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हिंदी कविता
गुलदस्ता भाग 2
Guldasta Part 2
गुलदस्ता भाग २ ,आप के लिए नई रचनाये है
खोल आंखें जरा
दिनकर मचल रहा देखो
खिड़की के अन्दर घुस गया देखो
दिन में हम सो रहे देखो
घुस गया घुसपैठिया हमारे सामने देखो
कर रहा है हमारे घर को नापाक देखो
अब भी आंख न खुली अपनी
आतताई हम सबको खोखला कर रहा देखो
"एकता" हमारी खतरे मैं पड़ रही देखो
धर्म-धर्म में पैदा कर रहा टक्कर देखो
अब भी खोल आँखें जरा..
"एकता" से तिरंगा का रंग रोशन कर दो ।
पसंद की बात से
पसंघे की बात से, तराजू परेशां है।
कभी वकील के दवि से
कभी पेशकार की डेट से
अपराधी के पैसे की चोट से
जनता परेशां है।
न्याय का कोटा न्याय के पक्ष में
जज की कुरसी से चिपका हुआ बेबस परेशां है।
न्याय का को दलालों की चपेट से
झूलता है।
गवाही के जमाने में
नकली गवाहों से
खरीदी जुबानों से
एक-एक न्याय को
जज की कलम से लिखवाने को
झूलती है"पन्द्रह से बीस साल ।
जवानी पर बुढ़ापे का लेप
लग जाता है अदालत में आने से।
इतने लम्बे असे में,
अपराधी कुलाचे मारता
उत्तरी धू व से दक्षिणो घृ.व तक पहुंच जाता है
शासन चुप है
दोषी खुश है
जज बेसुध है। कुर्सी पर बैठे बैठे कुर्सी भी जर्जर है।
न्याय का काटा परेशां है, बेबस हैं।
भ्रामक सूरज उगाये हुए
सूर्य भी परेशां है, कोहरे की चलन ।
चांद भी परेशा है, बादलों की चलन ।
चांद लड़ता रहा, सूर्य जगता रहा ।
मैं परेशां रहा उसकी नादानी पर ।
धरती पर बसे, अब गजब ढा रहे।
कत्लेआमो की जिद से
खून के रंग से
वरछी की चमक से
एक भ्रामक सूरज
उनाये हुए
किसको है फुसंत चांद को निहारे ।
जहाँ अबला पड़ी, चीखे पूकारे ।
मां का दर्जा नहीं, शायद वह भूला हुआ ।
झंडे का केसरिया रंग अब जल्दी
किसी पर चढ़ता नहीं।
दौड़ है हर तरफ
भेडों की तरह चरवाहा भटक गया
भेड़ों के भीड़ में।
हम कहां जा रहे ! हमको खबर नहीं।
सूर्य और चन्दा अब भी
अपनी मंजिल पर डटे रहे /रहेंगे
रोशनी धरा पर यू ही देते रहे/ रहेंगे।
देख लो इक नजर, मैं हूँ "अकेला" यहाँ
......मेरी आवाज तुम तक
क्यों जाती नहीं!
शहीदों से
दे दो मन की एक पिपासा
बही छबी जो नैनन तेरी
बना दिया अति सुन्दर तुमने मातृभूमि को ।
दे दो मन का नव निर्मित सपना
करना जिस पर प्राण निछावर मातृ-भूमि हित ।
सजा लिया अति गौरवमय रूप जो तुम ने अपना ।
दे दो वह आज गान का
गाया तुमने दिग-दिगन्त में।
जगा दिया तुमने, सोते से सोने वालों को ।
दे दो वह मुक्त हास
सदा खिला रहता जो तेरे चेहरे पर ।
स्वांस स्वांस जो अर्पित तेरा देश-धरा पर ।
दे दो वह कर्तव्य-बोध
छोड़ सुब, तुमने जो चुना देश - हित ।
फांसी पर चढ़ गये, देश-गान
फिर भी
जिहा पर ।
करू' निछावर मैं भी अपना
तन-मन-धन सब राष्ट्र-हितों में ।
दो ऐसा वरदान, देश के ववीर शहीदों।
कर देंगे भष्मसात !
आजादी के मतवालों ने
की थी कितनी कुर्बानी ।
हम रखवाले आजादी के
प्रहरी भारत माँ के ।
कभी झुकें मा पलकें।
अंग-२ से रोम-२ से निकल रही है
देश-प्रेम से सिंचित जल-कण ।
आँखों में बस एक तिरंगा मचल रहा है ।
जीवन को जब तक जलती बाती
नहीं झुकेंगे चाहे जितनी आंधी आए ।
तब कुछ सहकर भारत मां की अखण्डता
और एकता का व्रत को चुना है हमने,
कर देंगे भस्मसात दुश्मन अंकुर
पनप रहे जो उनके दिल में ।
उदय हो रहा नव प्रभात
बिगुल बज रहा कहीं, उदय हो रहा नव प्रभात ।
जागो! जागो! जागो!
हो रहे गुमराह हम, भूल मानव का हक मानव के प्रति ।
पहुँच रही आवाज, धरा से गूंज गगन तक ।
हो गयी खबर अब चंदा, सूरज को भी
डर हमें हो रहा कहीं बगावत न कर बैठे,
चंद्र, सूर्य व तारे ।
हो रही घरा भी कपिता
उठने को आतुर बन ज्वाला मुखी
अब भी जागे कर्तव्य प्रेम का हमें जगाने आई ।
जागे हम सब, गायें, प्रेम -गीत सुमधुर
चहु दिश फैले उजियारा।
पहचाने हम सब,
एक दूसरे को ।
नया इन्कलाब लाता है।
गीत का हर शब्द जब ले मसाल,
इन्कलाब की बुलन्दियों पर
मचलता है ।
धरा के सुप्त इन्सानों के अन्दर,
जलती ज्वाला-मुखी,
लावा बन वह निकलता है।
गुमराही के पथ पर
लाये हुए हैवानों के सीने पर;
जब यह गुजरता है
एक सोया हुआ जवान जागता है ।
देश की बलिवेदी पर मर मिटने को तैयार
हाथ में ले तिरंगा,
नया इन्कलाब लाता हैं ।
बीसवीं सदी का रावण
रावण छिपे हुए हैं हर तरफ
इरादे नापाक है जिनके।
जटायु बन अब हर नागरिक को,
कमर कसना होना,
चाहे कट जायें पंख कितने ।
राम तक अपना संदेशा पहुंचाना होगा ।
रावण हर रहा हमारो एकता को
अब हनुमान बन लंका जलाना होगा ।
हर कोई रावण नहीं,
खुद में भक कार देखो ।
राम तो रम रहा सबमें,
रावण हार कर देखो ।
हर कोई बना ले दिल को ही मन्दिर
नहीं रावण कोई होगा।
दिल-दिल में बसा होगा राम,
तो फिर;
रावण लंका में जला होगा।
किसने उड़ाया धुन्ध
किसने उड़ाया धुन्ध, गर्दो गुबार देखो!
छा रहा घरा से गगन तक
धुन्ध का हौसला देखो !
छा गई है काई, हर सरित पर देखो !
हर राह पर कांटे, उगकर बड़े हो गये देखो!
जिस्म में पलता हुआ यह चोट,
बन गया नासूर देखो!
सूर्य भी बेचारा कहां तक तपता फिरे,
रात की चांदनी भी कहां तक रोशन करे
घसियारा कहा, काट कंटक पायेगा ।
इतनी देर करते जा रहे हो ।
देश की बर्बादी को,
फिर से बहाल करना होगा
अब एडी से चोटी तक पसीना बहाना होगा।
इंसान हम बनें सब
सारे जहां में कोई, अपना सा बतन नहीं है,
खिलते हैं फूल जिसमें, 'गुलदस्ता' हम सभी हैं ।
धर्म हो या मजहब हर एक से है रिस्ता,
इन्सान हम बने सब इन्सानियत ही मजहब ।
हम सब हैं बालक, भारत हमारी माँ है,
निकले हैं इस धरा से आकाश में चमकने।
सूर्य हम बनेंगे, दिन के हर सफर में,
रात में बन के चन्दा जग को करेंगे रोशन ।
इन्सानियत से ऊंचा कोई धरम नहीं है,
चलना इसी ये हमको भाई सभी है हम सब ।
बन के जब फरिस्ते, आकाश में उड़ेगे।
ले शांति का संदेश जग में अमन करेंगे ।
ढूढ़ना है आत्म दर्शन !
नदियों में बहता जल वही है ।
आदमी से श्वांस का सम्बल यही है ।
फिर भी बदलते जा रहे हम ।
भटकन ही जहां यह चाह तेरी,
सूर्य की रोशनी कहां तक राह देगी।
चांद की चांदनी कहां तक प्यार देगी ।
ढूंढना है आत्म दर्शन
आत्म विश्वास से उपजी,
घरा का प्यार चाहिये।
"एकता" से बटे हुये,
रेशमी धागों का अम्बार चाहिये ।
(गुलदस्ता भाग 1) जारी है
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