गुलदस्ता भाग 3 Guldasta Part 3

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गुलदस्ता भाग 3 Guldasta Part 3 - Ashok Gaur 'Akela'

आप के लिए नई रचनाये है

 

गुलदस्ता सजाओ तुम

आदमी अब आदमी को भूल बैठा है,
चांद पर चढ़कर उसको पत्थर समझ बैठा है,
वह तुम्हें अपनी नजरों में अच्छा समझ बैठा है ।
इसलिये चांदनी में चमक कम,
धो डालो पृथ्वी के गन्दगी मिल कर सभी,
चाँद के बासिन्दे यहां आने को हैं ।
उनके इमेज को बनाओ तुम ।
सुना है पृथ्वी से इतने धूल उड़ाये हैं हमने ।
वह चांद पर मम चुका है काफी
साथ कुछ उदासी है ।
अब धरती पर कुछ फूल उगाओ तुम !
सुन्दर खुशबू को बसाओ तुम !
अपना वतन किसी से कम नहीं !
चांद को अगवानी में, एक "गुलदस्ता"
सजाओ तुम ।

"गुलदस्ते" की गरिमा रखनी है

गुलदस्ते के संरक्षक का, हमको प्रेम मिला है ।
इसलिये "तिरंगे" से, कुछ हमको सबक मिला है ।
केसरिया रंग का मतलब, जीवन में कुर्वानी ।
हरा रंग है शांति प्रेम का नव-सन्देश लासानी ।
धवल रंग कहता है, उज्जवल कीवि हमारा ।
चक्र "एकता" का प्रतीक है, इस पर हम को चलना ।
खादी के कपड़े का झडा छोटा सा टुकड़ा है।
फिर भी यारो! यह शहीदों का कीर्ति-कफ़न है ।
बापू के आदर्शों का, खद्दर एक चलन है।
रखना इसको पाक-साफ, ऐ वतन के वीर जवानों।
"गुलदस्ते" की गरिमा रखनी है फुल- फूल से बच्चों !

 

 

नया पर्दा चाहिये

देखता आया हूँ सदियों से
सूर्य का तेज बढ़ता जा रहा ।
चांद की चांदनी भी कुछ कम नहीं,
चादनी का प्यार बढ़ता जा रहा ।
फूल अगणित रंग सुन्दर खिल रहे
उड़ रही खुशबू सदा बगिया नई !
खेल भी कितने पुराने आपके !
चल रहे पर्दे नये होते रहे ।
एक तेरा प्यार नित होता नया ।
मैं अकेला" सदा उड़ता रहा
मौसम की बिखरती धुन्ध में पलता रहा ।
क्या तनिक भी याद तुमको है नहीं,
क्यों बुलाया ओ उड़ाया पंख दे ।
मौन होकर देख ली, अब कान्ति करना चाहिये।
विश्व के इतिहास का अब नया पद्दा चाहिये।

सच्चे डगर से दोस्ती कर लो

दिन में अ घेरा हो जहां,
वहाँ रात में भी, ट्यूब लाइट से उजाला है ।
सब अन्दाज निराला है यहाँ
सच्चे मोती सब सुडौल हो न हों
नकली मोती सुडौल होते हैं ।
नकली का असली पर ज़ोर है इतना,
अधिकतर यहाँ नकली खरीददार होते हैं ।
नकली के संग से नकलियत ही आयेगी ।
प्लास्टिक के फूलों से खुशबू कहां आयेगी ।
चलो ! गुलशन से दोस्ती कर लो ।
कुछ जुल्म दुनिया के सहकर,
सच्चे सागर से दोस्ती कर लो ।
hindi-kavita-गुलदस्ता-guldasta

एकता की कड़ियां जोड़ डालो

एक ईजाद इन्सान का ताला,
पिला रहा मानव को हाला।
हर रात सांकल बज रहा
लग रहे ताले घरों घरों के बीच में ।
कैद हो गया इन्सान अपने ही हाथों
अपने ही बनाये घरों मे।
डर रहा अपने ही भाई से
घुस न जाये घुसपैठिया बन
खतरा कर रहा महसूस
ताला लगा रहा, सांकल बजा रहा
खुश है पक्षी, स्वच्छन्द सदा रहता है;
बिना ताला लगाये घोसले में मजे से रहता है
डर है उसे आदमी से-...
दूर अपना बसेरा बनाया है
डालना ही है ताले तो, जुबा पर डालो
बोलने के पहले कुछ सोंच डालो
प्यार एकता की निशानी है,
जिन्दगी जीने की कड़ियाँ जोड़ डालो।

एकता के नाम पर कितनी विघटित हुई

तपती धूप में
रेत के मैदान में
कैक्टस सी जिन्दगी!
कटीले जिन्दगी का
पथ पथरीला है
आबादी के देश में
हर कोई "अकेला" है
दौड़ यहां लम्बी है
गिरने का खतरा है
अधिकारों के होड़ में
बाजार यहाँ गर्म है।
नैतिकता के मूल्य पर
यहाँ खरीदार कम
गुमराही के मूल्य पर बिक रहे आदमी
आबादी की दौड़ में
जमी भी दल-दल बनी
एकता के नाम पर
कितनी विघटित हुई।
मेरी ये पुकार
चुपचाप चलते रहो !
दाहिने और बायें देखते
पीछे की आवाज सुनते रहो
आगे भी खतरा है
पीछे भी संगीनें है
तैरने की बात सोच
सकल्प का पतवार बना
सत्य का कर्तव्य बोध
साहस संदेश है।
कैक्टस सी जिन्दगी! कभी कोई फूल प्रेम
बढ़कर अपने तरफ
अपनी ही बगिया को
मुझसे सजायेगा !

मेरे मन के मीट

तुमने जीवन के बोझ सहे ।
कड़वे-मीठे घूट बहुत
फिर भी विचलित न न हुये
धन्य है तेरा जीवन ।
तूफां कितने आये, गये
तृण-तृण टूट चले जीवन के
फिर भी कैसी तेरी गरिमा
जोड़-जोड़ कर तुमने अपने
दे. पंख धरा पर हिम्मत दो।
उड़ने को उड़ता शेखी से
स्वाभिमान की रक्षा की ।
देकर मन का विश्वास अमर
लांघे कितने दुर्गम खायी ।
दर्द भरे रिश्तों को तूने खूब निभाया,
हंस-२ कर हसिकाओं में ।
पाया यह तुमने वरदान कहां से ?
साहस सत्-सत् नमन तुम्हें !
जो साथ सदा मेरे रहते ।
मेरे मन के मीत ! चिर रहना मेरे जीवन में ।

नया शब्द-कोष वह कहाँ ढूढ

गगन से गिरकर
पेड़ों से लटककर
पृथ्वी पर सरकार
चलती हुई जिन्दगी का हमसफर कौन ?
पूछता हूँ
सत्य और असत्य के दो राहे पर खड़ा
ढूढ़ता शब्द कोष वह
बचपन में जो पढ़ा था
अब सब झूठा यहां लगता है ।
परिभाषायें मान्यतायें सब यहां
बदली हुई।
नया शब्द-कोष बह कहा ढूढू ?
आज के मान्यताओं के शब्दार्थ जहाँ मिलते हैं।
लगता है जो कुछ सिखया हमारे गुरुओं ने
सब भूल,
नया सब कुछ फिर से यहाँ ।
रोजी और रोटी के चकर में सीखना पड़ेगा।
सत्य के जिस छोर पर खड़ा हूं
वह कितना जीर्ण हो चुका है ।
जीवन की कसोटी का गुरू, जो राहें दिखा गया था,
वह खुद किसी डर से
किसी खोह में छिप गया है या छिपाया गया है
पूछता हूँ।

सन्मार्गों की रुसवाई पर

कहते हैं जलने के लिये, आग काफी है नहीं ।
प्यास बुझाने के लिये, पानी काफी है नहीं ।
जिन्दगी कट नहीं सकती, प्यार के बिना ।
जाम कोई पी नहीं सकता, जुदाई के बिना।
हम जीवन जीने आज चले
गम की दुनियां खोज बढ़े ।
इन्सां की चतुराई पर
सन्मा्गों को रुसवाई पर
बेबस हुए इन्सान का
चूस तुमने खून
अपने घर के चिराग जलाये होंगे ।
रोशनी रोई अधेरे नाम पर,
उन्होंने समझा, दिया जलाया है ।
चिराग ऐसे मत जलाओ तुम,
टप के हैं आँसू चिरागों के ।
चिराग खुद तो जलती है
तुम और क्यों जलाते हो?

फिरका परस्ती से कितने दूर हों मगर

जला के कितने ही चमन
हमने अपना घर जलाया है ।
जला-जला के शमा कितने
दिल को जार -जार पाया है।
कितनो ही हस्ती मिटा हमने
खुद अपनो हस्ती मिटाई है।
कितनी ही श्वासे जली सुबह-ओ-शाम
किस दिल को सीने से लगाया हमने
मुरादे हस्र कितने थे ही मगर
हर एक को तिन के की तरह जलाया मैंने
फिर भी रोशन न हुए जमाने के चिराग
अँधेरे मे हमने शहर बसाया है
फिरका परस्ती से कितने दूर हो
एक छोटे से दाग पाया है ।
बेदाग जमाने की चाह "अकेला" सबको है मगर,
हर दामन पे दाग पाया है।

तितली से तुम सीख लो

मानव की माया बड़ी
माया में ही समाया ।
सबका भक्षण कर रहा,
फिर भी दिल न अधाय ।
मानुष की काया सहज
नहीं है कोई भाय
ईश्वर इससे ऊपजा
जिसमें सब है समाय ।
फिर भी देखे ना दिखे
जीव-जश की बात
हाथ अगर तुम पकड लो
हाय न पकड़ा जाये।
कर अंगुली पच इन्द्रिय
थने-जमे सब साथ
थोड़ा सा वह रुक चले
जैसे दिल में समाय ।
मानुष से तितली भली
देखो रंगी बहार ।
जीवन सिंचित कर रही
देखो राग पराग ।
तितली से तुम सीख लो;
जीवन का अनुराग ।

अपने सुन्दर रंग से सजाओ

बच्चों ! घर में पढ़ने का जहां
तुम्हारा कमरा हो;
वहीं किताबों के पास
एक "गुलदस्ता" सजाओ !
फूलों की खुशबू से
कुछ चेतना जगाओ !
देश के एकता की कड़ी
रग-रग में रम जायेगी।
प्रातः उठते ही गुलदस्ता सजाओ ।
वैसे गुलदस्ते के फूल तुम्हीं हो
'गुलदरता' तुम्हारा देश अपना ।
अपने को गुलदस्ते का
खूब सूरत फूल बनाओ ।
अपने देश को
अपने सुन्दर रंग से सजाओ ।

दस्तक दिये जा रहा हूं

चम्पई धूप की दस्तक पिटारी में भरे
प्रातः का नव संदेश ले
सांकल बजाता हूँ
खोल दो पट दरवाजों के
मैं तुन्हें जगाने आया हूँ।
सोना अब नहीं अच्छा
दिल की दूरी मिटाने आया हूँ ।
अधिकारों ने सुलाया था तुम्हें
अब उनमें नव चेतना जगाने आया हूँ।
खुल गया पट तिमिर का,
तिमिर का अब भाग जाना कहो ।
दस्तक का हौसला बुलन्दी पर
दर-दर दस्तक पर दस्तक दिये जा रहा हूँ
जगने और जगाने के लिए ।

खुशबू जिसकी आज तलक

भारत गौरव की भूमि
हरिश्चन्द्र का सत्य-पथ-दर्शन,
गौतम का तप-पप दर्शन
याद दिलाये हमें
गाँधी का अहिंसा-पथ-दर्शन
कहते हैं उन्हें नतमस्तक होकर
राष्ट्र पिता हम ।
नेहरू भी चल पड़े शान्ति पथ,
लाज बहादुर का नारा भी गूजा जय-जवान, जय-किसान ।
दिग दिगन्त में।
मिली हुई जो आजादी हमको,
हम प्रहरी भारत मां के रखवाले,
रग-रग में बसा खून है, बीर शहीदों के जोहर का ।
कितने झूले फदे फांसी के
आती है आवाज क्रांति के नारों की ।
कैसे भूल सके हम भारतवासी ।
ये सब थे भारत-गुलदस्ते के ।
प्यारे फूल मनोहर ।
खुशबू जिसकी आज तलक
बनी हुई है जन-मानस के नस नस में ।

उसकी रोटी

रोटी पकती घर-घर,
मिटती इससे भूखा सदा,
सदिओ से देखा।
गोल-गोल, श्वेत-श्वेत
कुछ रक्तिम इसका भेद
याद दिलाती
एक श्रमिक के
श्रम का फल।
चखते हम नित नए रूप
उसको देकर ।
पर मुझको दिखता
कुछ और रूप रोटी में ।
फटे वस्त्र में तपता
कभी घूप में
कभी सदं सी हवा,
जो कंपित करती दिल को ।
भू पर सोते सतत साधना उसको देखो
फिर भी मिट्टी के थाली में
सूखी रोटी उसकी ।
भूखे साधन-हीन विचारे
उसके बच्चे।
यह कैसा अन्याय, हमारे पालनहारे ?
छा जाता तेरा रूप ! जब रोटी होती मेरे सन्मुख ।
रोटी सस्तो अपनी जितनी, उतनी मंहगी उसकी रोटी ।
 

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