ से
मैं बोला जो मेरी नाड़ी
में डोला जो रग में घूमा,
मेरी वाणी आज किताबी नक्‍शों की मोहताज नही है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।

अधरामृत की उस तह तक मैं
पहुँचा विष को भी मैं चख आया,
और गया सुख को पिछुआता
पीर जहाँ वह बनकर छाया,
मृत्‍यु गोद में जीवन अपनी
अंतिम सीमा पर लेटा था,
राग जहाँ पर तीव्र अधिकतम है उसमें आवाज़ नहीं है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।

माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्‍थर, पूजा - Harivansh Rai Bachchan

माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्‍थर, पूजा,
अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।

दर्पन से अपनी चापलूसियाँ सुनने की
सबको होती है, मुझको भी कमज़ोरी थी,
लेकिन तब मेरी कच्‍ची गदहपचीसी थी,
तन कोरा था, मन भोला था, मति भोरी थी,
है धन्‍यवाद सौ बार विधाता जिसने
दुर्बलता मेरे साथ लगा दी एक और;
माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्‍थर, पूजा,
अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।

धरती से लेकर जिसपर तिनके की चादर,
अंबर तक, जिसके मस्‍तक पर मणि-पाँती है,
जो है, सब में मेरी दयमारी आँखों को,
जय करने वाली कुछ बातें मिल जाती हैं,
खुलकर, छिपकर जो कुछ मेरे आगे पड़ता
मेरे मन का कुछ हिस्‍सा लेकर जाता है,
इस लाचारी से लुटने और उजड़नेवाली
हस्‍ती पर मुझको लम्‍हा नाज़ रहा।
माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्‍थर, पूजा,
अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।

यह पूजा की भावना प्रबल है मानव में,
इसका कोई आधा बनाना पड़ता है,
जो मूर्ति और की नहीं बिठाता है अंदर
उसको खुद अपना बुत बिठलाना पड़ता है;
यह सत्‍य, कल्‍पतरु के अभाव में रेंड़ सींच
मैंने अपने मन का उद्गगार निकाला है;
लेकिन एकाकी से एकाकी घड़ियों में
मैं कभी नहीं बनकर अपना मोहताज रहा।
माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्‍थर, पूजा,
अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।

अब इतने ईंटें, कंकड़, पत्‍थर बैठ चुके,
वह दर्पण टूटा, फूटा, चकनाचूर हुआ,
लेकिन मुझको इसका कोई पछताव नहीं
जो उसके प्रति संसार सदा ही क्रूर हुआ;
कुछ चीज़ें खंडित होकर साबित होती हैं;
जो चीज़ें मुझको साबित साति करती है,
उनके ही गुण तो गाता मेरा कंठ रहा,
उनकी ही धून पर बजता मेरा साज़ रहा।
माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्‍थर, पूजा,
अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।

दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले - Harivansh Rai Bachchan

दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।
लहराया है तो दिल तो ललका
जा मधुबन में, मैदानों में,
बहुत बड़े वरदान छिपे हैं
तान, तरानों, मुसकानों में;
घबराया है जी तो मुड़ जा
सूने मरु, नीरव घाटी में,
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।

किसके सिर का बोझा कम है
जो औरों का बोझ बँटाए,
होंठों की सतही शब्‍दों से
दो तिनके भी कब हट पाए;
लाख जीभ में एक हृदय की
गहराई को छू पाती है;
कटती है हर एक मुसीबत-एक तरह बस-झेले झेले।
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।

छुटकारा तुमने पाया है,
पूछूँ तो क्‍या क़ीमत देकर,
क़र्ज़ चुका आए तुम अपना,
लेकिन मुझको ज्ञात कि लेकर
दया किसी की, कृपा किसी की,
भीख किसी की, दान किसी का;
तुमसे सौ दर्जन अच्‍छे जो अपने बंधन से खेले।
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।

ज़ंजीरों की झनकारों से
हैं वीणा के तार लजाते,
जीवन के गंभीर स्‍वरों को
केवल भारी हैं सुन पाने,
गान उन्‍हीं का मान जिन्‍हें है
मानव के दुख-दर्द-दहन का,
गीत वहीं बाँटेगा सबको, जो दुनिया की पीर सकेले।
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।

मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया - Harivansh Rai Bachchan

मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया।
वह पट ले आई, बोली, देखो एक तरु़,
जीवन-उषा की लाल किरण, बहता पानी,
उगता सरोवर, खर चोंच दबा उड़ता पंछी,
छूता अंबर को धरती का अंचल धानी;
दूसरी तरफ़ है मृत्‍यु-मरुस्‍थल की संध्‍या
में राख धूएँ में धँसा कंकाल पड़ा।
मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया।

ऊषा की कीरणों से कंचन की वृष्टि हुई,
बहते पानी में मदिरा की लहरें आई,
उगते तरुवर की छाया में प्रमी लेटे,
विहगावलि ने नभ में मुखरित की शहनाई,
अंबर धरती के ऊपर बन आशीष झुका
मानव ने अपने सुख-दु:ख में, संघर्षों में;
अपनी मिट्टी की काया पर अभिमान किया।
मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया।

मैं कभी, कहीं पर सफ़र ख्‍़त्‍म कर देने को
तैयार सदा था, इसमें भी थी क्‍या मुश्किल;
चलना ही जिका काम रहा हो दुनिया में हर एक क़दम के ऊपर है उसकी मंज़िल;
जो कल मर काम उठाता है वह पछताए,
कल अगर नहीं फिर उसकी क़िस्‍मत में आता;
मैंने कल पर कब आज भला बलिदान किया।
मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया।

कालो, काले केशों में काला कमल सजा,
काली सारी पहने चुपके-चुपके आई,
मैं उज्‍ज्‍वल-मुख, उजले वस्‍त्रों में बैठा था
सुस्‍ताने को, पथ पर थी उजियाली छाई,
'तुम कौन? मौत? मैं जीने की ही जोग-जुगत
में लगा रहा।' बोली, 'मत घबरा, स्‍वागत का
मेरे, तूने सबसे अच्‍छा सामान किया।'
मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया।

मैंने ऐसा कुछ कवियों से सुन रक्‍खा था - Harivansh Rai Bachchan

मैंने ऐसा कुछ कवियों से सुन रक्‍खा था
जब घटनाएँ छाती के ऊपर भार बनें,
जब साँस न लेने दे दिल को आज़ादी से
टूटी आशाओं के खंडहर, टूटे सपने,
तब अपने मन को बेचैनी की छंदों में
संचित कर कोई गए और सुनाए तो
वह मुक्‍त गगन में उड़ने का-सा सुख पाता।
लेकिन मेरा तो भार बना ज्‍यों का त्‍यों है,
ज्‍यों का त्‍यों बंधन है, ज्‍यों की त्‍यों बाधाएँ।
मैंने गीतों को रचकर के भी देख लिया।

'वे काहिल है जो आसमान के परदे पर
अपने मन की तस्‍वीर बनाया करते हैं,
कर्मठ उनके अंदर जीवन के साँसें भर
उनको नभ से धरती पर लाया करते हैं।'
आकाशी गंगा से गन्‍ना सींचा जाता,
अंबर का तारा दीपक बनकर जलता है,
जिसके उजियारी बैठ हिसाब किया जाता।
उसके जल में अब नहीं ख्‍याल नहीं बैठे आते,
उसके दृग से अब झरती रस की बूँद नहीं,
मैंने सपनों को सच करके भी देख लिया।

यह माना मैंने खुदा नहीं मिल सकता है
लंदन की धन-जोबन-गर्विली गलियों में,
यह माना उसका ख्‍याल नहीं आ सकता है
पेरिस की रसमय रातों की रँरलियों में,
जो शायर को है शानेख़ुदा उसमें तुमको
शैतानी गोरखधंधा दिखलाई देता,
पर शेख, भुलावा दो जो भोलें हैं।
तुमने कुछ ऐसा गोलमाल कर रक्‍खा था,
खुद अपने घर में नहीं खुदा का राज मिला,
मैंने काबे का हज़ करके भी देख लिया।

रिंदों ने मुझसे कहा कि मदिरा पान करो,
ग़म गलत इसी से होगा, मैंने मान लिया,
मैं प्‍याले में डूबा, प्‍याला मुझमें डूबा,
मित्रों ने मेरे मनसुबों को मान दिया।
बन्‍दों ने मुझसे कहा कि यह कमजो़री है,
इसको छोड़ो, अपनी इच्‍छा का बल देखो,
तोलो; मैंने उनका कहना भी कान किया।
मैं वहीं, वहीं पर ग़म है, वहीं पर दुर्बलताएँ हैं,
मैंने मदिरा को पी करके भी देख लिया,
मैंने मदिरा को तज करके भी देख लिया।
मैंने काबे का हज़ करके भी देख लिया।
मैंने सपनों को सच करके भी देख लिया।
मैंने गीतों को रच करके भी देख लिया।

रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा - Harivansh Rai Bachchan

रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा-
द्वार कोई खटखटाएगा!

दिवस का अब मुझ पर नहीं अब
कर्ज़ बाकी रह गया है,
जगत के प्रति भी न कोई
फर्ज़ बाक़ी रह गया है,
जा चुका जाना जहाँ था,
आ चुके आना जिन्‍हें था,
इस उदासी के अँधेरे में बता, मन,
कौन आकर मुसकराएगा?
रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा-
द्वार कोई खटखटाएगा!

'वह की जो अंदर स्‍वयं ही
आ सकेगा खोल ताला,
वह, भरेगा हास जिसका
दूर कानों में उजला,
वह कि जो इस ज़ि‍न्‍दगी की
चीख़ और पुकार को भी
एक रसमय रागिनी का रूप दे दे
एक ऐसा गीत गाएगा।'
रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा-
द्वार कोई खटखटाएगा!

मौन पर मैं ध्‍यान इतना
दे चुका हूँ बोलता-सा
पुतलियाँ दो खोलता-सा,
लाल, इतना घूरता मैं
एकटक उसको रहा हूँ,
पर कहाँ स्रगी है वह, ज्‍योति है वह
जो कि अपने साथ लाएगा?
रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा-
द्वार कोई खटखटाएगा!

और बारंबार मैं बलि-
हार उसपर जो न आया,
औ' न आने का समय-दिन
ही कभी जिसने बताया,
और आधी ज़िंदगी भी
कट गई जिसको परखते,
किंतु उठ पाता नहीं विश्‍वास मन से-
वह कभी चुपचाप आएगा।
रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा-
द्वार कोई खटखटाएगा!

यह जीवन औ' संसार अधूरा इतना है - Harivansh Rai Bachchan

यह जीवन औ' संसार अधूरा इतना है।
कुछ बे तोड़े कुछ जोड़ नहीं सकता कोई।

तुम जिस लतिका पर फूली हो, क्‍यों लगता है,
तुम उसपर आज पराई हो?
मैं ऐसा अपने-ताने बाने के अंदर
जैसे कोई बलबाई हो।
तुम टूटोगी तो लतिका का दिल टूटेगा,
मैं निकलूँगा तो चादर चिरबत्‍ती होगी।
यह जीवन औ' संसार अधूरा इतना है।
कुछ बे तोड़े कुछ जोड़ नहीं सकता कोई।

पर इष्‍ट जिसे तुमने माना, मैंने माना,
माला उसको पहनानी है,
जिसको खोजा, उसकी पूजा कर लेने में
हो जाती पूर्ण कहानी है;
तुमको लतिका का मोह सताता है, सच है,
आता है मुझको बड़ा रहम इस चादर पर;
निर्माल्‍य देवता का व्रत लेकर
हम दोनों में से तोड़ नहीं सकता कोई।
यह जीवन औ' संसार अधूरा इतना है।
कुछ बे तोड़े कुछ जोड़ नहीं सकता कोई।

हर पूजा कुछ बलिदान सदा माँगा करती,
लतिका का मोह मिटाना है;
हर पूजा कुछ विद्रोह सदा कुछ चाहा करती,
इस चादर को फट जाना है।
माला गूँथी, देवता खड़े हैं, पहनाएँ;
उनके अधरों पर हास, नयन में आँसू हैं।
आरती देवता की मुसकानों की लेकर
यह अर्ध्‍य दृगों को छोड़ नहीं सकता कोई।
यह जीवन औ' संसार अधूरा इतना है।
कुछ बे तोड़े कुछ जोड़ नहीं सकता कोई।

तुमने किसको छोड़ा? सच्‍चाई तो यह है,
कुछ अपनापन ही छूट गया।
मैंने किसको तोड़ा? सच्‍चाई तो यह है,
कुछ भीतर-भीतर टूट गया।
कुछ छोड़ हमें भी पाएँगे, कुछ तोड़ हमें
भी जाएँगे, जब बनने को वे सोचेंगे,
पर हमसे वे छूटेंगे, वे टूटेंगे;
जग-जीवन की गति मोड़ नहीं सकता कोई।
यह जीवन औ' संसार अधूरा इतना है।
कुछ बे तोड़े कुछ जोड़ नहीं सकता कोई।

मैं अभी ज़िन्दा, अभी यह शव-परीक्षा मैं तुम्‍हें करने न दूँगा - Harivansh Rai Bachchan

मैं अभी ज़िन्दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्‍हें करने न दूँगा।

देखता हूँ तुम सफे़द नक़ाब
सिर से पाँव तक डाले हुए हो;
क्‍या कफ़न को ओढ़ने से
मर गए तुम लोग! मतवाले हुए हो?
नश्‍तरों की लौ लगी है,
मेज़ मुर्दों को लेटाने की पड़ी है।
मैं अभी ज़िन्‍दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्‍हें करने न दूँगा।

आँख मेरी आज भी मानव-
नयन की गूढ़तर तह तक उतरती,
आज भी अन्‍याय पर
अंगार बनती; अश्रुधारा में उमड़ती,
जिस जगह इंसान की
इंसानियत लाचार उसको कर गई है।
तुम यह नहीं देखते तो
मैं तुम्‍हारी आँख पर अचरज करूँगा।
मैं अभी ज़िन्‍दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्‍हें करने न दूँगा।

आज भी आवाज़ जो मेरे
कलेजे से, गले से है निकलती,
गूँजती कितने गलों में
और कितने ही दिलों में है मचलती,
मौन एकाकी पलों का
भंग करती, औ' मिलन में एक मन को
दूसरे पर व्‍यत करती,
चुप न होगी, जबकि मैं भी मूक हूँगा।
मैं अभी ज़िन्‍दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्‍हें करने न दूँगा।

आज भी जो साँस मुझमें
चल रही है वह हवा भर ही नहीं है,
है इसी की चाल पर
इतिहास चलता और संस्‍कृति चल रही है;
और क्‍या इतिहास, क्‍या संस्‍कृति
कि जीवन में मनुज विश्‍वास रक्खे;
मैं इसी विश्‍वास को हर
साँस से कहता रहा, कहता रहूँगा।
मैं अभी ज़िन्‍दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्‍हें करने न दूँगा।

काग़ज़ों की भी नकाबें
डालकर इंसानियत कोई छिपाते,
काग़ज़ों के भी कफ़न को
ओढ़ धड़कनें दिल की दबाते;
शव-परीक्षा के लिए
तैयार जो हैं, शव प्रथम वे बन चुके हैं,
किंतु मेरे स्‍वर निरर्थक
हैं, अगर वे हैं न पर्दों को हटाते,
हैं न दिल को खटखटाते,
हैं न मुर्दों को हिलाते औ' जगाते।
मैं अभी मुर्दा नहीं हूँ,
और तुमको भी अभी मरने न दूँगा।
मैं अभी ज़िन्‍दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्‍हें करने न दूँगा।

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Harivansh Rai Bachchan) #icon=(link) #color=(#2339bd)

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